Monthly Archives: December 2010

शीत ऋतु में लाभदायीः जीर्ण व्याधिनिवारक प्रयोग


कुछ रोग ऐसे होते हैं जो शरीर में दीर्घकाल तक रहकर शरीर को दुर्बल व क्षीण कर देते हैं। सर्दियों में त्रिदोष स्वाभाविकक रूप से सम अवस्था में आने लगते हैं। जठराग्नि भी प्रदीप्त होती है। इस समय युक्तिपूर्वक की गयी औषधि योजना जीर्ण व्याधि तथा तदजन्य दुर्बलता को नष्ट करने में सक्षम होती है। ऐसे अनुभूत प्रयोग यहाँ पर प्रस्तुत हैं-

जीर्ण शिरः शूल (पुराना सिर दर्द)-

इसके मुख्यतः दो कारण हैं- एक पित्त की अधिकता व दूसरा कब्ज। इसमें दीर्घकाल तक सतत दर्द रहता है अथवा महीने-दो महीने या इससे अधिक समय पर सिरदर्द का दौरा सा पड़ता है। इसके निवारण के लिए 500 ग्राम बादाम दरदरा कूट लें। 100 ग्राम घी में धीमी आँच पर सेंक लें। 750 ग्राम मिश्री की गाढ़ी, लच्छेदार चाशनी बनाकर उसमें यह बादाम तथा जावंत्री, जायफल, इलायची, तेजपत्र का चूर्ण प्रत्येक 3-3 ग्राम व 5 ग्राम प्रवालपिष्टी मिलाकर अच्छी तरह घोंट लें। थाली में जमाकर छोटे-छोटे टुकड़े काटकर सुरक्षित रख लें। 10 से 20 ग्राम सुबह दूध अथवा पानी के साथ लें। (पाचनशक्ति उत्तम हो तो शाम को पुनः ले सकते हैं।) खट्टे, तीखे, तले हुए व पचने में भारी पदार्थों का सेवन न करें।

बादाम अपने स्निग्ध व मृदु-विरेचक गुणों से पित्त व संचित मल को बाहर निकाल कर सिरदर्द को जड़ से मिटा देता है। साथ में मस्तिष्क, नेत्र व हृदय को बल प्रदान करता है।

अमेरिकन बादाम जिसका तेल, सत्त्व निकला हुआ हो वह नहीं, मामरी बादाम अथवा देशी बादाम भी अपने हाथ से गिरी निकाल से इस्तेमाल करो तो लाभदायक है। अमेरिकन बादाम का तेल गर्मी दे के निकाल देते हैं।

बौद्धिक काम करने वालों के लिए तथा शुक्रधातु की क्षीणता व स्नायुओं की दुर्बलता में भी यह बादामपाक अतीव लाभकारी है। स्वस्थ व्यक्तियों के लिए सर्दियों में सेवन करने योग्य यह एक उत्तम पुष्टिदायी पाक है।

जीर्ण वायुविकार, अस्थिविकार, दमा एवं पुरानी खाँसीः सबसे अधिक रोग प्रकुपित वायु के कारण उत्पन्न होते हैं। उनका स्वरूप भी गम्भीर व पीड़ाकारक होता है। ‘वृद्धजीवकीयं तंत्रम्’ में कश्यप ऋषि ने कहा है-

सर्वष्वनिलरोगिषु लशुनान्युपयोजयेत्।

मुच्यते व्याधिभिः क्षिप्रं वपुश्चाधिकमाप्नुते।।

‘सभी प्रकार के वातरोगों में लहसुन का उपयोग करना चाहिए। इससे रोगी शीघ्र ही रोगमुक्त हो जाता है तथा उसके शरीर की वृद्धि होती है।’

काश्यप संहिता, कल्पस्थान, लशुनकल्प

कश्यप ऋषि के अनुसार लहसुन सेवन का उत्तम समय पौष व माघ महीना (दिनांक 22 दिसम्बर से 18 फरवरी 2011 तक) है।

