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वास्तविक कल्याण का मार्ग


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

2 मई, 1999-नारद जयंती पर विशेष

एक दिन राजा उग्रसेन ने भगवान श्रीकृष्ण से कहाः “जनार्दन ! सब लोग नारदजी के गुणों की प्रशंसा करते हैं। अतः तुम मुझसे उनके गुणों का वर्णन करो।”

सच ही है, जो अपनी प्रशंसा स्वयं नहीं करता, सर्वत्र नारायण के नाम-कीर्तन व गुणगान में ही अनुरक्त रहता है, उसकी प्रशंसा सभी लोकों में विस्तरित हो जाती है तथा भगवान स्वयं उसका गुणगान करते हैं।

वास्तव में गुणहीन पुरुष ही अधिकतर अपनी तारीफ के पुल बाँधा करते हैं। वे अपने में गुणों की कमी देख दूसरे गुणवान पुरुषों के दोष बताकर उन पर आक्षेप किया करते हैं। उनका यह कृत्य निंदनीय साबित होता है। किन्तु जो दूसरों की निंदा व अपनी प्रशंसा नहीं करता, ऐसा सर्वगुण-संपन्न विद्वान ही यश का भागी होता है।

फूलों की पवित्र एवं मनोहर सुगंध बिना बोले ही महककर अनुभव में आ जाती है तथा सूर्य भी बिना कुछ कहे ही आकाश में सबके समक्ष  प्रकाशित हो जाता है। इसी प्रकार विद्वान पुरुष गुफा में छिपा रहे, आत्मप्रशंसा न करे तो भी उसकी प्रसिद्धि सर्वत्र हो जाती है जबकि मूर्ख मनुष्य अपनी तारीफ की पुलें बाँधता रहता है, फिर भी संसार में उसकी ख्याति नहीं होती। नारदजी मनुष्य, देव, दानव सबको सम्मान रूप से प्रिय हैं। संपूर्ण गुणों से सुशोभित, कार्यकुशल, समय का मूल्य समझने वाले और आत्मतत्त्व के ज्ञाता नारदजी के गुणों की चर्चा भगवान श्री कृष्ण करते हैं-

एक समय गालव मुनि ने कल्याण प्राप्ति की इच्छा से अपने आश्रम पर पधारे हुए ज्ञानानंद से परिपूर्ण व मन को सदा अपने वश में रखने वाले देवर्षि नारद से पूछाः

“भगवन ! आप उत्तम गुणों से युक्त और ज्ञानी हैं। लोकतत्त्व के ज्ञान से शून्य और चिरकाल से निवारण सर्वगुणसम्पन्न आप जैसे ज्ञानी महात्मा ही कर सकते हैं।

शास्त्रों में बहुत से कर्तव्य-कर्म बताये गये हैं। उनमें से जिसके अनुष्ठान से ज्ञान में मेरी प्रवृत्ति हो सकती है, उसका मैं निश्चय नहीं कर पाता हूँ। इसलिए मैं आपकी शरण में आया हूँ। आप कृपा करके मुझे श्रेय (कल्याण) के वास्तविक मार्ग का उपदेश कीजिये।”

नारदजी कहते हैं- “तात ! जो अच्छी तरह कल्याण करने वाला और संशय से रहित हो, उसे ही ʹश्रेयʹ कहते हैं। पापकर्म से दूर रहना, पुण्यकर्मों का निरन्तर अनुष्ठान करना, सत्पुरुषों के साथ रहकर सदाचार का ठीक-ठाक पालन करना, सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति कोमल एवं व्यवहार में सरल होना, मीठी वाणी बोलना, देवताओं, पितरों और अतिथियों को उनका भाग देना तथा भरण-पोषण करने योग्य व्यक्तियों का त्याग न करना-यह श्रेय का निश्चित साधन है।

सत्य बोलना ही श्रेयस्कर है। मैं तो उसे ही सत्य कहता हूँ, जिससे प्राणियों का अत्यंत हित होता हो।

अकेले रहकर धर्म का पालन, धर्माचरण पूर्वक वेद वेदान्तों का स्वाध्याय तथा उनके सिद्धान्तों को जानने की इच्छा कल्याण का अमोघ साधन है।

जिसे कल्याण-प्राप्ति की इच्छा हो उस मनुष्य को शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध-इन विषयों को अधिक सेवन नहीं करना चाहिए।

रात में घूमना, दिन में सोना, आलस्य, चुगली, गर्व, अधिक परिश्रम करना अथवा परिश्रम से बिल्कुल दूर रहना-ये सब बातें श्रेय चाहने वाले के लिए त्याज्य है।

