सब कामों को छोड़ दो

सब कामों को छोड़ दो


भगवद्गीता के दूसरे अध्याय का श्लोक है
विहाय कामान् यः सर्वान् पुमांश्चरति निःस्प्रहः।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति।।
जो पुरुष संपूर्ण कामनाओं को त्यागकर ममता रहित , अहंकार रहित और स्पृहा रहित होकर विचरता है वही शांति को प्राप्त होता है।


अष्टावक्र जनक को कहते है, श्रीकृष्ण अर्जुन को कह रहे है।अष्टावक्र कहते है – ममता रहित निर्द्वंद्व हो ,
भ्रम भेद सारे दे हटा
मत राग कर मत द्वेष कर
सब दोष मन के दे मिटा
निर्मूल कर दे वासना
निज आत्म का कल्याण कर
भांडा दुई का फोड़ दे
सर्वात्म अनुसंधान कर


दुई के चिंतन से ही राग- द्वेष, भय -शोक, चिंता ,ग्लानी, स्पृहा, ममता, अहंकार ये सब दोष पैदा होते है।अष्टावक्र कहते है भांडा दुई का फोड़ दे , सर्वात्म अनुसंधान कर। जैसे क्षीरसागर में भगवान विष्णु आराम कर रहे है ऐसे ही तू आत्मसगर में विश्रांति को पा!
विहाय कामान् यः सर्वान् पुमांश्चरति निःस्प्रहः ….कामनाओं को छोड़। ऐसा सुख तो स्वर्ग में नही होता जितना सुख कामना के त्याग से होता है। इतना दुःख तो नरक में भी नही होता जितना कामना वान के ह्रदय में होता है।
विहाय कामान् यः … जो पुरूष संपूर्ण कामनाओं का त्याग कर ममतारहित होता है..विषय भोग की कामना न करें, प्रारब्ध वेग से शरीर का पोषण होता ही जा रहा है।
मिले हुए पदार्थों में ममता न करे क्योंकि बहनेवाले है। बहनेवाले को देखकर बहने का मजा लो और रहनेवाले को देखकर रहने का मजा लो। संसार,सबंध, विषय और भाव सब बहनेवाले है। इनको बहता जानकर तुम तृप्त रहो। और इन सबका जो साक्षी परमात्मा है वह रहनेवाला है। उसके रहने की गरिमा को जानकर तुम वही हो जाओ, तुम बहने का भी मजा लो और रहने का भी मजा लो। बहाव में बहो नही और रहनेवाले को पीठ दो मत।
टूटे-फूटे भाग्य को संत देत है जोड़
संत बेचारा क्या करें
हम ही लेत है मुख मोड़।
टूटे-फूटे भाग्य को संत देत है जोड़,संत बेचारे क्या करें खुद ही लेत है मुख मोड़! हम अपने मुख को न मोड़े। हम अपनी महिमा से अपने मुख को न मोड़े। हमारा कितना भी टूटा-फूटा भाग्य होगा, जुड़ जाएगा। सदियों का अँधेरा जाने में देर नही लगती, सदियों की भटकान …लेकिन मुलाकात के बाद वो कोई महत्व नही रखती। युगों से कई गर्भों में हम भटकते आए है। इस इच्छा और वासना, ममता
और स्पृहा के कारण हे ममता तुझे नमस्कार है, हे अहंकार तुझे अलविदा है, हे कामना तू किनारे हट…जो-जो चित्त में कामना उठती हो उसको बोलो अभी तेरा यहाँ समय नही! हे कामना तूने हमें कई युगों से भटकाया है, हे स्पृहा तूने हमें कई
युगों से भटकाया है, हे ममता तूने कईं जन्मों तक हमें मारा है, हे अहंकार कईं युगों से तू हमें अकेला पछाड़ता आया है!


