शरीर की अमूल्य निधिः आँख

शरीर की अमूल्य निधिः आँख


नगरी नगरस्येव रथस्येव रथी यथा।

स्वशरीरस्य मेधावी कृत्येष्ववहितो भवत्।।

(चरक संहिता)

जैसे नगरपति नगर के योगक्षेम और वाहन चालक वाहन की सुरक्षा और सही राह पर चलाने के प्रति सदैव सतर्क रहता है वैसे ही मेधावी व्यक्ति अपने शरीररूपी नगर और जीवन की यात्रा कराने वाले वाहन की देखरेख और सुरक्षा करने तथा इसे सही राह पर चलाने के प्रति सतर्क और सचेष्ट रहता है।

आजकल किशोर अवस्था में ही नजर कमजोर होने से बच्चों को चश्मा लग जाता है। कारण है सिर्फ असंतुलित आहार, ब्रह्मचर्य का पालन न करना एवं उचित पोषक तत्त्वों का अभाव। कुछ बच्चों में यह बीमारी वंशानुगत भी पायी जाती है। आजकल तो दूरदर्शन के साथ-साथ Zee T.V, M.T.V. आदि की बीमारी बच्चों को ऐसी लगी है कि बस, जब देखो तब टी.वी. के सामने। फलस्वरूप पढ़ाई में मन नहीं लगता। देर रात तक जगने व सुबह देरी से उठने से पाचन तंत्र अव्यवस्थित होना, बुद्धि शक्ति का मंद होना, सिर दर्द आदि रोग तो होते ही हैं, साथ ही अधिक टी.वी. देखने से उसमें से निकलने वाली हानिकारक किरणों से आँखों पर ऐसा खराब असर होता है कि परिणामतः चश्मा लगवाना पड़ता है। अतः अपने ही हाथों से अपने पैरों पर कुल्हाड़ी न मारो। थोड़ा विवेक से काम लो। आँखों की सुरक्षा के लिए उचित देखभाव व आहार-विहार पर ध्यान दो।

सावधानियाँ

सुबह सूर्योदय से पहले शय्या का त्याग कर दो। शीतल जल से कुल्ला करके चेहरे को धो लो। तदुपरांत मुँह में पानी भरकर आँखों पर शीतल जल के छीँटे मारों। इससे आँखों को शीतलता मिलती है। जलन शाँत होती है। नेत्ररोग दूर करने में मदद मिलती है।

प्रभातकाल में स्वच्छ वातावरण में घूमना एवं हरियाली देखना भी नेत्रज्योति में वृद्धि करता है।

सुबह-सुबह हरी-हरी घास पर नंगे पैर घूमने से भी आँखों को फायदा होता है।

शहरों में मोटर गाड़ियों के विषाक्त धुएँ, धूल एवं तेज रोशनी से आँखों पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। अतः जितना सम्भव हो इससे बचो। ऐसे वातावरण में से आने के बाद स्वच्छ शीतल जल से आँखों को धोकर ठण्डी पट्टी आँखों पर रखकर थोड़ी देर लेट जाओ।

देर रात तक जगने एवं सुबह सूर्योदय के बाद उठने से आँखों में गर्मी बढ़ जाती है। आँखों में रूखापन, सूनापन आ जाता है। सौम्यता गायब हो जाती है।

आँखों से तेज हवा का सीधा टकराना, मल मूत्र, छींक, जम्हाई एवं अधोवायु आदि के वेग को बलपूर्वक रोकना, ऋतु के अनुकूल आहार-विहार न करना, भोग-विलास में अतिशयता करना…. ये सब शरीर के सर्वाधिक कोमल एवं संवेदनशील अंग आँख को बहुत ज्यादा हानि पहुँचाते हैं। अतः इन सबसे बचो।

नेत्रज्योति को बढ़ाने के अन्य उपाय

त्रिफला चूर्ण को रात्रि में पानी में भिगोकर सुबह साफ कपड़े में छानकर उस पानी से आँख धोने से नेत्रज्योति बढ़ती है।

जलनेति करने से भी नेत्रज्योति बढ़ती है। इससे आँख, नाक, कान के समस्त रोग मिट जाते हैं। आश्रम से प्रकाशित ʹयोगासनʹ पुस्तक में कई प्रकार के रोग आसनों द्वारा मिटाने के लिए एवं आँखों के लिए जलनेति का संपूर्ण विवरण दिया गया है।

एक चम्मच ताजा मक्खन, आधा चम्मच पिसी मिश्री, थोड़ी सी पिसी काली मिर्च मिलाकर चाट लो। तत्पश्चात सफेद नारियल के 2-3 टुकड़े खूब चबा-चबाकर खा लो। ये सभी द्रव्य बहुत पौष्टिक होने से नेत्रज्योति में वृद्धि होती है।

तेज मिर्च-मसालेदार पदार्थ, उष्ण प्रकृति के पदार्थ, खटाई आदि आँखों को नुकसान पहुँचाते हैं। अतः इनका सेवन यदा-कदा अल्प मात्रा में ही करो।

पैरों के तलवों व अंगूठे पर सोम, बुध और शनिवार के दिन सरसों के तेल की मालिश करने से नेत्रज्योति बढ़ती है एवं आँखों के रोग नहीं होते हैं।