दूसरों की निंदा करके अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। साधारण मनुष्यों की अपेक्षा अपने में जो विशेषता है, वह उत्तम गुणों द्वारा ही प्रकट होना चाहिए।

मनुष्य को सदा धर्म में लगे रहने वाले साधु-महात्माओं तथा स्वधर्मपरायण उदार पुरुषों के समीप निवास करने का प्रयास करना चाहिए।

किसी कर्म का आरंभ न करने वाला और जो कुछ मिल जाये उसी से संतुष्ट रहने वाला पुरुष भी पुण्यात्माओं के साथ रहने से पुण्य का और पापियों के संसर्ग में रहने से पाप का भागी होता है।

जैसे जल और अग्नि के संसर्ग से क्रमशः शांत और उष्ण स्पर्श का अनुभव होता है, उसी प्रकार पुण्यात्माओं और पापियों के संग से पुण्य एवं पाप दोनों का संयोग हो जाता है।

जो पुरुष अपनी रसना का विषय समझकर स्वादु-अस्वादु का विचार रखते हुए भोजन करते हैं उन्हें कर्मपाश में बँधे हुए समझना चाहिए। रसास्वादन की ओर दृष्टि न रखकर जीवन-निर्वाह के लिए भोजन करना ही श्रेय है।”

निन्दक और पाखण्डियों के संग से दूर रहने का उपदेश देते हुए देवर्षि नारदजी ʹमोक्षधर्म पर्वʹ में कहते हैं-

आकाशस्थ ध्रुवं यत्र दोष ब्रुयुर्विपश्चिताम्।

आत्मपूजाभिः कामो वै को वसेत्तत्रः पण्डितः।।43।।

यत्र संलोडिता लुब्धैः प्रावशो धर्मसेतवः।

प्रदीप्तमिव चैलान्तं कस्तं देशं न संत्यजेत्।।44।।

“जहाँ के लोग बिना किसी आधार के ही विद्वानों पर दोषारोपण करते हों, उस देश में आत्मसम्मान की इच्छा रखने वाला कौन मनुष्य निवास करेगा ?”

जहाँ लालची मनुष्यों ने प्रायः धर्म की मर्यादाएँ तोड़ डाली हों, जलते हुए कपड़े की भाँति उस देश को कौन नहीं त्याग देगा ?”

पापकर्म से जीविकोपार्जन करने वाले लोगों के संग से दूर रहने का उपदेश देते हुए कहते हैं किः

कर्मणा यत्र पापेन वर्तन्ते जीवितेप्सवः।

त्यवधावेत्ततस्तूर्ण ससर्पाच्छरणादिवं।।47।।

“जहाँ जीवन की रक्षा के लिए लोग पापकर्म से जीविका चलाते हों, सर्पयुक्त घर के समान उस स्थान से तुरंत दूर हट जाना चाहिए।”

अन्त में, पापकर्म से दूर रहने की प्रेरणा देते हुए नारदजी साधकों को सावधान करते हैं किः

येन खटवां समारूढ कर्मणानुशयी भवेत्।

आदि तस्तन्न कर्त्तव्यमिच्छता कुभवमात्मेनः।।48।।

“अपनी उन्नति की इच्छा रखने वाले साधक को चाहिए कि जिस पापकर्म के संस्कारों से युक्त हुआ मनुष्य खाट पर पड़कर दुःख भोगता है, उस कर्म को पहले से ही न करें।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 1999, पृष्ठ संख्या 5,6 अंक 77

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भक्ति के दुःखों की निवृत्ति


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

ʹश्रीमद् भागवत माहात्म्यम्ʹ के प्रथम अध्यायच में कथा आती हैः

एक बार नारदजी विचरण करते-करते भगवान श्रीकृष्ण की लीलास्थली वृंदावन में जा पहुँचे।  वहाँ पर उन्होंने देखा कि एक युवती के पास दो वृद्ध पुरुष अचेत से पड़े हुए हैं और वह युवती कभी उन्हें होश में लाने का प्रयत्न करती है तो कभी उनके आगे रो पड़ती है। उस युवती के चारों ओर सैंकड़ों स्त्रियाँ घेरकर बैठी हैं जिनमें से कोई तो उसे पंखा झल रही हैं और कोई उसे ढाढस बँधाने का प्रयत्न कर रही हैं। इतने में उस युवती की नजर नारदजी पर पड़ी और वह खड़ी होकर नारदजी से बोलीः

