Monthly Archives: April 2000

लक्ष्य सबका एक है….


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

जन्म का कारण है अज्ञान, वासना। संसार में सुख तो मिलता है क्षण भर का, लेकिन भविष्य अंधकारमय हो जाता है। जबकि भगवान के रास्ते चलने में शुरुआत में कष्ट तो होता है, सयंम रखना पड़ता है, सादगी में रहना पड़ता है, ध्यान-भजन में चित्त लगाना पड़ता है, लेकिन बाद में अनंत ब्रह्माण्डनायक, परब्रह्म परमात्मा के साथ अपनी जो सदा एकता थी, उसका अनुभव हो जाता है।

संसार का सुख भोगने के लिए पहले तो परिश्रम करो, बाद में स्वास्थ्य अनुकूल हो और वस्तु अऩुकूल हो तो सुख होगा लेकिन क्रियाजन्य सुख में पराधीनता, शक्तिहीनता और जड़ता है। इससे बढ़िया सुख है धर्मजन्य सुख। धर्म करने में तो कष्ट सहना पड़ता है लेकिन उसका सुख परलोक तक मदद करता है। अतल, वितल, तलातल, रसातल, पाताल, भूलोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, जनलोक, तपलोक आदि के सुख प्राप्त होते हैं।

योग में भी यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि… इस प्रकार परिश्रम करना पड़ता है जिससे चित्त की शांतिरूपी फल यहीं मिलता है और परलोक में भी सदगति होती है लेकिन परिश्रम तो करना ही पड़ता है।

ज्ञानमार्ग में भी श्रवण-मनन-निदिध्यासन का सुखद परिश्रम तो करना ही पड़ता है। एक भगवद् भक्ति ही है कि जिसमें परिश्रम की जगह पर भगवान से प्रेम है और भगवान से प्रेम होता है भगवान को अपना आपा मानने से। भगवान में प्रीति होने से भक्तिरस शुरु होता है। भक्ति करने में भी रस और भोगने में भी रस। इसमें कभी कमी नहीं होती वरन् यह नित्य नवीन एवं बढ़ता रहता है।

भजनस्य किं लक्षणम् ? भजनस्य लक्षणं रसनम्। जिससे अंतरात्मा का रस  उत्पन्न हो, उसके नाम है भजन। भक्त्याः किं लक्षणम् ? भागो ही भक्तिः। उपनिषदों में यह विचार आया है। भक्ति का लक्षण क्या है ? जो भाग कर दे, विभाग कर दे कि यह नित्य है, यह अनित्य है…. यह अंतरंग है, यह बहिरंग है… यह (शरीर) छूटने वाला है, यह (आत्मा) सदा रहने वाला है…. वह भक्ति है। शरीर व संसार नश्वर है, जीवात्मा-परमात्मा शाश्वत है।

जो सदा रहती है, उससे प्रीति कर लें, बस। ऐसा न सोचें कि दुनिया कब हुई ? कैसे हुई ? वरन् दुनिया के सार में मन लगायें। दुनिया का सार है परमात्मा। उसी परमात्मा के विषय में सोचें, उसी के विषय में सुनें तो भगवत्प्रीति बढ़ने लगेगी। भगवत्संबंधी बातें सुनें, बार-बार उन्हीं का मनन करें।

ʹमुझमें काम है…. मुझमें क्रोध है…ʹ इन विघ्नों से, दुर्गुणों से लड़ो मत और न ही अपने सदगुणों का चिंतन करके अहंकार करो, वरन् मन को भगवान में लगाओ तो दुर्गुण की वासना औऱ सदगुण का अहंकार दोनों ढीले हो जायेंगे और अपना मन अपने परमेश्वर में लग जायेगा। यही तो जीवन की कमाई है !

