भारतीय संस्कृति की महानता

भारतीय संस्कृति की महानता


(पूज्य बापू जी के सत्संग से)

मैं तो सत्संग करने वाले की अपेक्षा सत्संग सुनने वाले को ज्यादा फायदे में मानता हूँ। यदि सत्संग चार दिन का है तो सत्संग सुनने वाला चाहे दो दिन आये, तीन दिन आये उसकी मौज ! पर सत्संग करने वाले को तो चारों दिन समय से आना है। एक-एक तथ्य के पीछे एक-एक सिद्धान्त, उसके पीछे दूसरा सिद्धान्त…. वह भी शास्त्रीय हो, लोकोपयोगी हो और मनोग्राह्य हो, यह ध्यान रख के बोलना पड़ता है। सुनने वाले को कोई ध्यान रखने की जरूरत नहीं है। जैसे गाय सुबह से शाम तक इधर-उधर घूमती है, कभी हरा खाती है, कभी सूखा खाती है, कभी डंडे सहती है। दिन भर के परिश्रम से उसके शरीर में जो दूध बनता है वह शाम को बछड़े को तो तैयार मिलता है। जैसे बछड़े को माल तैयार मिलता है वैसे ही संत ने कुंडलिनी योग, लय योग, ध्यान योग किया, संतों को खोजा, उनकी सेवा की, गुरुओं को रिझाया, भगवान की बंदगी की, प्रीति की, सब कर-कराके जो सार मिला है, उसका अनुभव करके वे समाज की ओर आते हैं। अपने पूरे अनुभव का निचोड़ लोगों को पिलाते हैं। यह भारत के संतों की गरिमा है। इसी कारण हमारी भारतीय संस्कृति अब भी जीवित है।

विश्व की चार प्राचीन संस्कृतियाँ हैं – युनान, मिस्र, रोम और भारत की। इन चारों संस्कृतियों में अभी अगर देखा जाय तो युनान, मिस्र और रोम की – ये तीनों संस्कृतियाँ आपको अजायबघरों (संग्रहालयों) में मिलेंगी पर भारत की संस्कृति आज भी गाँव-गाँव में दिखायी पड़ेगी।

कनाडा का एक अरबपति आदमी परमहंस योगानंद जी का जीवन-चरित्र पढ़कर इतना प्रभावित हुआ कि वह यहाँ उनके दर्शन करने आया और अपनी कार लेकर भारत में यात्रा की। बाद में उसने एक पुस्तक लिखी जिसमें भारत की खूब सराहना की है।

उसने लिखा कि गर्मी के दिन थे। एक जगह मेरी कार खराब हो गयी। मैंने एक पेड़ के नीचे कार खड़ी की। इतने में एक किसान भागता हुआ मेरे पास आया। मैं उसकी भाषा नहीं जानता था और वह मेरी भाषा नहीं जानता था, फिर भी उस किसान ने बड़े प्रेम से मुझे अपने झोंपड़े की ओर चलने का संकेत किया । मैं गया तो उसने खटिया बिछायी। गाय दुहकर दूध लाया, चीनी तो नहीं डाली लेकिन किसान ने अपना प्रेम, अपनी प्रीति उस दूध में ऐसी डाली कि अभी तक उस दूध की मधुरता मुझे याद है। भारत की संस्कृति अब भी गाँव-गाँव में और किसानों के झोंपड़ों में मुझे देखने को मिली। यह ʹपरस्परदेवो भवʹ की भावना है।

तुझमें राम मुझमें राम सबमें राम समाया है।

कर लो सभी से प्यार जगत में कोई नहीं पराया है।।

और दूसरी बात-भारत की संस्कृति अभी भी संतों के पास मिलती है, जिसका प्रसाद संतजन समाज में बाँटते हैं तो लाखों लोग एक साथ शांति पाते हैं। विश्व में और किसी जगह पर ऐसा सामूहिक सत्संग नहीं होता जैसा भारत में होता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2012, पृष्ठ संख्या 30, अंक 230

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