भो भोः साधो क्षणं तिष्ठ मच्चिन्तामपि नाशय।

दर्शनं तव लोकस्य सर्वथाघहरं परम्।।

बहुधा तव वाक्येन दुःखशांतिर्भविष्यति।

यदा भाग्यं भवेद् भूरि भवतो दर्शनं तदा।।

(श्रीमद् भागवतमाहात्म्यः अ. 1 श्लोक 42-43)

“हे महात्मा जी ! क्षणभर ठहर जाइये और मेरी चिंता को भी नष्ट कर दीजिये। आपका दर्शन तो संसार के सभी पापों को सर्वथा नष्ट कर देने वाला है।

आपके वचनों से मेरे दुःख की भी बहुत कुछ शांति हो जाएगी। मनुष्य का जो जब बड़ा भाग्य होता है, तभी आपके दर्शन हुआ करते हैं।”

नारदजी ने पूछाः “तुम कौन हो ?”

युवतीः “मेरा नाम भक्ति है। द्रविड़ देश में मैं उत्पन्न हुई, कर्नाटक में बढ़ी, महाराष्ट्र में सम्मानित हुई और गुजरात में अंग-भंग हुई। अब वृंदावन में आकर मैं थोड़ी पुष्ट हुई हूँ लेकिन यहाँ आकर मेरे दोनों पुत्र ज्ञान और वैराग्य कलियुग के प्रभाव से वृद्ध होकर मूर्च्छित हो गये हैं। होना तो यह चाहिए कि माँ बूढ़ी हो और बेटे जवान, लेकिन यह तो उलटा हो गया है। बेटे वृद्ध होकर मूर्च्छित पड़े हैं। कई उपाय करने पर भी इनकी मूर्च्छा नहीं टूटती। महाराज ! आपके दर्शन से मेरे हृदय के ताप मिट रहे हैं। आप कुछ देर और ठहरिये।”

संत के दर्शन से पातक नष्ट होते हैं और पातक नष्ट होने से हृदय का ताप निवृत्त होता है। नानकजी ने भी कहा हैः

संतशरण जो जन पड़े, सो जन उधरणहार।

संत की निंदा नानका, बहुरि-बहुरि अवतार।।

नानक जी ने यह भी कहा हैः

बड़भागी ते जन जगमाहीं, सदा-सदा हरि के गुन गाहीं।

राम नाम जो करहिं विचार, ते धनवन्ता गने संसार।।

भक्ति रो रही है और हमें यही सीख दे रही है कि अगर भक्ति करनी है तो ज्ञान और वैराग्य को जागृत रखो। तुम जिसकी भक्ति करते हो, उस परमेश्वर के स्वरूप का ज्ञान ही न होगा तो तुम किसकी भक्ति करोगे ?ʹ भगवान क्या है ? आत्मा क्या है ? परमेश्वर क्या है ? मुक्ति कैसे होती है ? वह परमात्मा हमारी आत्मा है तो मिले कैसे ? जगत की उत्पत्ति कैसे हुई ? बदलने वाले जगत को भी जो देख रहा है, वह अबदल तत्त्व क्या है ?ʹ ऐसा ज्ञान चाहिए और सुख-दुःख व संसार के राग-द्वेष की निवृत्ति के लिए वैराग्य होना चाहिए। अगर जीवन में भक्ति के साथ ज्ञान-वैराग्य नहीं होंगे तो भक्ति रोती रहेगी।

भगत जगत को ठगत है, भगत को ठगे न कोई।

एक बार जो भगत ठगे, अखण्ड यज्ञफल होई।।

भक्त का मतलब बुद्ध नहीं, आलसी नहीं, प्रमादी नहीं…. जिसका मन  आत्मा परमात्मा में निमग्न रहता हो, उसका नाम है भक्त। नानक जी भक्तशिरोमणि थे। प्रह्लाद, मीरा, कबीरजी आदि भी भक्तशिरोमणि थे।

भक्ति नारदजी से प्रार्थना करती हैः “महाराज ! आप मेरे दुःखों को निवृत्त कीजिये।”

तब नारदजी ने शपथ लीः “यदि मैंने तुम्हारे पुत्रों का जागृत न किया और तुझे घर-घर में, हृदय-हृदय में स्थापित न किया तो मैं भगवान का भक्त नहीं।”

