Monthly Archives: July 1999

सदैव प्रसन्न रहने का परिणाम


मन में दो  बातें एक साथ नहीं रह सकतीं। जिस समय मन दुःखी होगा उस समय मन सुखी नहीं होगा। जिस मन सुखी होगा उस समय दुःखी नहीं होगा। इस तथ्य का लाभ उठाना चाहिए।

कितना भी बड़ा भारी दुःख आ जाये, आप अपने मन में सुख भरने की कला सीख लो। अगर सुख भरने की कला सीख गये तो दुःख का प्रभाव आपको दबोच नहीं सकेगा।

एक बार अकबर बड़ा दुःखी हो गया था एवं यमुना जी में आत्महत्या करने जा रहा था। बीरबल को इस बात का पता चला तो उसने अकबर से कहाः “जहाँपनाह ! खूब हँसो।” अकबर दुःखी तो था ही, अतः वह चिढ़ गया और बोलाः “चारों तरफ से मुझे मुसीबतों ने आ घेरा है और तुम कहते हो खूब हँसो ?”

यह कहकर गुस्से-गुस्से में अकबर ने अपनी अँगूठी निकालकर जोर से यमुनाजी में फेंक दी और कहाः “बीरबल ! तुम मुझे खूब हँसाते हो ? अब देखो तुम कैसे रोते हो। आज से आठ दिन के अंदर यह अँगूठी जहाँपनाह की अँगुली में होनी चाहिए, नहीं तो तुम्हारा सिर काट दिया जायेगा।

बीरबल हँस पड़े। यह देखकर अकबर को बड़ा आश्चर्य हुआ। वह बोलाः “आठ दिन के बाद तुम्हारी मृत्यु होने वाली है और तुम हँस रहे हो ?”

बीरबलः “हाँ। दुःख के समय ज्यादा प्रसन्न होना चाहिए ताकि दुःख गहरा न उतरे। आप भी जहाँपनाह ! थोड़ा धैर्य रखें, सब ठीक हो जायेगा।”

अकबरः “लेकिन अँगूठी लाकर पहनानी ही पड़ेगी। अन्यथा सजा में कोई छूटछाट नहीं होगी।”

बीरबलः “निश्चिंत रहिये, जहाँपनाह !”

बीरबल गया राजधानी में। उसको हुआ किः ʹक्या पता कब मर जायें….. अब कुछ नेक काम कर लें।ʹ

जब आदमी को अपनी मृत्यु सामने दिखती है तो उसका सज्जन बनना शुरु हो जाता है। इसीलिए कहा हैः

दो बातन को भूल मत जो चाहत कल्याण।

नारायण इक मौत को दूजो श्रीभगवान।।

मृत्यु कभी भी, कहीं भी, कैसे भी आ सकती है और आयेगी जरूर… इस बात को एवं भगवान को कभी मत भूल। इसी में है मानव ! तेरा कल्याण है।

बीरबल तो निश्चिंत होकर सोते थे। एक… दो… तीन दिन बीत गये। चौथे दिन एक घटना घटी। अकबर ने घोषणा करवा दीः “यदि किसी की सब्जी आदि न बिके तो शाम को राज्य के गोदाम में छोड़ जाये और उसको वाजिब दाम मिल जायेगा।

दैवयोग से उसी दिन बाजार में एक बड़ा भारी मच्छ आया। सारा दिन बीतने पर भी वह मच्छ बिका नहीं था। अतः शाम को वह राज्य के गोदाम में लाया गया। यह खबर अकबर तक पहुँची। लोग बोलने लगे किः ʹइतना बड़ा मच्छ आज तक हमने देखा नहीं है।ʹ

अकबर ने मच्छ मँगवाया एवं कहाः “मेरे ही सामने इसको चीरो।”

मछुआरे ने मच्छ को चीरा तो अंदर से अकबर की अँगूठी निकली। अकबर दंग रह गया ! वह बोल उठाः “तीन दिन पहले फेंकी हुई मेरी अँगूठी…. और मच्छ के द्वारा मेरे राजदरबार में पहुँची ! बीरबल यह कैसा जादू ?”

