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योगःकर्मसु कौशलम्


एक सम्पन्न घराने के इकलौते बालक को पढ़ने का शौक तो था ही, साथ ही लालटेन की रोशनी में चलने का भी बड़ा शौक था। पढ़ने के लिए वह दूसरे गाँव में जाता था। छुट्टी होने के बाद जानबूझकर खेल-कूद में समय बिताता। जब अँधेरा हो जाता तो लालटेन जलाकर घर वापस लौटता था।

एक दिन घर पहुँचने पर उसे पता चला कि लालटेन की ढिबरी (केरोसीन की टंकी का ढक्कन) रास्ते में कहीं गिर गयी है। दूसरे दिन रविवार था। बालक को बेचैनी होने लगी कि ‘आखिर मुझसे ऐसी भूल हुई कैसे ? मैं छोटी सी ढिबरी नहीं सम्भाल पाया !’

बाह्य दृष्टि से देखें तो उसके जैसे सम्पन्न परिवार के बालक के लिए लालटेन की ढिबरी खो जाना कोई बड़ी बात नहीं थी। एक लालटेन बिना ढिबरी की हो गयी तो उसके पिता उसे ढिबरी तो क्या दूसरी नयी लालटेन ही खरीदकर दे सकते थे किंतु बालक के मन में अपनी कार्यकुशलता में कमी का बड़ा भारी दुःख था।

अगला सारा दिन, सारी रात बेचैनी में बीती। सोमवार आया। बालक घर के दरवाजे से ही जमीन पर आँखें गड़ा-गड़ाकर ढिबरी खोजते हुए पाठशाला के रास्ते निकल पड़ा। छोटी सी चीज थी, दो दिन बीत गये थे। रास्ते में पड़ी चीज किसी को दिख गयी हो तो उसने उठा भी ली हो, यह भी हो सकता था। इस प्रकार ढिबरी के मिलने की सम्भावना तो  बहुत कम थी परंतु बालक के मन में अपने से प्रमाद हो जाने की पीड़ा तथा अपनी उस छोटी से छोटी अकार्यकुशलता को मिटाने का चाव बड़ा प्रबल था। चलते-चलते विद्यालय पहुँचने से पहले ढिबरी मिल गयी। बालक को बड़ी प्रसन्नता हुई। आगे चलकर यही बालक ‘स्वामी शरणानंदजी’ के नाम से विख्यात हुआ।

सत्य ही है यदि किसी को एक गिलास पानी पिलाना नहीं आता है तो ध्यान करना भी नहीं आयेगा। छोटे से छोटा काम करने में जो असावधानी करता है वह करने की आसक्ति से मुक्त नहीं हो सकता। और आसक्तिरहित हुए बिना योगवित् होना सम्भव नहीं है। ‘गीता’ में भगवान कहते हैं-

योगः कर्मसु कौशलम्।

पूज्य बापू जी भी यही समझाते हैं कि “जो भी कार्य करें, उसे पूरे मनोयोग से, दिल लगाकर करें। किसी भी काम को आलस्य या लापरवाही से बिगड़ने न दें। जो कर्म को पूरे मनोयोग से करता है उसका आत्मविकास होता है, उसकी योग्यताओं का विकास होता है। उठो…जागो…..दूर करो लापरवाही को और तत्परता एवं कुशलतापूर्वक छलाँग मारो। फिर तो पाओगे कि सफलता तुम्हारा ही इंतजार कर रही है।”

आश्रम के सत्साहित्य ‘पुरुषार्थ परम देव, जीवन रसायन, निर्भय नाद’ आदि का प्रतिदिन अमृतपान करने व उनमें लिखे वचनों पर अमल करने से सजगता, कार्यकुशलता, हिम्मत, साहस और ईश्वर व महापुरुषों की असीम कृपा के भण्डार स्वतः ही खुल जाते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2014, पृष्ठ संख्या 11, अंक 260

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यदि बचाओगे दूसरे के अधिकार तो सब करेंगे आपको प्यार