संसारतापतप्तानां योगो परम औषधः।

संसार के ताप में तपे हुए जीवों के लिए योग परम औषध है। योग तीन प्रकार का होता हैः पहला है ज्ञान योग। तीव्र विवेक हो, वैराग्य हो। ʹमैं देह नहीं… मन नहीं…. इन्द्रियाँ नहीं…. बुद्धि नहीं…. ʹ(ऐसा विचार करते-करते सबसे अलग निर्विचार अपने नारायणस्वरूप में टिक जायें। भले, पहले दस सैकेण्ड तक ही टिकें, फिर बीस, पच्चीस, तीस सैकेण्ड.. ऐसा करते-करते तीन मिनट ता निर्विचार अपने नारायणस्वरूप में टिक जायें तो हो जायेगा कल्याण। यह एक दिन… दो दिन… एक महीने… दो महीने का काम नहीं है। इसके लिए दीर्घकाल तक दृढ़ अभ्यास चाहिए। चिरकाल की वासनाएँ एवं चिरकाल की चंचलता चिरकाल के अभ्यास से ही मिटेगी।

दूसरा है ध्यानयोग। देशबंधस्य चित्तस्य धारणा। एक देश में अपनी वृत्ति को बाँधना, एकाग्र करना….  इसका नाम है धारणा। भगवान, स्वास्तिक, दीपक की लौ अथवा गुरु-गोविंद को देखते-देखते एकाग्र होते जायें। मन इधर-उधर जाये तो उसे पुनः एकाग्र करें। इसको धारणा बोलते हैं।  12 निमेष तक मन एक जगह पर रहे तो धारणा बनने लगती है।

आँख की पलकें एक निमेष में गिरती हैं।

12 निमेष = 1 धारणा। ऐसी 12 धारणाएँ हो जायें तो ध्यान लगता है। ध्यानयोगी अपने आपका मार्गदर्शक बन जाता है। 12 ध्यान = 1 सविकल्प समाधि और 12 सविकल्प समाधि = 1 निर्विकल्प नारायण में स्थिति।

तीसरा है भक्तियोग। भगवान को अपना मानना एवं अपने को भगवान का मानना। जो तिदभावे सो भलिकार…. परमात्मा की इच्छा में अपनी इच्छा मिला देना, पूर्ण रूप से उसी की शरण ग्रहण करना… यही भक्तियोग है।

जैसे बिल्ली अपने मुँह से चूहे को पकड़ती है,  उसी मुँह से अपने बच्चों को पकड़कर ले जाती है। उसके मुँह में आकर उसका बच्चा तो सुरक्षित हो जाता है लेकिन चूहे की क्या दशा होती है ? ऐसे ही जो भगवान का हो जाता है, वह संसारमाया से पूर्णतया सुरक्षित हो जाता है। उसकी पूरी सँभाल भगवान स्वयं करते हैं। फिर उसके पास अपना कहने को कुछ नहीं बचता तो उसमें वासना टिक कैसे सकती है।

अतः किसी भी योग का आश्रय लो…. ज्ञानयोग, ध्यानयोग या भक्तियोग का, सबका उद्देश्य तो एक ही हैः सब दुःखों से सदा के लिए निवृत्ति और परमानंद की प्राप्ति। ईश्वरप्रीत्यर्थ निष्काम भाव से किये गये कर्म कर्मयोग हैं। दुर्वासना ही जीव को चौरासी के चक्कर में भटकाती है एवं वासनानिवृत्ति से ही जीव चौरासी के चक्कर से छूटकर नित्य शुद्ध-बुद्ध चैतन्यस्वरूप, आनंदस्वरूप, सत्यस्वरूप परमात्मा में प्रतिष्ठित हो जाता है।

स्रोतः ऋषिप्रसाद, अप्रैल 2000, पृष्ठ संख्या 14,15 अंक 88

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भगवान के अवतार भारत में ही क्यों ?