देखो, सच्चे भगवद् भक्तों का कैसा निश्चय होता है ! कितनी हिम्मत होती है ! कितना सामर्थ्य होता है उनके संकल्प में ! एक सामान्य आदमी भी अगर दृढ़ संकल्प करता है कि ʹमुझे यह शुभ कर्म करना हैʹ तो ईश्वर की सत्ता उसे सहयोग देती ही है और देर-सबेर वह उसे दैवी कार्य में सफल होकर ही रहता है। जिस कार्य से बहुतों का हित होता है, मंगल होता है उस कार्य को करने का विचार यदि एक साधारण व्यक्ति भी अपने मन में ठान लेता है, तो हजारों-लाखों व्यक्ति देर सबेर उसके साथ सहयोग करने के लिए जुड़ जाते हैं।

भक्त यह सदैव याद रखे किः “मैं अकेला नहीं हूँ। सच्चिदानंद परमात्मा हमेशा मेरे साथ है। मेरे साथ उस परमेश्वर की सत्ता विद्यमान है। मैं अकेला नहीं हूँ। अनन्त-अनंत शक्तियाँ मेरे साथ हैं।ʹ

एक साधारण-सी लड़की भी यदि सत्कर्म करने की कोई बात ठान लेती है तो  परिस्थितियाँ उसके अनुकूल होने के लिए बाध्य हो जाती हैं।

बुद्ध के जमाने में एक बार श्रावस्ती नगरी में अकाल पड़ा। अकाल भी ऐसा कि बालक, बूढ़े एवं कमजोर आदमी अन्न के अभाव में मरने लगे। सेठों ने अपनी तिजोरियों को ताले लगा दिये राज्यसत्ता ने भी हाथ ऊँचे कर दिये।

यह सब देखकर बुद्ध को बहुत दुःख हुआ। संत-हृदय चुप कैसे रह सकता है ? ʹमुट्ठीभर अन्न के अभाव में लोग रोज मर रहे हैं और सेठों की तिजोरियाँ खुलती नहीं। धनवानों का धन यदि ऐसे अकाल के समय काम नहीं आया तो फिर वह धन किस काम का ?ʹ

बुद्ध ने श्रावस्ती के धनवान लोगों की एक सभा बुलायी। करूणा से भरे हुए बुद्ध ने अपनी करुणायी वाणी में सेठों से कहाः “इस अकाल समय में आप सभी को कुछ सेवाकार्य करना चाहिए ताकि अन्न के अभाव में मर रहे लोगों को बचाया जा सके।”

….लेकिन करूणा से भरा हुआ, प्राणिमात्र के हित की भावना से छलकता हुआ बुद्ध का यह उपदेश भी उन लोभी सेठों के चित्त पर कोई असर नहीं कर रहा था। बुद्ध ने चारों ओर नज़र डालकर कहाः “भाइयों ! कुछ कहो।” यह सुनकर वे लोभी सेठ, धन के गुलाम सेठ एक-दूसरे की ओर देखने लगे। उनमें से एक ने कहाः “महाराज ! पूरे राज्य में दुर्भिक्ष पड़ा है। हमारी तिजोरी कितने आदमियों को खिलायेगी ? यह किसी एक आदमी का काम नहीं है। यह तो राज्य का काम है।”

दूसरा बोलाः “राज्य का धन भी समाप्त जायेगा तब क्या करेंगे ? यह तो ईश्वर का काम है ईश्वर का। हम तो केवल प्रार्थना करें किः “हे भगवान ! अपने बंदों को अब तुम्हीं बचाओ।ʹ इसके अलावा हम कर ही क्या सकते हैं ?”

ऐसा कहते-कहते सब सेठ वहाँ से एक-एक करके खिसकने लगे। इतने में ही एक धनवान सेठ की कन्या सुप्रिया की आँखों से आँसू बहने लगे। बुद्ध की सभा में निराशा नृत्य करे, उसके पहले ही उसने एक आशा की किरण जगा दी। उसने कहाः “भन्ते ! जो अन्न के अभाव में मर रहे हैं, अन्न के मोहताज उन गरीबों को, उन देशवासियों को मैं खिलाऊँगी। भन्ते ! आप आशीर्वाद दें कि मैं इस कार्य में सफल हो सकूँ।”

लोग हक्के-बक्के रह गये ! ʹयह लड़की ! सुप्रिया !!ʹ वे  बोलेः “तू क्या खिलायेगी ? तेरा सेठ पिता तुझे पैसे नहीं देगा तो तो तू क्या करेगी ?”

