Monthly Archives: July 2011

विवेकशक्ति बढ़ाने के साधन


पूज्य बापू जी के सत्संग से

दस वर्ष की उम्र से लेकर चालीस वर्ष की उम्र तक विवेकशक्ति बढ़ती रहती है। अगर इस उम्र में कोई विवेकशक्ति नहीं बढ़ाता है तो फिर चालीस वर्ष के बाद उसकी विवेकशक्ति क्षीण होती जाती है। जो दस से चालीस वर्ष की उम्र में विवेकशक्ति बढ़ाने की कोशिश करता है उसकी तो यह शक्ति बाद में भी बढ़ती रहती है। 40 वर्ष के बाद भी विवेकशक्ति बढ़ती रहे उसकी एक साधना है। इस साधना को सात विभागों में बाँट सकते हैं। एक तो सत्संग सुनता रहे।

बिन सतसंग बिबेक न होई।

खाने पीने का, इधर-उधर का, अतिथि-मेहमान का विवेक नहीं, आत्मा क्या है, जगत क्या है और परमात्मा क्या है ? – इस बात का विवेक।

अविनासी आतम अचल, जग तातैं प्रतिकूल।

आत्मा अविनाशी है, हम अविनाशी हैं और जगत विनाशी है। हम शाश्वत हैं, शरीर और जगत नश्वर है – इस प्रकार का प्रखर विवेक। यह सारी साधनाओं का मूल है।

अविनासी आतम अचल, जग तातैं प्रतिकूल।

ऐसो ज्ञान विवेक है, सब साधन को मूल।।

उसने सब अध्ययन कर लिया, उसने सब पढ़ाई कर ली और सारे अनुष्ठान कर लिये जिसने सांसारिक इच्छाओं का त्याग करके इच्छारहित आत्मा-परमात्मा में आने का ठान लिया – ऐसा तीव्र विवेक ! ईश्वरप्राप्ति के उस तीव्र विवेक को जगाने के लिए ये सात साधन हैं।

दूसरा है सत्शास्त्रों का अध्ययन। तीसरा साधन है प्रातः और संध्या के समय त्रिबंध प्राणायाम करके जप। भगवद्ध्यान, भगवत्प्राप्ति का जो साधन या मार्गदर्शन गुरु ने दिया है उसका अभ्यास, इससे विवेक जगेगा। चौथा साधन है कम बोलना, कम खाना और कम सोना, आलस्य छोड़ना। नींद के लिए तो 4-5 घंटे काफी हैं, आलसी की नाईं पड़े न रहें। अति नींद नहीं, आलस्य नहीं, अति आहार नहीं, अति शब्द विलास नहीं। पाँचवाँ है शुद्ध, सात्त्विक भोजन और छठा सारगर्भित साधन है ब्रह्मचर्य पालना, ‘दिव्य प्रेरणा प्रकाश’ पुस्तक पढ़ना। इसने तो न जाने कितनी उजड़ी बगियाँ गुले गुलजार कर दी हैं। कई युवक-युवतियों की जिंदगी मृत्यु के कगार से उठाकर बाहर कर दी। आप लोग भी दिव्य प्रेरणा प्रकाश पुस्तक पढ़ना और दूसरों तक पहुँचाने की सेवा खोज लेना। सातवाँ साधन है सादगी।

ये सात साधन संसार की चोटों से, मुसीबतों से तो बचायेंगे और आपके जीवन में भगवत्प्राप्ति का दिव्य विवेक भी जगमगा देंगे।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2011, पृष्ठ संख्या 5 अंक 223

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

सेवा तो सेवा ही है !


पूज्य बापू जी की पावन अमृतवाणी

सेवक को जो मिलता है वह बड़े-बड़े तपस्वियों को भी नहीं मिलता। हिरण्यकशिपु तपस्वी था, सोने का हिरण्यपुर मिला लेकिन सेविका शबरी को जो साकार, निराकार राम का सुख मिला वह हिरण्यकशिपु ने कहाँ देखा, रावण ने कहाँ पाया ! मुझे मेरे गुरुदेव और उनके दैवी कार्य की सेवा से जो मिला है, वह बेचारे रावण को कहाँ था ! सेवक को जो मिलता है उसका कोई बयान नहीं कर सकता लेकिन सेवक ईमानदारी से सेवा करे, दिखावटी सेवक तो कई आये, कई गये। बहाने बनाने वाले सेवक घुस जाते हैं, तो गड़बड़ी करते हैं।

