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गुरुवचन करते हैं रक्षण-पूज्य बापू जी


‘राजवैभव में, घर-बार में काम, क्रोध, लोभ वासनाओं की बहुलता होती है और ईश्वर को पाना ही मनुष्य जीवन का सार है।’ – ऐसा सोचकर रघु राजा अपने पुत्र अज को राज्यवैभव देकर ब्रह्म-परमात्मा की प्राप्ति के लिए एकांत जंगल में चले गये।

एक दिन जब रघु राजा तप कर रहे थे तो एक विप्र (ब्राह्मण) के पीछे राक्षस पड़ा। राक्षस कह रहा थाः ‘तू मेरा प्रिय भोजन है। मैं भूखा हूँ और ब्रह्मा जी ने तुझे मेरे लिए ही भेजा है।’ विप्र को तो प्राण बचाने थे, वह खूब दौड़ा-खूब दौड़ा और राक्षस को भी प्राण बचाने थे क्योंकि भूख का मारा था। विप्र दौड़ते-दौड़ते राजा रघु के चरणों में आया, बोलाः “महाराज ! मैं आपकी शरण में हूँ।”

रघु राजा ने कहाः “क्या बात है ?”

“महाराज ! मुझे बड़ा डर लग रहा है।”

“निर्भय हो जाओ।”

सबसे बड़ा अभयदान है। सत्संग सुनने से अभयदान मिलता है। राजा ने उसे निर्भयता का दान दे दिया। अब जो शरण आया है और जिसे अभयदान दे दिया है, उसकी रक्षा तो अपने प्राणों की बाजी लगा के भी करना कर्तव्य हो जाता है, शरणागतवत्सलता का यह सिद्धान्त है। रघु राजा इस सिद्धान्त को जानते थे।

इतने में वह राक्षस ‘छोड़ो-छोड़ो’ कहता हुआ वहाँ आ पहुँचा। बोलाः “महाराज ! आप इसे छोड़ दो। मैं भूखा हूँ। यह आहार ब्रह्मा जी ने मेरे लिए तय कर रखा है।”

“यह मेरी शरण आया है। मैं इसका त्याग नहीं करूँगा।”

“मैं भूखा हूँ। आप इसको शरण देंगे तो मैं भूख से मर जाऊँगा। आप तपस्वी, प्राणिमात्र में भगवान को देने वाले, सबके लिए निर्वैरता रखने वाले हैं तो फिर मेरा शिकार छीनकर मेरे लिए वैरी जैसा व्यवहार क्यों करते हो राजन् ? आप इसको बचाओगे तो मुझे मारने का पाप आपको लगेगा।”

“मैं इसका त्याग नहीं करूँगा। तुम अपनी पसंद का कोई भी दूसरा आहार माँग लो।”

“मैं राक्षस हूँ। मांस मेरा प्रिय आहार है। आप तो शास्त्रज्ञ हैं, जानते हैं कि अपने कारण कोई भूख से पीड़ित होकर मरे तो पाप लगता है। इसको शरण दे बैठे हैं तो क्या आप मुझे मारने का पाप करेंगे ?”

रघु राजा असमंजस में पड़ गये कि ‘मेरा व्रत है निर्वैरः सर्वभूतेषु…… किसी से वैर न करना, किसी का बुरा न चाहना। अब ब्राह्मण की रक्षा करता हूँ तो यह बेचारा राक्षस भूखा मारता है और राक्षस की रक्षा करता हूँ तो ब्राह्मण की जान देनी पड़ती है। अब क्या करूँ ?’तब उन्हें गुरु वसिष्ठ जी का सत्संग याद आ गया कि ‘कठिनता के समय में हरिनाम-स्मरण ही एकमात्र रास्ता है।’

आप सत्संग सुनते हो उस समय ही आपका भला होता है ऐसी बात नहीं है। सत्संग के शब्द आपको बड़ी-बड़ी विपदाओं से बचायेंगे और बड़े-बड़े आकर्षणों से, मुसीबतों से भी बचायेंगे।

मनुष्य जब असमंजस में पड़े तो उसे क्या करना चाहिए ? भगवान का नाम लेकर शांत हो जाय… फिर भगवान का नाम ले और फिर शांत हो जाय।

