Monthly Archives: September 2013

इष्ठनिष्ठा, दृढ़ता व आत्मविश्रांति से सफलता


हनुमानजी श्रीरामजी की आज्ञा से दूत बनकर सीताजी के पास लंका जा रहे थे। रास्ते में देवताओं, गंधर्वों आदि ने उनके बल, पराक्रम व सेवानिष्ठा की परीक्षा के लिए नागमाता सुरसा को प्रेरित किया। तब सुरसा ने विकराल राक्षसी का रूप बनाया और समुद्र लाँघ रहे हनुमान जी को घेरकर अट्टहास करने लगीः “हाઽઽઽ….. हाઽઽઽ…. हाઽઽઽ….. कपिश्रेष्ठ ! आज विधाता ने तुम्हें मेरा भोजन बनाया है, मैं तुम्हें नहीं छोड़ूँगी। तुम शीघ्र मेरे मुँह में आ जाओ।” ऐसा कहकर उसने अपना भयंकर मुँह खोला।

एक सच्चे सेवक के लिए स्वामी की सेवा, उनकी आज्ञा से बढ़कर कुछ नहीं होता। ʹराम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम।ʹ – ऐसी निष्ठावाले हनुमानजी ने नम्रतापूर्वक सुरसा से कहाः “देवी ! मैं श्रीराम जी की आज्ञा से लंका जा रहा हूँ। सीता जी के दर्शन कर राम जी से जब मिल लूँगा, तब तुम्हारे मुँह में आ जाऊँगा। यह तुमसे सच्ची प्रतिज्ञा करके कहता हूँ।”

सुरसा हँसने लगीः “नहीं अंजनीसुत ! मुझे विधाता ने वर दिया है कि ʹकोई तुम्हें लाँघकर आगे नहीं जा सकता।ʹ तुम्हें मेरे मुँह से प्रवेश करके ही आगे जाना होगा।”

एक ओर मृत्यु तो दूसरी ओर स्वामी की आज्ञा थी। ऐसी विकट परिस्थिति में भी हनुमान जी विचलित नहीं हुए बल्कि अपनी अंतर्यामी राम में शांत हो गये। तुरंत अंतर्प्रेरणा मिली और वे सुरसा से बोलेः “तो ठीक है, तुम अपना मुँह इतना विशाल बनाओ की मुझे समा सके।” सुरसा ने अपना मुँह 1 योजन (8मील या करीब 13 किलोमीटर) विस्तृत बना लिया तो हनुमानजी 10 योजन बड़े हो गये। यह देखकर सुरसा ने अपना मुँह 20 योजन जितना फैला दिया। तब हनुमान जी 30 योजन के हो गये। बढ़ते-बढ़ते हनुमानजी जब 90 योजन शरीरवाले हुए तब सुरसा ने अपने मुँह का विस्तार 100 योजन बना लिया, जो एक भयंकर नरक के समान दिख रहा था।

तब बुद्धिमान वायुपुत्र ने झट् से अपना शरीर अँगूठे जितना बनाया और तीव्र वेग से सुरसा के मुँह में प्रवेश कर बाहर निकल आये। वे सुरसा से बोलेः “नागमाता ! मैं तुम्हारे मुँह में प्रवेश करके आ चुका हूँ, इसके तुम्हारा वरदान भी सत्य हो गया। अब मैं श्रीरामजी की सेवा में जा रहा हूँ।”

हनुमानजी की स्वामीनिष्ठा और सेवा में तत्परता देखकर सुरसा ने अपने असली रूप में प्रकट होकर उनको सेवा में शीघ्र सफलता का आशीर्वाद दिया। हनुमानजी की अपने इष्ट की सेवा में निष्ठा एवं बुद्धि-चातुर्य देखकर सब देवता, गंधर्व आदि भी उनकी प्रशंसा करने लगे।

इस प्रकार पहले तो हम अपने जीवन में ऊँचा लक्ष्य बना लें, जैसे हनुमानजी ने लक्ष्य बनाया – अपने इष्ट, अपने आध्यात्मिक पथप्रदर्शक की निष्काम सेवा का। दूसरा, हम अपने उस सत्संकल्प, अपने उस ऊँचे लक्ष्य के प्रति इतने दृढ़ हो जायें कि हमारे भी जीवन में हनुमानजी की वह अडिगता, निष्ठा हर प्रकार से फूट निकले कि ʹप्राणिमात्र के परम हितैषी मेरे सर्वेश्वर का दैवी कार्य किये बिना मुझे विश्राम कहाँ ?ʹ और तीसरी बात, कार्य के बीच-बीच में एवं जब विकट परिस्थितियाँ आयें तब अपने हृदय में सत्ता-स्फूर्ति-सामर्थ्य के केन्द्र के रूप में सदैव विराजमान उस अंतर्यामी में थोड़ा शांत हो जायें, निःसंकल्प हो जायें। इससे दैवी कार्य को उत्तम ढंग से सम्पन्न करने की सुन्दर सूझबूझ व सत्प्रेरणा हमें मिलेगी। सब हमारी प्रशंसा भी कर लें तो भी हमारी अपनी देह में नहीं, अंतर्यामी में आत्मीयता, निष्ठा और सजगता सुदृढ़ होने से हम अपने ऊँचे लक्ष्य से गिर नहीं पायेंगे और केवल उस दैवी कार्य को ही नहीं, अपने जीवन को भी परम सफल बना लेंगे।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2013, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 249

