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ज्ञान की सात भूमिकाएँ


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

दो प्रकार के संस्कारी मनुष्य होते हैं- धार्मिक और जिज्ञासु।

यह बात उन मनुष्यों की नहीं है जो केवल खाने पीने और संतति को जन्म देने में ही अपना जीवन पूरा कर देते हैं। ऐसे लोगों को तो मनुष्य रूप में पशु ही कहा गया है। मनुष्यरूपेण मृगाश्चरंति। यह संसारी मानवों की बात है।

जिन्हें धार्मिक संस्कार मिलते हैं, वे आगे चलकर जिज्ञासु हो सकते हैं। धार्मिक व्यक्ति पहले तो धर्म के कार्य करता है। स्वर्गादि पाने के लिए वह तप, दान, यज्ञ आदि करता है। आगे चलकर उसे महसूस होता है कि स्वर्ग भी तो आसक्ति पैदा करेगा और न जाने कितने जन्मों में भटकायेगा। ऐसा विचार करके धार्मिक व्यक्ति जिज्ञासु बन जाता है। जिज्ञासु को ऐसे विचार आते हैं- ʹमैं ऐसी वस्तु पा लूँ कि दुबारा दुःखद गर्भवास में न पडूँ।ʹ भोग-प्रलोभनों में फँसने वालों से बड़ी ऊँची समझ का धनी होता है जिज्ञासु। वह ज्ञान की प्रथम भूमिका ʹशुभेच्छाʹ में प्रवेश पा लेता है।

शुभेच्छाः भोगेच्छाओं, वासनाओं को मिटाने की, जन्म-मरण से छूटने की जो आकांक्षा है, वह ʹशुभेच्छाʹ है। इस भूमिकावाला जिज्ञासु अहंकार पोसने के लिए कर्म नहीं करता। वह व्यवहार में कुशल एवं मितभाषी होता है। प्रशंसा उसे आतिशबाजी के अनार जैसी लगती है। वह मित्रों आदि के बीच भले रहे, पर भीतर से उदासीन रहता है। उसे सब फीका फीका लगने लगता है। वह सत्शास्त्रों एवं संतों की संगति की इच्छा करता है।

कबीर, नानक, श्रीरामकृष्ण परमहंस, वर्धमान महावीर… शुरुआत में सबकी प्रथम भूमिका आती है। वर्धमान की माँ जब गुजर गयीं तो वर्धमान बोलः “मैं जाता हूँ घर से।”

पिता ने कहाः “अभी तो मैं शोक से भी नहीं उबरा हूँ और तुझे जाना है ?”

पिता की यह बात सुनकर वर्धमान रूक गये। कुछ समय के पश्चात पिता भी चल बसे। वर्धमान ने पुनः कहाः “मैं जाता हूँ।”

बड़े भाई ने कहाः “पहले माँ चली गयीं, अभी पिता चल दिये। जब तक मैं जीवित हूँ, तब तक तुम जाने की बात मत करना।”

भाई की यह बात सुनकर वर्धमान ने फिर छोड़कर जाने का नाम तो नहीं लिया, किन्तु वे ऐसे ढंग से जीवन जीवने लगे कि नहीं के बराबर। अंततः उनके भाई ने कह दिया किः “घर में रहो अथवा जाओ। तुम्हें घर से कोई मतलब नहीं। तुम जा सकते हो।” इस प्रकार उनके भाई ने उऩ्हें जाने की सम्मति दे दी।

पहली भूमिका प्राप्त होने पर आदमी लाख काम छोड़कर भी ईश्वर की ओर चलेगा। यदि पहली भूमिका नहीं प्राप्त हुई तो ईश्वर को छोड़कर लाख काम करेगा। पहली भूमिकावाले की आगे की यात्रा यदि न हो और वह मर जाये तो स्वर्ग का सुख तो उसे सहज में ही मिल जाता है। प्रलोभन देने वालों के चक्कर में वह नहीं फँसता। इतना ही नहीं, स्वर्गिक सुख में भी उसकी रुचि नहीं होती । अतः किसी श्रेष्ठ कुल में उसका जन्म होता है।

शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोभिजायते।

अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्।।

ʹ…..योगभ्रष्ट पुरुष शुद्ध आचरण वाले श्रीमान् पुरुषों के घर में जन्म लेता है अथवा ज्ञानवान योगियों के कुल में जन्म लेता है….ʹ (गीताः 6.41,42)

साधु-संतों के प्रति उसके हृदय में आदरभाव तो रहेगा लेकिन कोई ढोंगी साधु उसको ठग नहीं सकेगा।

मैं नौ साल का था। साधु संतों में मेरी रुचि थी। एक दिन एक बाबा घूमता-घामता आया और उसने कई चमत्कार दिखाये। डंडे को पकड़कर दबाया तो पानी की धार निकल पड़ी। मेरे कुटुंबियों ने तो ʹजय गंगे माताʹ कहकर चरणामृत भी लिया, किन्तु मुझे हुआ कि सूखे डंडे से पानी कैसे ? यदि वह डंडे में से गंगा प्रगट कर सकता है तो इसको कपड़े-आटे की चिन्ता कैसी ? मैं छोटा था, इसलिए मेरी कोई गिनती ही नहीं थी, जिससे खूब बारीकी से जाँच करने में मैं सफल हो गया। मैंने ठीक से देखा  तो पता चला कि उसने जल से भीगी हुई रूई को डंडे की पोल में छुपाकर रखा था। उसे दबाने पर वह गंगा होकर बहता था।

उसने ऐसा करके कइयों को उल्लू बनाया होगा किन्तु मेरे ऊपर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा जबकि मैं उस समय मात्र 9 वर्ष का ही था। बड़ा होने पर मुझे भाई ने, साले-सालियों ने, कुटुंबियों ने, कइयों ने रोका किन्तु मैं सदगुरु के पास पहुँचे बिना नहीं रहा। यह आसुमल की प्रशंसा नहीं कर रहा हूँ। अपितु ज्ञान की भूमिका का प्रभाव बता रहा हूँ। प्रथम भूमिका वाले को अध्यात्म-पथ पर आगे बढ़ने से कोई रोक नहीं सकता।