विजयनगर के प्रजावत्सल सम्राट थे कृष्णदेव राय। वे अपनी प्रजा के सुख-दुःख देखने के लिए अक्सर राज्य में भ्रमण करने के लिए जाते थे। एक बार इसी हेतु से वे अपने बुद्धिमान मंत्री तेनालीराम तथा कुछ सिपाहियों के साथ निकले। एक-एक गाँव देखते-देखते दूर निकल गये। शाम हो गयी। सभी थक गये। नदी किनारे उचित जगह देखकर महाराज ने कहाः ‘तेनालीराम ! यहीं पड़ाव डाल दो।”

विश्राम के लिए तम्बू लग गये। सभी भूख-प्यास से बेहाल थे। आसपास नजर दौड़ाने पर महाराज को थोड़ी दूर मटर की फलियों से लदा खेत दिखा। महाराज ने कुछ सिपाहियों को बुलाकर कहाः “जाओ सामने के खेत में से फलियाँ तोड़कर हम दोनों के लिए लाओ और तुम भी खाओ।”

सिपाही जैसे जाने के लिए पीछे मुड़े तो तेनालीराम ने कहाः “महाराज ! इस खेत का मालिक तो यह वह किसान है जिसने इस खेत में फसल लगायी और इसे अपने पसीने से सींचा है। आप इस राज्य के राजा अवश्य हैं पर खेत के मालिक नहीं। बिना उसकी आज्ञा के इस खेत की एक भी फली तोड़ना अपराध है, राजधर्म के विरूद्ध आचरण है, जो एक राजा को कदापि शोभा नहीं देता।”

महाराज को तेनालीराम की बात उचित लगी, सिपाहियों को आदेश दियाः “जाओ, इस खेत के मालिक से फलियाँ तोड़ने की अनुमति लेकर आओ।”

सिपाहियों को खेत में देख खेत का मालिक घबरा गया। सिपाहियों ने कहाः “महाराज स्वयं तुम्हारे खेत के नजदीक विश्राम कर रहे हैं और अपनी भूख मिटाने के लिए खेत से थोड़ी सी फलियाँ तोड़ने की अनुमति चाहते हैं।” यह सुन उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा ! प्रसन्नता और राजा के प्रति अहोभाव से उसका हृदय भर गया। वह दौड़ा-दौड़ा महाराज के पास पहुँचा।

राजा को प्रणाम किया और कहाः “महाराज ! यह राज्य आपका है, यह खेत आपका। आप प्रजापालक हैं, मैं आपकी प्रजा हूँ। मुझसे अनुमति लेने की आपको कोई आवश्यकता थी फिर भी आपने एक गरीब किसान के अधिकार को इतना महत्व दिया ! आप धन्य हैं !”

किसान खुद सिपाहियों के साथ खेत में गया और फलियाँ तोड़कर महाराज के सामने प्रस्तुत कीं, फिर आज्ञा लेकर गाँव गया।

थोड़ी देर बाद वह वापस आया। उसके साथ गाँव के कुछ लोग और भी थे जो अपने साथ सभी के लिए तरह-तरह की भोजन-सामग्री लाये। इतना अपनापन, प्रेम व सम्मान पाकर महाराज बड़े प्रसन्न हुए।

बुद्धिमान तेनालीराम मुस्कराकर बोलेः “जब हम अपने अहं को न पोसकर दूसरें के अधिकारों का ख्याल रखते हैं तो लोग भी हमारा ख्याल रखते हैं, उनके दिल में हमारे लिए आदर और प्यार बढ़ जाता है और वास्तविक आदरणीय, सर्वोपरि, सर्वेश्वर परमात्मा भी भीतर से प्रसन्न होते हैं।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2014, पृष्ठ संख्या 18, अंक 260

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वर्तमान युग में शिक्षा-प्रणाली और शिक्षकों की भूमिका


(शिक्षक दिवसः 5 सितम्बर 2014)