सुप्रियाः “मेरे पिताजी पैसे नहीं देंगे तो कोई बात नहीं। मैं अपने हाथ में भिक्षापात्र उठाऊँगी और घर-घर भीख माँगकर भी अपने देशवासियों के मुँह में रोटी का टुकड़ा डालूँगी… उनके आँसू पोंछूंगी।”

दृढ़ निश्चय से भरी हुई उस लड़की की बात सुनकर बुद्ध के मन को संतोष हुआ। बुद्ध की आँखें चमक उठीं और करूणामयी दृष्टि बरसाते हुए वे बोल उठेः “धन्य, धन्य ! तेरे माता-पिता भी धन्य हैं। तू लोगों की भूख अवश्य मिटा सकेगी। तू देशवासियों के प्राण अवश्य बचा सकेगी।”

लोग व्यंग्य कसने लगे किः “जैसी पगली लड़की, वैसा पगला बाबा…ʹ

जैसे महात्मा गाँधी ने भी कहा था किः “अंग्रेजों ! भारत छोड़ो।” यह उदघोष करने वाले महात्मा गाँधी अकेले थे। अतः लोगों ने उनकी खूब मजाक उड़ायी और वायसराय ने तो उन्हें पागल ही कह दिया था। पूरी ब्रिटिश सरकार के आगे एक मोहनदास करमचंद गाँधी बोलता है कि ʹअंग्रेजों ! भारत छोड़ो।ʹ लेकिन शुभ संकल्प में बड़ी ताकत होती है। जितना स्वार्थरहित संकल्प होता है, उतनी ही परमात्मा की सत्ता उसके साथ जुड़ जाती है।

तुम्हारे पास चाहे कुछ भी हो, मुट्ठीभर अन्न हो या जरा सा समय हो अथवा कम योग्यता हो लेकिन यदि ईश्वर के नाते तुम उसे सत्कर्म में लगा देते हो तो वह अथाह-अगाध हो जाता है।

सुप्रिया ने दृढ़ संकल्प कर लिया था, अतः दूसरे दिन सुबह होते ही उसने अपने हाथ में एक भिक्षापात्र उठाया और अपने माता-पिता से बोलीः “मेरे हिस्से की रोटी तो आप मुझे देते ही हैं, अतः कम-से-कम वे ही रोटियाँ मुझे भिक्षा में दे दीजिये।” लड़की का दृढ़ निश्चय देखकर पिता की आँखों में आँसू आ गये। माँ का हृदय भर आया। उन्होंने थोड़ी ज्यादा भिक्षा दे दी। आठ-दस लोग भोजन कर सकें इतनी भिक्षा दे दी। सुप्रिया वहाँ से चल पड़ी और दूसरे द्वारों पर गयी। सुप्रिया को भिक्षा माँगते हुए देखकर अब सेठों का हृदय पिघलने लगा किः ʹजो हमें करना चाहिए था, वह कार्य यह एक नन्हीं सी बालिका कर रही है ! धिक्कार है हमारे लोभ को और धिक्कार है हमारे ऐसे वैभव को, जो मानव जाति के काम न आये !ʹ

तन मन धन से कीजिये, निशिदिन पर उपकार।

यह सदभाव उनके मन में जाग उठा और सब सेठ लग गये अकाल राहत कार्य में। श्रावस्ती का अकाल दूर हो गया। लाखों-लाखों जीवों को जीवनदान मिला एक सुप्रिया के संकल्प मात्र से।

एक शुभ संकल्प करो और उसमें डट जाओ।

इसी प्रकार दृढ़ निश्चय के साथ नारदजी भक्ति के दुःखनिवारणार्थ भ्रमण करने निकल पड़े। जब वे विशालापुरी से गुजरे तो उनकी भेंट सनकादि ऋषियों से हुई। सनकादि ऋषियों ने पूछाः “नारद ! उदास पुरुषों की नाईं तुम जल्दी जल्दी कहाँ जा रहे हो ?”