आँखों के अन्य रोग एवं निदान

बेलपत्र का रस पीने से और आँखों में आंजने से रतौंधी रोग में आराम होता है।

हल्दी एवं लौंग को पानी में घिसकर थोड़ा-सा गर्म करके पलकों पर लगाने से गुहेरी (अंजनी) दो-तीन दिन में मिट जाती है।

सौ ग्राम पानी में एक नींबू का रस डालकर आँख धोने से कचरा निकल जाता है।

रात्रि को आँवला चूर्ण खाने से, हरियाली देखने से तथा कड़ी धूप से बचने से आँखों की सुरक्षा होती है।

तुलसी का काढ़ा

तुलसी के 10-12 पत्ते, 3-4 काली मिर्च, चुटकी भर सौंठ का चूर्ण, चुटकी भर सैन्धा नमक, इन सबको एक गिलास पानी (लगभग 250 मि.ली.) में डालकर उबालो। जब पानी आधा रह जाय तब उतारकर छान लो। रात को यह काढ़ा पीकर सो जाओ। इसके सेवन के आधा घंटे तक पानी न पियो।

यह काढ़ा सर्दी, जुकाम, मलेरिया, टांसिल्स आदि रोगों को दूर करने में बहुत गुणकारी है। इन रोगों के कारण हाथ-पैर में होने वाले दर्द को भी यह दूर करता है। खाँसी एवं गले की खिंच खिंच (खराश) में भी लाभप्रद है।

सर्पदंश चिकित्सा

सर्प के काटने पर शीघ्र ही तुलसी का सेवन करने से जहर उतर जाता है एवं प्राणों की रक्षा होती है। तुलसी के 50-60 पत्ते खिलाने से विष का फैलना रूक जाता है। इसकी जड़ को मक्खन के साथ पत्थर पर घिसकर लेप बनाकर सर्प के काटे हुए स्थान पर लगाओ। विशेष बात यह कि लगाते समय इस लेप का रंग सफेद होता है और जैसे-जैसे यह लेप जहर खींचता है वैसे-वैसे यह लेप काला पड़ता जाता है। लेप का रंग काला होते ही इसे हटाकर दूसरा लेप लगा देना चाहिए। ऐसा तब तक करो जब तक लेप का रंग काला होना बंद न हो जाय।

यदि सर्प का काटा हुआ व्यक्ति बेहोश हो जाय तो तुलसी के पत्तों का रस, कपाल, गले, पीठ और छाती पर लगाकर मालिश करना चाहिए। रस की दो-दो बूँद कान एवं नाक में थोड़े-थोड़े समय के अन्तराल से टपकाते रहना चाहिए। रोगी होश में आने पर तुलसी का रस पिला देना चाहिए।

विविध प्रयोग

मुँहासों के रोगः तुलसी के पत्तों को पीसकर लुगदी बनाकर मुँह पर लगाने से मुँहासे के दाग धीरे-धीरे दूर हो जाते हैं।

मुँहासेः एक कप दूध को खूब उबालो। जब दूध गाढ़ा हो जाय तब उसे नीचे उतार लो। उसमें एक नींबू निचोड़ दो। साथ ही हिलाते रहो जिससे दूध व नींबू का रस एक हो जाय। फिर ठण्डा होने के लिए रख दो। रात को सोते समय इसे चेहरे पर लगाकर मसलो। चाहो तो एक डेढ़ घण्टे के अन्दर चेहरा धो सकते हो या रात भर ऐसे ही रहने दो। सुबह में धो सकते हो। इस प्रयोग से मुँहासे ठीक होते हैं। चेहरे की त्वचा कांतिमन बनती है।

पेटदर्दः वायु प्रकोप के कारण पेट फूलने से एवं अधोवायु के न निकलने से पेट का तनाव बढ़ता है जिससे बहुत पीड़ा होती है। चला भी नहीं जाता है। अतः अजवायन एवं काला नमक दोनों को पीसकर समान मात्रा में मिलाकर रख लो। इस मिश्रण को एक चम्मच मात्रा में गर्म पानी के साथ फांकने से अधोवायु निकल जाती है। साथ ही पेट का तनाव व दर्द भी मिट जाता है।

आधे सिर का दर्द (आधासीसी)- गाय का शुद्ध ताजा घी सुबह शाम दो-दो बूँद नाक में टपकाने से दर्द में लाभ होता है।

सिर के जिस तरफ के भाग में दर्द हो उस तरफ के नथुने में चार-पाँच बूँद सरसों का तेल डालने से दर्द बंद हो जाता है।

मुँह के छालेः छाले कब्जियत एवं जीर्णज्वर के कारण होते हैं। अतः रात को भोजन के पश्चात एक दो हरड़ चूसो। इससे आमाशय व अन्तड़ियों के दोषों के कारण महीनों तक ठीक न होने वाले मुँह के छाले जल्दी ठीक हो जाते हैं।

सुबह 8-10 तुलसी के पत्ते खाकर ऊपर से पानी पियो। इससे भी फायदा होता है।

सुहागा, शहद मिलाकर छालों पर लगाने से, मुलहठी का चूर्ण चूसने से छालों में लाभ होता है।

जिसे मुँह के छाले बार-बार होते हों उसे टमाटर अधिक खाना चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 1996, पृष्ठ संख्या 15,16,17 अंक 46

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