किसके साथ कैसा व्यवहार ?

किसके साथ कैसा व्यवहार ?


पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से

आपको व्यवहार काल में अगर भक्ति में सफल होना है तो तीन बातें समझ लोः

1 अपने साथ पुरुषवत् व्यवहार करो । जैसे पुरुष का हृदय अनुशासनवाला, विवेकवाला होता है, ऐसे अपने प्रति तटस्थ व्यवहार करो । कहीं गलती हो गयी तो अपने मन को अनुशासित करो ।

2 दूसरों के साथ मातृवत व्यवहार करो । जैसे बालक के प्रति उदार होती है, उसी तरह दूसरों के साथ उदार व्यवहार करो । पूत कपूत हो जाय लेकिन माता कुमाता नहीं होती । इसी प्रकार दूसरों के साथ मातृवत व्यवहार करना चाहिए ।

3 भगवान के साथ शिशुवत व्यवहार करो । जीवन सरल, स्वाभाविक, निर्दोष होगा तो भगवत्प्राप्ति सहज है और जीवन जितना अड़ा-कड़ा-जटिल होगा, छल-छिद्र-कपटयुक्त होगा, उतना भगवान हमसे दूर होंगे । भगवान राम कहते हैं- मोहि छल कपट छिद्र न भावा । अतः इनसे बचो । जैसे निर्दोषचित्त शिशु माँ की गोद में अपने को डाल देता है, ऐसे ही आप भी कभी-कभी उस नारायणरूपी माँ की गोद में उसी का ध्यान-चिंतन करते हुए निश्चिंत होकर लेट जाओ कि ‘मैं उस परमात्मा में, ईश्वरीय सुख में विश्रांति पा रहा हूँ….. मैं निश्चिंत हूँ…. जो होगा प्रभु जानें ।’

इसी प्रकार पतंजलि ऋषि ने ‘पातंजल योग-दर्शन’ में सफल व्यवहार के चार सिद्धान्त बताये हैं-

1 मैत्रीः जो श्रेष्ठ लोग है, सत्संगी हैं, भगवान के रास्ते जाते हैं व दूसरों को ले जाते हैं उनसे मित्रताभरा व्यवहार करो । उनके साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर उनके दैवी कार्य में भागीदार हों ।

2 करूणाः आपसे जो छोटे हैं, नासमझ हैं, नौकर हैं, बच्चे हैं, कम योग्यतावाले हैं उनसे करूणाभरा व्यवहार करो ।

3 मुदिताः जो अच्छे कार्य में, दैवी कार्य में लगे हैं उनका अनुमोदन करो ।

4 उपेक्षाः जो निपट निराले हैं, उनको छोड़ो । उनको ठीक करने का ठेका आप लोगे तो आप परेशान हो जाओगे । ऐसे लोग समझो, आपके लिए पैदा ही नहीं हुए । उनकी उपेक्षा कर दो।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2009, पृष्ठ संख्या 15 अंक 194

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