न जानने को कौन जानता है ?

न जानने को कौन जानता है ?


(श्री रमण महर्षि पुण्यतिथिः 14 अप्रैल 2018)

श्री रमण महर्षि के एक भक्त ने उनसे पूछाः “मैं रोज सुबह-शाम भगवन्नाम का जप करता हूँ। जप करते-करते बहुत विचार आते हैं। बहुत समय बीतने पर याद आता है कि उन विचारों की भीड़ में मैं जप तो भूल ही गया हूँ। मैं इससे बहुत परेशान हूँ। मुझे क्या करना चाहिए ?”

महर्षि जीः “उस समय भगवन्नाम को पकड़कर रखना चाहिए। आप नाम जप करते हो तो विचारों की भरमार में जब आपको याद आ जाता है कि आप नाम-जप भूल गये हैं तब इस बात का स्मरण बार-बार अपने आपको कराओ और बार-बार भगवन्नाम को पकड़ लो। इससे दूसरे विचार धीरे-धीरे शांत होते जायेंगे।”

संसार की वासनाएँ मिटाने के लिए भगवन्नाम का जप एक अमोघ साधन है। जप-साधना करते समय जब भी मन में व्यर्थ विचार आयें तो उन्हें मिथ्या, आने-जाने वाले समझ के उनके साक्षी बनकर उन्हें देखें। अगर यह सम्भव न हो पाये तो बार-बार भगवन्नाम का आश्रय लें। भगवन्नाम या ॐकार का कभी ह्रस्व, दीर्घ, कभी प्लुत (दीर्घ से भी अधिक लम्बा) उच्चारण करें तो कभी शांत भाव से जप करें। इससे तुरंत ही विचारों की श्रृंखला टूट जायेगी। जप-सातत्य से विचार शांत होते-होते जप के वास्तविक फल आत्मविश्रांति का अनुभव होने लगता है।

एक दिन अनजान यात्री रमण महर्षि के सत्संग में आया। वह कोई भक्त या जिज्ञासु नहीं था फिर भी उनके आश्रम में कुछ दिन रहा।

जाने से पहले बोलाः “स्वामी जी ! जिज्ञासु आपसे प्रश्न पूछते हैं। मुझे भी आपसे प्रश्न पूछने का मन हो रहा है पर मैं तो जानता ही नहीं हूँ कि मैं क्या पूछूँ तो मुझे कैसे मुक्ति मिलेगी ?”

महर्षि जी ने बड़े प्रेम से समझायाः “आपने कैसे जाना कि आप कुछ नहीं जानते ?”

“लोगों के प्रश्न और आपके उत्तर सुनकर मुझे लगा कि मैं तो कुछ भी नहीं जानता।”

“ठीक है, तुमने जान लिया कि तुम कुछ नहीं जानते। इतना काफी है। इससे बढ़कर और क्या चाहिए ?”

“पर स्वामी जी ! केवल इतना जान लेने भर से मुक्ति कैसे मिलेगी ?”

“क्यों नहीं ? कोई एक है जो जानता है कि ‘यह कुछ नहीं जानता।’ यदि तुम खोजकर यह जान लो कि यह ‘कोई’ कौन है तो पर्याप्त है। जब मनुष्य यह मान लेता है कि ‘मैं सब जानता हूँ’ तो उसका अहं बढ़ता है। इससे तो ‘आप कुछ नहीं जानते’ और फिर यह खोज करना कि मुक्ति कैसे मिले ?’ क्या यह ज्यादा अच्छा नहीं ?”

वह व्यक्ति आनंदित होकर चलता बना। यदि कोई जीवभाव में रहते हुए ही कह दे कि ‘मैं सब जानता हूँ’ तो आत्मा को तो उसने बुद्धि में कैद कर लिया। हकीकत में जो व्यक्ति नम्र, श्रद्धावान, जिज्ञासु होकर संतों-सदगुरुओं का सत्संग सुने, गीता, उपनिषद, योगवासिष्ठ आदि वेदांत-परक ग्रंथों का स्वाध्याय करे और ब्रह्मनिष्ठ महापुरुषों के मार्गदर्शन में ‘मैं कौन हूँ? जानने को अथवा न जानने को – दोनों को जानने वाला तो मैं हूँ। ऐसा विलक्षण ज्ञाता मैं कौन हूँ?’ ऐसे विवेक जगाने वाले पुण्यमय प्रश्नों पर विचार करे, अपने-आपसे पूछता जाय, सत्संग में इनके हल खोजकर तदनुसार चिंतन-मनन करता जाय तो शीघ्र परम लाभ होता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2018, पृष्ठ संख्या 13 अंक 303

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