बीरबलः “जहाँपनाह ! जो खुश रहता है उसको कुदरत और भगवान मदद करते हैं।”

सदैव सम और प्रसन्न रहना ईश्वर की सर्वोपरि भक्ति है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 1999, पृष्ठ संख्या 40,41 अंक 79

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सत्शिष्य के लक्षण


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

सत्शिष्य के लक्षण बताते हुए कहा है किः

अमानमत्सरो दक्षो निर्ममो दृढ़सौहृदः।

असत्वरोर्थजिज्ञासुः अनसूयुः अमोघवाक्।।

ʹसत्शिष्य मान और मत्सर से रहित, अपने कार्य में दक्ष, ममतारहित, गुरु में दृढ़ प्रीति करने वाला, निश्चल चित्त वाला, परमार्थ का जिज्ञासु और ईर्ष्यारहित एवं सत्यवादी होता है।ʹ

इस प्रकार के नवगुणों से जो सुसज्जित होता है ऐसा सत्शिष्य सदगुरु के थोड़े से उपदेश मात्र से आत्म-साक्षात्कार करके जीवन्मुक्त पद में आरूढ़ हो जाता है।

ऐसे पद को पाये हुए ब्रह्मवेत्ता महापुरुष का सान्निध्य साधक के लिए नितांत आवश्यक। साधक को ब्रह्मवेत्ता महापुरुष का सान्निध्य मिल भी जाये, लेकिन उसमें यदि इन नवगुणों का अभाव है तो उसे ऐहिक लाभ जरूर होता है, किन्तु आत्म-साक्षात्कार के लाभ से वह वंचित रह जाता है।

अमानित्व, ईर्ष्या का अभाव तथा मत्सर का अभाव-इन सदगुणों के समावेश से साधक तमाम दोषों से बच जाता है एवं साधक का तन और मन आत्म-विश्रांति पाने के काबिल हो जाता है।

सत्शिष्यों का यह स्वभाव होता हैः वे आप अमानी रहते हैं और दूसरों को मान देते हैं। जैसे भगवान राम स्वयं अमानी रहकर दूसरों को मान देते थे।

साधक को क्या करना चाहिए ? वह अपनी बराबरी के लोगों को देखकर न ईर्ष्या करे, न अपने से छोटों को देखकर अहंकार करे और न ही अपने से बड़ों के सामने कुंठित हो, वरन् सबको गुरु का कृपापात्र समझकर, सबसे आदरपूर्ण व्यवहार करे, प्रेमपूर्ण व्यवहार करे। ऐसा करने से साधक धीरे-धीरे मान, मत्सर एवं ईर्ष्यारहित होने लगता है। खुद को मान मिले ऐसी इच्छा रखने पर मान नहीं मिलता है तो सुखाभास होता है एवं नश्वर मान की इच्छा और बढ़ती है। इस प्रकार मान की इच्छा मनुष्य को गुलाम बनाती है जबकि मान की इच्छा से रहित होने से मनुष्य स्वतंत्र बनता है। इसलिए साधक को हमेशा मानरहित बनने की कोशिश करनी चाहिए। जैसे मछली जाल में फँसती है तो छटपटाती है, ऐसे ही जब साधक प्रशंसकों के बीच में आये तब उसका मन छटपटाना चाहिए। जैसे, लुटेरों के बीच आ जाने पर सज्जन आदमी जल्दी से वहाँ से खिसकने की कोशिश करता है ऐसे ही साधक की प्रशंसकों, प्रलोभनों एवं विषयों से बचने की कोशिश करनी चाहिए।

जो तमोगुणी व्यक्ति होता है वह चाहता है कि ʹमुझे सब मान दें और मेरे पैरों तले सारी दुनिया रहे।ʹ जो रजोगुणी व्यक्ति होता है वह कहता है कि ʹहम दूसरों को मान देंगे तो वे भी हमें मान देंगे।ʹ ये दोनों प्रकार के लोग प्रत्यक्ष या परोक्षरूप से कोशिश करते हैं अपना मान बढ़ाने की ही। मान पाने के लिए वे संबंधों के तंतु जोड़ते ही रहते हैं और इससे इतना बहिर्मुख हो जाते हैं कि जिससे संबंध जोड़ना चाहिए उस अंतर्यामी परमेश्वर के लिए उनको फुरसत ही नहीं मिलती और आखिर में अपमानित होकर जगत से चले जाते हैं। ऐसा न हो इसलिए साधक को हमेशा याद रखना चाहिए कि चाहे कितना भी मान मिल जाये लेकिन मिलता तो है इस नश्वर शरीर को ही और शरीर को अंत में जलाना ही है तो फिर उसके लिए क्यों परेशान होना ?

