भगवान या गुरु अंतर्यामी हैं तो ऐसा क्यों ?

भगवान या गुरु अंतर्यामी हैं तो ऐसा क्यों ?


भगवान कहते हैं-

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।

मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।

‘यह अलौकिक अर्थात् अति अद्भुत त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है परंतु जो पुरुष केवल मुझको ही निरन्तर भजते हैं, वे इस माया को उल्लंघन कर जाते हैं अर्थात् संसार से तर जाते हैं।’ (गीताः 7.14)

हे अर्जुन ! मुझ अंतर्यामी आत्मदेव की माया दुस्तर है पर जो मेरे को प्रपन्न (शरणागत) होते हैं उनके लिए मेरी माया को लाँघना गोपद अर्थात् गाय के पग के खुर का निशान लाँघने जैसा सरल कार्य है। जिनको जगत सच्चा लगता है उनके लिए मेरी माया दुस्तर है।

जय-विजय ने सनकादि ऋषियों का अपमान किया। उन सेवकों को सनकादि ऋषियों का श्राप मिला। वे रावण और कुम्भकर्ण हुए। कोई कहे, ‘भगवान अंतर्यामी हैं तो यह क्यों होने दिया ?’ या किसी बात को लेकर सोचे कि ‘गुरु अंतर्यामी हैं तो यह क्यों होने दिया ?’ अरे, तेरी बुद्धि में खबर नहीं पड़ती भाई ! ‘अंतर्यामी-अंतर्यामी मतलब क्या ? जगत के व्यवहार के जगत की रीति से नहीं चलने देना, इसका नाम अंतर्यामी है क्या ? ‘गुरु अंतर्यामी हैं तो ऐसा क्यों ? भगवान अंतर्यामी हैं तो ऐसा क्यों ?…..’ ऐसा कुतर्क से पुण्याई और शांति सब खो जाती है।

कबिरा निंदक न मिलो पापी मिलो हजार।

एक निंदक के माथे पर लाख पापिन को भार।।

निंदक अपने दिमाग में कुतर्क भर के रखता है इसलिए उसकी शांति चली जाती है, उसका कर्मयोग भाग जाता है, भक्तियोग भाग जाता है और फिर अशांति के कुंड में खदबदाता रहता है।

कुतर्क करने वाले यह भी सोच सकते हैं, ‘भगवान अंतर्यामी हैं तो ऐसा क्यों हुआ ? भगवान सर्वसमर्थ हैं और जिनके घर आने वाले हैं ऐसे वसुदेव-देवकी को जेल भोगना पड़े, ऐसा क्यों ? पैरों में जंजीरें, हाथों में जंजीरें-ऐसा क्यों ? रामजी अंतर्यामी हैं तो मंथरा के भड़काने को तो जानते थे, मंथरा को पहले ही निकाल देते नौकरी से….. कैकेयी को मंथरा के प्रभाव से बाहर कर देते….!’ विधि की लीलाओं को समझने के लिए गहरी नज़र चाहिए। तर्क-कुतर्क करना है तो कदम-कदम पर होगा लेकिन श्रद्धा की नज़र से देखो तो यह भगवान की माया है। जो भगवान की शरण जाता है उसके लिए माया विशाल, गम्भीर संसार-सागर हो जाती है। कई डूब जाते हैं उसमें।

गुरु अंतर्यामी हैं तो हमारे से कभी-कभी गुरु जी ऐसा कुछ पूछते थे कि सामने वाला सूझबूझवाला न हो तो उसे लगे कि ‘हमारे गुरु अंतर्यामी हैं, कैसे ?’ लेकिन हमारे मन में ऐसा कभी नहीं आया। अंतर्यामी माने क्या ? जिन्होंने अंतरात्मा में विश्राम पाया है। जब मौज आयी तो अंतर्यामीपने की लीला कर देते हैं, नहीं आयी तो साधारण मनुष्य की नाईं जीने में उनको क्या घाटा है ! भगवान अंतर्यामी हैं फिर भी देवर्षि नारद जी से पूछते हैं, भगवान अंतर्यामी हैं फिर भी सीता जी के लिए दर-दर पूछते हैं तो उनकी ऐसी लीला है ! उनके अंतर्यामीपने की व्याख्या तुम्हें क्या पता चले ! पूरे ब्रह्माण्ड में चाहे उथल-पुथल हो जाय लेकिन व्यक्ति का मन न हिले ऐसी श्रद्धा हो, फिर साधक को कुछ नहीं करना पड़ता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2018, पृष्ठ संख्या 9 अंक 305

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