सत्संग की महिमा

सत्संग की महिमा


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

स्वाध्यायान्मा प्रमदः।

स्वाध्याय में प्रमाद नहीं करना चाहिए।

स्वाध्याय के तीन प्रकार हैं- कर्मकाण्डपरक स्वाध्याय। उपासनाकाण्डपरक स्वाध्याय। ज्ञानकाण्डपरक स्वाध्याय।

वेदों में कुल 1,00,000 मंत्र हैं। उनमें से 80,000 मंत्र कर्मकाण्ड के हैं, 16,000 मंत्र उपासनाकाण्ड के हैं और 4,000 मंत्र ज्ञानकाण्ड के हैं। जितने विद्यार्थी बालमंदिर और माध्यमिक विद्यालय में होते हैं उतने कॉलेज नहीं होते। ऐसे ही कर्म और उपासना के जितने अधिकारी होते हैं उतने ज्ञान के नहीं होते। फिर कॉलेज के विषयों को वही समझ सकता है जो बालमंदिर और माध्यमिक विद्यालय में पढ़कर आया हो लेकिन आध्यात्मिक जगत में एक अच्छी सुविधा यह है कि यदि आपने कर्मकाण्ड एवं उपासना नहीं की हो, फिर भी आप वेदान्त का बार-बार श्रवण करते हैं तो कर्मकाण्ड का काम पूरा हो जाता है।

जैसे, आप शहद बनाने की मेहनत नहीं करते, मधुमक्खी तमाम फूलों के रस को एकत्रित करके शहद तैयार कर देती है, ऐसे ही शास्त्र और संतरूपी भ्रमर सत्संग के द्वारा आपका विवेक-वैराग्य जगा देते हैं। 80,000 वेदमंत्र जो कि कर्मकाण्डपरक हैं उनका काम बार-बार सत्संग-श्रवण से पूरा हो जाता है। यही कारण है कि सत्संग में लोगों की गढ़ाई हो जाती है, लोगों का जीवन बदल जाता है और अध्यात्म मार्ग के पथिक तैयार हो जाते हैं।

केवल कर्मकाण्ड करते-करते तो कइयों का जीवन कर्मकाण्ड के दायरे में ही पूरा हो जाता है क्योंकि उसका दायरा लंबा है। एक ओर तो शुभ कर्म करते हैं किन्तु दूसरी ओर अशुभ कर्म भी हो जाते हैं, जिससे हिसाब बराबर हो जाता है। वेदान्त के बार-बार श्रवण करने से समझ और विचार सतत बने रहते हैं उसी तरह कर्म सतत नहीं हो पाते।

सत्संग सुनने से सत्संगी की सूझबूझ, विवेक और सावधानी बढ़ जाती है। सुने हुए सत्संग का असर होता ही है, फिर चाहे आप इन्कार कर दो। नकारात्मक दृष्टि से भी चिंतन होता है। वेदान्त का श्रवण करने से कर्मकाण्ड का काम पूरा हो जाता है। उसका मनन करने से उपासनाकाण्ड के 16000 मंत्रों का काम पूरा हो जाता है। जब मनन परिपक्व होता है तब निदिध्यासन होने लगता है। फिर आपको मनन करना नहीं पड़ता, वरन् आपकी समझ ‘उसीमय’ हो जाती है। जब समझ उसीमय हो जाती है तो श्रीयोगवाशिष्ठ महारामायण का निर्वाण प्रकरण, रामायण का आध्यात्मिकता वाला प्रकरण एवं वेदों का उपनिषद् भाग शेष कार्य पूर्ण कर देते हैं।

एक रास्ता यह है कि आप बैलगाड़ी द्वारा यहाँ (अमदावाद) से दिल्ली जाओ। दूसरा रास्ता यह है कि दिल्ली मेल (तेज गति वाले ट्रेन) से दिल्ली जाओ। तीसरा रास्ता यह है कि आप हवाई जहाज से दिल्ली जाओ। दिल्ली सब जा रहे है लेकिन वहाँ  पहुँचने में समय का फर्क है। ऐसे ही श्रवण-मनन और निदिध्यासन हवाई जहाज की यात्रा के समान हैं जो परमात्म-प्राप्ति के लक्ष्य तक जल्दी पहुँचा देते हैं।

परमात्मज्ञान साक्षात अपरोक्ष ज्ञान है।

ज्ञान तीन प्रकार का होता है- प्रत्यक्ष, परोक्ष, साक्षात अपरोक्ष।

अमेरिका हमारे लिए परोक्ष है, किन्तु  वहाँ जाकर उसे देख लें तो वह प्रत्यक्ष हो गया। इस प्रकार जगत की चीजें प्रत्यक्ष और परोक्ष होती हैं परन्तु अपना-आपा साक्षात अपरोक्ष है। जगत की चीजें मिलती और बिछुड़ती रहती हैं परन्तु अपना-आपा कभी बिछुड़ता नहीं, सदा मिला-मिलाया है। अपना-आपा तो सदा मौजूद है साक्षात अपरोक्ष है फिर भी अज्ञान के आवरण से ढँका रहता है। पर्दा हटता है तो मिला-सा लगता है जबकि वह हमसे कभी अलग था ही नहीं।

जो चीज अप्राप्त होती है और फिर मिलती है, तो उसकी उपलब्धि मानी जाती है। जो चीज प्राप्त है फिर भी वह न दिखाकर कुछ और होकर दिखती है तो उसकी भ्रांति मानी जाती है।

एक महिला आटा पीस रही थी। आटा पीसते-पीसते उसका गले का हार पीठ की ओर चला गया जिसका उसे पता न चला। आटा पीसने के बाद वह अपना हार ढूँढने लगी। उसने अपनी तिजोरी और थैलियाँ तलाशीं किन्तु हार न मिला। इतने में एक समझदार वृद्धा आयी, जिसे महिला ने यह बात बतायी। उस वृद्धा ने देखा कि हार तो इसके गले में ही पड़ा हुआ है परन्तु उसका लॉकेट पीछे चला गया है। वृद्धा ने हार को आगे कर के कहाः “यह रहा तेरा हार !”