शुभेच्छावाले जिज्ञासु को किसके आगे बैठना, कैसे बोलना, कैसे चलना आदि सत्प्रेरणा अपने आप मिलती है। उसे अन्तःप्रेरणा होती है। उसका आचरण सुहावना होता है, दूसरों के लिए अनुकरणीय होता है। उसे भोगवासना से अरुचि पैदा होने लगती है, एकांत अच्छा लगने लगता है, जप-ध्यान में आनंद आता है। ʹभगवान क्या है ? आत्मा क्या है ? जगत में हमारा वास्तविक कर्त्तव्य क्या है ?ʹ इत्यादि की जिज्ञासाएँ उसमें उत्पन्न होती हैं।

सुविचारणाः जब शुभेच्छा बढ़ती है तो दूसरी भूमिका ʹसुविचारणाʹ फलने लगती है। सत्शास्त्रों एवं महापुरुषों का संग करके, वैराग्य एवं अभ्यास से सदाचार में प्रवृत्त होना-इसका नाम सुविचारणा है। सुविचारणा वाला साधक देवी-देवता, मूर्तिपूजा आदि में नहीं उलझता। इस भूमिका में कर्मकाण्ड, पूजा आदि घटते जायेंगे एवं आत्मज्ञान की बातों की ओर कुदरती आकर्षण होने लगेगा। तिलक न करते हुए भी वह साधु होगा, साधु के कपड़े न होते हुए भी उसका मन साधुताई की तरफ खिंचेगा। धर्म के रहस्य को जानने में उसकी रुचि होगी।

पहले साधनाकाल में जब मैं स्वामिनारायणवालों के पास गया तो उन्होंने कहाः “तुम स्वामिनारायण वाले बनोगे, तभी भगवान मिलेंगे।ʹ जब उन्होंने यह कहा तो मैंने पूछाः “स्वामिनारायण संप्रदाय कब बना ?” उन्होंने कहाः “200 वर्ष हुए।”

मैंने पूछाः “200 वर्ष पहले इस जगत में भगवान नहीं थे क्या ?”

इसका उत्तर वे न दे सके। मुझे उनकी बातें गले नहीं उतरीं, अतः मैं वहाँ से चल दिया।

मत-पंथ और संप्रदाय की बातों में पहली-दूसरी भूमिका वाला साधक नहीं फँसता है।

जिसको धार्मिक कहलाना है, वह किसी-न-किसी पंथ-संप्रदाय का हो जायेगा। हमारी सिंधी जाति के इष्ट भगवान झूलेलाल हैं तो मैं भी झूलेलाल के पंथ में रहता, लेकिन मेरी भूमिका बन गयी तो मैं फिर उसमें न रह पाया। जो मत-पंथ-संप्रदाय में रूके हैं और अपने को उन्हीं का मानते हैं तो समझ लो कि वे यात्रा करना नहीं चाहते हैं, जबकि पहली-दूसरी भूमिका वाले साधक उसमें नहीं रुकते।

जैसे प्यासे आदमी की प्यास शर्बत या पानी की बातें करने से नहीं बुझती एवं भूखे आदमी की भूख लड्डू की बातें करने से नहीं मिटती। यहा तो उसे पानी पिलाओ, भोजन कराओ या वह स्वयं ही अन्न-जल खोज ले तभी उसकी तृषा-क्षुधा शांत हो सकती है। ऐसे ही जिसको सत्य की प्यास है, प्रभु प्राप्ति की भूख है वह मत-पंथ की बातों में नहीं आयेगा, बल्कि आगे चल पड़ेगा।

दूसरी भूमिकावाले को विचार आते रहते हैं किः ʹमेरे ऐसे दिन कब आयेंगे, जब मुझे परमात्म-शांति प्राप्त होगी ? मेरी ऐसी स्थिति कब होगी कि मैं सुख-दुःख में सम रहूँगा ?ʹ सुविचारणा में साधक को शास्त्राध्ययन की रुचि होगी।

घाटवाले बाबा के पिता तहसीलदार थे। वे काशी में रहते थे। घाटवाले बाबा 17-18 साल के हुए तो उनमें शास्त्राध्ययन की रुचि जागी। वे चल पड़े गंगा किनारे। ʹकोई संत मिलें….ʹश्री योग वाशिष्ठ महारामायणʹ जैसा ग्रंथ सुनूँ…. वेदान्त सुनूँ….ʹ इस इच्छा से उन्होंने हिमालय तक की यात्रा की किन्तु कोई संत मिले नहीं। अंत में एक गृहस्थी हरिद्वार में मिला, जो हाथ में घड़ी बाँधता, खों-खों करता एवं ʹहर की पौड़ीʹ पर पड़ा रहता था। वह हर रोज 2-3 व्यक्तियों को ʹश्रीयोगवाशिष्ठ महारामायणʹ सुनाता। घाटवाले बाबा ने भी वहाँ बैठे-बैठे ʹश्रीयोगवाशिष्ठ महारामायणʹ सुना। वे क्रमशः दूसरी से तीसरी भूमिका में आ गये, तीसरी से चौथी भूमिका में आ गये और उन्हें ज्ञान हो गया।

जिसकी दूसरी भूमिका ʹसुविचराणाʹ दृढ़ होगी, उसे एकांतवास और मौन अच्छा लगेगा, आत्मज्ञानी संतों के प्रति उसके मन में आकर्षण पैदा हो जायेगा। उसे मौन, जब, एकांत में रस आयेगा। भीड़-भड़ाके, शादी-ब्याह आदि में उसकी रुचि नहीं होगी। नदी-तालाब, गुफा-कंदरा उसे रुचेगी। आत्मज्ञान की बातें सुनने की उसे रुचि होगी। सदगुण विकसित होने लगेंगे। जैसे, कामी व्यक्ति स्त्री पर लट्टू हो जाता है, अभागों को पापकर्म रसीले लगते हैं, सेठ को व्यापार-धंधे का चिंतन चलता रहता है, वैसे ही दूसरी भूमिकावाले साधक में त्याग, वैराग्य, प्रसन्नता, सहानुभूति, परोपकार, दया, दान, सेवा, सरलता आदि सदगुण अपने आप आने लगते हैं। जैसे सुवासित फूल खिलता है तो महक आने लगती है वैसे ही उपरोक्त सारे सदगुण ऐसे साधक में स्वयं आने लगते हैं।