नारदः “भगवन ! मैं काशी, मथुरा, रंगक्षेत्र, रामेश्वरम्, द्वारिका, हरिद्वार आदि क्षेत्रों में गया किन्तु कहीं भी, किसी भी तीर्थ में शांति देने वाले महापुरुषों के दर्शन मुझे नहीं हुए। कलियुग के मित्र अधर्म ने तीर्थों को भी बिगाड़ दिया है। धूर्त लोग तीर्थों एवं मंदिरों पर अधिकार करने लग गये हैं। जीवन को शांति मिले, ऐसी कोई जगह न दिखी। भूमण्डल पर घूमते-घूमते, पुष्कर और  प्रयाग में घूमते-घूमते मैं वृन्दावन आया जहाँ मुझे एक युवती अपने दो वृद्ध एवं मूर्च्छित पुत्रों ज्ञान और वैराग्य के पास बैठकर विलाप करती हुई दिखी, जो चारों ओर से अपनी सखियों से घिरी हुई थी। उऩका नाम भक्ति है। प्रभो ! “मैंने शपथ ली है कि उस भक्ति के दुःख को दूर करूँगा और उसके पुत्रों, ज्ञान-वैराग्य को जागृत करूँगा। मैंने कई मंत्रोच्चारण किये, वेद-पाठ किया, कई बार उन्हें जगाया लेकिन वे पुनः मूर्च्छित हो जाते थे। फिर आकाशवाणी हुई किः “हे नारद ! तुम उद्योग करो, तब तुम सफल होगे।ʹ किन्तु महाराज ! मैं कौन-सा उद्योग करूँ ? आकाशवाणी ने कुछ स्पष्ट नहीं बताया। ज्ञान-वैराग्य को जागृत करने के तरीके जानने के लिए मैं मठों, मंदिरों एवं आश्रमों आदि में घूमा लेकिन उसका उपाय कोई नहीं बता सका।”

तब सनकादि ऋषियों ने कहाः “भक्ति का दुःख दूर करने का एक ही उपाय है कि कलियुग के दोषों को दूर करने वाली भगवत्कथा सुनायी जाये, तभी ज्ञान और वैराग्य पुष्ट हो सकेंगे।”

अतः जो लोग भक्ति का रसपान करना चाहते हैं, उन्हें इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि कलियुग के दोषों को दूर करने के लिए भगवत्कथा सुनें जिससे ज्ञान-वैराग्य पुष्ट हो सकें। सनकादि ऋषियों ने आगे कहाः “श्रीमद् भागवत का पारायण किया जाय। उसके शब्द सुनने से ही ज्ञान और वैराग्य को बड़ा बल मिलेगा। इससे उऩका कष्ट मिट जायेगा अर्थात् उनकी मूर्च्छा टूट जायेगी और साथ ही भक्ति भी पुष्ट होगी। जैसे सिंह की गर्जना सुनकर भेड़िये भाग जाते हैं, उसी प्रकार श्रीमद् भागवत की अनुगूँज से कलियुग के सारे दोष नष्ट हो जायेंगे। तब प्रेमरस प्रवाहित करने वाली भक्ति ज्ञान और वैराग्य को साथ में लेकर प्रत्येक घर और व्यक्ति के हृदय में क्रीड़ा करेगी।”

सनकादि ऋषियों की आज्ञा को शिरोधार्य करके देवर्षि नारद ने हरिद्वार में गंगातट पर ʹश्रीमद् भागवतʹ कथा का आयोजन किया जिसके फलस्वरूप ज्ञान-वैराग्य जाग उठे एवं भक्ति पुष्ट हो गयी। इतनी महत्ता है ʹश्रीमद् भागवतʹ के कथामृत का पान करने की ! तभी तो ʹश्रीमद् भागवत माहात्म्य के विषय में स्वयं भगवान ने अपने श्रीमुख से ब्रह्मजी को कहा हैः

श्रीमद् भागवतं पुण्यमायुरारोग्य पुष्टिदम्।

पठनाच्छ्रवणाद्वापि सर्वपापैः प्रमुच्यते।।

ʹयह पावन पुराण ʹश्रीमद् भागवतʹ आयु, आरोग्यता और पुष्टि देने वाला है। इसका पाठ अथवा श्रवण करने मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है।ʹ

इस पवित्र पुराण का पाठ स्वयं करें या पवित्र, सात्त्विक, व्यसनमुक्त, संत-हृदय वक्ता के मुख से सुनें।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 1999, पृष्ठ संख्या 7-11, अंक 77

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ब्रह्मज्ञानी की गत ब्रह्मज्ञानी जाने


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

परमात्मा सदा से है, सर्वत्र है। उसके सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं। इस बात को जो समझ लेता है, जान लेता है वह परमात्मारूप हो जाता है। सूर्य के उदित होते ही संपूर्ण जीव सृष्टि अपने-अपने गुण स्वभाव के अनुसार अपने अपने कार्य में संलग्न हो जाती है। सूर्य को कुछ नहीं करना पड़ता है। जैसे सूर्य अपनी महिमा में स्थित रहकर चमकता रहता है, ऐसे ही परमात्मा-प्राप्त महापुरुष का जीवन आत्मसूर्य के प्रकाश में प्रारब्ध वेग से व्यतीत होता रहता है।