वृद्धा हार कहीं से लायी नहीं थी क्योंकि हार कहीं गया ही नहीं था, केवल खो जाने की भ्रांति हो गयी थी। वृद्धा ने जब दिखाया तो प्राप्त हार की ही प्राप्ति हुई, अप्राप्त हार की नहीं। प्राप्त चीज कहीं चली जाये और फिर मिले तो  ‘प्राप्ति’ कहलाती है और कोई चीज अपने पास नहीं हो, फिर मिले तो उपलब्धि कहलाती है।

वेदान्त दर्शन में ईश्वर की प्राप्ति नहीं मानी गयी है। ईश्वर किसी को प्राप्त नहीं होता, ब्रह्म किसी को प्राप्त नहीं होता, बल्कि प्राप्त जैसा लगता है। वह भी किसको ? जिसको नहीं मिला उसको लगता है कि फलाने को मिला, किन्तु जिसको परमात्मा-अनुभव हो गया है उसको नहीं लगता कि उसे कुछ मिला है।

पाया कहे सो बावरा खोया कहे सो कूर।

लोग कहते हैं नानक को मिला है लेकिन जो कहता है ‘पा लिया’ वह नानक जी के मत में बावरा (पागल) है और जो कहता है ‘खो गया’ वह झूठा (कूर) है।

पाया कहे सो बावरा खोया कहे सो कूर।

पाया-खोया कुछ नहीं नित एकरस भरपूर।।

परमात्मा को पाने वाले को पता नहीं चलता कि मैंने पा लिया है। कोई पूछता हैः ‘महाराज ! पाने वाले को भी पता नहीं चलता ? जिसने ठीक से परमात्मा को पाया है वह ऐसा नहीं कहेगा कि मैंने पाया है। पाया किसे जाता है ? जो बिछुड़ा हो। किन्तु कोई अपने-आपसे कैसे बिछुड़ सकता है ? इसीलिए ऐसा नहीं कहा जाता है कि ‘पा लिया’ क्योंकि परमात्मा सदा प्राप्त है।

जिन महापुरुषों ने परमात्मा का अनुभव कर लिया है उनके सान्निध्य में आकर श्रवण-मनन-निदिध्यासन करें और उसी में स्थिति कर लें तो हमें भी परमात्मा का अनुभव हो सकता है। …..और यह कार्य कठिन नहीं है परन्तु विजातीय संस्कारों को हटाना कठिन लगता है।

विजातीय संस्कारों को कैसे हटायें ?

एक तरीका तो यह है कि जैसे एक लोटे में पानी भरा है और उसमें आप दूध भरना चाहते हो लेकिन पानी निकालना नहीं चाहते हो तो उसमें दूध भरते जाओ। प्रारम्भ में दूध व पानी दोनों बहेंगे लेकिन एक समय ऐसा आयेगा कि उसमें केवल दूध का ही प्रमाण रह जायेगा। अर्थात् महापुरुषों के पास आते-जाते रहो। जप-ध्यान-सत्संग-कीर्तन आदि करते रहो। धीरे-धीरे विजातीय संस्कार निकलते जायेंगे एवं परमात्म-प्राप्ति के प्रति रूचि बढ़ती जायेगी।

दूसरा तरीका यह है कि लोटा पूरा खाली कर दो और उसमें दूध भर दो अर्थात् वैराग्य जाग जाय और आप मकान-दुकान, पुत्र-परिवार सब छोड़-छाड़कर पहुँच जाओ किन्हीं ब्रह्मवेत्ता महापुरुष के पास। अपने सारे-के-सारे विजातीय संस्कारों को आप उलटे कर दो अर्थात् जगत के संस्कार धुल जायें और फिर महापुरुषों के ज्ञान-संस्कार को अपने में भरते जाओ तो ज्ञान हो जायेगा।

अर्थात् हम स्वयं में यदि विजातीय संस्कार न भरें तो परमात्म-ज्ञान होना कठिन नहीं है, आत्म-साक्षात्कार होना असम्भव नहीं है। यही कारण है कि जब राजा परीक्षित को श्राप मिला कि ‘सात दिन में मर जाओगे।’ तब वे जागतिक संस्कारों को उँडेलकर बैठ गये शुकदेवजी महाराज के श्रीचरणों में सात दिन में ही उन्हें ज्ञान हो गया। उनके साथ दूसरे लोग भी सत्संग में बैठे थे लेकिन उनको पूर्ण ज्ञान नहीं हुआ जबकि परीक्षित का हो गया। क्यों ? क्योंकि और सब लोग लोटा भरकर बैठे थे जबकि परीक्षित लोटा खाली करके बैठे थे। ऐसे ही खट्वाँग राजा को एक मुहूर्त में ज्ञान हो गया। राजा जनक को घोड़े की रकाब में पैर डालते-डालते ज्ञान हो गया। इस प्रकार जितनी जल्दी विजातीय संस्कार हट जाते हैं उतनी ही जल्दी परमात्मज्ञान हो जाता है।

यह भी कहना पड़ता है कि ब्रह्म का ज्ञान होगा। वास्तव में ब्रह्म का ज्ञान नहीं होता, ज्ञान ही ब्रह्म है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2002, पृष्ठ संख्या 15-17, अंक 111

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