‘ऋषि प्रसाद’ में जो सच्चे हृदय से सेवा करेगा तो उसका उद्देश्य होगा कि हम क्या चाहते हैं वह नहीं, वे क्या चाहते हैं और उनका कैसे मंगल हो – सेवक का यह उद्देश्य होता है। आप क्या चाहते हो और आपका कैसे मंगल हो – यह मेरी सेवा का उद्देश्य होना चाहिए। आपको पटाकर दान-दक्षिणा ले लूँ तो सेवा के बहाने में जन्म-मरण के चक्कर में जा रहा हूँ। सेवा में बड़ी सावधानी चाहिए। जो प्रेमी होता है, जिसके जीवन में सद्गुरुओं का सत्संग होता है, मंत्रदीक्षा होती है, भगवान का और मनुष्य-जीवन का महत्त्व समझता है वही सेवा से लाभ उठाता है। बाकी के सेवा से लाभ क्या उठाते हैं, सेवा से मुसीबत मोल लेते हैं। ‘मैं फलाना हूँ, मैं फलाना हूँ…’ करके वासना बढ़ाते हैं और संसार में डूब मरते हैं। जो सेवा संसार में डुबा दे, वह सेवा नहीं है। वह तो मुसीबत बुलाने वाली चालाकी है। जो संसार की आसक्ति मिटाकर अपने लिए कुछ नहीं चाहिए। अपना शरीर भी नहीं रहेगा। हम दूसरों के काम आयें। तो अपने आप…..

अपनी चाह छोड़ दे, दूसरे की भलाई में ईमानदारी से लग जाय तो उसके दोनों हाथों में लड्डू ! यहाँ भी मौज, वहाँ भी मौज !

पूरे हैं वे मर्द जो हर हाल में खुश हैं।

तो माँ की, पति की, पत्नी की, समाज की सेवा करे लेकिन बदला न चाहे तो उसका कर्मयोग हो जायेगा, उसकी भक्ति में योग आ जायेगा, उसके ज्ञान में भगवान का योग आ जायेगा। उसके जीवन में सभी क्षेत्रों में आनंद है।

‘क्या करें, मुझे सफलता नहीं मिलती….’ तो टट्टू ! तू सफलता के लिए ही करता है, वाहवाही के लिए करता है। जिसमें जितना वाहवाही का स्वार्थ होता है उतना ही वह विफल होता है और जितना दूसरे की भलाई का उद्देश्य होता है उतना ही वह सफल होता है। ‘मैं सफल नहीं होता हूँ, मैं सफल नहीं होता हूँ….’ होगा भी नहीं। स्वार्थी आदमी सफल दिखें, फिर भी अंदर से अशांत होंगे। शराब पीकर और क्लबों में जाकर सुख ढूँढेंगे। क्या खाक तुमने सेवा की !

सेवा तो शबरी की है, सेवा तो राम जी की है, सेवा तो श्रीकृष्ण की है, सेवा तो कबीर जी की है और सेवा तो ऋषि प्रसाद वालों की है, अन्य सेवकोकं की है। यह सोचकर बड़े पद पर बैठ गया कि बड़ी सेवा करेंगे  तो यह बेईमानी है। सेवक को किसी पद की जरूरत नहीं है। सारे पद सच्चे सेवक के आगे पीछे घूमते हैं। कोई बड़ा पद लेकर सेवा करना चाहता हो, बिल्कुल झूठी बात है। सेवा जो अधिकार चाहता है वह वासनावान होकर जगत का मोही हो जायेगा। लेकिन सेवा में जो अपना अहं मिटाकर तन से, मन से विचारों से दूसरे की भलाई, दूसरे का मंगल करता है और मान मिले, चाहे अपमान मिले उसकी परवाह नहीं करता, ऐसे हनुमान जी जैसे सेवक की हनुमान जयंती मनायी जाती है। हनुमान जी देखो तो जहाँ छोटा बनना है छोटे और जहाँ बड़ा बनना है तो बड़े बन जाते हैं। सेवक अपने स्वामी का, गुरु का संस्कृति का काम करे तो उसमें लज्जा किस बात की ! सफलता का अहंकार क्यों करे, मान-अपमान का महत्त्व क्या है !