अब तो हम कृष्ण के वचनों को अपने वचन बना लेंगे। श्रीकृष्ण के वचनों को, श्रीकृष्ण के अनुभव को हम अपना अनुभव मान लेंगे, श्रीकृष्ण के ज्ञान को हम अपना ज्ञान बना लेंगे, श्रीकृष्ण के उपदेश को हम जीवन में ढाल देंगे, अष्टावक्र के आदेश को हम जीवन में ढाल देंगे।
ममता रहित निर्द्वंद्व हो ,
भ्रम भेद सारे दे हटा
मत राग कर मत द्वेष कर
सब दोष मन के दे मिटा
निर्मूल कर दे वासना
निज आत्म का कल्याण कर
भांडा दुई का फोड़ दे
सर्वात्म अनुसंधान कर…


ए मेरे मन तू सर्वात्म अनुसंधान कर,द्वैत भावनाओं को अलविदा कर,ममता और स्पृहा को अलविदा कर मेरे मन ! महात्मा लोग कहते है-हे ममता और अहंता किसे कहा जाता है? इच्छा किसे कहा जाता है? मुझे कुछ मिले ये इच्छा है, मैं कुछ करके, कुछ पाकर सुखी होऊँ, कुछ देखकर सुखी होऊँ ये इच्छाएँ है और इन इच्छाओं से हम युगों तक भटकते आए है।लवलेश भी सुख हमें मिला नही,टिका नही। यदि वो सुख हमें मिलता और टिकता तो अभी गोदाम भर जाते। लवलेश का मतकब है कि सुई की नोक पर.. गैलन के गैलन पानी डालो तुम, टैंकर के टैंकर खाली कर दो..सुई की नोक पर जितना पानी टिक जाए उतना भी यदि हमारा सुख टिकता आता तो दिन में ऐसा सुख कईं बार लिया और एक जनम में ही लवलेश-लवलेश लेते-लेते अभी हमारे पास सुख का गोदाम होता। लेकिन कामनाएँ करने से और संसार के सुखों को भोगने से वो सुख टिके नही, आजतक हम वही के वही रहे। इसीलिए श्रीकृष्ण कहते है …
विहाय कामान् यः सर्वान् …
जिसने सर्व कामनाओं को छोड़ दिया है,
पुमांश्चरति निःस्प्रहः


पुमां माना पुरुषार्थ करने की जिसमें हिम्मत हो। भोग भोगने की हिम्मत हो और छोड़ दिया हो , बदला लेने की ताकत हो शत्रु से लेकिन क्षमा कर दी हो, वो पुमां है!
इन्द्रियों के विषय भोगने की शक्ति हो लेकिन पुरुषार्थ करके भोग को छोड़कर जो आत्मा के तरफ आता है वो पुमांश्च है!
जो पुरूष संपूर्ण कामनाओं का त्याग कर ममता रहित, अहंकार रहित होता है …किसीने पाँच रुपए दिए ,मेरे पास बने रहे ये कामना है, इन पाँच रुपयों से मेरे को सुख मिले ये स्पृहा है, ये पाँच रुपए मेरे है ये अहंकार है! ऐसे ही ये कर्म मेरे है, ये पुत्र मेरे है, ये जात- पात मेरे है, ये पुण्य -पाप मेरे है!
कामना छोड़ो लेकिन कामना के बाद स्पृहा को भी छोड़ो। स्पृहा छोड़ दी,कामना छोड़ दी लेकिन फिर ममता बच जाती है। कृष्ण कहते है वो ममता भी तुम्हें दुःख देती है। ममता को छोड़ो..तो मैंने ममता छोड़ दिया ,मैंने कामना छोड़ दिया, मैंने स्पृहा छोड़ दिया , उस छोड़ने का अहंकार रह जाता है। उस अहंकार को भी छोड़ दो, अहंकार दो प्रकार का होता है… एक प्राकृतिक अहंकार होता है और एक अविद्या अंतर्गत अहंकार होता है। प्राकृतिक अहंकार देह में रहता है, देह में मय कराता है.…मैं मनुष्य हूँ ,मुझे भोजन इस प्रकार करना चाहिए।