जब वह एकांत में संतों एवं शास्त्रों के वचन विचारता है तो उसमें ईश्वर को पाने की तड़प बढ़ती है। कभी-कभी उसे ध्यान में ईश्वर की झलक मिलने लगती है। ʹमैं यह देह नहीं हूँ। जो खाया-पिया है, उसी का रुपान्तरण यह देह है… यह देह मैं नहीं हूँ तो मैं कौन हूँ ? भगवान क्या है ? वे कैसे मिलें ? मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार आदि किसको कहते हैं ?ʹ – ऐसे विचारों से अपने-आप उनका जवाब आयेगा, नहीं तो जवाब पाने की तड़प होगी। कोई उससे नीची भूमिकावाला उसको जवाब देगा तो उसके जवाब से उसे संतोष नहीं होगा। मान-अपमान की चोटें दिनोंदिन उसे कम प्रभावित करेंगे। संसार के प्रति आकर्षण घटने लगेगा। कभी-कभी काम, क्रोध, मोह आदि विकार आ जायेंगे तो उसको पश्चाताप होगा। वह एकांत में अपने को मारेगा भी सही, रोयेगा भी कि ʹअरे ! मुझसे ऐसा हो गया ?ʹ वह भीतर से इतना स्वच्छ होता जायेगा।

तनुमानसाः दूसरी भूमिका परिपक्व होने पर तीसरी भूमिका ʹतनुमानसाʹ प्रगट होने लगती है। ʹशुभेच्छाʹ एवं ʹसुविचारणाʹ करके बुद्धि सूक्ष्म होती है और इन्द्रियों के अर्थ में अनासक्ति होती है तो ʹतनुमानसाʹ नामक भूमिका बनती है।

तीसरी भूमिका के साधक में वेदान्त के विचार जमने लगेंगेः ʹदेह से आत्मा पृथक है…. मन-बुद्धि का वह द्रष्टा है।ʹ बुद्धि के निर्णय बदलते हुए दिखेंगे, मन के संकल्प-विकल्प बदलते हुए दिखेंगे, संसार की बदलाहट महसूस होने लगेगी और संसार का मान-अपमान उसके लिए फीका हो जायेगा। ईश्वर के सिवाय सारी दुनिया उसे एक तुच्छ खिलौनामात्र लगेगी।

वह जब एकांत में मौन होकर बैठेगा और विचार करने लगेगा तो निदिध्यासन होने लगेगा। उसके चित्त में अनोखी शांति, अनोखा आनंद प्रगट होने लगेगा और कभी-कभी वह जो कहेगा, होने लगेगा। जो होने वाला है, उसका उसे पता चलने लगेगा। लेकिन यदि वह ईमानदारी से साधना कर रहा है तो उसे ज्यादा महत्त्व नहीं देगा, नहीं तो ʹतुष्टिʹ नाम की अवस्था आ जायेगी। फिर ऐसा लगेगा किः ʹजो जानता था, सो जान लिया। जो पाना था, सो पा लिया। मैं साक्षी हूँ…. मैं ब्रह्म हूँ… मैं चैतन्य आत्मा हूँ….. गुरु जी का ज्ञान मेरा ज्ञान हो गया.. गुरु जी का अनुभव मेरा अनुभव हो गया….ʹ कभी ऐसा अनुभव भी होगा लेकिन जिस वक्त अभ्यास करता रहेगा उस वक्त ऐसा अनुभव रहेगा फिर लुढ़क गया तो कुछ नहीं रहेगा।

अगर वह चलता रहा, नियम करता रहा, जपानुष्ठान आदि करता रहा तो मंत्र जप करते उसके अर्थ में तल्लीन होता जायेगा। फिर लंबे मंत्र उससे नहीं होंगे। उसे छोटे मंत्र चाहिए। जब वेदान्त-चिंतन करेगा तब ब्रह्माकार वृत्ति बनेगी, आनंद-शांति मिलने लगेगी लेकिन जब चिंतन छूटेगा तो फिर व्यवहार में आ जायेगा।

इस अवस्था में उसका एक पैर संसार में और दूसरा पैर ʹबार्डरʹ पर …. परम पद की सीमा के करीब होगा। वह जब तक साधन-भजन करेगा, तब तक उसका मन ऊँची अवस्था में रहेगा लेकिन ज्यों ही साधन भजन छोड़ देगा त्यों ही उसका मन नीचे आ जायेगा। इस भूमिका में संसार को सँभालने के विचार भी आयेंगे और आत्मज्ञान पाने के विचार भी आयेंगे।

तीसरी भूमिका में आया हुआ व्यक्ति आत्म-साक्षात्कार के नितांत करीब होता है। इस भूमिका में यात्रा करते-करते यदि साधक का देहावसान हो जाता है तो जो लाखों रूपये खर्च करके अश्वमेध यज्ञ करते हैं, उनसे भी ऊँची गति उसकी होती है। तपस्वियों-मुनियों को जहाँ स्थान मिलता है ऐसे ब्रह्मलोक तक की उसकी यात्रा हो जाती है। उसके पुण्य अन्यों की नाईं क्षीण नहीं होते हैं। (क्रमशः)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2000, पृष्ठ संख्या 2-5, अंक 86

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गतांक का शेष

जैसे, किसी ने हवाई जहाज का टिकट लिया है और बीच में जहाज बिगड़ जाता है तो उसे होटल में ठहरना पड़ता है। उस हवाई जहाज की कंपनी होटल में उसके रहने-खाने का पूरा खर्च उठाती है, मुसाफिर को खर्च नहीं करना पड़ता। ऐसे ही तीसरी भूमिका में पहुँचे हुए साधक को ब्रह्मज्ञान पाने का टिकट उपलब्ध हो जाता है। लेकिन यदि बीच में ही उसका शरीर शांत हो जाये तो अन्य पुण्यात्माओं की नाईं पुण्यलोक में उसकी गति होती है। उसके पुण्य नष्ट नहीं होते हैं। अगर उसको रूचि रहती है तो वह ब्रह्मलोक में ब्रह्माजी के साथ निवास करता है और जब महाप्रलय होता है तब ब्रह्माजी के उपदेश से ब्राह्मी स्थिति प्राप्त करके ब्रह्मरूप हो जाता है।

सत्त्वापत्तिः तीसरी भूमिका जब परिपक्व होती है तब चौथी भूमिका सत्त्वापत्ति आती है। उपरोक्त तीनों भूमिकाओं का अभ्यास करते हुए, इन्द्रियों के विषय और जगत से वैराग्य करते हुए श्रवण, मनन एवं निदिध्यासन के द्वारा सत्य आत्मा में स्थित होने का नाम सत्त्वापत्ति है। इस चौथी भूमिका में आत्मसाक्षात्कार हो जाता है। चौथी भूमिका वाले का चित्त कैसा होता है ? जैसे आम की डाल। आम की डाल पकड़कर नीचे झुकाई, उसमें से फल, पत्ते आदि तोड़े और डाल को छोड़ दिया तो डाल अपने मूल स्थान पर ऊपर पहुँच जाती है, ऐसे ही चौथी भूमिकावाला साधक व्यवहार में अपने मन को ले आयेगा, कथा सुनने सुनाने में, बातों में ले आयेगा लेकिन एक क्षण में ही उसका चित्त पुनः अपने स्वरूप में चला जायेगा।

उठत बैठत वही उटाने, कहत कबीर हम उसी ठिकाने….