रघु राजा ने निश्चल चित्त से श्रीहरि का ध्यान किया और कहाः “पातु मां भगवान विष्णुः। भगवान मुझे रास्ता बितायें। हरि ओऽऽ…म्। हरि ! हरि ! हे मार्गदर्शक ! हे दीनबन्धु ! दीनानाथ ! मेरी डोरी तेरे हाथ। हम हरि की शरण हैं। जो सबमें बसा है विष्णु, हम उसकी शरण हैं।”

भगवान की स्मृति करते ही देखते-देखते राक्षस को दिव्य आकृति प्राप्त हुई। भगवान की स्मृति ने उस राक्षस के कर्म काट दिये। वह कहता हैः “साधो ! साधो !! मैं पिछले जन्म में शतद्युम्न राजा था। यह राक्षस का रूप मुझे मेरे दुष्कर्मों की वजह से महर्षि वसिष्ठजी के श्राप से मिला था। राजन् ! तुमने हरि की शरण ली। तुम्हारे जैसे धर्मात्मा, तपस्वी के मुख से हरिनाम सुनकर मुझे मुक्ति मिल गयी। अब मुझे इस ब्राह्मण की हत्या करके पेट नहीं भरना है, मैं भी हरि की शरण हूँ।” राक्षस की सद्गति हुई, ब्राह्मण को अभयदान मिला और रघु राजा तृप्तात्मा हो गये। क्या भगवान का सुमिरन है ! क्या सत्संग का एक वचन है ! जो सत्संग का फायदा लेते हैं वे धनभागी हैं और जो दूसरों को सत्संग दिलाते हैं उनके भाग्य का तो कहना ही क्या !

धन्या माता पिता धन्यो….

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2011, पृष्ठ संख्या 6 अंक 222

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मंत्रदीक्षा क्यों ?


भगवान श्रीकृष्ण ने ‘श्रीमद् भगवद् गीता’ में कहा हैः यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि। ‘यज्ञों में जपयज्ञ मैं हूँ।’

भगवान श्री राम कहते हैं-

मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा।

पंचम भजन सो वेद प्रकासा।। (श्रीरामचरितमानस)

मेरे मंत्र का जप और मुझमें दृढ़ विश्वास – यह पाँचवीं भक्ति है।

इस प्रकार विभिन्न शास्त्रों में मंत्रजप की अद्भुत महिमा बतायी गयी है, परंतु यदि मंत्र किन्हीं ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु से दीक्षा में प्राप्त हो जाय तो उसका प्रभाव अनंत गुना होता है। संत कबीर जी कहते हैं-

सद्गुरु मिले अनंत फल, कहत कबीर विचार।

श्री सद्गुरुदेव की कृपा और शिष्य की श्रद्धा, इन दो पवित्र धाराओं के संगम का नाम ही ‘दीक्षा’ है। भगवान शिवजी ने पार्वती जी को आत्मज्ञानी महापुरुष वामदेव जी से दीक्षा दिलवायी थी। काली माता ने श्री रामकृष्ण जी को ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु तोतापुरी महाराज से दीक्षा लेने के लिए कहा था। भगवान विट्ठल ने नामदेव जी को आत्मवेत्ता सत्पुरुष विसोबा खेचर से दीक्षा लेने के लिए कहा था। भगवान श्री राम और श्री कृष्ण ने भी अवतार लेने पर सद्गुरु की शरण में जाकर मार्गदर्शन लिया था। इस प्रकार जीवन में ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु से दीक्षा पाने का बड़ा महत्त्व है।

मंत्रदीक्षा से दिव्य लाभ

पूज्य बाप जी से मंत्रदीक्षा लेने के बाद साधक के जीवन में अनेक प्रकार के लाभ होने लगते हैं। जिनमें 18 प्रकार के प्रमुख लाभ इस प्रकार हैं-