प्राकृत अहंकार शरीर की संभाल रखवाता है। चलते-चलते ट्रैफिक आई, कोई गाड़ी मोटर आई तो वो बचाता है शरीर को,भूख लगी तो अन्न जल की जगह पर पहुँचाता है, थकान आई तो बिस्तर पर ले जाता है, उबान आई तो मनोरंजन की तरफ ले जाता है। ये प्राकृतिक अहंकार इतना दुःखदाई नही होता है जितना अविद्या का बेटा अहंकार दुःख देता है। अविद्या का बेटा जो अहंकार है वो दुःख देता है…अविद्यमान पदार्थों में अहं करना …ये मकान मेरा है, ये इतना धन मेरा है, इतनी भूमी मेरी है, इतने मित्र मेरे है…ये मकान, ये भवन,ये भूमी,ये मित्र मेरे है ऐसा कहकर कईं लोग चले गए, ये जमीन मेरी है ऐसा कहकर इस जमीन पर से हजारों लोग गुजर गए होंगे जहाँ हम बैठे है। ये जगह हमारी है ऐसा कहकर हजारों लोग चले गए होंगे, ये मकान हमारा है ऐसा कहकर हजारों लोग चले गए होंगे और मकान भी हजारों बार गिर पड़े होंगे।ये अविद्यमान पदार्थों को अपना मानने का जो अहंकार है अप्राकृतिक है। प्राकृतिक अहंकार शरीर की परिछिन्नता तक रहता है और अप्राकृतिक अहंकार अंतःकरण की अशुद्धि तक रहता है। अंतःकरण अशुद्ध होता है तो अप्राकृतिक अहंकार होता है। ज्यों-ज्यों अंतःकरण शुद्ध होता चला जाता है त्यों-त्यों अप्राकृतिक अहंकार विलय होता जाता है।


पहले बोलते थे कि ‘मकान मेरा है’, अब बोलते है कि भगवान का है! पहले बोलते थे ‘ये जमीन -जागीर,रुपए हमारे है’, अब बोलते है ‘सब परमात्मा की लीला है!’
ज्यों-ज्यों अंतःकरण शुद्ध होता है त्यों-त्यों अप्राकृतिक अहंकार गलता जाता है। लेकिन अंत में प्राकृतिक अहंकार भी दुःख देता है।
‘ये भगवान को सौंप दिया, ये भगवान का, ये भगवान का, मैं भगवान का भक्त हूँ ‘ ये अप्राकृतिक अहंकार है, अच्छा है..लेकिन अंत में “मैं भगवान का भक्त हूँ” – भगवान को अपनेसे अलग मानने का अहंकार बचा रहता है!


भगवान से अपने को अलग रखने का जो अहं है वो तो भक्त जीवन में, साधक और जिज्ञासू के जीवन में भी रहता है। वो इतना दुःख नही देता फिर भी वो अहंकार अप्राकृतिक अहंकार को कभी ला सकता है! वो अहंकार अविद्या के अहंकार को ला सकता है!
जैसे गरुड़ भगवान की सेवा में थे..सबकुछ भगवान का है फिर भी भगवान नागपाश में बंध गए। गरुड़ को नारदजी ने बुलाया।गरुड़ ने नागों को स्वाहा किया और मन में अहंकार आ गया कि “मैं न होता तो ठाकुरजी का क्या हाल होता” …अशांत हो गए…शिवजी के पास गए और शिवजी ने काकभूषण के पास भेजा और वहाँ तत्वज्ञान की कथा सुनी तब उन्हें शांति प्राप्त हुई।


जैसे जय-विजय भगवान विष्णु के पार्षद थे, प्राकृतिक अहंकार था-भूमि,भवन, मकान हमारा नही लेकिन भगवान हमारे है और हम उनके पार्षद है! एक बार सनकादि ऋषि वैकुंठ जा रहे थे ,अंदर प्रवेश न दिया, उनका अपमान कर दिया, शापित हुए और तीन जन्म लेने पड़े! इसीलिए श्रीकृष्ण ने कहा-
विहाय कामान् यः सर्वान्
सब कामनाओं को छोड़ो..एक-दो कामना को नही! भोग भोगने की कामना को तो छोड़ो लेकिन त्याग होने का अहंकार भी छोड़ो! प्राकृतिक अहंकार भी छोड़ो और
अप्राकृतिक अहंकार छोड़ो। जो दोनों का त्याग करता है वो – शांति निर्वाणं पदि गच्छयती… वो शांति पाता है और निर्वाण को पाता है।
जन्म का हेतू वासना है , जन्म का हेतू स्पृहा है, जन्म का हेतू ममता है, जन्म का हेतू अहंकार है। इन चार को यदि छोड़ दिया तो फिर जीते जी वो आदमी मुक्त हो जाता है!