शिक्षक साधारण नहीं होता है, सृजन और प्रलय उसकी गोद में खेलता है। आचार्य चाणक्य ने एक नन्हें से बच्चे को ऐसी शिक्षा, ऐसे संस्कार दिये कि आगे चलकर वह चक्रवर्ती सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य बना और उसने अखंड भारत के निर्माण का कार्य किया। ऐसे असंख्य उदाहरण हैं इतिहास में। तात्पर्य यह है कि शिक्षक के जीवन एवं शिक्षाओं का विद्यार्थियों पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। शिक्षक ऐसा न समझें कि केवल पुस्तकों में लिखी आजीविका चलाने की शिक्षा देकर हमने अपना कर्तव्य पूरा कर लिया। लौकिक विद्या के साथ-साथ उऩ्हें चरित्र निर्माण की, आदर्श मानव बनने की शिक्षा भी दीजिये। आपकी इस सेवा से भारत का भविष्य उज्जवल बनेगा तो आपके द्वारा सुसंस्कारी बालक बनाने की राष्ट्रसेवा, मानवसेवा हो जायेगी।

मुंडकोपनिषद के अनुसार विद्या दो प्रकार की होती हैः अपरा विद्या और परा विद्या। संसार के बारे में हम जो कुछ भी जानते हैं, वह अपरा विद्या है। जैसे भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, जीव विज्ञान, इतिहास आदि। दूसरी विद्या है आत्मा-परमात्मा का ज्ञान, जो कि देश-काल-कारण से परे है, इसे परा विद्या कहते हैं।

प्राचीनकाल में हमारे शिक्षा-संस्थानों में जिन्हें हम ‘गुरुकुल’ कहते थे, ये दोनों प्रकार की विद्याएँ शिष्य को दी जाती थीं। किंतु आजकल के अधिकांश शिक्षा-संस्थानों में केवल अपरा (लौकिक) विद्या ही दी जाती है, परा (अलौकिक) विद्या को कोई स्थान ही नहीं दिया जाता। आत्माभिव्यक्ति एवं आत्मानुभूति की पूर्णतः उपेक्षा की गयी है। यही कारण है कि केवल आधुनिक शिक्षा को ही केन्द्र बनाने वाले समृद्ध राष्ट्रों की अति दयनीय स्थिति है और उनके विद्यार्थियों में अशांति, ईर्ष्या, तनाव, चिंता, अस्वस्थता आदि कई दुर्गुण-समस्याएँ बाल्यकाल से ही पनप रही हैं।

विकसित राष्ट्रों की दयनीय स्थिति

आज आध्यात्मिकता से दूर रहने वाले सभी देशों में मानसिक अशांति व्याप्त है। युनस्को (संयुक्त राष्ट्र की विशेष संस्था) इस विषय में सर्वाधिक चिंतित है क्योंकि नयी पीढ़ी ने ‘जानने’ के बदले ‘करने’ की शिक्षा अपनायी है। इसलिए नयी पीढ़ी नशा, आत्महत्या आदि समस्याओं और एडस जैसी  बीमारियों की चपेट में आ रही है।

सोचा जाता है कि ‘अधिक सम्पत्ति अर्थात् अधिक सुख’ किंतु सांख्यिकी आँकड़ों से स्पष्ट होता है कि सच्चाई इसके ठीक विपरीत है। अमेरिका, जापान, स्वीडन आदि विकसित देशों में प्रति व्यक्ति आय बहुत अधिक है किंतु वे सुख में नहीं बल्कि तनाव और आत्महत्या में सबसे आगे हैं।

युनेस्को के अनुसार ‘अमेरिक, जापान और स्वीडन में युवावर्ग में 54 प्रतिशत आत्महत्या से होती है।’

जापान के स्वास्थ्य मंत्रायलय के अनुसार 42 और इससे अधिक आयु के 44 प्रतिशत जापानी मानसिक विक्षिप्तता के शिकार हैं।’

