जो संकेत पाकर भी नहीं सुधरते उनका यही हाल होता है !

जो संकेत पाकर भी नहीं सुधरते उनका यही हाल होता है !


महाभारत में कर्ण के हितैषी सारथी शल्य ने कर्ण को कर्तव्य-अकर्तव्य का गूढ़ रहस्य एवं जीवन का गहन सत्य-सिद्धान्त समझाने के लिए एक दृष्टांत कथा बताते हुए कहाः “समुद्र के तट पर एक धर्मात्मा वैश्य रहता था । उसके बहुत से पुत्र थे । उनकी जूठन खाकर पला हुआ कौआ बड़े घमंड में भर के अपने समान तथा अपने से श्रेष्ठ पक्षियों का भी अपमान करने लगा ।

एक दिन वहाँ मानसरोवर निवासी राजहंस आये । उनको देख अल्पबुद्धि बालक अपने कौए को पक्षियों में श्रेष्ठ कहकर उसकी प्रशंसा करने लगे । अभिमानवश उनकी बातों को सत्य मानकर दुर्बुद्धि कौए ने हंसों में से एक श्रेष्ठ चक्रांग हंस को उड़ने के लिए ललकारा और बताया कि “मैं 101 प्रकार की उड़ानें भर सकता हूँ ।”

तदनंतर हंस और कौआ दोनों होड़ लगाकर उड़े । हंस एक ही गति से उड़ रहा था और कौआ विभिन्न उड़ानों द्वारा । कौआ अपने कार्यों का बखान भी करता जा रहा था । दूसरे कौए बड़े प्रसन्न हुए और जोर-जोर से काँव-काँव करने लगे । हंस ने एक ही मृदुल गति से समुद्र के ऊपर ऊपर उड़ना आरम्भ किया ।

इधर कौआ थक गया । उसे कहीं आश्रय लेने के लिए द्वीप या वृक्ष नहीं दिखाई दे रहे थे अतः वह भय के कारण घबराकर अचेत-सा हो उठा । हंस कौए से आगे बढ़ चुका था तो भी उसकी प्रतीक्षा करने लगा । हंस ने देखा कि कौए की दशा बड़ी शोचनीय हो गयी है । अब यह पानी में गिरकर डूबने ही वाला है ।

उस कौए ने कहाः “भाई हंस ! हम तो कौए हैं । व्यर्थ काँव-काँव किया करते हैं । हम उड़ना क्या जानें ? मैं तुम्हारी शरण में आया हूँ । मुझे किनारे तक पहुँचा दो ।”

हंसः “काग ! तूने अपनी प्रशंसा करते हुए कहा था कि “मैं 101 उड़ानों द्वारा उड़ सकता हूँ । अब उन्हें याद कर ।”

कौआः “भाई हंस ! मैं जूठन खा-खाकर घमंड में भर गया था और बहुत से कौओं तथा दूसरे पक्षियों का तिरस्कार करके अपने आपको गरुड़ के समान शक्तिशाली समझने लगा था । अब मैं तुम्हारी शरण में हूँ । यदि मैं कुशलपूर्वक अपने निवास-स्थल पर पहुँच जाऊँ तो अब कभी किसी का अपमान नहीं करूँगा ।”

कौआ दीनभाव से विलाप करते-करते जल में डूबने लगा । अचेत कौए को पीठ पर बिठाकर हंस तुरंत ही फिर उसी द्वीप में आ पहुँचा जहाँ से दोनों उड़े थे ।

कर्ण ! इस प्रकार कौआ हंस से पराजित हो अपने बल पराक्रम का घमंड छोड़ कर शांत हो गया । पूर्वकाल में जैसे वह कौआ वैश्यकुल में सबकी जूठन खा के पला था, उसी प्रकार धृतराष्ट्र के पुत्रों ने तुम्हें जूठन खिला-खिलाकर पाला है इसमें संशय नहीं है । इसी से तुम अपने समान तथा अपने से श्रेष्ठ पुरुषों का भी अपमान करते हो । जैसे कौआ उत्तम बुद्धि का आश्रय लेकर चक्रांग हंस की शरण में गया था उसी प्रकार तुम भी श्रीकृष्ण और पांडुपुत्र अर्जुन की शरण लो ।”

लेकिन कर्ण ने शल्य के उत्तम सुझावों का आदर नहीं किया तो उसका क्या परिणाम हुआ वह सभी जानते हैं ।

धर्म व संस्कृति विरोधी ताकतों के चंद रुपयों पर पलने वाले कुछ लोग झूठे घमंड में आकर हमारी संस्कृति, इसके संतों-महापुरुषों, राष्ट्रसेवियों, देशभक्तों, हमारे देवी-देवताओं और समाज-हितैषियों का अपमान, दुष्प्रचार, निंदा करते-करवाते हैं लेकिन यह कथा बताती है कि उनकी अंतिम गति क्या होती है ! उनमें से जो संकेत पाकर सुधर जाते हैं वे तो बच जाते हैं लेकिन जो नहीं सुधरते हैं उनका वही हाल होता है जो कर्ण का हुआ । कर्ण बेमौत मारा गया ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2019, पृष्ठ संख्या 11, 20 अंक 322

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