योगवसिष्ठ में वसिष्ठ महराज कहते है रामजी को कि – मनु महाराज ईश्वाकु राजा को उपदेश है- “हे रामजी”…मनु महाराज ने ईश्वाकु राजा को कहा कि -“तू इच्छाओं का त्याग कर,अपने सत्ता समान में रह। हे राजन जो सत्ता समान में रहता है वो ज्ञानवान वो जिस भूमि पर पैर रखता है.. जिस ईंट पर , वो ईंट पूजने के काबिल हो जाती है। वह ज्ञानवान जिसपर दृष्टि डालता है वह व्यक्ति भी पवित्र होने लगता है।वह ज्ञानवान जिस वस्तू को छूता है वह वस्तू भी पवित्र हो जाती है।वह ज्ञानवान जिस वाणी से बोलता है वह जिव्हा भी पवित्र हो जाती है” ये बात नानक भी कहते है…प्रभजी बसें साधजी रसना!…
मन मेरो पंछी भयो उड़न लाग्यो आकाश
स्वर्गलोक खाली पड्यो साहिब संतन के पास!
साहिब केवल संतों के पास ही है ऐसी बात नही है, जरा समझ लेना…साहिब तो सब जगह है लेकिन जहाँ प्रगट होता है वहाँ उसकी महिमा है! कबीर इसी बात को अपनी महिमा में कहते है-
सब घट मेरा साईयाँ
खाली घट न कोई
बलिहारी वा घट की
जा घट प्रगट होई!


अहंता, वासना, स्पृहा से रहित जो होता है वो महात्मा बनता है । व्यवहार में वो महात्मा है और तत्व से वो परमात्मा है। जिसमें ममता, स्पृहा ,वासना, अहंकार नही है वह महात्मा है..महान आत्मा है।ऐसे तो खटमल में भी आत्मा है ,कीट-पतंग और गधे कुत्ते चूहे बिल्लों में भी आत्मा ही तो है, चेतना तो है लेकिन वो बेचारे मूढ योनी को प्राप्त है। मनुष्य की योनी मूढ़ता से पार होने के लिए है।मूढ़ उसे नहीँ कहा जाता है जिसको कुछ ज्ञान न हो… पत्थर को हम मूढ़ नही कहते है , चट्टान को हम मूढ़ नही कहते है..मूढ़ उसे कहते है कि कुछ तो जानता है और कुछ नही जानता है, जो जानना चाहिए वो नही जानता और वो जो नही जानना चाहिए उसी को सच्चा मानता है उसको मूढ़ कहा जाता है।सत्य को सत्य नही जानता और मिथ्या को सत्य समझता है उसको मूढ़ कहते है। श्रीकृष्ण ने कहा-
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः।।15.10।।


दिल लगाने से काम नही चलता, संसार में ऐसी कोई वस्तू नही जिससे तुम दिल लगाओ और सदा सुखी रहो , संसार में ऐसा कोई व्यक्ति नही जिससे तुम दिल लगाओ और सदा सुखी रहो, संसार में ऐसी कोई अवस्था ही नही जिससे तुम दिल लगाओ और सदा सुखी रहो। दिल लगाने से दिल रहता नही,पदार्थ रहते नही। समुद्र की लहरियाँ उठती है न तो किनारे टिकते नही,ऐसेही समय की लहरियाँ आती है न तो फिर कल्पनाएँ टिकती नही है।