संतों ने ठीक ही कहा हैः

मान पुड़ी है जहर की, खाये सो मर जाये।

चाह उसी की राखता, वह भी अति दुःख पाये।।

एक बार बुद्ध के चरणों में एक अपरिचित युवक आ गिरा और दंडवत प्रणाम करने लगा।

बुद्धः “अरे, अरे, यह क्या कर रहे हो ? तुम क्या चाहते हो ? मैं तो तुम्हें जानता तक नहीं।”

युवकः “भन्ते ! खड़े रहकर तो बहुत देख चुका। आज तक अपने पैरों पर खड़ा होता रहा इसलिए अहंकार भी साथ में खड़ा ही रहा और सिवाय दुःख के कुछ नहीं मिला। अतः आज मैं आपके श्रीचरणों में लेटकर विश्रांति पाना चाहता हूँ।”

अपने भिक्षुकों की ओर देखकर बुद्ध बोलेः “तुम सब रोज मुझे गुरु मानकर प्रणाम करते हो लेकिन कोई अपना अहं न मिटा पाया और यह अनजान युवक आज पहली बार में ही एक संत-फकीर के नाते मेरे सामने झुकते-झुकते अपने अहं को मिटाते हुए, बाहर की आकृति का अवलंबन करते हुए अंदर निराकार की शांति में डूब रहा है।”

इस घटना का यही आशय समझना है कि सच्चे संतों की शरण में जाकर साधक को अपना अहंकार विसर्जित कर देना चाहिए। ऐसा नहीं कि रास्ते जाते जहाँ-तहाँ आप लम्बे लेट जाएँ।

अमानमत्सरो दक्षो…..

साधक को चाहिए कि वह अपने कार्य में दक्ष हो। अपना कार्य क्या है ? अपना कार्य है कि प्रकृति के गुण-दोष से बचकर आत्मा में जगना और इस कार्य में दक्ष रहना  अर्थात् डटे रहना, लगे रहना। उस निमित्त जो भी सेवाकार्य करना पड़े उसमें दक्ष रहो। लापरवाही, उपेक्षा या बेवकूफी से कार्य से विफल नहीं होना चाहिए, दक्ष रहना चाहिए। जैसे, ग्राहक कितना भी दाम म करवाने को कहे, फिर भी लोभी व्यापारी दलील करते हुए अधिक-से-अधिक मुनाफा कमाने की कोशिश करता है, ऐसे ही ईश्वर-प्राप्ति के मार्ग में अपने चित्त को चलित करने के लिए कितनी ही प्रतिकूल परिस्थितियाँ आ जायें, फिर भी साधक को अपने परम लक्ष्य में डटे रहना चाहिए। सुख आये या दुःख, मान हो या अपमान, सबको देखते जाओ…. मन के विचारों को, प्राणों की गति को देखने की कला में दक्ष हो जाओ।

नौकरी कर रहे हो तो उसमें पूरे उत्साह से लग जाओ, विद्यार्थी हो तो उमंग के साथ पढ़ो, लेकिन व्यावहारिक दक्षता के साथ-साथ आध्यात्मिक दक्षता भी जीवन में होनी चाहिए। साधक को सदैव आत्मज्ञान की ओर आगे बढ़ना चाहिए। कार्यों को इतना नहीं बढ़ाना चाहिए कि आत्मचिंतन का समय ही न मिले। संबंधों को इतना नहीं बढ़ाना चाहिए कि, जिससे संबंध जोड़े जाते हैं उसी का पता न चले।

एकनाथ जी महाराज ने कहा है कि रात्रि के पहले प्रहर और आखिरी प्रहर में आत्म चिंतन करना चाहिए। कार्य के प्रारम्भ में और अंत में आत्मविचार करना चाहिए। दक्ष वह है जो जीवन में इच्छा उठे और पूरी हो जाये तब अपने आप से ही प्रश्न करे किः “आखिर इच्छापूर्ति से क्या मिलता है ?” ऐसा करने से इच्छानिवृत्ति के उच्च सिंहासन पर आसीन होने वाले दक्ष महापुरुष की नाई निर्वासनिक नारायण में प्रतिष्ठित हो जायेगा।

अगला सदगुण है ममतारहित होना। देह में अहंता और देह के संबंधियों में ममता होती है। जो मनुष्य अपने संबंधों के पीछे जितनी ममता रखता है, उतना ही उसके परिवार वाले उसको दुःख के दिन दिखा देते हैं। अतः साधक को देह एवं देह के संबंधों से ममतारहित बनना चाहिए।

आगे बात आती है-गुरु में दृढ़ प्रीति करने की। मनुष्य क्या करता है ? वास्तविक प्रेमरस को समझे बिना संसार के नश्वर पदार्थों में प्रेम का रस चखने जाता हूँ और अंत में हताशा, निराशा एवं पश्चाताप की खाई में गिर पड़ता है। इतने से भी छुटकारा नहीं मिलता। चौरासी लाख जन्मों की यातनाएँ सहने के लिए उसे बाध्य होना पड़ता है। शुद्ध प्रेम तो उसे कहते हैं जो भगवान और गुरु से किया जाता है। उनमें दृढ़ प्रीति करने वाला साधक आध्यात्मिकता के शिखर पर शीघ्र ही पहुँच जाता है। जितना अधिक प्रेम, उतना अधिक समर्पण और जितना अधिक समर्पण, उतना ही अधिक लाभ।