  1. गुरुमंत्र के जप से बुराइयाँ कम होने लगती हैं। पापनाश व पुण्य-संचय होने लगता है।
  2. मन पर सुख-दुःख का प्रभाव पहले जैसा नहीं पड़ता।
  3. सांसारिक वासनाएँ कम होने लगती हैं।
  4. मन की चंचलता व छिछरापन मिटने लगता है।
  5. अंतःकरण में अंतर्यामी परमात्मा की प्रेरणा प्रकट होने लगती है।
  6. अभिमान गलता जाता है।
  7. बुद्धि में शुद्ध-सात्त्विक प्रकाश आने लगता है।
  8. अविवेक नष्ट होकर विवेक जागृत होता है।
  9. चित्त को समाधान, शांति मिलती है, भगवद् रस, अंतर्मुखता का रस और आनंद आने लगता है।
  10. आत्मा व ब्रह्म की एकता का ज्ञान प्रकाशित होता है कि मेरा आत्मा परमात्मा का अविभाज्य अंग है।
  11. हृदय में भगवत्प्रेम निखरने लगता है, भगवन्नाम, भगवत्कथा में प्रेम बढ़ने लगता है।
  12. परमानंद की प्राप्ति होने लगेगी और भगवान व भगवान का नाम एक है – ऐसा ज्ञान होने लगता है।

13, भगवन्नाम व सत्संग में प्रीति बढ़ती है।

  1. मंत्रदीक्षित साधक के चित्त में पहले की अपेक्षा हिलचालें कम होने लगती हैं और वह समत्वयोग में पहुँचने के काबिल बनता जाता है।
  2. साकार या निराकार जिसको भी मानेगा, उसी की प्रेरणा से उसके ज्ञान व आनंद के साथ और अधिक एकाकारता का एहसास करने लगेगा।
  3. दुःखालय संसार में, दुन्यावी चीजों में पहले जैसी आसक्ति नहीं रहेगी।
  4. मनोरथ पूर्ण होने लगते हैं।
  5. गुरुमंत्र परमात्मा का स्वरूप ही है। उसके जप से परमात्मा से संबंध जुड़ने लगता है। इसके अलावा गुरुमंत्र के जप से 15 दिव्य शक्तियाँ जीवन में प्रकट होने लगती हैं।

गुरुमंत्र के जप से उत्पन्न 15 शक्तियाँ

  1. भुवनपावनी शक्तिः नाम कमाई वाले संत जहाँ जाते हैं, जहाँ रहते हैं, यह भुवनपावनी शक्ति उस जगह को तीर्थ बना देती है।
  2. सर्वव्याधिनाशिनी शक्तिः सभी रोगों को मिटाने की शक्ति।
  3. सर्वदुःखहारिणी शक्तिः सभी दुःखों के प्रभाव को क्षीण करने की शक्ति।
  4. कलिकाल भुजंगभयनाशिनी शक्तिः कलियुग के दोषों को हरने की शक्ति।
  5. नरकोद्धारिणी शक्तिः नारकीय दुःखों या नारकीय योनियों का अंत करने वाली शक्ति।
  6. प्रारब्ध-विनाशिनी शक्तिः भाग्य के कुअंकों को मिटाने की शक्ति।
  7. सर्व अपराध-भंजनी शक्तिः सारे अपराधों के दुष्फल का नाश करने की शक्ति।
  8. कर्मसम्पूर्तिकारिणी शक्तिः कर्मों को सम्पन्न करने की शक्ति।
  9. सर्ववेदतीर्थादिक फलदायिनी शक्तिः सभी वेदों के पाठ व तीर्थयात्राओं का फल देने की शक्ति।
  10. सर्व अर्थदायिनी शक्तिः सभी शास्त्रों, विषयों का अर्थ व रहस्य प्रकट कर देने की शक्ति।
  11. जगत आनंददायिनी शक्तिः जगत को आनंदित करने की शक्ति।

12. अगति गतिदायिनी शक्तिः दुर्गति से बचाकर सद्गति कराने की शक्ति।

  1. मुक्तिप्रदायिनी शक्तिः इच्छित मुक्ति प्रदान करने की शक्ति।
  2. वैकुंठ लोकदायिनी शक्तिः भगवद्धाम प्राप्त कराने की शक्ति।
  3. भगवत्प्रीतिदायिनी शक्तिः भगवान की प्रीति प्रदान करने की शक्ति।

पूज्य बापू जी दीक्षा में ॐकार युक्त वैदिक मंत्र प्रदान करते हैं, जिससे ॐकार की 19 प्रकार की अन्य शक्तियाँ भी प्राप्त होती हैं। उनकी विस्तृत जानकारी आश्रम से प्रकाशित पुस्तक ‘भगवन्नाम जप महिमा’ में दी गयी है।

पूज्य बापू जी से मंत्रदीक्षा लेकर भगवन्नाम मंत्र का नियमित जप करने वाले भक्तों को उपरोक्त प्रकार के अनेक-अनेक लाभ होते हैं, जिसका पूरा वर्णन करना असम्भव है। रामु न सकहिं नाम गुन गाई।

विज्ञानी बोलते हैं ॐकार से जिगर, मस्तक और पेट के रोग मिटते हैं। इन भोगियों को पता ही क्या योगियों के अनुभव का !