प्रयोग विधिः 200 ग्राम लहसुन छीलकर पीस लें। 4 लीटर दूध में ये लहसुन व 50 ग्राम गाय का घी मिलाकर दूध गाढ़ा होने तक उबालें। फिर इसमें 400 ग्राम मिश्री, 400 ग्राम गाय का घी तथा सोंठ, काली मिर्च, पीपर, दालचीनी, इलायची, तमालपात्र, नागकेशर, पीपरामूल, वायविडंग, अजवायन, लौंग, च्यवक, चित्रक, हल्दी, दारूहल्दी, पुष्करमूल, रास्ना, देवदार, पुनर्नवा, गोखरू, अश्वगंधा, शतावरी, विधारा, नीम, सोआ व कौंचा के बीज का चूर्ण प्रत्येक 3-3 ग्राम मिलाकर धीमी आँच पर हिलाते रहें। मिश्रण में से घी छूटने लग जाय, गाढ़ा मावा बन जाय तब ठंडा करके इसे काँच की बरनी में भरकर रखें।

10 से 20 ग्राम यह मिश्रण सुबह गाय के दूध के साथ लें (पाचनशक्ति उत्तम हो तो शाम को पुनः ले सकते हैं।

भोजन में मूली, अधिक तेल व घी तथा खट्टे पदार्थों का सेवन न करें। स्नान व पीने के लिए गुनगुने पानी का प्रयोग करें।

इससे 80 प्रकार के वात रोग जैसे – पक्षाघात (लकवा), अर्दित (मुँह का लकवा), गृध्रसी (सायटिका), जोड़ों का दर्द, हाथ पैरों में सुन्नता अथवा जकड़न, कम्पन, दर्द, गर्दन व कमर का दर्द, स्पांडिलोसिस आदि तथा दमा, पुरानी खाँसी, अस्थिच्युत (डिसलोकेशन), अस्थिभग्न (फ्रेक्चर) एवं अन्य अस्थिरोग दूर होते हैं। इसका सेवन माघ माह के अंत तक कर सकते हैं। व्याधि अधिक गम्भीर हो तो वैद्यकीय सलाह से एक वर्ष तक भी ले सकते हैं। लकवाग्रस्त लोगों तक भी इसकी खबर पहुँचायें।

वर्षों तक किये गये अंग्रेजी उपचार जहाँ निष्फल हुए हैं, उन वात विकारों में यह लहसुन प्रयोग रोगनिवारक सिद्ध हुआ है। साथ में सूर्यस्नान व प्राणायाम अवश्य करें।

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सर्दियों में खजूर खाओ, सेहत बनाओ !

खजूर मधुर, शीतल, पौष्टिक व सेवन करने के बाद तुरंत शक्ति-स्फूर्ति देने वाला है। यह रक्त, मांस व वीर्य की वृद्धि करता है। हृदय व मस्तिष्क को शक्ति देता है। वात-पित्त व कफ इन तीनों दोषों का शामक है। यह मल व मूत्र को साफ लाता है। खजूर में कार्बोहाईड्रेटस, प्रोटीन्स, कैल्शियम, पौटैशियम, लौह, मैग्नेशियम, फास्फोरस आदि प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं।

खजूर के उपयोग

मस्तिष्क व हृदय की कमजोरीः रात को खजूर भिगोकर सुबह दूध या घी के साथ खाने से मस्तिष्क व हृदय की पेशियों को ताकत मिलती है। विशेषतः रक्त की कमी के कारण होने वाली हृदय की धड़कन व एकाग्रता की कमी में यह प्रयोग लाभदायी है।

मलावरोधः रात को भिगोकर सुबह दूध के साथ लेने से पेट साफ हो जाता है।

कृशताः खजूर में शर्करा, वसा (फैट) व प्रोटीन्स विपुल मात्रा में पाये जाते हैं। इसके नियमित सेवन से मांस की वृद्धि होकर शरीर पुष्ट हो जाता है।

रक्ताल्पताः खजूर रक्त को बढ़ाकर त्वचा में निखार लाता है।

शुक्राल्पताः खजूर उत्तम वीर्यवर्धक है। गाय के घी अथवा बकरी के दूध के साथ लेने से शुक्राणुओं की वृद्धि होती है। इसके अतिरिक्त अधिक मासिक स्राव, क्षयरोग, खाँसी, भ्रम(चक्कर), कमर व हाथ पैरों का दर्द एवं सुन्नता तथा थायराइड संबंधी रोगों में भी यह लाभदायी है।

5 से 7 खजूर अच्छी तरह धोकर रात को भिगोकर सुबह खायें। बच्चों के लिए 2-4 खजूर पर्याप्त हैं। दूध या घी में मिलाकर खाना विशेष लाभदायी है।

होली के बाद खजूर खाना हितकारी नहीं है।

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शक्तिदायक नारियल

नारियल शीतल, स्निग्ध, बलदायी, शरीर को मोटा करने वाला तथा वायु व पित्त को शांत करने वाला है। सूखा नारियल वीर्यवर्धक है। इसमें कार्बोहाइड्रेटस, प्रोटीन्स, वसा, कैल्शियम, पोटैशियम, सोडियम, लौह, विटामिन ‘सी’ आदि प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं।

इन गुणों के कारण नारियल आंतरिक गर्मी, अम्लपित्त (एसिडिटी), आमाशय व्रण(अल्सर), क्षयरोग(टी.बी.), दुर्बलता, कृशता व वीर्य की अल्पता में लाभदायी है। यह पचने में भारी होता है इसलिए मात्र 10 से 20 ग्राम की मात्रा में खूब चबा-चबाकर खायें। इसकी बर्फी या चटनी बनाकर अथवा सब्जी में मिलाकर भी खा सकते हैं। नारियल बालक व गर्भवती माताओं के लिए विशेष पोषक तत्त्वों की पूर्ति कर देता है।

पौष्टिक चबैनाः छुहारा, सूखा नारियल व मिश्री के छोटे-छोटे टुकड़े कर मिलाकर रख लें। टॉफी-चाकलेट के स्थान पर बच्चों को यह पौष्टिक चबैना दें। इससे दाँत, हड्डियाँ मजबूत बनेंगे व बुद्धि का भी विकास होगा।

सूचनाः अष्टमी के दिन नारियल खाने से बुद्धि का नाश होता है।

(ब्रह्म वैवर्त पुराण)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 30,31 अंक 216

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संयम की महिमा


आधुनिक मनोविज्ञान  मानसिक विशलेषण, मनोरोग शास्त्र और मानसिक रोग की चिकित्सा – ये फ्रायड के रूग्ण मन के प्रतिबिम्ब हैं। फ्रायड स्वयं स्पास्टिक कोलोन (प्रायः सदा रहने वाला मानसिक अवसाद), स्नायविक रोग, सजातीय संबंध, विकृत स्वभाव, माइग्रेन, कब्ज, प्रवास, मृत्यु व धननाश का भय, साइनोसाइटिस, घृणा और खूनी विचारों के दौरे आदि रोगों से पीड़ित था। स्वयं के जीवन में संयम का नाश कर दूसरों को भी घृणित सीख देने वाला फ्रायड इतना रोगी और अशांत होकर मरा। क्या आप भी ऐसा बनना चाहते हैं ? आत्महत्या के शिकार बनना चाहते हैं ? उसके मनोविज्ञान ने विदेशी युवक-युवतियों को रोगी बनाकर उनके जीवन का सत्यानाश कर दिया। सम्भोग से समाधि का प्रचार फ्रायड की रूग्ण मनोदशा का ही प्रचार है।

प्रो.एडलर और प्रो.सी.जी. जुंग जैसे मूर्धन्य मनोवैज्ञानिकों ने फ्रायड के सिद्धान्तों का खंडन कर दिया है, फिर भी यह खेद की बात है कि भारत में अभी भी कई मानसिक रोग विशेषज्ञ और सैक्सोलॉजिस्ट फ्रायड जैसे पागल व्यक्ति के सिद्धान्तों का आधार लेकर इस देश के युवक युवतियों को अनैतिक और अप्राकृतिक मैथुन का, संभोग का संदेश व इसका समर्थन समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के द्वारा देते रहते हैं। फ्रायड ने तो मृत्यु से पहले अपने पागलपन को स्वीकार किया था लेकिन उसके अनुयायी स्वयं स्वीकार न करें तो भी अनुयायी तो पागल के ही माने जायेंगे। अब वे इस देश के लोगों को चरित्र-भ्रष्ट और गुमराह करने का पागलपन छोड़ दें, ऐसी हमारी नम्र प्रार्थना है। ‘दिव्य प्रेरणा प्रकाश’ पुस्तक पाँच बार पढ़ें-पढ़ायें, इसी में सबका कल्याण है।

‘ नेशनल क्राइम विक्टिमाइजेशन सर्वे’ के अनुसार अमेरिका में सन् 2002 में कुल 1686600 बड़े गुनाह हुए। जिनमें से 1036400 गुनाह दर्ज किये गये। 28797 खून, 201589 बलात्कार, 633543 लूटपाट, 1238288 गम्भीर मारकाट और 4463596 साधारण मारकाट के गुनाह हुए। इस प्रकार कुल 6565805 हिंसक अपराध हुए।

वर्षक 2002 में अमेरिका में 12 से 17 वर्ष की उम्र के लड़कों ने 2 लाख 78 हजार अपराध किये। 18 वर्ष से बड़ी उम्र के लड़कों ने 181000 अपराध किये। अज्ञात उम्र के लड़कों ने 1 लाख 93 हजार अपराध किये। सन् 2002 में अमेरिका का राष्ट्रीय स्वास्थ्य व्यय 1548 अरब डॉलर अर्थात् करीब 69660 अरब रूपये था। सन् 2001 में किये गयेक एक सर्वेक्षण के अनुसार अमेरिका में 51 प्रतिशत शादियाँ तलाक में बदल जाती हैं। प्रकृति द्वारा मनुष्य के लिए निर्धारित किये गये संयम का उपहास करने के कारण प्रकृति ने उन लोगों को जातीय रोगों का शिकारक बना रखा है। उनमें मुख्यतः एड्स की बीमारी दिन दूनी रात चौगुनी फैलती जा रही है वहाँ के पारिवारिक व सामाजिक जीवन में क्रोध, कलह, असंतोष, संताप, अशांति, उच्छृंखलता, उद्दंडता और शत्रुता का महाभयानक वातावरण छा गया है। विश्व की लगभग 4.6 प्रतिशत जनसंख्या अमेरिका में है। उसके उपभोग के लिए विश्व की लगभग 40 प्रतिशत साधन-सामग्री (जैसे कि कार, टी.वी., वातानुकूलित मकान आदि) मौजूद हैं, फिर भी वहाँ अपराधवृत्ति इतनी बढ़ी है।

कामुकता के समर्थक फ्रायड जैसे दार्शनिक की ही यह देन है। उन्होंने पाश्चात्य देशों को मनोविज्ञान के नाम पर बहुत प्रभावित किया है और वहीं से यह आँधी अब हमारे देश में भी फैलती जा रही है। अतः हमारे देश की अवदशा अमेरिका जैसी हो, उसके पहले हमें सावधान होना पड़ेगा। यहाँ के कुछ अविचारी दार्शनिक भी फ्रायड के मनोविज्ञान के आधार पर युवक-युवतियों को बेलगाम सम्भोग की तरफ उत्साहित कर रहे हैं, जिससे हमारी युवा पीढ़ी गुमराह हो रही है। फ्रायड ने तो केवल मनःकल्पित मनोवैज्ञानिक मान्यताओं के आधार पर व्यभिचारशास्त्र बनाया लेकिन तथाकथित दार्शनिक ने तो सम्भोग से समाधि की परिकल्पना द्वारा व्यभिचार को आध्यात्मिक जामा पहनाकर धार्मिक लोगों को भी भ्रष्ट किया है। सम्भोग से समाधि नहीं होती, सत्यानाश होता है। ‘संयम से ही समाधि होती है’ – इस भारतीय मनोविज्ञान को अब पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक भी सत्य मानने लगे हैं।

जब पश्चिमी देशों में ज्ञान-विज्ञान का विकास प्रारम्भ भी नहीं हुआ था और मानव ने संस्कृति के क्षेत्र में प्रवेश भी नहीं किया था, उस समय भारतवर्ष के दार्शनिक और योगी मानव-मनोविज्ञान के विभिन्न पहलुओं तथा समस्याओं पर गम्भीरतापूर्वक विचार कर रहे थे। फिर भी पाश्चात्य विज्ञान की छत्रछाया में पले हुए और उसके प्रकाश की चकाचौंध से प्रभावित वर्तमान भारत के मनोवैज्ञानिक भारतीय मनोविज्ञान का अस्तित्व तक मानने को तैयार नहीं हैं, यह खेद की बात है। भारतीय मनोवैज्ञानिकों ने चेतना के चार स्तर माने हैं- जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय। पाश्चात्य मनोविज्ञान प्रथम् तीन स्तरों को ही जानते हैं। पाश्चात्य मनोविज्ञान नास्तिक है। भारतीय मनोविज्ञान ही आत्मविकास और चरित्र-निर्माण में सबसे अधिक उपयोगी सिद्ध हुआ है, क्योंकि यह आत्मा परमात्मा से अत्यधिक प्रभावित है। भारतीय मनोविज्ञान् आत्मज्ञान और आत्म सुधार में सबसे अधिक सहायक सिद्ध होता है। इसमें बुरी आदतों को छोड़ने और अच्छी आदतों को अपनाने तथा मन की प्रक्रियाओं को समझने एवं उन पर नियंत्रण करने के महत्त्वपूर्ण उपाय बताये गयें है। इसकी सहायता से मनुष्य सुखी, स्वस्थ और सम्मानित जीवन जी सकता है। मुक्ति-भुक्ति दोनों उसके चरणों में स्वयं आ जाती है।

‘उत्तम भोक्ता वही है जिसमें भोग लोलुपता न हो।’ – यह व्यवस्था भारतीय संस्कृति में है। भोग लोलुपता जिस व्यक्ति, जिस जाति, जिस समाज में है, वे तुच्छता की खाई में गिरा है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 216

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ज्ञान के दस लक्षण


(पूज्य बापू जी की चिन्मय वाणी)

अगर आत्मज्ञान की तरफ आपने थोड़ी भी यात्रा की तो जिनको आत्मसाक्षात्कार हुआ है, उन ज्ञानियों के गुण आपके अंदर प्रकट होने लगेंगे। फिर आपको यह नहीं लगेगा कि ‘गुण मुझमें हैं, मैं गुणवान हूँ अथवा मैं ज्ञानी हूँ।’ नहीं-नहीं, जिस पद को पाये बिना इन्द्र भी अपने को बौना समझता है, उस आत्मपद को पाकर ज्ञानी को अहंकार नहीं होता। ऐसा ज्ञान का प्रसाद आपको मिल जायेगा।

योगी गोरखनाथजी ने कहाः

ज्ञान सरीखा गुरू न मिलिया, चित सरीखा चेला।

मन सरीखा मित्र न मिलिया, गोरख फिरे अकेला।।

ज्ञान जैसा कोई गुरु नहीं है और चित्त अपने कहने में चले तो उसके जैसा कोई चेला नहीं है। मन विकारों से बचे तो उसके जैसा कोई मित्र नहीं है। जीवन में ज्ञान के दस लक्षण आ जायें बस।

अक्रोधो वैराग्यो जितेन्द्रियश्च क्षमा दया सर्वजनप्रियश्च।

निर्लोभो मदभयशोकरहितो ज्ञानस्य एतत् दश लक्षणानि।।

अक्रोधः… क्रोध तो आयेगा लेकिन जब भी क्रोध आये, उस समयक देखो की क्रोध आया है, उसके पहले भी मैं था और क्रोध आकर चला जायेगा उसके बाद भी मैं रहूँगा। थोड़ा क्रोध के समय आप अपनी मौजूदगी की स्मृति करो ताकि क्रोध तुम पर हावी न हो। इससे क्रोध में, आवेश में गलतियाँ करने से जो आगे चलकर मुसीबत होती है, उससे आप बच जाओगे और धीरे-धीरे अक्रोध की ऊँचाई पर पहुँचने में सफल हो जाओगे। जैसे विश्वामित्र, दुर्वासा, वसिष्ठजी तथा अन्य ब्रह्मज्ञानी संत खिन्नोऽपि न च खिद्यते…. रूष्टोऽपि नि रूष्टते….. क्रुद्धोऽपि न क्रुद्धते….. खिन्न, रूष्ट, क्रुद्ध दिखते हुए भी इनसे न्यारे अपने द्रष्टा-स्रष्टास्वरूप में निमग्न रहते हैं।

समरथ कहुँ नहिं दोषु गोसाईं।

संत तुलसीदासजी

ब्रह्म गिआनी सदा निर्लेप।

गुरूवाणी

तस्य तुलना केन जायते।

उसकी तुलना किससे की जा सकती है !’ वह तो अतुलनीय है।

अष्टावक्र गीता

अदभुत है आत्मज्ञान की महिमा !

वैराग्यक….किसी भी चीजृ-वस्तु को ईश्वर से बढ़कर मूल्य न दो। विवेक जगाओ तो आपका वैराग्य का धन जागृत होगा।

जितेन्द्रिय…. नाक कहती है कि ‘सुगंध बढ़िया हो।’ जीभ कहती है कि ‘जरा स्वाद बढ़िया हो।’ कान कहते हैं कि ‘जरा तक धिनाधिन सुन लो।’ उनको रोककर कहो- ‘हे निगुरो ! तुम मुझे भटकाओ मत, भगाओ मत। ॐ शांति…. ॐ आनंद !…’ अपने आत्मसुख की स्मृति में गोता मारो, आप जितेन्द्रिय होने लगेंगे।

क्षमा….. कभी पत्नी से गलती हुई, कभी पति से हुई, पड़ोसी से हुई….. अपनी जीभ दाँतों तले आ जाती है तो क्या करते हैं ? क्षमा तो व्यवहार में झख मार के करनी पड़ती है, नहीं तो गृहस्थी की गाड़ी नहीं चलती। लेकिन क्षमा करना एक बात है, मजबूरी से घूँट पीकर अंदर घुटते रहना दूसरी बात है। आज से पक्का करो कि क्षमा के गुण को विकसित करेंगे। अपने से छोटों के प्रति दया करेंगे। उनसे रूठो, उनको डाँटो लेकिन अँदर में उनके मंगल के लिए दयाभाव रखो।

सर्वजनप्रिय…. सभी जनों में अपने प्रिय को देखो। इससे आपका अंतःकरण मंगलमय होगा, मधुमय होगा। आप सबके प्रियपात्र बनोगे। निर्लोभः….. और खपे खपे (और चाहिए-और चाहिए) जो है वह भी छूट जायेगा। और खपे-खपे में अपने को खपाओ मत ! खाने में, भोग-संग्रह में निर्लोभता का अनुभव करो।

मदभयशोकरहितः…. मद नहीं करना चाहिए कि ‘मैं ऐसा कर दूँगा, वैसा कर दूँगा।’ अथवा भय भी नहीं रखना चाहिए कि ‘ऐसा हो जायेगा, वैसा हो जायेगा।’ अरे, आत्मा को कोई मार नहीं सकता और शरीर प्रारब्ध भोगकर ही जाता है, फिर डर किस बात का ! डरें तो दुष्कर्म से डरें, डरें तो मनमुखता से डरें। बाकी जरा-जरा बात में अथवा सत्संग में आने में क्यों डरें ! सत्कर्म और साधना करने में क्या डरें ! ‘मेरा भविष्य क्या होगा ?’ – ऐसा सोचकर क्यों डरें ! बीती हुई बात को सच्चा मानकर बार-बार याद करके शोक क्यों करें !

ज्ञानस्य एतत दश लक्षणानि….. ये ज्ञान के दस लक्षण हैं। ज्ञानी महापुरुष के ये स्वतः स्वाभाविक लक्षण हैं और साधक को ये सुन-सुनकर अपने में विकसित करने हैं। शास्त्र क्या हैं ? ज्ञानी के अनुभव और अज्ञानी की मान्यता का अनुवाद। अज्ञानी की मान्यता समझकर उससे ऊपर उठो और ज्ञानी का अनुभव सुनकर उसमें लग जाओ। आपका मंगल होने लगेगा। भगवान अगर हमारा परम कल्याण भी करना चाहेंगे तो कैसे करेंगे ? फूँक मार के करेंगे ? सिर पर हाथ रखकर करेंगे ? नहीं, नहीं। भगवान ने गीता के दसवें अध्याय के ग्यारहवें श्लोक में कहाः

तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः।

नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता।।

उन भक्तों पर कृपा करने के लिए ही उनमें आत्मभाव से स्थित मैं स्वयं ही उनके अज्ञानजनित अंधकार को देदीप्यमान तत्त्वज्ञानरूपी दीपक के द्वारा सर्वथा नष्ट कर देता हूँक।

भगवान भी हमारे दुःख हरेंगे तो तत्त्वज्ञान के दीये से। घऱ में या गुफा में अंधकार है तो झाड़ू लगाने से नहीं जायेगा। खड्डे हैं तो झाड़ू लगाने से नहीं जायेंगे। कचरा है तो झाड़ू लगाने से जायेगा। खड्डे-खुड्डे हैं तो सीमेंट-कांक्रीट अथवा गारा-मिट्टी से जायेंगे लेकिन अंधकार प्रकाश से जायेगा। ऐसे ही वासना की गंदगी है तो वासनाओं को पोस-पोस के निस्तेज न हो जायें। सेवाकार्य में ऐसे लगें कि सेवा करते करते निर्वासनिक होने में सफल हो जायें। चंचलता है तो एकाग्रता का धन बढ़ाओ लेकिकन अज्ञान है तो ज्ञान का दीपक जलाओ। भगवान भी खुश हो जायेंगे।

मनुष्य शरीर का फल यही है कि आप परमात्म स्वभाव की प्राप्ति कर लें। भगवदगीता के पाँचवें अध्याय का तेईसवाँ श्लोक हैः

शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्।

कामक्रोधोदभवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः।।

जो साधक इस मनुष्य शरीर में, शरीर का नाश होने से पहले ही काम, क्रोध, भय, लोभ, शोक आदि आवेगों से विचलित नहीं होता, समता में टिक जाता है, उनको सहन करके सम रह जाता है, उस पुरुष ने अपना मनुष्य जीवन सफल कर लिया।

सहने का मतलब ऐसा नहीं कि ‘दुःख सह रहा हूँ, अपमान सह रहा हूँ, क्या करूँ !’ नहीं, आप पर उनका प्रभाव ही नहीं पड़ेगा। जैसे, हाथी पर मक्खियाँ भी बैठी थीं। बार बार आतीं, बैठती चली जातीं। रानी मक्खी को दया आ गयी तो हाथी को कहा कि

“भैया ! मैं अकेली नहीं, मेरी कई 20-25 सखियाँ तुम पर कई घंटों से अपना बोझा लादे बैठी हैं। तुमको कष्ट होता होगा।”

हाथी ने कहाः “तुम कब आयीं पता नहीं और तुम्हारा वजन कितना है तुम्हीं जाकर तौलो ! तुम 20-25 तो क्या, 50, 100, 200, 500 और भी आ जाओ तो भी मुझे तुम्हारे वजन का पता नहीं चलेगा। तुम इतनी क्षुद्र हो, इतनी तुच्छ हो !”

ऐसे ही भगवत्सुख और भगवत्समता के आगे जगत की परिस्थितियाँ ऐसी ही तुच्छ हैं, ऐसी क्षुद्र है जैसे हाथी की पीठ पर मक्खियों का वजन !

जैसे हाथी पर मक्खियों का कोई वजन नहीं, बैल के सींग पर मच्छर का कोई वजन नहीं, ऐसे ही ज्ञानी के चित्त में इस संसाररूपी मच्छर का कोई वजन नहीं होता अथवा संसार की मक्खियों का कोई बोझा नहीं होता। दूसरों की नजर से लगेगा कि ‘अरे, बाप-रे-बाप ! बापू जी बेचारे कितना काम कर रहे हैं ! अरे कितना परिश्रम ! कितना क्या का क्या…. बेचारे बापू जी !’ मैं इधर-उधर सत्संग कार्यक्रमों में दौड़ता रहता हूँ तो आप सभी को मुझ पर दया आती है। लेकिन मुझे तुम पर दया आती है कि तुम कितने सुखस्वरूप हो और अपने को जानते नहीं ! शरीर को ‘मैं’ मान के, नश्वर चीजों को ‘मेरा’ मानकर काहे को परेशान हो रहे हो ! अपने सत्यस्वभाव को ‘मैं’ जानकर उसी में विश्रान्ति पाओ, उसी में आनंद पाओ और उसी में अपने ‘मैं’ को एकाकार कर दो।

जो सदा बदलता जाता है वह संसार है और सारी बदलाहट को जानता है वह परमात्मा है। जो कभी बदले नहीं और साथ छोड़े नहीं, वह परमात्मा है। जो टिके नहीं और साथ निभाये नहीं, वह संसार है। संसार का उपयोग कर लो और परमात्मा की स्मृति कर लो, एकाकारता कर लो, प्रीति पा लो। दोनों तरफ से मौज हो जायेगी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 12,13, 14 अंक 216

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