कबीर जी ने कहा हैः

प्रेम न खेतों उपजे, प्रेम न हाट बिकाय।

राजा चहो प्रजा चहो, शीश दिये ले जाय।।

शरीर की आसक्ति और अहंता जितनी मिट जाती है, उतना ही स्वभाव प्रेमपूर्ण बनता जाता है। इसीलिए छोटा-सा बच्चा, जो निर्दोष होता है, हमें बहुत प्यारा लगता है क्योंकि उसमें देहासक्ति नहीं होती। अतः शरीर की अहंता एवं आसक्ति छोड़कर गुरु में, प्रभु में दृढ़ प्रीति करने से अंतःकरण शुद्ध होता है। ʹविचारसागरʹ ग्रन्थ में भी आता है कि “गुरु में दृढ़ प्रीति करने से मन का मैल तो दूर होता ही है, साथ ही उनका उपदेश भी शीघ्र असर करने लगता है, जिससे मनुष्य की अविद्या और अज्ञान भी शीघ्र नष्ट हो जाता है।”

इस प्रकार गुरु में जितनी-जितनी निष्ठा बढ़ती जाती है, जितना-जितना सत्संग पचता जाता है उतना-उतना ही चित्त निर्मल व निश्चिंत होता जाता है।

इस प्रकार परमार्थ पाने की जिज्ञासा बढ़ती जाती है, जीवन में पवित्रता, सात्त्विकता, सच्चाई आदि गुण प्रगट होते जाते हैं और साधक ईर्ष्यारहित हो जाता है।

जिस साधक का जीवन  सत्य से युक्त, मान, मत्सर, ममता एवं ईर्ष्या से रहित होता है, जो गुरु में दृढ़ प्रीति वाला, कार्य में दक्ष एवं निश्चलचित्त होता है, परमार्थ का जिज्ञासु होता है – ऐसा नव गुणों से सुसज्ज साधक शीघ्र ही गुरुकृपा का अधिकारी होकर जीवन्मुक्ति के विलक्षण आनंद का अनुभव कर लेता है अर्थात् परमात्म-साक्षात्कार कर लेता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 1999, पृष्ठ संख्या 6-9, अंक 79

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श्रीकृष्ण की गुरुसेवा


पूज्यपाद संत श्री आशारामजी बापू

गुरु की महिमा अमाप है, अपार है। भगवान स्वयं भी लोककल्याणार्थ जब मानवरूप में अवतरित होते हैं तो गुरुद्वार पर जाते हैं।

राम कृष्ण से कौन बड़ा, तिन्ह ने भी गुरु कीन्ह।

तीन लोक के हैं धनी, गुरु आगे आधीन।।

द्वापर युग में जब भगवान श्रीकृष्ण अवतरित हुए एवं कंस का विनाश हो चुका, तब श्रीकृष्ण शास्त्रोक्त विधि से हाथ में समिधा लेकर और इऩ्द्रियों को वश में रखकर गुरुवर सांदीपनी के आश्रम में गये। वहाँ वे भक्तिपूर्वक गुरु की सेवा करते हुए, गुरु सांदीपनी से भगवान श्रीकृष्ण ने वेद-वेदांग, उपनिषद्, मीमांसादि-षडदर्शन, अस्त्र-शस्त्रविद्या, धर्मशास्त्र एवं राजनीति आदि की शिक्षा प्राप्त की। प्रखर बुद्धि के कारण उन्होंने गुरु के एक बार कहने मात्र से ही सब सीख लिया। विष्णुपुराण के मत से चौसठ दिन में ही श्रीकृष्ण ने सभी चौंसठ कलाएँ सीख लीं।

जब अध्ययन पूर्ण हुआ, तब श्रीकृष्ण ने गुरु से दक्षिणा के लिए प्रार्थना कीः “गुरुदेव ! आज्ञा कीजिये, मैं आपकी क्या सेवा करूँ ?”

गुरुः “कोई आवश्यकता नहीं है।”

श्रीकृष्णः “आपको तो कुछ नहीं चाहिए, किन्तु हमें दिये बिना चैन नहीं पड़ेगाग। कुछ तो आज्ञा करें !”

