लक्ष्य सबका एक है….

लक्ष्य सबका एक है….


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

जन्म का कारण है अज्ञान, वासना। संसार में सुख तो मिलता है क्षण भर का, लेकिन भविष्य अंधकारमय हो जाता है। जबकि भगवान के रास्ते चलने में शुरुआत में कष्ट तो होता है, सयंम रखना पड़ता है, सादगी में रहना पड़ता है, ध्यान-भजन में चित्त लगाना पड़ता है, लेकिन बाद में अनंत ब्रह्माण्डनायक, परब्रह्म परमात्मा के साथ अपनी जो सदा एकता थी, उसका अनुभव हो जाता है।

संसार का सुख भोगने के लिए पहले तो परिश्रम करो, बाद में स्वास्थ्य अनुकूल हो और वस्तु अऩुकूल हो तो सुख होगा लेकिन क्रियाजन्य सुख में पराधीनता, शक्तिहीनता और जड़ता है। इससे बढ़िया सुख है धर्मजन्य सुख। धर्म करने में तो कष्ट सहना पड़ता है लेकिन उसका सुख परलोक तक मदद करता है। अतल, वितल, तलातल, रसातल, पाताल, भूलोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, जनलोक, तपलोक आदि के सुख प्राप्त होते हैं।

योग में भी यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि… इस प्रकार परिश्रम करना पड़ता है जिससे चित्त की शांतिरूपी फल यहीं मिलता है और परलोक में भी सदगति होती है लेकिन परिश्रम तो करना ही पड़ता है।

ज्ञानमार्ग में भी श्रवण-मनन-निदिध्यासन का सुखद परिश्रम तो करना ही पड़ता है। एक भगवद् भक्ति ही है कि जिसमें परिश्रम की जगह पर भगवान से प्रेम है और भगवान से प्रेम होता है भगवान को अपना आपा मानने से। भगवान में प्रीति होने से भक्तिरस शुरु होता है। भक्ति करने में भी रस और भोगने में भी रस। इसमें कभी कमी नहीं होती वरन् यह नित्य नवीन एवं बढ़ता रहता है।

भजनस्य किं लक्षणम् ? भजनस्य लक्षणं रसनम्। जिससे अंतरात्मा का रस  उत्पन्न हो, उसके नाम है भजन। भक्त्याः किं लक्षणम् ? भागो ही भक्तिः। उपनिषदों में यह विचार आया है। भक्ति का लक्षण क्या है ? जो भाग कर दे, विभाग कर दे कि यह नित्य है, यह अनित्य है…. यह अंतरंग है, यह बहिरंग है… यह (शरीर) छूटने वाला है, यह (आत्मा) सदा रहने वाला है…. वह भक्ति है। शरीर व संसार नश्वर है, जीवात्मा-परमात्मा शाश्वत है।

जो सदा रहती है, उससे प्रीति कर लें, बस। ऐसा न सोचें कि दुनिया कब हुई ? कैसे हुई ? वरन् दुनिया के सार में मन लगायें। दुनिया का सार है परमात्मा। उसी परमात्मा के विषय में सोचें, उसी के विषय में सुनें तो भगवत्प्रीति बढ़ने लगेगी। भगवत्संबंधी बातें सुनें, बार-बार उन्हीं का मनन करें।

ʹमुझमें काम है…. मुझमें क्रोध है…ʹ इन विघ्नों से, दुर्गुणों से लड़ो मत और न ही अपने सदगुणों का चिंतन करके अहंकार करो, वरन् मन को भगवान में लगाओ तो दुर्गुण की वासना औऱ सदगुण का अहंकार दोनों ढीले हो जायेंगे और अपना मन अपने परमेश्वर में लग जायेगा। यही तो जीवन की कमाई है !

संसारतापतप्तानां योगो परम औषधः।

संसार के ताप में तपे हुए जीवों के लिए योग परम औषध है। योग तीन प्रकार का होता हैः पहला है ज्ञान योग। तीव्र विवेक हो, वैराग्य हो। ʹमैं देह नहीं… मन नहीं…. इन्द्रियाँ नहीं…. बुद्धि नहीं…. ʹ(ऐसा विचार करते-करते सबसे अलग निर्विचार अपने नारायणस्वरूप में टिक जायें। भले, पहले दस सैकेण्ड तक ही टिकें, फिर बीस, पच्चीस, तीस सैकेण्ड.. ऐसा करते-करते तीन मिनट ता निर्विचार अपने नारायणस्वरूप में टिक जायें तो हो जायेगा कल्याण। यह एक दिन… दो दिन… एक महीने… दो महीने का काम नहीं है। इसके लिए दीर्घकाल तक दृढ़ अभ्यास चाहिए। चिरकाल की वासनाएँ एवं चिरकाल की चंचलता चिरकाल के अभ्यास से ही मिटेगी।

दूसरा है ध्यानयोग। देशबंधस्य चित्तस्य धारणा। एक देश में अपनी वृत्ति को बाँधना, एकाग्र करना….  इसका नाम है धारणा। भगवान, स्वास्तिक, दीपक की लौ अथवा गुरु-गोविंद को देखते-देखते एकाग्र होते जायें। मन इधर-उधर जाये तो उसे पुनः एकाग्र करें। इसको धारणा बोलते हैं।  12 निमेष तक मन एक जगह पर रहे तो धारणा बनने लगती है।

आँख की पलकें एक निमेष में गिरती हैं।

12 निमेष = 1 धारणा। ऐसी 12 धारणाएँ हो जायें तो ध्यान लगता है। ध्यानयोगी अपने आपका मार्गदर्शक बन जाता है। 12 ध्यान = 1 सविकल्प समाधि और 12 सविकल्प समाधि = 1 निर्विकल्प नारायण में स्थिति।

तीसरा है भक्तियोग। भगवान को अपना मानना एवं अपने को भगवान का मानना। जो तिदभावे सो भलिकार…. परमात्मा की इच्छा में अपनी इच्छा मिला देना, पूर्ण रूप से उसी की शरण ग्रहण करना… यही भक्तियोग है।

जैसे बिल्ली अपने मुँह से चूहे को पकड़ती है,  उसी मुँह से अपने बच्चों को पकड़कर ले जाती है। उसके मुँह में आकर उसका बच्चा तो सुरक्षित हो जाता है लेकिन चूहे की क्या दशा होती है ? ऐसे ही जो भगवान का हो जाता है, वह संसारमाया से पूर्णतया सुरक्षित हो जाता है। उसकी पूरी सँभाल भगवान स्वयं करते हैं। फिर उसके पास अपना कहने को कुछ नहीं बचता तो उसमें वासना टिक कैसे सकती है।

अतः किसी भी योग का आश्रय लो…. ज्ञानयोग, ध्यानयोग या भक्तियोग का, सबका उद्देश्य तो एक ही हैः सब दुःखों से सदा के लिए निवृत्ति और परमानंद की प्राप्ति। ईश्वरप्रीत्यर्थ निष्काम भाव से किये गये कर्म कर्मयोग हैं। दुर्वासना ही जीव को चौरासी के चक्कर में भटकाती है एवं वासनानिवृत्ति से ही जीव चौरासी के चक्कर से छूटकर नित्य शुद्ध-बुद्ध चैतन्यस्वरूप, आनंदस्वरूप, सत्यस्वरूप परमात्मा में प्रतिष्ठित हो जाता है।

स्रोतः ऋषिप्रसाद, अप्रैल 2000, पृष्ठ संख्या 14,15 अंक 88

ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *