ज्ञान के दस लक्षण

ज्ञान के दस लक्षण


(पूज्य बापू जी की चिन्मय वाणी)

अगर आत्मज्ञान की तरफ आपने थोड़ी भी यात्रा की तो जिनको आत्मसाक्षात्कार हुआ है, उन ज्ञानियों के गुण आपके अंदर प्रकट होने लगेंगे। फिर आपको यह नहीं लगेगा कि ‘गुण मुझमें हैं, मैं गुणवान हूँ अथवा मैं ज्ञानी हूँ।’ नहीं-नहीं, जिस पद को पाये बिना इन्द्र भी अपने को बौना समझता है, उस आत्मपद को पाकर ज्ञानी को अहंकार नहीं होता। ऐसा ज्ञान का प्रसाद आपको मिल जायेगा।

योगी गोरखनाथजी ने कहाः

ज्ञान सरीखा गुरू न मिलिया, चित सरीखा चेला।

मन सरीखा मित्र न मिलिया, गोरख फिरे अकेला।।

ज्ञान जैसा कोई गुरु नहीं है और चित्त अपने कहने में चले तो उसके जैसा कोई चेला नहीं है। मन विकारों से बचे तो उसके जैसा कोई मित्र नहीं है। जीवन में ज्ञान के दस लक्षण आ जायें बस।

अक्रोधो वैराग्यो जितेन्द्रियश्च क्षमा दया सर्वजनप्रियश्च।

निर्लोभो मदभयशोकरहितो ज्ञानस्य एतत् दश लक्षणानि।।

अक्रोधः… क्रोध तो आयेगा लेकिन जब भी क्रोध आये, उस समयक देखो की क्रोध आया है, उसके पहले भी मैं था और क्रोध आकर चला जायेगा उसके बाद भी मैं रहूँगा। थोड़ा क्रोध के समय आप अपनी मौजूदगी की स्मृति करो ताकि क्रोध तुम पर हावी न हो। इससे क्रोध में, आवेश में गलतियाँ करने से जो आगे चलकर मुसीबत होती है, उससे आप बच जाओगे और धीरे-धीरे अक्रोध की ऊँचाई पर पहुँचने में सफल हो जाओगे। जैसे विश्वामित्र, दुर्वासा, वसिष्ठजी तथा अन्य ब्रह्मज्ञानी संत खिन्नोऽपि न च खिद्यते…. रूष्टोऽपि नि रूष्टते….. क्रुद्धोऽपि न क्रुद्धते….. खिन्न, रूष्ट, क्रुद्ध दिखते हुए भी इनसे न्यारे अपने द्रष्टा-स्रष्टास्वरूप में निमग्न रहते हैं।

समरथ कहुँ नहिं दोषु गोसाईं।

संत तुलसीदासजी

ब्रह्म गिआनी सदा निर्लेप।

गुरूवाणी

तस्य तुलना केन जायते।

उसकी तुलना किससे की जा सकती है !’ वह तो अतुलनीय है।

अष्टावक्र गीता

अदभुत है आत्मज्ञान की महिमा !

वैराग्यक….किसी भी चीजृ-वस्तु को ईश्वर से बढ़कर मूल्य न दो। विवेक जगाओ तो आपका वैराग्य का धन जागृत होगा।

जितेन्द्रिय…. नाक कहती है कि ‘सुगंध बढ़िया हो।’ जीभ कहती है कि ‘जरा स्वाद बढ़िया हो।’ कान कहते हैं कि ‘जरा तक धिनाधिन सुन लो।’ उनको रोककर कहो- ‘हे निगुरो ! तुम मुझे भटकाओ मत, भगाओ मत। ॐ शांति…. ॐ आनंद !…’ अपने आत्मसुख की स्मृति में गोता मारो, आप जितेन्द्रिय होने लगेंगे।

