बारह प्रकार के गुरु

बारह प्रकार के गुरु


पूज्य बापू जी की अमृतवाणी

ʹनामचिंतामणिʹ ग्रन्थ में गुरुओं के बारह प्रकार बताये हैं। एक होते हैं धातुवादी गुरु। ʹबच्चा! मंत्र ले लिया, अब जाओ तीर्थाटन करो। भिक्षा माँग के खाओ अथवा घर का खाओ तो ऐसा खाओ, वैसा न खाओ। लहसुन न खाना, प्याज न खाना, यह करना, वह न करना। इस बर्तन में भोजन करना, ऐसे सोना।ʹ – ऐसी  विभिन्न बातें बताकर अंत में ज्ञानोपदेश देने वाले धातुवादी गुरु होते हैं।

दूसरे होते हैं चंदन गुरु। जिस प्रकार चंदन वृक्ष अपने निकट के वृक्षों को भी सुगन्धित बना देता है, ऐसे ही अपने सान्निध्य द्वारा शिष्य को तारने वाले गुरु चन्दन गुरु होते हैं। चंदन गुरु वाणी से नहीं, आचरण से हममें संस्कार भर देते हैं। उनकी सुवास का चिंतन करके हम भी अपने समाज में सुवासित होने के काबिल होते हैं।

तीसरे होते हैं विचारप्रधान गुरु। जो सार है वह ब्रह्म-परमात्मा है, असार है अष्टधा प्रकृति का शरीर। प्रकृति का शरीर प्रकृति के नियम से रहे लेकिन आप अपने ब्रह्म-स्वभाव में रहें – इस प्रकार का विवेक जगाने वाले आत्म-विचारप्रधान गुरु होते हैं।

चौथे होते हैं अनुग्रह-कृपाप्रधान गुरु। अपनी अऩुग्रह-कृपा द्वारा अपने शिष्यों का पोषण कर दें, दीदार दें दें, मार्गदर्शन दे दें, अच्छा काम करें तो प्रोत्साहित कर दें, गड़बड़ करें तो गुरू की मूर्ति मानो नाराज हो रही है ऐसे गुरु भी होते हैं।

पाँचवें होते हैं पारस गुरु। जैसे पारस अपने स्पर्श से लोहे को सोना कर देता है, ऐसे ही ये गुरु अपने हाथ का स्पर्श अथवा अपनी स्पर्श की हुई वस्तु का स्पर्श कराके हमारे चित्त के दोषों को हरकर  चित्त में आनंद, शान्ति, माधुर्य एवं योग्यता का दान करते हैं।

छठे होते हैं कूर्म अर्थात् कच्छपरूप गुरु। जैसे मादा कछुआ दृष्टिमात्र से अपने बच्चों को पोषित करती है, ऐसे ही गुरुदेव कहीं भी हों अपनी दृष्टिमात्र से, नूरानी निगाहमात्र से शिष्य को दिव्य अनुभूतियाँ कराते रहते हैं। ऐसी गुरुदेव की कृपा का अनुभव मैंने कई बार किया।

सातवें होते हैं चन्द्र गुरु। जैसे चन्द्रमा के उगते ही चन्द्रकान्त मणि से रस टपकने लगता है, ऐसे ही गुरु को देखते ही हमारे अंतःकरण में उनके ज्ञान का, उनकी दया का, आनंद, माधुर्य का रस उभरने, छलकने लगता है। गुरु का चिंतन करते ही, उनकी लीलाओं, घटनाओं अथवा भजन आदि का चिंतन करके किसी को बताते हैं तो भी हमें रस आने लगता है।

आठवें होते हैं दर्पण गुरु। जैसे दर्पण में अपना रूप दिखता है ऐसे ही गुरु के नजदीक जाते ही हमें अपने गुण-दोष दिखते हैं और अपनी महानता का, शांति, आनंद, माधुर्य आदि का रस भी आने लगता है, मानो गुरु एक दर्पण हैं। गुरु के पास गये तो हमें गुरू का स्वरूप और अपना स्वरूप मिलता जुलता, प्यारा-प्यारा सा लगता है। वहाँ वाणी नहीं जाती, मैं बयान नहीं कर सकूँग। मुझे जो अऩुभूतियाँ हुई उनका मैं वर्णऩ नहीं कर सकता। बहुत समय लगेगा फिर भी पूरा वर्णन नहीं कर पाऊँगा।