शिक्षा-प्रणाली की भूमिका

तनाव व अशांति भरे वर्तमान परिदृश्य को देखते हुए समय की माँग है ‘गुरुकुल शिक्षा-पद्धति की पुनर्स्थापना’, जिससे आजीविका चलाने में उपयोगी विद्या के साथ-साथ विद्यार्थियों को संयम सदाचार, सच्चाई, परदुःखकातरता आदि सदगुण पानी की एवं ईश्वरप्राप्ति की विद्या भी मिले, उनके जीवन में उद्यम, साहस, धैर्य, बुद्धि, शक्ति, पराक्रम जैसे गुणों का सहज में विकास हो और किसी भी प्रकार के छल-कपट तथा मानसिक तनाव के बिना उन्हें हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त हो।

पूज्य बापू जी कहते हैं कि “लौकिक विद्या तो पा ली लेकिन योगविद्या और आत्मविद्या नहीं पायी तो लौकिक चीजें बहुत मिलेंगी लेकिन भीतर अशांति होगी, दुराचार होगा। लौकिक विद्या को पाकर थोड़ा कुछ सीख लिया, यहाँ तक कि बम बनाना भी सीख गये फिर भी हृदय में अशांति की आग जलती रहेगी।

जो लोग योगविद्या और आत्मविद्या का अभ्यास करते हैं, सुबह के समय थोड़ा योग व ध्यान का अभ्यास करते हैं वे लौकिक विद्या में भी शीघ्रता से सफल होते हैं, लौकिक विद्या के भी अच्छे-अच्छे रहस्य वे खोज सकते हैं।

स्वामी विवेकानन्द लौकिक विद्या तो पढ़े थे, साथ ही उन्होंने आत्मविद्या का ज्ञान भी प्राप्त किया था। अतः ऐहिक विद्या को अगर योग और आत्म विद्या का सम्पुट दिया जाय तो विद्यार्थी ओजस्वी-तेजस्वी बनता है। योगविद्या और आत्मविद्या को भूलकर सिर्फ ऐहिक विद्या में ही पूरी तरह से गर्क हो जाना मानो अपने जीवन का अनादर करना है।”

इन्हीं उद्देश्यों से पूज्य बापू जी ने गुरुकुल शिक्षा प्रणाली पुनः आरम्भ की। इन गुरुकुलों में विद्यार्थी ऐहिक सफलता की बुलंदियाँ तो छूते ही हैं, साथ ही योग और आत्मविद्या का भी ज्ञान पाकर अपना इहलोक और परलोक सँवार रहे हैं।

शिक्षकों की भूमिका

डॉ. राधाकृष्णन् ने स्पष्ट शब्दों में कहा हैः “आप केवल ईँटों से राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकते। आपको युवकों के मन-मस्तिष्क को सुदृढ़ करना होगा। केवल तभी राष्ट्र का  निर्माण हो सकता है।”

चरित्र-निर्माण आध्यात्मिकता के बिना असम्भव है। आध्यात्मिक गुरु सम्पूर्ण विश्व को परिवर्तित कर सकते हैं। उनके मार्गदर्शन से समाज का चहुँमुखी विकास होता है।

अतः राष्ट्र-निर्माण के लिए शिक्षकों का कर्तव्य है कि वे विद्यार्थियों को ऐहिक शिक्षा के साथ यौगिक व आध्यात्मिक शिक्षा से भी सुसम्पन्न करें। इससे बच्चों में तीव्र बुद्धि के साथ चारित्रिक व नैतिक गुणों का विकास होगा और तभी विश्वशांति एवं संगठित, समृद्ध राष्ट्र-निर्माण के द्वार खुल पायेंगे। इसके लिए शिक्षकों को भी इन विद्याओं से सुसम्पन्न होना होगा, तभी वे बच्चों को सही शिक्षा दे पायेंगे। अतः शिक्षकों को किन्हीं हयात आत्मानुभवनिष्ठ आध्यात्मिक गुरु से मार्गदर्शन लेना चाहिए और बच्चों को भी इसके लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2014, पृष्ठ संख्या 25,26 अंक 260

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