इसलिए हे मानव ! उठ, जाग और पूज्य बापू जी जैसे ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु से मंत्रदीक्षा प्राप्त कर… नियमपूर्वक जप कर…. फिर देख, सफलता तेरी दासी बनने को तैयार हो जायेगी !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2011, पृष्ठ संख्या 27,28 अंक 222

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ॐकार की 19 शक्तियाँ


सारे शास्त्र-स्मृतियों का मूल है वेद। वेदों का मूल है गायत्री और गायत्री का मूल है ॐकार। ॐकार से गायत्री, गायत्री से वैदिक ज्ञान और उससे शास्त्र और सामाजिक प्रवृत्तियों की खोज हुई।

पतंजलि महाराज ने कहा हैः

तस्य वाचकः प्रणवः। ‘परमात्मा का वाचक ॐकार है।’ (पातंजल योगदर्शन, समाधिपादः 27)

सब मंत्रों में ॐ राजा है। ॐकार अनहद नाद है। यह सहज में स्फुरित हो जाता है। अकार, उकार, मकार और अर्धतन्मात्रा युक्त ॐ एक ऐसा अद्भुत भगवन्नाम मंत्र है कि इस पर कई व्याख्याएँ हुईं, कई ग्रंथ लिखे गये फिर भी इसकी महिमा हमने लिखी ऐसा दावा किसी ने नहीं किया। इस ॐकार के विषय में ज्ञानेश्वरी गीता में ज्ञानेश्वर महाराज ने कहा हैः

ॐ नमो जी आद्या वेदप्रतिपाद्या

जय जय स्वसंवेद्या आत्मरूपा।

परमात्मा का ॐकार स्वरूप से अभिवादन करके ज्ञानेश्वर महाराज ने ज्ञानेश्वरी गीता का प्रारम्भ किया।

धन्वंतरि महाराज लिखते हैं कि ॐ सबसे उत्कृष्ट मंत्र है।

वेदव्यास जी महाराज कहते हैं कि मंत्राणां प्रणवः सेतुः। यह प्रणव मंत्र सारे मंत्रों का सेतु है।

कोई मनुष्य दिशाशून्य हो गया हो, लाचारी की हालत में फेंका गया हो, कुटुम्बियों ने मुख मोड लिया हो, किस्मत रूठ गयी हो, साथियों ने सताना शुरु कर दिया हो, पड़ोसियों ने पुचकार के बदले दुत्कारना शुरु कर दिया हो…. चारों तरफ से व्यक्ति दिशाशून्य, सहयोगशून्य, धनशून्य, सत्ताशून्य हो गया हो, फिर भी हताश न हो वरन् सुबह शाम 3 घंटे ॐकार सहित भगवन्नाम का जप करे तो वर्ष के अंदर वह व्यक्ति भगवद्शक्ति से सबके द्वारा सम्मानित, सब दिशाओं में सफल और सब गुणों से सम्पन्न होने लगेगा। इसलिए मनुष्य को कभी भी अपने को लाचार, दीन-हीन और असहाय मानकर कोसना नहीं चाहिए। भगवान तुम्हारे आत्मा बनकर बैठे हैं और भगवान का नाम तुम्हें सहज में प्राप्त हो सकता है, फिर क्यों दुःखी होना !