नौवें होते हैं छायानिधि गुरू। जैसे एक अजगैबी देवपक्षी आकाश में उड़ता है और जिस व्यक्ति पर उसकी ठीक से छाया पड़ जाती है वह राजा बन जाता है ऐसी कथा प्रचलित है। यह छायानिधि पक्षी आकाश में उड़ता रहता है किंतु हमें आँखों से दिखाई नहीं देता। ऐसे ही साधक को अपनी कृपाछाया में रखकर उसे स्वानंद प्रदान करने वाले गुरु छायानिधि गुरु होते हैं। जिस पर गुरु की दृष्टि, छाया आदि कुछ पड़ गयी वह अपने अपने विषय में, अपनी अपनी दुनिया में राजा हो जाता है। राजे महाराज भी उसके आगे घुटने टेकते हैं। यह सामर्थ्य मेरे गुरुदेव में था और मुझे लाभ मिला।

दसवें होते हैं नादनिधि गुरु। नादनिधि मणि ऐसी होती है कि वह जिस धातु को स्पर्श करे वह सोना बन जाती है। पारस तो केवल लोहे को सोना करता है।

एक संत थे गरीबदासजी। वे दादू दयाल जी के शिष्य थे। उनको किसी वैष्णव साधु ने मणि दी उन्होंने वह मणि फेंक दी।

वैष्णव साधु ने कहाः “मैं तो तुम्हारी गरीबी मिटाने के लिए लाया था। इतनी तपस्या के बाद मणि मिली थी, तुमने फेंक दिया ! कितनी कीमती थी !! अब क्या होगा ?”

गरीबदासजी ने कहाः “बाबा ! यह आपके हाथ का चिमटा दिखायें।” उसे अपने ललाट को छुआया तो चिमटा सोने का बन गया। वैष्णव साधु गरीबदास जी के चरणों में पड़ गये।

अब पारसमणि तो नहीं होता है ललाट, नादनिधि भी नहीं होता। क्या वर्णन करें ! मनुष्य के चित्त की कितनी महानता है ! ऐसे भी गुरु होते हैं हैं, जिनका ललाट या वाणी नादनिधि बन जाती है। ऐसी-ऐसी वार्ताएँ सुनकर हृदय आनंदित हो जाता है, अहोभाव से भर जाता है कि ʹहम कितने भाग्यशाली हैं कि भारतीय संस्कृति के ग्रंथ पढ़ने और सुनने का अवसर मिलता है।ʹ

नादनिधि मणि तो ठीक लेकिन गरीबदास जी का मस्तक नादनिधि कैसे बन गया ? वहाँ विज्ञान घुटने टेकने लग जाता है। ऐसे गुरू मुमुक्षु की करूण पुकार सुन के उस पर करुणा करके उसे तत्क्षण ज्ञान दे देते हैं। मुमुक्षु के आगे स्वर्ण तो क्या है, हीरे क्या है, राज्य क्या है ? वह तो राज्य और स्वर्ण का दाता बन जाता है। नादनिधि मणि से भी उन्नत, गुरु की कृपा और गुरु का ज्ञान काम करता है। नादनिधि को तो मैं चमत्कारी मानता हूँ लेकिन उससे भी कई गुना चमत्कारी मेरे गुरुदेव की वाणी और कृपा है। मैं उनके चरणों में अब भी नमस्कार करता हूँ। मेरे गुरुदेव की पूजा के आगे नादनिधि मणि, चिंतामणि, पारसमणि कुछ भी नहीं है। पारसमणिवालों के पास इतने लोग नहीं होते हैं।