मथुरा में एक वेश्या थी।रूप,लावण्य,सौंदर्य से इतनी वो बढ़ी चढ़ी थी कि ईसा के जमाने में वेश्या थी मेगानीलीन उसकी खबरें वो देती थी। बड़े-बड़े राजे सम्राट उस
के द्वार से कभी वापस आ जाते थे। आजसे ढाई हजार वर्ष पूर्व की बात है- सम्राट अशोक का जो गुरु हुआ बाद में वह फकीर जा रहा था,वह भिक्षुक जा रहा था। भिक्षुक का रूप,सौन्दर्य देखकर वेश्या ठगी सी रह गई। जितना तेजी से उतरना चाहिए ,जितना तेजी से उतर सकती थी उतना वो तेजी से अपने महल से उतरी और भिक्षुक को बुलाया कि -“हे भिक्षुक, हे भंते! आओ जरा इधर देखो!” भिक्षुक सड़क से जा रहा था रास्ते से…आए,भिक्षा पात्र लंबा किया। वो वेश्या कहती है कि “मैं, मेरा रूप,लावण्य, सौंदर्य और ये सब धन, दौलत ,गहने, हीरे, जवाहरात सबके सब तुमको समर्पित है! मुझे तुम अपनी बना लो! तुम मेरे पास ही रहो। मेरे पास ही आ जाओ, मेरे ही हो जाओ!” भिक्षुक ने सिर उठाकर निहारा पैर से चेहरे तक, फिर भिक्षुक चलते-चलते कह गया कि “मैं आऊँगा जरूर लेकिन अभी समय नही है।”


वेश्या चिल्लाई “कब आओगे फिर? प्राणप्रिय !कैसे जाते हो मेरे को छोड़कर?”…
“आऊँगा जरूर लेकिन अभी समय नही है!”…चले गए! दिन गुजरे , रात गुजरी, सुबह गुजरी, श्याम गुजरी , सप्ताह गुजरे, महीने गुजरे, वर्ष गुजर गए बात को …ऐसी घड़ियाँ आई, ऐसे दिन आए -यमुना के किनारे पर वही वेश्या एक भिखारण के वेष में ,बुढिया हुई है, दाँत टूट गए हैं , आँखे अंदर पड़ गई हैं, धन -माल मिलकत तो छूट गया लेकिन अब शरीर भी साथ नही देता है। शरीर में घाँव लगे है उसे कोई मलम लगाने वाला नही मिला। शरीर पुराने फ़टे बर्तनों जैसा,नस- नाड़ियाँ हो गई है ,वही मल-मूत्र त्याग करती, मक्खियाँ भन-भनाती हुई , शरीर से बदबू आ रही है
पसार होते तो मुँह घुमा लेते, नाक सिकुड़ लेते।
भिक्षुक आया घूमता-घामता उस जगह पर , बैठा उसके नजीक , उसके घाँव साफ कर रहा है, मलम लगा रहा है। उसमें थोड़ी चेतना आई ,आँख उठाकर देखा । वो वेश्या कहती है “भिक्षुक! अब तुम आए हो?इस समय तुम मेरे पास आए हो? जब मेरे पास सौंदर्य था, रूप था,लावण्य था , धन था , ओज था , बड़े-बड़े सम्राट मेरे पास चापलूसी करते थे, मेरी एक नजर की भीख माँगते थे, मेरी एक मुस्कान की भीख माँगते थे। उस समय मैंने तुमको सर्वस्व सौंपने का कहा था और तुमने कहा -अभी नही समा होगा तभी आऊँगा.. अभी आए हो?”


भिक्षुक कहता है कि – “हे देवी! अभी हमारे आने का समय है। अभी ही तुझे ज्ञान और वैराग्य का पता चलेगा कि कितना इसका मूल्य है। वासनाओं से जीवन जीने का कितना दुष्परिणाम आता है वो अभी तू प्रत्यक्ष देख रही है! स्पृहाएँ कितना पतन करती है वो तू प्रत्यक्ष महसूस करती है। बाहर के सहारे तेरा कबतक सहारा करते है इसका तुझे प्रत्यक्ष अनुभव हो रहा है। अभी हमारे जैसों के आने का समय हुआ है! लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि तू अब समझ न पाएगी! दिन बीत गए ! मैं ने तुझे कहा था मैं आऊँगा जरूर! तू उसी मद में थी, उसी रूप में थी, उसी लावण्य में थी उसी रंग और उसी चमड़े को संभालने में थी, अपने को टाटाई में दिखाने में थी। उस समय मैं आता तो मेरा भी पतन होता और तेरा तो हो ही गया। हमारे आने का यही समय है!”
वही भिक्षुक बाद में सम्राट अशोक के गुरु हुए।

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