अजमेर में ऐसे ही एक संत बूलचंद सोनी ही गये जिन्होंने अपना जीवन आत्मसूर्य के प्रकाश में बिताया। पूर्व के पुण्य-प्रभाव से उनकी बुद्धि में विवेक का उदय हुआ। उन्होंने सोचाः ʹजिंदगी भर संसार की खटपट करते रहने में कोई सार नहीं है। आयुष्य ऐसे ही बीता जा रहा है। ऐसा करते-करते एक दिन मौत आ जायेगी। अतः अपने कल्याण के लिए भी कुछ उपाय करने चाहिए।ʹ

ऐसा सोचकर वे कोई ऐसा संग ढूँढने में लग गये जो उऩ्हें ईश्वर के रास्ते ले चलें, उसमें सहयोगी हो सके। ढूँढते-ढूँढते उन्हें कुछ पण्डित मिल गये। वे कुछ समय तक उन लोगों के साथ रहे और उनके कथनानुसार सब कुछ करते रहे, परंतु थोड़े ही दिनों में वो ऊब गये। उन्हें लगा कि चित्त में आनंद नहीं उभर रहा है, भीतर की शांति नहीं मिल रही है। अतः पंडितों का साथ छोड़कर वे पुनः किसी सत्पुरुष की खोज में चल पड़े।

मिल जाये कोई पीर फकीर, पहुँचा दे भव पार।

खोजते-खोजते वे पहुँच गये एक तत्त्वज्ञानी महापुरुष के श्रीचरणों में।

गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं-

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।

उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।।

ʹउस ज्ञान को तू तत्त्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ, उनको भली भाँति दण्डवत प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक  प्रश्न करने से वे परमात्मतत्त्व को भली-भाँति जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे।ʹ (श्रीमद् भगवद् गीताः 4.34)

बूलचंद सोनी विनम्रतापूर्वक उन महापुरुष की शरण में रहे। उनके आदेशानुसार जप-ध्यानादि करते हुए धीरे-धीरे वे भी ब्रह्मज्ञान पाने के अधिकारी हो गये और संत की करुणा कृपा सरे आत्म-परमात्मज्ञान में उनकी स्थिति हुई।

अब उन्हें कर्मकाण्ड आदि बातें व्यर्थ लगने लगीं। उनमें उनकी दिलचस्पी ही नहीं रही। पंडितों की बातों से उनका मेल नहीं बैठता था क्योंकि उन्होंने अब जान लिया था कि कर्मकाण्ड क्या है और सत्यस्वरूप आत्मा का ज्ञान क्या है।

उन पंडितों ने देखा कि अब ये हमारे पास नहीं आते हैं, अतः वे उन्हें समझाने लगे कि “भाई ! तुम अब यहाँ क्यों नहीं आते हो ? यज्ञादि में भाग क्यों नहीं लेते हो ?”

उन्होंने कहाः “प्रार्थना से भगवान प्रसन्न होते हैं, यज्ञ से भगवान प्रकट होते हैं, यह सब ठीक तो है लेकिन यह सब तभी तक ठीक था जब तक मैंने अपने भगवद् स्वरूप को नहीं जाना था। अब मैंने जान लिया है कि मैं भी भगवद् स्वरूप हूँ तो क्यों गिड़गिड़ाऊँ ?”

उनकी ऐसी बात सुनकर वे लोग चिढ़ गयेः “तुम क्या बकते हो ? क्या तुम भगवान हो ? अपने को भगवान मानते हो ?”

बूलचन्द सोनीः “यह तो आप भगवान को सब कुछ समझ रहे हो, इसलिए कहता हूँ कि ʹमैं भगवान हूँʹ अन्यथा तो भगवान की सत्ता जिससे है और सब देवी-देवता जिसकी सत्ता से प्रगट होते हैं वह चैतन्य ब्रह्म मैं हूँ। इस बात को मैं मानता हूँ और जानता भी हूँ।”

पंडितः “अच्छा… तो तुम भगवान को नहीं मानते हो ?”