उस चौथी भूमिका में पहुँचकर सिद्ध हुआ साधक पुनः नीचे नहीं आता, पतित नहीं होता। उसमें जगत का मिथ्यात्व दृढ़ हो जाता है।

जैसे मनुष्य की स्मृति में उसका अपना नाम पक्का बैठ जाता है कि ʹगोविन्द हूँ… मैं गोपाल हूँ…ʹ तो फिर उसको कहे कि ʹतुम गोविन्द नहीं हो… तुम गोपाल नहीं हो….ʹ तब  भी उसे संशय नहीं होता। ऐसे ही चौथी भूमिकावाले महापुरुष को ʹमैं ब्रह्म हूँʹ…. यह ब्राह्मी अनुभूति पक्की हो जाती है। फिर ब्रह्माजी भी कहें कि ʹतुम जीव हो…. तुम ब्रह्म नहीं हो….ʹ तब भी उसे संशय नहीं रहता। फिर राम, राम नहीं बचते… कृष्ण, कृष्ण नहीं बचते बल्कि अपना-आपा आत्मस्वरूप हो जाते हैं।

श्रीरामचरितमानस में आता हैः

सोइ जानइ जेहि देहु जनाई। जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई।।

(अयोध्याकाण्डः 126,3)

चौथी भूमिका वाला साधक देह में दिखता है लेकिन उसकी चेतना समस्त ब्रह्माण्डों में फैली होती हुई होती है। जैसे आप सेवफल से अलग हैं, वैसे ही वह देह में होते हुए भी देह से पृथक होता है।

महावीर कहते हैं- “जो दीन-दुःखियों की सेवा-परिचर्या करता है, वह मेरे ज्ञान को समझ सकता है। सेवा से अंतःकरण शुद्ध होता है तब पता चलता है कि हम शरीर नहीं हैं, शरीर से हम पृथक हैं।”

तुलसीदास जी कहते हैं-

पर हित सरिस धर्म नहिं भाई।

वेदव्यास जी ने कहा हैः

परोपकाराय पुण्याय….

नरसिंह मेहता जी ने कहा हैः

वैष्णव जन तो तेने कहिए जे पीड पराई जाणे रे…..

सब संतों का एक ही निचोड़ है। ऊँचाई पर जो पहुँचे हैं, उन सबमें एकवाक्यता है। हम कहते हैं कि ʹहम जैनी हैं…. हम वैष्णव हैं…ʹ यह तो शुरुआत है। जब ऊँचे उठेंगे तब ये भेदभाव गायब हो जायेंगे। चौथी भूमिका वाले को ʹमहापुरुषʹ कहते हैं… ब्रह्मवेत्ता कहते हैं। उनका पुनर्जन्म नहीं होता।

तीसरी भूमिका वाले साधक ब्रह्मलोक तक जाते हैं, उनका पुनर्जन्म हो सकता है किन्तु चौथी भूमिका वालों का जब शरीर शांत होता है तब उनका स्थूल शरीर स्थूल भूतों में, सूक्ष्म शरीर सूक्ष्म सूक्ष्म भूतों में और चेतना महाकाशस्वरूप ब्रह्माण्ड में फैल जाती है। वे हमें भी अपनी इच्छा से, इच्छित लोकों में भेज सकते हैं। ज्ञानी प्रकृति से पार हो जाते हैं।

वे जीवन्मुक्त महापुरुष सुख में सुखी, दुःख में दुःखी नहीं होते हैं। वे अपने  प्राकृत आचार को करें या न करें, उन्हें कोई बंधन नहीं होता। ज्ञानवान् कैसे होते हैं ? इसके बारे में शास्त्रों में  बहुत कुछ कहा गया है, फिर भी लिखने वालों ने अंत में यही लिखा है कि ज्ञानी का अनुभव ज्ञानी जाने। एक ज्ञानी का जीवनचरित्र, स्वभाव एवं व्यवहार जरूरी नहीं कि दूसरे ज्ञानी से मिलता जुलता हो लेकिन एक ज्ञानी का अनुभव दूसरे ज्ञानी के अनुभव से मेल खाता है।

शुकः त्यागी कृष्ण भोगी जनकराघवनरेन्द्राः।

वशिष्ठः कर्मनिष्ठश्च सर्वेषां ज्ञानीनां समान मुक्ताः।।

क्रमशः

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2000, पृष्ठ संख्या 3,4 अंक 87

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गतांक का शेष

चतुर्थ भूमिका में पहुँचे हुए ब्रह्मवेत्ता की आत्मविश्रांति बनी रही तो वे साढ़े चार भूमिका को उपलब्ध होत हैं। ऐसे ब्रह्मवेत्ता महापुरुष फिर अपने आत्म-खजाने को बाँटने के लिए जगत में निकल पड़ते हैं। ऐसे सदगुरु को ब्रह्म का भी ज्ञान होता है और जगत का भी। जैसे कोई दुभाषिया हो और हिन्दी गुजराती दोनों भाषाएँ जानता हो। वह जब हिन्दी में बोलता है तब गुजराती भाषा का ज्ञान उसका छिपा हुआ होता है और जब गुजराती भाषा में बोलता है तो हिन्दी भाषा का उसका ज्ञान छिपा हुआ होता है। ऐसे ही जब ज्ञानी व्यवहार करते हैं तो परमार्थ का अनुभव उनके साथ होता है। जैसे बोलते-बोलते कुछ शब्द गुजराती के आ ही जाते हैं, वैसे ही जगत के व्यवहार करते हुए भी ज्ञानी की असली भूमिका कभी-कभार अभिव्यक्त हो ही जाती है। साधारण संसारी की नाईं रहते हुए भी उनकी परमार्थ की अनुभतियाँ छलक पड़ती है, उनका संतत्त्व छुपाये भी नहीं छुपता।