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घर के झगड़ों को कैसे बदलें प्रेम में ? – पूज्य बापू जी


ʹयह बहू तो ऐसी है… क्या करें, आजकल की तो परायी जाइयाँ आयीं, जमाना बिगड़ गया है। वह ऐसी है, फलानी ऐसी है…ʹ अरे ! तू भी तो पराई जाई है। अभी नानी और दादी बनकर बैठी है, तू इस घर की जाई है क्या ! तो सासुमाताओ ! परायी जाइयों की निंदा न करो और बहुरानियो ! चाहे सासु थोड़ा-बहुत कहे, तुम तो कभी सासु की निंदा न करो। यदि आपकी पत्नी और माँ यानी सासु-बहू, देवरानी जेठानी, ननद-भाभी आपस में भिड़ती रहती हैं तो क्या करना चाहिए ?

अकेले में पत्नी को समझाना चाहिए कि ʹतू मेरी माँ की फरियाद करती है, ʹमाँ ऐसी है, वैसी है……ʹ तेरी सारी बातें अगर सच्ची भी मानूँ तब भी मैंने उसका दूध पिया है, मैं उसके गर्भ में रहा हूँ, माँ की निंदा सुनने से मेरे पुण्य व मति मंद होंगे, मेरा प्रभाव नष्ट होगा और पुण्यहीन, मंद-बुद्धि, प्रभावहीन पति से तू कौन-सी संतान लेकर सुखी होगी ? इतना तो समझ ! भोली है तू। इसलिए माँ के खिलाफ मेरे को कुछ न सुनाये तो अच्छा है। मैं तो कहता हूँ कि वृद्धाओं का, माता का दिल जीतना तेरे बायें हाथ का खेल है, तू कर सकती है।ʹ उसको डाँटो नहीं, विश्वास में लो। वह माँ नहीं बनी है तो बोलो, ʹमाँ की सेवा करोगी तो तुम्हारी संतान भी ओजस्वी-तेजस्वी होगी, तुम भी अच्छी आत्मा की माँ बनोगीʹ अथवा माँ बनी है तो ʹगुड्डू की माँ, ललुआ की माँ….ʹ जो भी हो, उसको प्यार से समझाओ। 2-5 बार ऐसा प्रयत्न करोगे तो आपका अंतःकरण पवित्र होगा और पत्नी के हृदय में सासु के प्रति जो ग्रंथि है वह खुल जायेगी। और पत्नी को युक्ति दे दो कि ʹमाँ कितने साल की मेहमान है ! तेरे को मेरे साथ जिंदगी गुजारनी है, मेरे को तेरे साथ जिंदगी गुजारनी है।ʹ – ऐसे विश्वास में लेकर सास बहू का झगड़ा मिटा देना चाहिए।

देवरानी-जेठानी लड़ती हो तो क्या करें ? ʹहे प्रभु ! आनन्ददाता !!…..ʹ प्रार्थना का घर में पाठ कराओ, देवरानी-जेठानी का झगड़ा मुहब्बत में बदल जायेगा। जेठानी का पति कहे कि ʹदेख ! देवरानी ऐसी है, वैसी है….ʹ तू सुनाती है लेकिन वह मेरा छोटा भाई है, बेटे के बराबर है तो उसकी पत्नी तेरी और मेरी बहू के बराबर है। पगली मत बन, दिल बड़ा रख। बड़े का बड़प्पन इसी में है कि छोटे को प्रेम से अनुकूल करे। छोटे को डाँट के, धमका के या उसके ऐब देखकर नहीं उसके गुण देख के, उसकी सराहना करके उसको अनुकूल किया जाता है।ʹ बड़ा भाई अलग से अपनी पत्नी को कहेः ʹअरे कुछ भी है, बड़ा भाई पिता के तुल्य होता है तो बड़ी भाभी मेरी माँ के तुल्य है। तू थोड़ा बड़ा दिल रख न ! बड़ों का तो थोड़े आदर-सत्कार से दिल पिघल जाता है, तू क्यों नहीं बात समझती है ? काहे को भोली बनती है ?ʹ जेठानी ऐसी है, वैसी हैʹ लेकिन वह सब कुछ छोड़कर आयी है, तेरे जैसा त्याग तो है उसमें। तू भी पूरा मायका छोड़कर इधर आ गयी, वह भी मायका छोड़कर आ गयी। दोनों त्यागी-त्यागी होकर आपस में लड़ रही हो एक ही जात की होकर, बड़े आश्चर्य की बात है ! मेरी परीक्षा ले रही हो क्या तुम दोनों देवरानी-जेठानी ?ʹ ऐसा समझाकर उनको राजी कर दें।