गुरुः “अच्छा… जाओ, अपनी माता से पूछ लो।”

श्रीकृष्ण गुरुपत्नी के पास गये एवं बोलेः

“माँ ! कोई सेवा हो तो बताइये।”

गुरुपत्नी भी जानती थीं कि श्रीकृष्ण कोई साधारण मानव नहीं बल्कि स्वयं भगवान हैं, अतः वे बोलीं- “मेरा पुत्र प्रभास क्षेत्र में मर गया है। उसे लाकर दे दो ताकि मैं उसे पयःपान करा सकूँ।”

श्रीकृष्णः “जो आज्ञा।”

श्रीकृष्ण रथ पर सवार होकर प्रभास क्षेत्र पहुँचे और वहाँ समुद्र तट पर कुछ देर ठहरे। समुद्र ने उन्हें परमेश्वर जानकर उनकी यथायोग्य पूजा की। श्रीकृष्ण बोलेः “तुमने अपनी बड़ी-बड़ी लहरों से हमारे गुरुपुत्र को हर लिया था। अब उसे शीघ्र लौटा दो।”

समुद्रः “मेंने बालक को नहीं हरा है, मेरे भीतर पांचजन्य नामक एक बड़ा दैत्य शंखरूप से रहता है, निःसंदेह उसी ने आपके गुरुपुत्र का हरण किया है।”

श्रीकृष्ण ने तत्काल जल के भीतर घुसकर उस दैत्य को मार डाला, पर उसके पेट में गुरुपुत्र नहीं मिला। तब उसके शरीर से पांचजन्य शंख लेकर श्रीकृष्ण जल से बाहर आये एवं यमराज की संयमनी पुरी में गये। वहाँ भगवान ने उस शंख को बजाया। कहते हैं कि उस ध्वनि को सुनकर नारकीय जीवों के पाप नष्ट हो जाने से वे सब वैकुण्ठ पहुँच गये। यमराज ने बडी भक्ति के साथ श्रीकृष्ण की पूजा की और प्रार्थना करते हुए कहाः “हे लीलापुरुषोत्तम ! मैं आपकी क्या सेवा करूँ ?”

श्रीकृष्णः “तुम तो नहीं, पर तुम्हारे दूत कर्मवश हमारे गुरुपुत्र को यहाँ ले आये हैं। उसे मेरी आज्ञा से वापस दे दो।”

ʹतथास्तुʹ कहकर यमराज उस बालक को ले आये।

श्रीकृष्ण ने गुरुपुत्र को, जैसा वह मरा था वैसा ही उसका शरीर बनाकर, समुद्र से लाये हुए रत्नादि के साथ गुरुचरणों में अर्पित करके कहाः “गुरुदेव ! और भी जो कुछ आप चाहें, आज्ञा करें।”

गुरुदेवः “वत्स ! तुमने गुरुदक्षिणा भली प्रकार से संपन्न कर दी। तुम्हारे जैसे शिष्य से गुरु की कौन-सी कामना अवशेष रह सकती है ? वीर ! अब तुम अपने घर जाओ। तुम्हारी कीर्ति श्रोताओं को पवित्र करे और तुम्हारे पढ़े हुए वेद नित्य उपस्थित और सारवान् रहकर इस लोक एवं परलोक में तुम्हारे अभीष्ट फल को देने में समर्थ हों।”

गुरुसेवा का कैसा सुन्दर आदर्श प्रस्तुत किया है श्रीकृष्ण ने ! थे तो भगवान, फिर भी गुरु की सेवा उन्होंने स्वयं की है।

सत्शिष्यों को पता होता है कि गुरु की एक छोटी सी सेवा करने से सकामता निष्कामता में बदलने लगती है, खिन्न हृदय आनंदित हो उठता है, सूखा हृदय भक्तिरस से सराबोर हो उठता है। गुरुसेवा में क्या आनंद आता है, यह तो किसी सत्शिष्य से ही पूछकर देखें।

गुरु की सेवा साधु जाने, गुरुसेवा कहाँ मूढ़ पिछाने।

गुरुसेवा सबहुन पर भारी, समझ करो सोई नरनारी।।

गुरुसेवा सों विघ्न विनाशे, दुर्मति भाजै पातक नाशै।

गुरुसेवा चौरासी छूटै, आवागमन का डोरा टूटै।।

गुरुसेवा यम दंड न लागै, ममता मरै भक्ति में जागे।

गुरुसेवा सूं प्रेम प्रकाशे, उनमत होये मिटै जग आशै।।

गुरुसेवा परमातम दरशै, त्रैगुण तजि चौथा पद परशै।

श्रीशुकदेव बतायो भेदा, चरनदास कर गुरु की सेवा।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 1999, पृष्ठ संख्या 29,30 अंक 79

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