क्षमा….. कभी पत्नी से गलती हुई, कभी पति से हुई, पड़ोसी से हुई….. अपनी जीभ दाँतों तले आ जाती है तो क्या करते हैं ? क्षमा तो व्यवहार में झख मार के करनी पड़ती है, नहीं तो गृहस्थी की गाड़ी नहीं चलती। लेकिन क्षमा करना एक बात है, मजबूरी से घूँट पीकर अंदर घुटते रहना दूसरी बात है। आज से पक्का करो कि क्षमा के गुण को विकसित करेंगे। अपने से छोटों के प्रति दया करेंगे। उनसे रूठो, उनको डाँटो लेकिन अँदर में उनके मंगल के लिए दयाभाव रखो।

सर्वजनप्रिय…. सभी जनों में अपने प्रिय को देखो। इससे आपका अंतःकरण मंगलमय होगा, मधुमय होगा। आप सबके प्रियपात्र बनोगे। निर्लोभः….. और खपे खपे (और चाहिए-और चाहिए) जो है वह भी छूट जायेगा। और खपे-खपे में अपने को खपाओ मत ! खाने में, भोग-संग्रह में निर्लोभता का अनुभव करो।

मदभयशोकरहितः…. मद नहीं करना चाहिए कि ‘मैं ऐसा कर दूँगा, वैसा कर दूँगा।’ अथवा भय भी नहीं रखना चाहिए कि ‘ऐसा हो जायेगा, वैसा हो जायेगा।’ अरे, आत्मा को कोई मार नहीं सकता और शरीर प्रारब्ध भोगकर ही जाता है, फिर डर किस बात का ! डरें तो दुष्कर्म से डरें, डरें तो मनमुखता से डरें। बाकी जरा-जरा बात में अथवा सत्संग में आने में क्यों डरें ! सत्कर्म और साधना करने में क्या डरें ! ‘मेरा भविष्य क्या होगा ?’ – ऐसा सोचकर क्यों डरें ! बीती हुई बात को सच्चा मानकर बार-बार याद करके शोक क्यों करें !

ज्ञानस्य एतत दश लक्षणानि….. ये ज्ञान के दस लक्षण हैं। ज्ञानी महापुरुष के ये स्वतः स्वाभाविक लक्षण हैं और साधक को ये सुन-सुनकर अपने में विकसित करने हैं। शास्त्र क्या हैं ? ज्ञानी के अनुभव और अज्ञानी की मान्यता का अनुवाद। अज्ञानी की मान्यता समझकर उससे ऊपर उठो और ज्ञानी का अनुभव सुनकर उसमें लग जाओ। आपका मंगल होने लगेगा। भगवान अगर हमारा परम कल्याण भी करना चाहेंगे तो कैसे करेंगे ? फूँक मार के करेंगे ? सिर पर हाथ रखकर करेंगे ? नहीं, नहीं। भगवान ने गीता के दसवें अध्याय के ग्यारहवें श्लोक में कहाः

तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः।

नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता।।

उन भक्तों पर कृपा करने के लिए ही उनमें आत्मभाव से स्थित मैं स्वयं ही उनके अज्ञानजनित अंधकार को देदीप्यमान तत्त्वज्ञानरूपी दीपक के द्वारा सर्वथा नष्ट कर देता हूँक।

भगवान भी हमारे दुःख हरेंगे तो तत्त्वज्ञान के दीये से। घऱ में या गुफा में अंधकार है तो झाड़ू लगाने से नहीं जायेगा। खड्डे हैं तो झाड़ू लगाने से नहीं जायेंगे। कचरा है तो झाड़ू लगाने से जायेगा। खड्डे-खुड्डे हैं तो सीमेंट-कांक्रीट अथवा गारा-मिट्टी से जायेंगे लेकिन अंधकार प्रकाश से जायेगा। ऐसे ही वासना की गंदगी है तो वासनाओं को पोस-पोस के निस्तेज न हो जायें। सेवाकार्य में ऐसे लगें कि सेवा करते करते निर्वासनिक होने में सफल हो जायें। चंचलता है तो एकाग्रता का धन बढ़ाओ लेकिकन अज्ञान है तो ज्ञान का दीपक जलाओ। भगवान भी खुश हो जायेंगे।