ननद-भाभी का झगड़ा है पत्नी को समझा दे कि ʹदेख ! साल दो साल में वह बेचारी पराये घर जायेगी, अभी उसका दिल दुःखा के कन्या की बददुआ तू क्यों ले ! तेरे को भी कन्या होगी फिर वह दुःख देगी तो ! इसलिए माँ की कन्या तेरी अपनी कन्या से भी ज्यादा आदर के योग्य है। ननद के प्रति भाभी का उदार हृदय होना चाहिए, ऐसा शास्त्र कहते हैं।ʹ और ʹहे प्रभु ! आनन्ददाता !!….ʹ प्रार्थना का घर में पाठ करो तथा पड़ोस के बच्चे-बच्चियों को बुलाकर भी पाठ करो।

संघर्ष में, एक दूसरे की निंदा में, एक दूसरे की गलतियाँ खोजने में, एक दूसरे पर आरोप थोपने में हमारी शक्तियों का जितना ह्रास होता है और योग्यताएँ कुठित होती हैं, उतनी शक्ति और योग्यता हम अगर 15 मिनट ʹहरि ૐ….ʹ का गुंजन करने में लगायें तो हमारे दीदार करने वाले का भला हो जायेगा, ऐसी हम सबके अंदर योग्यता छुपी है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2013, अंक 249

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स्वास्थ्य व पर्यावरण सुरक्षा का अमोघ उपायः गाय का घी


देशी गाय का घी शारीरिक, मानसिक व बौद्धिक विकास एवं रोग-निवारण के साथ पर्यावरण-शुद्धि का एक महत्त्वपूर्ण साधन है।

इसके सेवन से-

बल, वीर्य व आयुष्य बढ़ता है, पित्त शांत होता है।

स्त्री एवं पुरुष संबंधी अनेक समस्याएँ भी दूर हो जाती हैं।

अम्लपित्त (एसिडिटी) व कब्जियत मिटती है।

एक गिलास दूध में एक चम्मच गोघृत और मिश्री मिलाकर पीने से शारीरिक, मानसिक व दिमागी कमजोरी दूर होती है।

युवावस्था दीर्घकाल तक रहती है। काली गाय के घी से वृद्ध व्यक्ति भी युवा समान हो जाता है।

गर्भवती माँ घी-सेवन करे तो गर्भस्थ शिशु बलवान, पुष्ट और बुद्धिमान बनता है।

गाय के घी का सेवन हृदय को मजबूत बनाता है। यह कोलेस्ट्रोल को नहीं बढ़ाता। दही को मथनी से मथकर बनाये गये मक्खन से बना घी हृदयरोगों  भी लाभदायी है।

देशी गाय के घी में कैंसर से लड़ने व उसकी रोकथाम की आश्चर्यजनक क्षमता है।

ध्यान दें- घी के अति सेवन से अजीर्ण होता है। प्रतिदिन 10 से 15 ग्राम घी पर्याप्त है।

नाक में घी डालने से-

मानसिक शांति व मस्तिष्क को शांति मिलती है। स्मरणशक्ति वे नेत्रज्योति बढ़ती है। आधासीसी (माइग्रेन) में राहत मिलती है।

नाक की खुश्की मिटती है।

बाल झड़ना व सफेद होना बंद होकर नये बाल आने लगते हैं।

शाम को दोनों नथुनों में 2-2 बूँद गाय का घी डालने तथा रात को नाभि व पैर के तलुओं में गोघृत लगाकर सोने से गहरी नींद आती है।

मात्रा 4 से 8 बूँद।

गोघृत से करें वातावरण शुद्ध व पवित्र

अग्नि में गाय के घी की आहुति देने से उसका धुआँ जहाँ तक फैलता है, वहाँ तक सारा वातावरण प्रदूषण और आण्विक विकिरणों से मुक्त हो जाता है। मात्र 1 चम्मच गोघृत की आहुति देने से एक टन प्राणवायु (आक्सीजन) बनती है, जो अन्य किसी भी उपाय से सम्भव नहीं है।

गोघृत और चावल की आहुति देने से कई महत्त्वपूर्ण गैसे जैसे – आक्साइड, प्रोपिलीन आक्साइड, फार्मल्डीहाइड आदि उत्पन्न होती हैं। इथिलीन आक्साइड गैस आजकल सबसे अधिक प्रयुक्त होने वाली जीवाणुरोधक गैस है, जो शल्य चिकित्सा (आपरेशन) से लेकर जीवनरक्षक औषधियाँ बनाने तक में उपयोगी है।

मनुष्य शरीर में पहुँचे रेडियोधर्मी विकिरणों का दुष्प्रभाव नष्ट करने की असीम क्षमता गोघृत में है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2013, अंक 249

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