‘ऋषि प्रसाद’ बाँटने वाले को मान-अपमान थोड़े ही प्रभावित करता है ! मान मिला वहाँ ऋषि प्रसाद का सदस्य बनाने गया, मान नहीं मिला तो नहीं गया तो वह सेवक नहीं है, वह तो मान का भोगी है। चाहे मान मिले या अपमान मिले, यश मिले या अपयश मिले, सेवा तो सेवा ही है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2011, पृष्ठ संख्या 27,29 अंक 223

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

ब्रह्मवेत्ता संत ही एकमात्र आश्रय


भगवान श्रीकृष्ण के विश्वहितकारी वचनामृत

‘श्रीमद् भागवत’ के 11वें स्कन्ध के  26वें अध्याय में एक कथा आती है। परम यशस्वी सम्राट इलानंदन पुरूरवा जब कुसंग में पड़कर उर्वशी में आसक्त हो गये तो उनका तप, तेज, प्रभाव सब जाता रहा। लेकिन जब उर्वशी उन्हें छोड़कर चली गयी तो पहले की पुण्याई के प्रभाव से पुरूरवा को भगवान का स्मरण हो आया। दब उन्होंने उर्वशीलोक का परित्याग कर दिया और ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरुओं का संग कर अपने हृदय में ही आत्मस्वरूप से भगवान का साक्षात्कार किया व शांत भाव में स्थित हो गये।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- “उद्धव जी ! बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि पुरूरवा की भाँति कुसंग छोड़कर सत्पुरुषों का संग करे। संतपुरुष अपने सदुपदेशों से उसके मन की आसक्ति नष्ट कर देंगे।

संत पुरुषों का लक्ष्ण यह है कि उन्हें कभी किसी वस्तु की अपेक्षा नहीं होती। उनका चित्त मुझमें लगा रहता है। उनके हृदय में शांति का अगाध समुद्र लहराता रहता है। वे सदा-सर्वदा सर्वत्र सबमें सब रूप से स्थित भगवान का ही दर्शन करते है । उनमें अहंकार का लेश भी नहीं होता, फिर ममता की तो सम्भावना ही कहाँ है ! वे सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों में एकरस रहते हैं तथा बौद्धिक, मानसिक, शारीरिक और पदार्थ-संबंधी किसी प्रकार का भी परिग्रह नहीं रखते।

परम भाग्यवान उद्धव जी ! संतों के सौभाग्य की महिमा कौन कहे ! उनके पास सदा-सर्वदा मेरी लीला कथाएँ हुआ करती है। मेरी कथाएँ मनुष्यों के लिए परम हितकर हैं। जो उनका सेवन करते हैं उनके सारे पाप-तापों को वे धो डालती है। जो लोग आदर और श्रद्धा से मेरी लीला कथाओं का श्रवण, गान और अनुमोदन करते हैं, वे मेरे परायण हो जाते हैं और मेरी अनन्य प्रेममयी भक्ति प्राप्त कर लेते हैं। उद्धवजी ! मैं अनंत, अचिंत्य कल्याणमय गुण-समूहों का आश्रय हूँ। मेरा स्वरूप है – केवल आनंद, केवल अनुभव, विशुद्ध आत्मा। मैं साक्षात् परब्रह्म हूँ। जिसे मेरी भक्ति मिल गयी, वह तो संत हो गया। अब उसे कुछ भी पाना शेष नहीं है। उनकी तो बात ही क्या जिन्होंने उन संत पुरुषों की शरण ले ली ! उनकी भी कर्मजड़ता, संसारभय और अज्ञान आदि सर्वथा निवृत्त हो जाते हैं। भला जिसने अग्नि भगवान का आश्रय ले लिया उसे शीत, भय अथवा अंधकार का दुःख हो सकता है ! जो इस घोर संसारसागर में डूब उतरा रहे हैं, उनके लिए ब्रह्मवेत्ता और शांत संत ही एकमात्र आश्रय हैं, जैसे जल में डूब रहे लोगों के लिए दृढ़ नौका। जैसे अन्न से प्राणियों के प्राण की रक्षा होती है, जैसे मैं ही दीन-दुःखियों का परम रक्षक हूँ, जैसे मनुष्य के लिए परलोक में धर्म ही एकमात्र पूँजी है, वैसे ही जो लोग संसार से भयभीत हैं, उनके लिए संतजन ही परम आश्रय हैं। जैसे सूर्य आकाश में उदय होकर लोगों को जगत तथा अपने को देखने के लिए नेत्रदान करता है, वैसे ही संतपुरुष अपने को तथा भगवान को देखने के लिए अंतर्दृष्टि देते हैं। संत अनुग्रहशील देवता हैं। संत अपने हितैषी सुहृद हैं। संत अपने प्रियतम आत्मा हैं। और साधक क्या कहूँ, स्वयं मैं ही संत के रूप में विद्यमान हूँ।

सन्तो दिशन्ति चक्षूंषि बहिरर्कः समुत्थितः। देवता बान्धवाः सन्तः सन्त आत्माहमेव च।।

श्रीमद् भागवत 11.26.34

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2011, पृष्ठ संख्या 2 अंक 223

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