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

यह प्रकृति का विधान है कि जिसे जिस समय जिस वस्तु की अत्यन्त आवश्कता होती है उसे पूरी करने वाला उसके पास पहुँच जाता है या तो मनुष्य स्वयं ही वहाँ पहुँच जाता है जहाँ उसकी आवश्यकता पूरी होने वाली है।

मुझसे ʹविश्व धर्म संसदʹ में पत्रकारों ने पूछाः

“भारत मे ही भगवान के अवतार क्यों होते है ? हिन्दुस्तान में ही भगवान क्यों जन्म लेते हैं ? जब सारी सृष्टि भगवान की ही है तो आपके भगवान ने यूरोप या अमेरिका में अवतार क्यों नहीं लिया ? नानकजी या कबीरजी जैसे महापुरुष इन देशों में क्यों नहीं होते ?”

मैंने उनसे पूछाः “जहाँ हरियाली होती है वहाँ बादल क्यों आते हैं और जहाँ बादल होते हैं वहाँ हरियाली क्यों होती है ?”

उन्होंने जवाब दियाः “बापू जी ! यह तो प्राकृतिक विधान है।”

तब मैंने कहाः “हमारे देश में अनादि काल से ही ब्रह्मविद्या और भक्ति का प्रचार हुआ है। इससे वहाँ भक्त पैदा होते रहे। जहाँ भक्त हुए वहाँ भगवान की माँग हुई तो भगवान आये और जहाँ भगवान आये वहाँ भक्तों की भक्ति और भी पुष्ट हुई । अतः जैसे जहाँ हरियाली वहाँ बादल और जहाँ बादल वहाँ हरियाली होती है वैसे ही हमारे देश में भक्तिरूपी हरियाली है इसलिए भगवान भी बरसने के लिए बार-बार आते हैं।”

मैं दुनियाँ के बहुत देशों में घूमा, कई जगह प्रवचन भी किये परन्तु भारत जितनी तादाद में तथा शांति से किसी दूसरे देश के लोग सत्संग सुन पाये हों ऐसा आज तक मैंने किसी भी देश में नहीं देखा। फिर चाहे ʹविश्व धर्म संसदʹ ही क्यों न हो। जिसमें विश्वभर के वक्ता आये वहाँ बोलने वाले 600 और सुनने वाले 1500 ! भारत में तो हररोज सत्संग के महाकुंभ लगते रहते हैं। भारत में आज भी लाखों की संख्या में हरिकथा के रसिक हैं। घरों में ʹगीताʹ एवं ʹरामायणʹ का पाठ होता है। भगवत्प्रेमी संतों के सत्संग में जाकर, उनसे ज्ञान-ध्यान प्राप्त कर श्रद्धालु अपना जीवन धन्य कर लेते हैं। अतः जहाँ-जहाँ भक्त और भगवत्कथा-प्रेमी होते हैं वहाँ-वहाँ भगवान और संतों का प्रागट्य भी होता ही रहता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2000, पृष्ठ संख्या 7, अंक 88

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द्रव्यशक्ति एवं भावशक्ति


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग प्रवचन से

दो प्रकार की शक्तियाँ होती हैं- द्रव्यशक्ति और भावशक्ति। द्रव्यशक्ति और भावशक्ति से ही संस्कार बनते हैं… द्रव्य संस्कार और भावसंस्कार। इन दो शक्तियों के आधार पर ही सबका जीवन चलता है।

अन्न, जल, फल आदि जो द्रव्य हम खाते हैं, उनसे हमारे शरीर को पुष्टि मिलती है। ऋतु के अनुसार हम कोई चीज खाते हैं तो स्वस्थ रहते हैं और ऋतु के विपरीत कुछ खाते हैं तो बीमार होते हैं। स्वास्थ्य के अनुकूल हम कोई चीज खाते हैं तो स्वस्थ रहते हैं, स्वास्थ्य के प्रतिकूल कुछ खाते हैं तो बीमार पड़ते हैं। इसी प्रकार समय के अनुकूल हम कोई चीज खाते हैं तो स्वस्थ रहते हैं किन्तु समय के प्रतिकूल, देर रात्रि से या प्रदोषकाल में कुछ खाते हैं तो बीमार होते हैं। इस द्रव्य शक्ति का प्राकृतिक संबंध हमारे शरीर के साथ है। द्रव्य-शक्ति का सदुपयोग करने से हमारा स्वास्थ्य अच्छा रहता है।