फिर सब पंडित आपस में कहने लगेः “यह तो नास्तिक हो गया है।”

शेर अकेला होता है, भीड़ भेड़ियों की होती है। सब पंडितों ने मिलकर घेर लिया बूलचंद सोनी को और कहने लगेः “तुम ब्रह्म हो-यह बात हम तब मानेंगे, जब तुम कोई करिश्मा दिखाओगे।”

साधारण लोग यह बना-बनाया जगत देखते हैं तो समझते हैं कि भगवान ने बनाया है, परंतु ऐसी बात नहीं है। ब्रह्म में जगत विवर्तरूप होकर भासता है, भ्रांतिरूप होकर भासता है। इसे किसी ने बैठकर बनाया नहीं है। यदि जगत ऐसे बना है जैसे कुम्हार मिट्टी से घड़ा बनाता है तो जिन पाँच महाभूतों से जगत बना है वह मिट्टी, हवा, जल आदि बनाने का कच्चा माल भी त चाहिए ! वह कच्चा माल भगवान लाये कहाँ से ?

ऐसा तो नहीं है कि भगवान ने कुछ कच्चा माल लाकर पृथ्वी, जल, वायु आदि बनाकर चिड़िया आदि जीवों को रख दिया है कि जाओ खेलो। परंतु लोग ऐसा समझ रहे हैं कि भगवान ने दुनियाँ बनायी और वो खेल देख रहा है। मंद मति के लोगों को असरी बात का पता ही नहीं है। भेड़ों की भीड़ की तरह वे चल रहे हैं। इसलिए भगवान को वे मानते हैं, भगवान में श्रद्धा रखते हैं। लेकिन उनमें से कोई विरला होता है जो अपने-आपको भगवद् स्वरूप जान लेता है, बाकी तो सब ठनठनपाल रह जाते हैं।

पंडितों की करिश्मा दिखाने की बात सुनकर बूलचंद हँस पड़े।

“भाई ! क्यों हँसते हो ?”

“अरे ! तुम मुझे करिश्मा दिखाने के लिए कहते हो ? तुम कितने भोलेभाले हो ! तुम मैनेजर का काम सेठ को सौंपते हो। सृष्टि बनाने का संकल्प ब्रह्मजी करते हैं। बूलचंद का शरीर तो ब्रह्माजी का दास है किन्तु मैं बूलचंद नहीं हूँ। मैं तो वह हूँ जिससे चेतना लेकर ब्रह्माजी संकल्प करते हैं। ब्रह्माजी का चित्त एकाग्र है, इसलिए उनका संकल्प फलता है। बूलचन्द का अंतःकरण एकाग्र नहीं है, इसलिए उसका संकल्प नहीं फलता है। लेकिन बूलचंद एवं ब्रह्माजी दोनों के अंतःकरण को चेतना देने वाला चैतन्य आत्मा एक है और मैं वही हूँ।”

वे पंडित तो  मूढ़वत उऩकी बातें सुनते रहे उनको ये बातें जँची नहीं और वे सब वहाँ से उठकर चल दिये।

यह जरूरी नहीं है कि आपको आत्म-साक्षात्कार हो जाये तो आप भी कुछ चमत्कार कर सको। करना धरना अंतःकरण में है और वह एकाग्रता से होता है। ब्रह्म में कुछ नहीं है। ब्रह्म कुछ नहीं करता है। ब्रह्म तो सत्ता मात्र है। सारी क्रियाएँ, सारी सत्ताएँ उसी से स्फुरित होती है। जिनका अंतःकरण एकाग्र होता है, उनके जीवन में चमत्कारिक घटनाएँ घट सकती हैं। लेकिन चमत्कार के बिना भी ज्ञान हो सकता है।

वेदव्यासजी और वशिष्ठजी के जीवन में चमत्कार भी है और ज्ञान भी है। साँईं श्री लीलाशाह जी महाराज के जीवन में भी चमत्कार और ज्ञान दोनों हैं। किसी के पास अकेला ज्ञान है, तब भी वह मुक्त ही है। योग-सामर्थ्य हो चाहे न हो किन्तु मुक्ति पाने के लिए तत्त्वज्ञान हो-यह बहुत जरूरी है। ज्ञान से ही मुक्ति होती है। ऐसा ज्ञान पाया हुआ आदमी सब प्रकार के शोकों से तर जाता है। उसका मन निर्लेप हो जाता है। शोक के प्रसंग में शोक बाधित होता है एवं राग के प्रसंग में राग बाधित होता है। काम और क्रोध के प्रसंग में काम और क्रोध बाधित होते हैं। नानकजी ने भी यह कहा हैः

ब्रह्मज्ञानी सदा निर्लेपा, जैसे जल में कमल अलेपा।

ब्रह्मज्ञानी की मत कौन बखाने, नानक ब्रह्मज्ञानी की गत ब्रह्मज्ञानी जाने।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 1999, पृष्ठ संख्या 15-17, अंक 77

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