तुम जितनी देर शांत बैठते हो, निःसंकल्प बैठते हो उतनी तुम्हारी आत्मिक ऊर्जा, आत्मिक आभा, परमात्मिक शक्ति संचित होती है, तुम्हारा सामर्थ्य बढ़ता है।
एक संत से किसी ने कहाः “हम तो गृहस्थी हैं, संसारी हैं। हम तो एकांत में नहीं रह सकते, शक्तिसम्पन्न नहीं हो सकते।”
संत ने कहाः “आप एक लोटे दूध को सरोवर में अथवा पानी के बड़े बर्तन में डाल दो तो आपका दूध व्यर्थ हो जायेगा लेकिन उस दूध में थोड़ा-सा दही डालकर उसे जमाओ, थोड़ा एकांत दो, बाद में मथो और पानी से भरे हुए घड़े या सरोवर में वह मक्खन डालो तो तैरेगा।
ऐसे ही थोड़े समय भी तुम साधन भजन करके अपने आनंदस्वरूप आत्मा का सुख लो तो फिर संसार के घड़े में व्यवहार करोगे तो भी नाचते-खेलते आनंद से सफल हो जाओगे, नहीं तो संसार आपको डुबा देगा। चिंता व विकारों में, राग-द्वेष में, भय और रोग में डुबा देगा और अंत में जन्म-मरण के चक्कर में भी डुबा देगा।”
ʹक्या करें ? हम तो संसारी हैंʹ – ऐसा करके अपना आयुष्य नष्ट नहीं करना। तुम सचमुच परिश्रम से कमाते हो और बहुत मितव्ययिता से जीते हो तो तुम्हारा अधिकार है परम सुख पाने का। मनुष्य चोले से श्रेष्ठतर कुछ भी नहीं है। ऐसा मनुष्य-जीवन पाकर आपने अगर ऊँचाइयों को नहीं छुआ तो फिर कब छुओगे ? जो भूतकाल में हो गया सो हो गया। अभी से तुम शक्ति का संचय करो, आत्मानंद में वृद्धि करो, बढ़ाओ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2013, पृष्ठ संख्या 15, अंक 249
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