असंसक्तिः चौथी भूमिका को प्राप्त हुए महापुरुष को यदि निवृत्ति में अधिक प्रीति होती है और वे एकान्त में ध्यानमग्न रहते हैं तो उनकी फिर पाँचवीं भूमि ʹअसंसक्तिʹ आती है। उनके चित्त में नित्य परमानंद और नित्य अपरोक्ष ब्रह्मात्मभाव का अनुभव होता रहता है। चार भूमिकाओं के फलस्वरूप जो शुद्ध विभूति है, उसका नाम ʹअसंसक्तिʹ है। जैसे सोते हुए इन्सान के लिए मच्छरों की भनभनाहट सुनी-अनसुनी होती है, ऐसे ही ʹअसंसक्तिʹ में पहुँचे हुए महापुरुष के लिए जगत की ʹतू-तू…. मैं-मैं….ʹ, लाभ-हानि सब सुना-अनसुना हो जाता है।

पदार्थाभावनीः दृश्य का विस्मरण और बाहर के नाना प्रकार के पदार्थों के तुच्छ भासने का नाम ʹपदार्थाभावनीʹ है। यह छठी भूमिका है। इस भूमिका में पदार्थ मात्र की ओर जब कोई अन्य व्यक्ति इंगित करता है तब भी प्रयत्न करने पर उसकी प्रतीति होती है। आत्मविश्रांति की वजह से बाह्य एवं आंतरिक पदार्थों की अभावना हो जाती है। कोई मुँह में अन्न का ग्रास रखता है, तब कहीं वे खाते हैं-ऐसी यह छठवीं भूमिका है।

फिर वे महापुरुष ज्यों-ज्यों ज्ञान में गहरे उतरते जायेंगे, त्यों-त्यों लोगों की, जगत की पहचान भूलते जायेंगे। तत्त्वज्ञान की इतनी गहराई होती है कि वहाँ नामरूप की सत्यता ही मिट जाती है।

घाटवाले बाबा का कहना हैः “भगवान श्रीकृष्ण की चौथी भूमिका थी इसलिए उनको बाह्य जगत का ज्ञान भी था और ब्रह्मज्ञान भी था। श्रीरामजी की चौथी भूमिका थी। जड़भरत की पाँचवीं भूमिका थी। जब कभी जहाँ कहीं चल दिये तो चल दिये। पता भी नहीं चलता था कि कहाँ जा रहे हैं। ऋषभदेव छठवीं भूमिका में थे। उन्हें अपने शरीर का भी भान नहीं रहता था। इसीलिए वे एक बार ऐसे वन में सशरीर प्रवेश कर गये जिसमें आग लगी थी और उनका शरीर वहीं शांत हो गया, स्वयं ब्रह्म में लीन हो गये।”

यह है छठवीं भूमिका।

तुर्याः सभी भूमिकाएँ जहाँ एकता को प्राप्त हों, उसका नाम ʹतुर्याʹ है। प्रथम तीन भूमिकाएँ जगत की जाग्रत अवस्था में हैं। चौथी, पाँचवीं, छठवीं एवं सातवीं जीवन्मुक्त की अवस्थाएँ हैं। इन सातों भूमिकाओं से परे विदहेमुक्ति है। उसे ʹतुरीयातीतʹ पद कहते हैं।

पहली भूमिका यूँ मान लो कि दूर से दरिया की ठंडी हवा आती प्रतीत हो रही है।

दूसरी भूमिकाः आप दरिया के किनारे पहुँचे हैं।

तीसरी भूमिकाः आपके पैरों को दरिया का पानी छू रहा है।

चौथी भूमिकाः आप कमर तक दरिया में पहुँच गये हैं। अब गर्म हवा आप पर प्रभाव नहीं डालेगी। शरीर का भी पानी छू रहा है और आस-पास भी ठंडी लहरें उठ रही हैं। लेकिन आप दरिया में भी हैं और बाहर भी हैं।

पाँचवीं भूमिकाः छाती तक, गले तक आप दरिया में आ गये।

छठवीं भूमिकाः जल आपकी आँखों को छू रहा है, बाहर का जगत दिखता नहीं। पलकों तक पानी आ गया। कोशिश करने पर बाहर का जगत दिखता है।

सातवीं भूमिकाः आप दरिया में पूरी तरह से डूब गये। ऐसी अवस्था तो कभी-कभी हजारों-लाखों वर्षों में किसी महापुरुष की होती है।

कई  वर्षों के बाद चौथी भूमिकावाले ब्रह्मज्ञानी महापुरुष पैदा होते हैं। करोड़ों में कोई विरला ऐसी चौथी भूमिका तक पहुँचा हुआ मिलता है। कोई उन्हें ʹमहावीरʹ कह देते हैं तो कोई ʹभगवानʹ कहते हैं, कोई उन्हें ʹअवतारीʹ कहते हैं तो कोई ʹब्रह्मʹ कहते हैं और कोई ʹतारणहारʹ कहते हैं। कभी उनका कबीर नाम पड़ा तो कभी रमण महर्षि…. कभी रामतीर्थ नाम पड़ा तो कभी शंकराचार्य…. कभी भगवान कृष्ण नाम पड़ा तो कभी भगवान बुद्ध…. लेकिन ज्ञान में सबकी एकता होती है। चौथी भूमिका में आत्म-साक्षात्कार हो जाता है। फिर ऐसे महापुरुष उसके विशेष आनंद में पाँचवीं – छठवीं भूमिका में रहें या लोक-सम्पर्क में अपना समय लगायें, उनकी मौज है। जो चार-साढ़े चार भूमिका में रहते हैं, उनके द्वारा लोककल्याण के काम बहुत ज्यादा होते हैं। इसीलिए वे लोग प्रसिद्ध होते हैं और पाँचवीं-छठवीं भूमिका में चले जाते हैं, वे प्रसिद्ध नहीं होते लेकिन मुक्ति सबकी एक जैसी होती है।

इन परमात्म-प्राप्ति की सप्त-भूमिकाओं को जो श्रद्धा-भक्ति से पढ़ता व सुनता है, उसके पापों का क्षय होता है और वह अक्षय पुण्य को पाता है।

समाप्त।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2000, पृष्ठ संख्या 3,4 अंक 88

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स्वधर्मे निधनं श्रेयः


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

प्रत्येक मनुष्य को अपने धर्म के प्रति श्रद्धा एवं आदर होना चाहिए। भगवान श्रीकृष्ण ने भी कहा हैः

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुतिष्ठात्।

स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।

ʹअच्छी प्रकार आचरण किये हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है।ʹ (गीताः 3.35)