द्रव्य शक्ति से ऊँची है भाव शक्ति। भाव के द्वारा जो अपने को जैसा मानता है वैसा ही बन जाता है। भावशक्ति बड़ी गजब की है। भावशक्ति से ही स्त्री-पुरुष बनते हैं, भावशक्ति से ही पापी-पुण्यात्मा बनते हैं। इसी शक्ति से हम अपने को सुखी-दुःखी मानते हैं। भावशक्ति से ही हम अपने को तुच्छ या महान मानते हैं। इसीलिए भावशक्ति का ठीक-ठीक विकास करना चाहिए। सदैव उत्तम भाव करें, मन में कभी हीन या दुःखद भाव न आने दें।

द्रव्यशक्ति की तो कहीं कमी नहीं, खान-पान की चीजें तो सभी देशों में उपलब्ध हैं लेकिन आज विश्व में भावशक्ति की बहुत कमी पड़ रही है। एक आदमी दूसरे आदमी का शोषण करके सुखी होना चाहता है, एक गाँव दूसरे गाँव का गला घोंटकर सुखी होना चाहता है, एक प्रांत दूसरे प्रांत का शोषण करके सुखी होना चाहता है, एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को गुलाम बनाकर सुखी होना चाहता है। यह सब आत्मीयतापूर्ण भावशक्ति के अभाव का ही परिणाम है।

शेर ने हाथी के मस्तक का खून पिया है फिर भी जब जंगल में जाता है तो पीछे मुड़-मुड़ कर देखता है कि ʹकोई मुझे खा न जाये ! कोई मुझे मार न डाले !ʹ अरे कमबख्त ! तूने तो हाथियों को मारा है, तुझे कौन मारने को आ सकता है ? ….लेकिन उसकी हिंसा-प्रवृत्ति ही उसको डराती है। ऐसे ही शोषण करने वाले व्यक्ति अपने-आपको ही शोषित करते रहते हैं।

हराम की कमाई करने वालों के बेटे-बेटियाँ एवं परिवारवालों की मति भी वैसी ही हो जाती है। नाहक का धन बहुत-बहुत तो दस साल तक टिकता है, फिर तो उसी प्रकार स्वाहा हो जाता है जैसे रुई के गोदाम में आग लगने पर पूरी रूई स्वाहा हो जाती है। इसीलिए शोषण करके, दगाबाजी-धोखाधड़ी करके धन का ढेर करने वाले लोग जीवन में दुःखी पाये जाते हैं और जीवन के अंत में देखो तो ठनठनपाल… जबकि हक की कमाई करने वालों के बेटे बेटियाँ और परिवारवाले भी सुखी रहते हैं। सबकी भलाई सोचकर आजीविका कमाने वाले एवं आत्मा-परमात्मा की ओर चलनेवाले आप भी सुखी होते हैं और उनके सम्पर्क में आने वाले भी खुशहाल होने लगते हैं।

भोग-वासना और बाह्य आडम्बर इन्सान को भीतर से खोखला कर देते हैं। आप मन-इन्द्रियों को जैसा पोषण देंगे वैसे ही वे बन जायेंगे। आप इन्द्रियों को जैसा बनाना चाहते हैं, वैसा ही उन्हें पोषण दीजिये। यह है द्रव्यसंस्कार।

अगर आप इन्द्रियों को हल्का दृश्य दिखाओगे तो इन्द्रियाँ उऩ्हीं के अधीन हो जायेंगी। मन को अगर नशीली चीजों की आदत डालोगे तो उसी तरफ उसका झुकाव हो जायेगा। यह है द्रव्य संस्कार।