रोज रात्रि में तुम 10 मिनट ॐकार का जप करके सो जाओ। फिर देखो, इस मंत्र भगवान की क्या-क्या करामात होती है ! और दिनों की अपेक्षा वह रात कैसी जाती है और सुबह कैसी जाती है ! पहले ही दिन फर्क पड़ने लग जायेगा।

मंत्र के ऋषि, देवता, छंद, बीज और कीलक होते हैं। इस विधि को जानकर गुरुमंत्र देने वाले सद्गुरु मिल जायें और उसका पालन करने वाला सत्शिष्य मिल जाय तो काम बन जाता है। ॐकार मंत्र का छंद गायत्री है, इसके देवता परमात्मा स्वयं हैं और मंत्र के ऋषि भी ईश्वर ही हैं।

भगवान की रक्षण शक्ति, गति शक्ति, कांति शक्ति, प्रीति शक्ति, अवगम शक्ति, प्रवेश अवति शक्ति आदि 19 शक्तियाँ ॐकार में हैं। इसका आदर से श्रवण करने से मंत्रजापक को बहुत लाभ होता है, ऐसा संस्कृत के जानकार पाणिनि मुनि ने बताया है।

वे पहले महाबुद्धु थे, महामूर्खों में उनकी गिनती होती थी। 14 साल तक वे पहली कक्षा से दूसरी कक्षा में नहीं जा पाये थे। फिर उन्होंने शिवजी की उपासना की, उनका ध्यान किया तथा शिवमंत्र जपा। शिवजी के दर्शन किये वे उनकी कृपा से संस्कृत व्याकरण की रचना की और अभी तक पाणिनि मुनि का संस्कृत व्याकरण पढ़ाया जाता है।

ॐकार मंत्र में 19 शक्तियाँ हैं

एक-    रक्षण शक्तिः ॐ सहित मंत्र का जप करते हैं तो वह हमारे जप तथा पुण्य की रक्षा करता है। किसी नामदान लिए हुए साधक पर यदि कोई आपदा आने वाली है तो मंत्र भगवान उस आपदा को शूली में से काँटा कर देते हैं। साधक का बचाव कर देते हैं। ऐसा बचाव तो एक नहीं, मेरे हजारों साधकों के जीवन में चमत्कारिक ढंग से महसूस होता है। ‘अरे, गाड़ी उलट गयी, तीन पलटियाँ खा गयी किंतु बापू जी ! हमको खरोंच तक नहीं आयी…. बापू जी ! हमारी नौकरी छूट गयी थी, ऐसा हो गया था-वैसा हो गया था किंतु बाद में उसी साहब ने हमको बुलाकर हमसे माफी माँगी और हमारी पुनर्निर्युक्ति कर दी। पदोन्नति भी कर दी….’ इस प्रकार की न जाने कैसी-कैसी अनुभूतियाँ लोगों को होती हैं। ये अनुभूतियाँ समर्थ भगवान का सामर्थ्य प्रकट करती हैं।

दो-   गति शक्तिः जिस योग, ज्ञान, ध्यान के मार्ग से आप फिसल गये थे, जिसके प्रति उदासीन हो गये थे, किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये थे उसमें मंत्रदीक्षा लेने के बाद गति आने लगती है। मंत्रदीक्षा के बाद आपके अंदर की गति शक्ति कार्य में आपको मदद करने लगती है।

तीन-    कांति शक्तिः मंत्रजप से जापक के कुकर्मों के संस्कार नष्ट होने लगते हैं और उसका चित्त उज्जवल होने लगता है। उसकी आभा उज्जवल होने लगती है, उसकी मति-गति उज्जवल होने लगती है और उसके व्यवहार में उज्जवलता आने लगती है।

इसका मतलब ऐसा नहीं है कि आज मंत्र लिया और कल सब छूमंतर हो जायेगा…. धीरे-धीरे होगा। एक दिन में कोई स्नातक नहीं होता, एक दिन में कोई एम.ए. नहीं पढ़ लेता, ऐसे ही एक दिन में सब छूमंतर नहीं हो जाता। मंत्र लेकर ज्यों-ज्यों आप श्रद्धा से, एकाग्रता से और पवित्रता से जप करते जायेंगे त्यों-त्यों विशेष लाभ होता जायेगा।

चार-   प्रीति शक्तिः ज्यों-ज्यों आप मंत्र जपते जायेंगे त्यों-त्यों मंत्र के देवता के प्रति, मंत्र के ऋषि के प्रति, मंत्र के सामर्थ्य के प्रति आपकी प्रीति बढ़ती जायेगी।