जब भारत पर मुगलों का शासन था, तब की यह घटित घटना हैः

चौदह वर्षीय हकीकत राय विद्यालय में पढ़ने वाला सिंधी बालक था। एक दिन कुछ बच्चों ने मिलकर हकीकत राय को गालियाँ दीं। पहले तो वह चुप रहा। वैसे भी सहनशीलता तो हिन्दुओं का गुण है ही…. किन्तु जब उन उद्दण्ड बच्चों ने गुरुओं के नाम की और झूलेलाल व गुरु नानक के नाम को गालियाँ देना शुरु किया तब उस वीर बालक से अपने गुरु और धर्म का अपमान सहा नहीं गया।

हकीकत राय ने कहाः “अब हद हो गयी ! अपने लिये तो मैंने सहनशक्ति का उपयोग किया लेकिन मेरे धर्म, गुरु और भगवान के लिए एक भी शब्द बोलेंगे तो यह मेरी सहनशक्ति से बाहर की बात है। मेरे पास भी जुबान है। मैं भी तुम्हें बोल सकता हूँ।”

उद्दण्ड बच्चों ने कहाः “बोलकर तो दिखा ! हम तेरी खबर ले लेंगे।”

हकीकत राय ने भी उनको दो चार कटु शब्द सुना दिये। बस, उन्हीं दो चार शब्दों को सुनकर मुल्ला-मौलवियों का खून उबल पड़ा। वे हकीकत राय को ठीक करने का मौका ढूँढने लगे। सब लोग एक तरफ और हकीकत राय अकेला दूसरी तरफ।

उस समय मुगलों का शासन था इसलिए हकीकत राय को जेल में बन्द कर दिया गया।

मुगल शासकों की ओर से हकीकत राय को यह फरमान भेजा गया किः “अगर तुम कलमा पढ़ लो और मुसलमान बन जाओ तो तुम्हें अभी माफ कर दिया जायेगा और यदि तुम मुसलमान नहीं बनोगे तो तुम्हारा सिर धड़ से अलग कर दिया जायेगा।”

हकीकत राय के माता-पिता जेल के बाहर आँसू बहा रहे थे किः “बेटा ! तू मुसलमान बन जा। कम से कम हम तुम्हें जीवित देख सकेंगे !” ….. लेकिन उस बुद्धिमान सिंधी बालक ने कहाः

“क्या मुसलमान बन जाने के बाद मेरी मृत्यु नहीं होगी ?”

माता-पिताः “मृत्यु तो होगी।”

हकीकत रायः “…तो फिर मैं अपने धर्म में ही मरना पसंद करूँगा। मैं जीते-जी दूसरों के धर्म में नहीं जाऊँगा।”

क्रूर शासकों ने हकीकत राय की दृढ़ता देखकर अनेको धमकियाँ दीं लेकिन उस बहादुर किशोर पर उनकी धमकियों का जोर न चल सका। उसके दृढ़ निश्चय को पूरा राज्य-शासन भी न डिगा सका।

अंत में मुगल शासक ने उसे प्रलोभन देकर अपनी और खींचना चाहा लेकिन वह बुद्धिमान व वीर किशोर प्रलोभनों में भी नहीं फँसा।

आखिर क्रूर मुसलमान शासकों ने आदेश दिया किः “अमुक दिन बीच मैदान में हकीकत राय का शिरोच्छेद किया जायेगा।”

उस वीर हकीकत राय ने गुरु का मंत्र ले रखा था। गुरुमंत्र जपते-जपते उसकी बुद्धि सूक्ष्म हो गयी थी। वह चौदह वर्षीय किशोर जल्लाद के हाथ में चमचमाती हुई तलवार देखकर जरा भी भयभीत न हुआ वरन् वह अपने गुरु के दिये हुए ज्ञान को याद करने लगा किः “यह तलवार किसको मारेगी ? मार-मारकर इस पंचभौतिक शरीर को ही तो मारेगी और ऐसे पंचभौतिक शरीर तो कई बार मिले और कई बार मर गये। ….तो क्या यह तलवार मुझे मारेगी ? नहीं। मैं तो अमर आत्मा हूँ… परमात्मा का सनातन अंश हूँ। मुझे यह कैसे मार सकती है ? ૐ…ૐ….ૐ…

हकीकत राय गुरु के इस ज्ञान का चिंतक कर रहा था, तभी क्रूर काजियों ने जल्लाद को तलवार चलाने का आदेश दिया। जल्लाद ने तलवार उठायी लेकिन उस निर्दोष बालक को देखकर उसकी अंतरात्मा थरथरा उठी। उसके हाथों से तलवार गिर पड़ी और हाथ काँपने लगे।

काज़ी बोलेः “तुझे नौकरी करनी है कि नहीं ? यह तू क्या कर रहा है ?”

तब हकीकत राय ने अपने हाथों से तलवार उठायी और जल्लाद के हाथ में थमा दी। फिर वह किशोर हकीकत राय आँखें बंद करके परमात्मा का चिंतन करने लगाः ʹहे अकाल पुरुष ! जैसे साँप केंचुली का त्याग करता है वैसे ही मैं यह नश्वर देह छोड़ रहा हूँ। मुझे तेरे चरणों की प्रीति देना ताकि मैं तेरे चरणों में पहुँच जाऊँ… फिर से मुझे वासना का पुतला बनाकर इधर-उधर न भटकना पड़े… अब तू मुझे अपनी ही शरण में रखना…..

मैं तेरा हूँ…तू मेरा है… हे मेरे अकाल पुरुष !ʹ

इतने में जल्लाद ने तलवार चलायी और हकीकत राय का सिर धड़ से अलग हो गया।

हकीकत राय ने 14 वर्ष की नन्हीं सी उम्र में धर्म के लिए अपनी कुर्बानी दे दी। उसने शरीर छोड़ दिया लेकिन धर्म न छोड़ा।

गुरुतेगबहादुर बोलिया, सुनो सिखों ! बड़भागिया, धड़ दीजै धरम न छोडिये…

हकीकत राय ने अपने जीवन में यह चरितार्थ करके दिखा दिया।

हकीकत राय तो धर्म के लिए बलिवेदी पर चढ़ गया लेकिन उसकी कुर्बानी ने सिंधी समाज के हजारों-लाखों जवानों में एक जोश भर दिया किः