भावसंस्कार कैसे डालना ? इसका ज्ञान सत्संग और सत्शास्त्र से मिलता है। इसलिए रोटी नहीं मिले तो चिंता की बात नहीं लेकिन सत्संग रोज मिलना चाहिए। सत्यस्वरूप ईश्वर का जप और ध्यान रोज होना चाहिए। साधना के अनुकूल रोज पवित्र आहार लेना चाहिए। यह है भावसंस्कार।

आप जो द्रव्य खाते हैं एवं जो भाव करते हैं उनमें भी आत्मज्ञान के संस्कार भरे दें। द्रव्य संस्कार और भावसंस्कार दोनों में आत्मज्ञान का सिंचन, सत्य का सिंचन कर दें तो अंत में दोनों का फल सत्यस्वरूप ईश्वर की प्राप्ति हो जायेगी।

द्रव्य संस्कार और भावसंस्कार दोनों पवित्र होंगे तो पवित्र सुख मिलेगा। यह पवित्र सुख परम पवित्र परमात्मा से मिला देगा। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो अपवित्र सुखाभास मिलेगा और देर-सबेर नरकों के स्वरूप में वह चैतन्य प्रगट होगा।

ʹʹबाबाजी ! सर्वत्र एवं सब में भगवान हैं तो फिर ʹयह पवित्र यह अपवित्र… यह करो यह न करो….ʹ ऐसा क्यों ?

जो आया सो खा लिया, जैसा मन में आया वैसा कर लिया तो फिर जैसा होगा वैसा ही परिणाम आयेगा। यदि आप वास्तविक सुख, पवित्र सुख चाहते हो तो सिद्धान्त के अनुसार वहीं चलना पड़ेगा जहाँ वास्तविक सुख होगा।

ʹजो आये सो करो….ʹ तो पाप करो, कोई बात नहीं। फिर भगवान नरक के रूप में, परेशानी के रूप में मिलेंगे। जब परेशानी आ जाये तो बोलना किः ʹभगवान परेशानी के रूप में आये हैं।ʹ संतोष मान लेना। पुण्य करोगे तो भगवान सुख के रूप में मिलेंगे, स्वर्ग के रूप में मिलेंगे। आप किसी को सतायेंगे तो भगवान दुश्मन के रूप में प्रगट होंगे और आप किसी को ईमानदारी से स्नेह करोगे तो भगवान मित्र के रूप में प्रगट होंगे। लेकिन अगर ऐसी  नजर बनी रही कि ʹदुश्मन के रूप में भी मेरा भगवान हैʹ तो दुश्मन हट जायेगा और भगवान रह जायेंगे। आपका भावसंस्कार बन जायेगा, कल्याण हो जायेगा। अन्यथा, दुश्मन के प्रति द्वेष होगा और मित्र के प्रति राग होगा तो फँसोगे।

करणी आपो आपनी के नेड़े के दूर।

अपनी ही करनी से इन्सान सुख के निकट या दूर होता है। अतः बुरे संस्कारों, बुरे कर्मों से बचो। भारत की दिव्य संस्कृति के दिव्य संस्कारों से आप भी सम्पन्न बनो और दूसरों को भी सम्पन्न करो। द्रव्यशक्ति के साथ-साथ अपनी भावशक्ति को इतना ऊँचा बना लो कि इस जगत के भोग तो क्या, स्वर्ग के सुखभोग भी आपको आकर्षित न कर सकें। स्वर्ग की अप्सरा का भोग भी भारत के अर्जुन के आगे तुच्छ था तो इस जगत की प्लास्टिक की पट्टियाँ (फिल्मों) का भोग क्या चीज है ?

इस लोक और परलोक के सुख से भी बढ़कर जो आत्मसुख है, उसको पाने में ही जो अपनी द्रव्यशक्ति एवं भावशक्ति का उपयोग करता है उसी का जीवन धन्य है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2000, पृष्ठ संख्या 17-19 अंक 88

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