पाँच-    तृप्ति शक्तिः ज्यों-ज्यों आप मंत्र जपते जायेंगे त्यों-त्यों आपकी अंतरात्मा में तृप्ति बढ़ती जायेगी, संतोष बढ़ता जायेगा। जिन्होंने नियम लिया है और जिस दिन वे मंत्र नहीं जपते उनका वह दिन कुछ ऐसा ही जाता है। जिस दिन वे मंत्र जपते हैं, उस दिन उन्हें अच्छी तृप्ति और संतोष होता है।

जिनका गुरुमंत्र सिद्ध हो गया है उनकी वाणी में सामर्थ्य आ जाता है। नेता भाषण करता है तो लोग इतने तृप्त नहीं होते, किंतु जिनका गुरुमंत्र सिद्ध हो गया है ऐसे महापुरुष बोलते हैं तो लोग सज्जन बनने लगते हैं और बड़े तृप्त हो जाते हैं और महापुरुष के शिष्य बन जाते हैं।

छह-  अवगम शक्तिः मंत्रजप से दूसरों के मनोभावों को जानने की शक्ति विकसित हो जाती है। दूसरे के मनोभावों, भूत-भविष्य के क्रियाकलाप को आप अंतर्यामी बनकर जान सकते हैं। कोई कहे कि ‘महाराज ! आप तो अंतर्यामी हैं।’ किंतु वास्तव में यह् भगवत्शक्ति के विकास की बात है।

सात-  प्रवेश अवति शक्तिः अर्थात् सबके अंतरतम की चेतना के साथ एकाकार होने की शक्ति। अंतःकरण के सर्वभावों को तथा पूर्व जीवन के भावों को और भविष्य की यात्रा के भावों को जानने की शक्ति कई योगियों में होती है। वे कभी-कभार मौज में आ जायें तो बता सकते हैं कि आपकी यह गति थी, आप यहाँ थे, फलाने जन्म में ऐसे थे, अभी ऐसे हैं। जैसे दीर्घतपा ऋषि के पुत्र पावन को माता-पिता की मृत्यु पर उनके लिए शोक करते देखकर उसके बड़े भाई पुण्यक ने उसे उसके पूर्वजन्मों के बारे में बताया था। यह कथा ‘श्री योगवासिष्ठ महारामायण’ में आती है।

आठ-  श्रवण शक्तिः मंत्रजप के प्रभाव से जापक सूक्ष्मतम, गुप्ततम शब्दों का श्रोता बन जाता है। जैसे शुकदेव जी महाराज ने जब परीक्षित के लिए सत्संग शुरु किया तो देवता आये। शुकदेव जी ने उन देवताओं से बात की। माँ आनंदमयी का भी देवलोक के साथ सीधा संबंध था और भी कई संतों का होता है। दूर देश से भक्त पुकारता है कि ‘गुरु जी ! मेरी रक्षा करो….’ तो गुरुदेव तक उसकी पुकार पहुँच जाती है !

नौ-  स्वाम्यर्थ शक्तिः अर्थात् नियमन और शासन का सामर्थ्य। नियामक और शासक शक्ति का सामर्थ्य विकसित करता है प्रणव का जप।

दस-   याचन शक्तिः याचक की लक्ष्यपूर्ति का सामर्थ्य देने वाला मंत्र।

ग्‍यारह-   क्रिया शक्तिः निरन्तर क्रियारत रहने की क्षमता, क्रियारत रहने वाली चेतना का विकास।

बारह-  इच्छित अवति शक्तिः वह ॐ स्वरूप परब्रह्म परमात्मा स्वयं तो निष्काम है किंतु उसका जप करने वाले में सामने वाले व्यक्ति का मनोरथ पूरा करने का सामर्थ्य आ जाता है। इसीलिए संतों के चरणों में लोग मत्था टेकते हैं, कतार लगाते हैं, प्रसाद धरते हैं, आशीर्वाद माँगते हैं आदि-आदि। इच्छित अवति शक्ति अर्थात् निष्काम-परमात्मा स्वयं शुभेच्छा का प्रकाशक बन जाता है।

तेरह-   दीप्ति शक्तिः ॐकार जपने वाले के हृदय में ज्ञान का प्रकाश बढ़ जायेगा। उसकी दीप्ति शक्ति विकसित हो जायेगी।