ʹधर्म की खातिर प्राण देना पड़े तो देंगे लेकिन विधर्मियों के आगे कभी नहीं झुकेंगे। भले अपने धर्म में भूखे मरना पड़े तो स्वीकार है लेकिन परधर्म को कभी स्वीकार नहीं करेंगे।ʹ

ऐसे वीरों के बलिदान के फलस्वरूप ही हमें आजादी प्राप्त हुई है और ऐसे लाखों-लाखों प्राणों की आहूति द्वारा प्राप्त की गयी इस आजादी को हम कहीं व्यसन, फैशन एवं चलचित्रों से प्रभावित होकर गँवा न दें ! अब देशवासियों को सावधान रहना होगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2000, पृष्ठ संख्याः 25,26 अंक 88

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सब दुःखों से सदा के लिए मुक्ति


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

असंभव को संभव करने की बेवकूफी छोड़ देना चाहिए और जो संभव है उसको करने में लग जाना चाहिए। शरीर एवं संसार की वस्तुओं को सदा सँभाले रखना असंभव है अतः उसमें से प्रीति हटा लो। मित्रों को, कुटुम्बियों को, गहने-गाँठों को साथ ले जाना असंभव है अतः उसमें से आसक्ति हटा लो। संसार को अपने कहने में चलाना असंभव है लेकिन मन को अपने कहने में चलाना संभव है। दुनिया को बदलना असंभव है लेकिन अपने विचारों को बदलना संभव है। कभी दुःख न आये ऐसा बनना असंभव है लेकिन सुख चले जाने पर भी दुःख की चोट न लगे, ऐसा चित्त बनाना संभव है। अतः जो संभव है उसे कर लेना चाहिए और जो असंभव है उससे टक्कर लेने की जरूरत क्या है ?

एक बालक  परीक्षा में लिखकर आ गया कि ʹमध्य प्रदेश की राजधानी इन्दौर है।ʹ घर आकर उसे ध्यान आया कि, ʹहाय रे हाय ! मैं तो गलत लिखकर आ गया। मध्य प्रदेश की राजधानी तो भोपाल है।ʹ

वह नारियल, तेल व सिंदूर लेकर हनुमानजी के पास गया एवं कहने लगाः “हे हनुमानजी ! एक दिन के लिए ही सही, मध्य प्रदेश की राजधानी इन्दौर बना दो।”

अब उसके सिंदूर, तेल व एक नारियल से मध्य प्रदेश की राजधानी इन्दौर हो जायेगी क्या ? एक नारियल तो क्या, पूरी एक ट्रक भरकर नारियल रख दे लेकिन यह असंभव बात है कि एक दिन के लिए राजधानी इन्दौर हो जाये। अतः जो असंभव है उसका आग्रह छोड़ दो एवं जो संभव है उस कार्य को प्रेम से करो।

बाहर के मित्र को सदा साथ रखना संभव नहीं है लेकिन अंदर के मित्र (परमात्मा) का सदा स्मरण करना एवं उसे पहचानना संभव है। बाहर के पति-पत्नी, परिवार, शरीर को साथ ले जाना संभव नहीं है लेकिन मृत्यु के बाद भी जिस साथी का साथ नहीं छूटता उस साथी के साथ का ज्ञान हो जाना, उस साथी से प्रीति हो जाना – यह संभव है।

एक होती है वासना, जो हमें असंभव को संभव करने में लगती है। संसार में सदा सुखी रहना असंभव है लेकिन आदमी संसार में सदा सुखी रहने के लिए मेहनत करता रहता है। संसार में सदा संयोग बनाये रखना असंभव है लेकिन आदमी सदा संबंध बनाये रखना चाहता है कि रूपये चले न जायें, मित्र रूठ न जायें, देह मर न जाये…. लेकिन देह मरती है, मित्र रूठते हैं, पैसे जाते हैं या पैसे को छोड़कर पैसे वाला चला जाता है। जो असंभव को संभव करने में लगे वह है वासना का वेग। उस वासना को भगवत्प्रीति में बदल दो।

एक होती है वासना, दूसरी होती है प्रीति एवं तीसरी होती है जिज्ञासा। ये तीनों चीजें जिसमें रहती हैं उसे बोलते हैं जीव। यदि जीव को अच्छा संग  मिल जाये, अच्छी दिशा मिल जाये, नियम और व्रत मिल जायें तो धीरे-धीरे असंभव से वासना मिटती जायेगी। रोग मिटता जाता है तो स्वास्थ्य अपने आप आता है, अँधेरा मिटता है तो प्रकाश अपने-आप आता है। नासमझी मिटती है तो समझ अपने आप आ जाती है। ज्यों-ज्यों जप करेगा त्यों-त्यों मन पवित्र और सात्त्विक होगा, प्राणायाम करेगा तो बुद्धि शुद्ध होगी एवं शरीर स्वस्थ रहेगा और सत्संग सुनेगा तो दिव्य ज्ञान प्राप्त होगा। इस प्रकार जप, प्राणायाम, सत्संग, साधन-भजन आदि करते रहने से धीरे-धीरे वासना क्षीण होने लगेगी एवं वह जीव सुखी होता जायेगा। जितन वासना तेज उतना तेज वह दुःखी, जितनी वासना कम उतना कम दुःखी औऱ वासना अगर बाधित हो गयी तो वह निर्दुःख नारायण का स्वरूप हो जायेगा।

नियम-व्रत के पालन से, धर्मानुकूल चेष्टा करने से वासना नियंत्रित होती है। धारणा-ध्यान से वासना शुद्ध होती है, समाधि से वासना शांत होती है और परमात्मज्ञान से वासना बाधित हो जाती है।

ज्यों-ज्यों वासना कम होती जायेगी और भगवदप्रीति बढ़ती जायेगी त्यों-त्यों जिज्ञासा उभरती जायेगी। जानने की इच्छा जागृत होगी कि ʹवह कौन है जो सुख को भी देखता है और दुःख को भी देखता है ? वह कौन है जिसको मौत नहीं मार सकती ? वह कौन है कि सृष्टि के प्रलय के बाद भी जिसका बाल तक बाँका नहीं होता ? आत्मा क्या है ? परमात्मा क्या है ? जगत की उत्पत्ति, स्थिति एवं प्रलय का हेतु क्या है ? बन्धनों से मुक्ति कैसे हो ? जीव क्या है ? ब्रह्म को कैसे जानें ? जिससे जीव और ईश्वर की सत्ता है उस ब्रह्म को कैसे जानें ?ʹ इस प्रकार के विचार उत्पन्न होने लगेंगे। इसी को ʹजिज्ञासाʹ बोलते हैं।