ग्यारहवें गुरु होते हैं क्रौंच गुरु। जैसे मादा क्रौंच पक्षी अपने बच्चों को समुद्र-किनारे छोड़कर उनके लिए दूर स्थानों से भोजन लेने जाती है तो इस दौरान वह बार-बार आकाश की ओर देखकर अपने बच्चों को स्मरण करती है। आकाश की ओर देख के अपने बालकों के प्रति सदभाव करती है तो वे पुष्ट हो जाते हैं। ऐसे ही गुरु अपने चिदाकाश में होते हुए अपने शिष्यों के लिए सदभाव करते हैं तो अपने स्थान पर ही शिष्यों को गुदगुदियाँ होने लगती हैं, आत्मानंद मिलने लगता है और वे समझ जाते हैं कि बापू ने याद किया, गुरु ने याद किया। ऐसी गुरुकृपा का अनुभव मुझे कई बार हुआ था। मैंने अनुभव किया कि ʹगुरुजी कहीं दूर हैं और मेरे हृदय में कुछ दिव्य अनुभव हो रहे हैं।ʹ मन में हुआ कि ʹकैसे हो रहा है ʹ तो तुरंत पता चला कि वहाँ से उनका सदभाव मेरी तरफ यहाँ पहुँच गया है।

बारहवें गुरु होते हैं सूर्यकांत गुरु। सूर्यकान्त मणि में ऐसी योग्यता होती है कि सूर्य को देखते ही अग्नि से भर जाती है, ऐसे ही अपनी दृष्टि जहाँ पड़े वहाँ के साधकों को विदेहमुक्ति देने वाले गुरु सूर्यकान्त गुरु होते हैं। शिष्य को देखकर गुरु के हृदय में उदारता, आनंद उभर जाय और शिष्य का मंगल ही मंगल होने लगे, शिष्य को उठकर जाने की इच्छा ही न हो। गुरु का अपना स्वभाव ही बरसने लगे। तीरथ नहाये एक फल….अपनी भावना का ही फल मिलेगा। संत मिले फल चार…..धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, मिलेगा लेकिन आत्मसाक्षात्कारी पुरुष में तो मुझे लगता है कि बारह के बारह लक्षण चमचम चमकते हैं। किसी गुरु में एक लक्षण, किसी में दो, किसी में तीन लेकिन ब्राह्मी स्थितिवाला तो ओ हो ! जय लीलाशाह भगवान ! जय जय व्यास भगवान !! ऐसे ब्रह्मवेत्ता महापुरुष के चरणों में वंदन ! उऩका बड़ा भारी उपकार है, उनका धरती पर रहना ही मनुष्यों के लिए मंगलकारी है। वे बोलें तो भी मंगल है, ऐसे ही कहीं चुप बैठें और केवल दृष्टि डाल दें तो भी उनके संकल्प और उनको छूकर आने वाली हवाओं से मंगल होता है।

एक गुरु में ऐसे बारह के बारह दिव्य गुण भी हो सकते हैं, दो भी हो सकते हैं, चार भी हो सकते हैं। अब आपको कितने प्रकार के गुरु मिले हैं, आप ही सोच लो। मेरे को तो मिल गये मेरे गुरुदेव। यह सब उन्हीं का विस्तार है और जो दिखता है उससे भी ज्यादा विस्तार है उनका। जहाँ-जहाँ आपकी और मेरी दृष्टि जाती है उससे भी ज्यादा विस्तार है। अनंत ब्रह्मांड भी उनके एक कोने में पड़े हैं। ऐसे हैं मेरे गुरुदेव !

ऐसे गुरुओं पर कीचड़ उछालने वाले हर युग में रहे, फिर भी गुरु परम्परा अभी तक बरकरार है। नानक जी को जेल में डाल दिया। कबीर जी पर लांछन लगाया। बुद्ध पर दोषारोपण किया, कुप्रचार किया। संत नामदेव, ज्ञानेश्वर महाराज का भी खूब कुप्रचार हुआ। संत तुकारामजी महाराज का भी खूब कुप्रचार हुआ। फिर भी वे संत लाखों-करोड़ों के हृदय में अभी भी आदर से विराजमान हैं। लाखों करोड़ों हृदय उन्हें आदर से मानते हैं। निंदक और कुप्रचारक अपना ही घाटा करते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2012, अंक 234, पृष्ठ संख्या 20,21,22

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