चौदह-   वाप्ति शक्तिः अणु-अणु में जो चेतना व्याप रही है उस चैतन्य स्वरूप ब्रह्म के साथ आपकी एकाकारता हो जायेगी।

पंद्रह-  आलिंगन शक्तिः अपनापन विकसित करने की शक्ति। ॐकार के जप से पराये भी अपने होने लगेंगे तो अपनों की तो बात ही क्या ! जिनके पास जप-तप की कमाई नहीं है उनको तो घरवाले भी अपना नहीं मानते किंतु जिनके पास ॐकार के जप की कमाई है उनसे घरवाले, समाजवाले, गाँव वाले, नगर वाले, राज्यवाले, राष्ट्र वाले तो क्या विश्ववाले भी आनंदित-आह्लादित होने लगते हैं।

सोलह-   हिंसा शक्तिः ॐकार का जप करने वाला हिंसक बन जायेगा ? हाँ, हिंसक बन जायेगा किंतु कैसा हिंसक बनेगा ? दुष्ट विचारों का दमन करने वाला बन जायेगा और दुष्ट वृत्ति के लोगों के दबाव में नहीं आयेगा। अर्थात् उसके अंदर अज्ञान को और दुष्ट संस्कारों को मार भगाने का प्रभाव विकसित हो जायेगा।

सत्रह-  दान शक्तिः वह पुष्टि और वृद्धि का दाता बन जायेगा। फिर वह माँगने वाला नहीं रहेगा, देने की शक्ति वाला बन जायेगा।वह देवी-देवता से, भगवान से माँगेगा नहीं, स्वयं देने लगेगा।

एक संत थे। वे ॐकार का जप करते-करते ध्यान करते थे, अकेले रहते थे। वे सुबह बाहर निकलते लेकिन चुप रहते। उनके पास लोग अपना मनोरथ पूर्ण कराने के लिए याचक बनकर आते और हाथ जोड़कर कतार में बैठ जाते। चक्कर मारते-मारते वे संत किसी को थप्पड़ मार देते। वह खुश हो जाता, उसका काम बन जाता। बेरोजगार को नौकरी मिल जाती, निःसंतान को संतान मिल जाती, बीमार की बीमारी चली जाती। लोग गाल तैयार रखते थे। परंतु ऐसा भाग्य कहाँ कि सबके गाल पर थप्पड़ पड़े ! मैंने उन महाराज के दर्शन तो नहीं किये हैं किंतु जो लोग उनके दर्शन करके आये और उनके लाभान्वित होकर आये, उन लोगों की बातें मैंने सुनीं।

अठारह-   भोग शक्तिः प्रलयकाल स्थूल जगत को अपने में लीन करता है, ऐसे ही तमाम दुःखों को, चिंताओं को, खिंचावों को, भयों को अपने में लीन करने का सामर्थ्य होता है प्रणव का जप करने वालों में। जैसे दरिया में सब लीन हो जाता है, ऐसे ही उसके चित्त में सब लीन हो जायेगा और वह अपनी ही लहरों में लहराता रहेगा, मस्त रहेगा…. नहीं तो एक-दो दुकान, एक-दो कारखाने  वालों को भी कभी-कभी चिंता में चूर होना पडता है। किंतु इस प्रकार की साधना जिसने की है उसकी एक दुकान या कारखाना तो क्या, एक आश्रम या समिति तो क्या, 1100, 1200 या 1500 ही क्यों न हों, सब उत्तम प्रकार से चलती हैं ! उसके लिए तो नित्य नवीन रस, नित्य नवीन आनंद, नित्य नवीन मौज रहती है।

स्वामी रामतीर्थ गाया करते थेः

हर रोज इक नहीं शादी है, हर रोज मुबारकवादी है।

जब आशिक मस्त फकीर हुआ, तो क्या दिलगिरी बाबा !

शादी अर्थात् खुशी। वह ऐसा मस्त फकीर बन  जायेगा।

उन्‍नीस-   वृद्धि शक्तिः प्रकृतिवर्धक, संरक्षक शक्ति। ॐका जप करने वाले में प्रकृतिवर्धक और संरक्षक सामर्थ्य आ जाता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2011, पृष्ठ संख्या 23-26 अंक 222

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