मनुष्य शरीर का फल यही है कि आप परमात्म स्वभाव की प्राप्ति कर लें। भगवदगीता के पाँचवें अध्याय का तेईसवाँ श्लोक हैः

शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्।

कामक्रोधोदभवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः।।

जो साधक इस मनुष्य शरीर में, शरीर का नाश होने से पहले ही काम, क्रोध, भय, लोभ, शोक आदि आवेगों से विचलित नहीं होता, समता में टिक जाता है, उनको सहन करके सम रह जाता है, उस पुरुष ने अपना मनुष्य जीवन सफल कर लिया।

सहने का मतलब ऐसा नहीं कि ‘दुःख सह रहा हूँ, अपमान सह रहा हूँ, क्या करूँ !’ नहीं, आप पर उनका प्रभाव ही नहीं पड़ेगा। जैसे, हाथी पर मक्खियाँ भी बैठी थीं। बार बार आतीं, बैठती चली जातीं। रानी मक्खी को दया आ गयी तो हाथी को कहा कि

“भैया ! मैं अकेली नहीं, मेरी कई 20-25 सखियाँ तुम पर कई घंटों से अपना बोझा लादे बैठी हैं। तुमको कष्ट होता होगा।”

हाथी ने कहाः “तुम कब आयीं पता नहीं और तुम्हारा वजन कितना है तुम्हीं जाकर तौलो ! तुम 20-25 तो क्या, 50, 100, 200, 500 और भी आ जाओ तो भी मुझे तुम्हारे वजन का पता नहीं चलेगा। तुम इतनी क्षुद्र हो, इतनी तुच्छ हो !”

ऐसे ही भगवत्सुख और भगवत्समता के आगे जगत की परिस्थितियाँ ऐसी ही तुच्छ हैं, ऐसी क्षुद्र है जैसे हाथी की पीठ पर मक्खियों का वजन !

जैसे हाथी पर मक्खियों का कोई वजन नहीं, बैल के सींग पर मच्छर का कोई वजन नहीं, ऐसे ही ज्ञानी के चित्त में इस संसाररूपी मच्छर का कोई वजन नहीं होता अथवा संसार की मक्खियों का कोई बोझा नहीं होता। दूसरों की नजर से लगेगा कि ‘अरे, बाप-रे-बाप ! बापू जी बेचारे कितना काम कर रहे हैं ! अरे कितना परिश्रम ! कितना क्या का क्या…. बेचारे बापू जी !’ मैं इधर-उधर सत्संग कार्यक्रमों में दौड़ता रहता हूँ तो आप सभी को मुझ पर दया आती है। लेकिन मुझे तुम पर दया आती है कि तुम कितने सुखस्वरूप हो और अपने को जानते नहीं ! शरीर को ‘मैं’ मान के, नश्वर चीजों को ‘मेरा’ मानकर काहे को परेशान हो रहे हो ! अपने सत्यस्वभाव को ‘मैं’ जानकर उसी में विश्रान्ति पाओ, उसी में आनंद पाओ और उसी में अपने ‘मैं’ को एकाकार कर दो।

जो सदा बदलता जाता है वह संसार है और सारी बदलाहट को जानता है वह परमात्मा है। जो कभी बदले नहीं और साथ छोड़े नहीं, वह परमात्मा है। जो टिके नहीं और साथ निभाये नहीं, वह संसार है। संसार का उपयोग कर लो और परमात्मा की स्मृति कर लो, एकाकारता कर लो, प्रीति पा लो। दोनों तरफ से मौज हो जायेगी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 12,13, 14 अंक 216

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