ʹजहाँ चाह वहाँ राह।ʹ मनुष्य का जिस प्रकार का विचार और निर्णय होता है वह उसी प्रकार का कार्य करता है। अतः वासनापूर्ति के लिए जीवन को खपाना उचित नहीं, वासना को निवृत्त करें।

एक बार श्रीरामकृष्ण परमहंस को बोस्की का कुर्ता एवं हीरे की अँगूठी पहनने की इच्छा हुई, साथ ही हुक्का पीने की भी। उन्होंने अपने एक शिष्य से ये तीनों चीजें मँगवायीं। चीजें आ गयीं तो तब गंगा किनारे एक झाड़ी की आड़ में उन्होंने कुर्ता पहना, अँगूठी पहनी एवं हुक्के की कुछ फूँकें लीं और जोर से खिलखिलाकर हँस पड़े किः ʹले क्या मिला ? अँगूठी पहनने से कितना सुख मिला ? हुक्का पीने से क्या मिला ? भोग भोगने से पहले जो स्थिति होती है, भोग भोगने के बाद वैसी ही या उससे भी बदतर हो जाती है….ʹ

इस प्रकार उन्होंने अपने मन को समझाया। वासना से मन उपराम हुआ। रामकृष्ण परमहंस प्रसन्न हुए। अँगूठी गंगा में फेंक दी, हुक्का लुढ़का दिया और कुर्ता फाड़कर फेंक दिया।

शिष्य छुपकर यह सब देख रहा था। बोलाः

“गुरु जी ! यह क्या ?”

रामकृष्णः “रात्रि को स्वप्न आया था कि मैंने ऐसा-ऐसा पहना है। अवचेतन मन में छुपी हुई वासना थी। वह वासना कहीं दूसरे जन्म में न ले जाये इसलिए वासना से निवृत्त होने के लिए सावधानी से मैंने यह उपक्रम कर लिया।”

वासना से बचते हैं तो प्रीति उत्पन्न होती है और प्रीति से हम ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते जायेंगे, त्यों-त्यों भगवत्स्वरूप तत्त्व गी जिज्ञासा उभरती जायेगी। भगवान का सच्चा भक्त अज्ञानी कैसे रह सकता है ? भगवान में प्रीति होगी तो भगवद्-चिन्तन, भगवद् ध्यान, भगवद्स्मरण होने लगेगा। भगवान ज्ञानस्वरूप हैं अतः अंतःकरण में ज्ञान की जिज्ञासा उत्पन्न होगी और उस जिज्ञासा की पूर्ति भी होगी।

इसीलिए गुरुपूनम आदि पर्व मनाये जाते हैं ताकि गुरुओं का सान्निध्य मिले, वासना से बचकर भगवत्प्रीति, भगवद्ज्ञान में आयें एवं भगवद्ज्ञान पाकर सदा के लिए सब दुःखों से छूट जायें।

वासना की चीजें अऩेक हो सकती हैं लेकिन माँग सबकी एक ही होती है और वह माँग है सब दुःखों से सदा के लिए मुक्ति एवं परमानंद की प्राप्ति। कोई रूपये चाहता है तो कोई गहने-गाँठें…. लेकिन सबका उद्देश्य यही होता है कि दुःख मिटे और सुख सदा टिका रहे। सुख के साधन अनेक हो सकते हैं लेकिन सुखी रहने का उद्देश्य सबका एक है। दुःख मिटाने के उपाय अनेक हो सकते हैं लेकिन दुःख मिटाने का उद्देश्य सब का एक है, चाहे चोर या साहूकार। साहूकार दान-पुण्य क्यों करता है कि यश मिले। यश से क्या होगा ? सुख मिलेगा। भक्त दान-पुण्य क्यों करता है कि भगवान रीझें। भगवान के रीझने से क्या होगा ? आत्म संतोष मिलेगा। व्यापारी दान-पुण्य क्यों करता है कि धन की शुद्धि होगी। धन की शुद्धि से मन शुद्ध होगा, सुखी होंगे। दान लेने वाला दान क्यों लेता है कि दान से घर का गुजारा चलेगा, मेरा काम बनेगा अथवा इस दान को सेवाकार्य में लगायेंगे। इस प्रकार मनुष्य जो-जो चेष्टाएँ करता है वह सब दुःखों को मिटाने के लिए एवं सुख को टिकाने के लिए ही करता है।

वासनापूर्ति से सुख टिकता नहीं और दुःख मिटता नहीं। अतः वासना को विवेक से निवृत्त करो। जैसे, पहले के जमाने में लोग तीर्थों में जाते थे तो जिस वस्तु के लिए ज्यादा वासना होती थी वही छोड़कर आते थे। ब्राह्मण पूछते थे किः ʹतुम्हारा प्रिय पदार्थ क्या है ?ʹ कोई कहता किः ʹसेब है।ʹ …..तो ब्राह्मण कहताः “सेव का तीर्थ में त्याग कर दो, भगवान के चरणों में अर्पण कर दो कि अब साल-दो साल तक सेव नहीं खाऊँगा।”

जो अधिक प्रिय होगा उसमें वासना प्रगाढ़ होगी और जीव दुःख के रास्ते जायेगा। अगर उस प्रिय वस्तु का त्याग कर दिया तो वासना कम होती जायेगी एवं भगवदप्रीति बढ़ती जायेगी।

कोई कहे किः ʹमहाराज ! हमको सत्संग में मजा आता है।ʹ सत्संग में तो वासना निवृत्त होती है और प्रीति का सुख मिलता है। मजा अलग बात है और शांति, आनंद अलग बात है। ʹसत्संग से मजा आता हैʹ यह नासमझी है। सत्संग से शांति मिलती है, भगवत्प्रीति का सुख होता है। विषय-विकारों को भोगने से जो मजा आता है वैसा मजा सत्संग में नहीं आता। सत्संग का सुख तो दिव्य प्रीति का सुख होता है। इसीलिए कहा गया हैः

तीरथ नहाये एक फल, संत मिले फल चार।

सदगुरु मिले अनंत फल, कहत कबीर विचार।।

अनंत फल देने वाली भगवत्प्रीति है। अतः जिज्ञासुओं को, साधकों को, भक्तों को वासनाओं से  धीरे-धीरे अपना पिण्ड छुड़ाने का अभ्यास करना चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2000, पृष्ठ संख्या 5-8, अंक 88

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