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पक्के हित व प्रेम का बंधनः रक्षाबन्धन – पूज्य बापू जी


(रक्षाबन्धनः 10 अगस्त 2014)

रक्षा सूत्र का मनोवैज्ञानिक लाभ

हिन्दू संस्कृति ने कितनी सूक्ष्म खोज की ! रक्षा बन्धन पर बहन भाई को रक्षासूत्र (मौली) बाँधती है। आप कोई शुभ कर्म करते हैं तो ब्राह्मण रक्षासूत्र आपके दायें हाथ में बाँधता है, जिससे आप कोई शुभ काम करने जा रहे हैं तो कहीं अवसाद में न पड़ जायें, कहीं आप अनियंत्रित न हो जायें। रक्षासूत्र से आपका असंतुलन व अवसाद का स्वभाव नियंत्रित होता है, पेट में कृमि भी नहीं बनते। और रक्षासूत्र के साथ शुभ मंत्र और शुभ संकल्प आपको असंतुलित होने से बचाता है। रक्षाबंधन में कच्चा धागा बाँधते हैं लेकिन यह पक्के प्रेम का और पक्के हित का बंधन है।

वर्षभर के यज्ञ-याग करते-करते श्रावणी पूर्णिमा के दिन ऋषि यज्ञ की पूर्णाहुति करते हैं, एक दूसरे के लिए शुभ संकल्प करते हैं। यह रक्षाबंधन महोत्सव बड़ा प्राचीन है।

ऋषियों के हम ऋणी हैं

ऋषियों ने बहुत सूक्ष्मता से विचारा होगा कि मानवीय विकास की सम्भावनाएँ कितनी ऊँची हो सकती हैं और असावधानी रहे तो मानवीय पतन कितना निचले स्तर तक और गहरा हो सकता है। रक्षाबन्धन महोत्सव खोजने वाले उऩ ऋषियों को, वेद भगवान का अमृत पीने वाले, वैदिक रस का प्रचार-प्रसार करने वाले और समाज में वैदिक अमृत की सहज-सुलभ गंगा बहाने वाले ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों को मैं प्रणाम करता हूँ। आप भी उन्हें श्रद्धापूर्वक प्रणाम करो जिन्होंने केवल किसी जाति विशेष को नहीं, समस्त भारतवासियों को तो क्या, समस्त विश्वमानव को आत्म-अमृत के कलश सहज प्राप्त हों, ऐसा वैदिक ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया है। हम उन सभी आत्मारामी महापुरुषों को फिर से प्रणाम करते हैं।

शिष्य भी करते हैं शुभ संकल्प

इस पर्व पर बहन भाई के लिए शुभकामना करती है। ऋषि अपने शिष्यों के लिए शुभकामना करते हैं। इसी प्रकार शिष्य भी अपने गुरुवर के लिए शुभकामना करते हैं कि ‘गुरुवर ! आपकी आयु दीर्घ हो, आपका स्वास्थ्य सुदृढ़ हो। गुरुदेव ! हमारे जैसे करोड़ों-करोड़ों को तारने का कार्य आपके द्वारा सम्पन्न हो।’

हम गुरुदेव से प्रार्थना करें- ‘बहन की रक्षा भले भाई थोड़ी कर ले लेकिन गुरुदेव! हमारे मन और बुद्धि की रक्षा तो आप हजारों भाइयों से भी अधिक कर पायेंगे। आप हमारी भावनाओं की, श्रद्धा की भी रक्षा कीजिये।’

रक्षाबन्धन पर संतों का आशीर्वाद

राखी पूर्णिमा पर ब्राह्मण अपने यजमान को रक्षा का धागा बाँधते हैं लेकिन ब्रह्मज्ञानी गुरु धागे के बिना ही धागा बाँध देते हैं। वे अपनी अमृतवर्षी दृष्टि से, शुभ संकल्पों से ही सुरक्षित कर देते हैं अपने भक्तों को।

रक्षाबन्धन में केवल बहनों का ही प्यार नहीं है, ऋषि मुनियों और गुरुओं का भी प्यार तुम्हारे साथ है। आपके जीवन में सच्चे संतों की कृपा पचती जाय। बहन तो भाई को ललाट पर तिलक करती है कि ‘भाई तू सुखी रह ! तू धनवान रहे ! तू यशस्वी रहे….’ लेकिन मैं ऐसा नहीं सह सकता हूँ। आप सुखी रहें लेकिन कब तक ? यशस्वी रहें तो किसका यश ? मैं तो यह कह सकता हूँ कि आपको संतों की कृपा अधिक से अधिक मिलती रहे। संतों का अनुभव आपका अनुभव बनता रहे।

सर्व मंगलकारी वैदिक रक्षासूत्र

भारतीय संस्कृति में ‘रक्षाबन्धन पर्व’ की बड़ी भारी महिमा है। इतिहास साक्षी है कि इसके द्वारा अनगिनत पुण्यात्मा लाभान्वित हुए हैं फिर चाहे वह वीर योद्धा अभिमन्यु हो या स्वयं देवराज इन्द्र हो। इस पर्व ने अपना एक क्रांतिकारी इतिहास रचा है।

वैदिक रक्षासूत्र

रक्षासूत्र मात्र एक धागा नहीं बल्कि शुभ भावनाओं व शुभ संकल्पों का पुलिंदा है। यही सूत्र जब वैदिक रीति से बनाया जाता है और भगवन्नाम व भगवद् भाव सहित शुभ संकल्प करके बाँधा जाता है तो इसका सामर्थ्य असीम हो जाता है।

कैसे बनायें वैदिक राखी ?

वैदिक राखी बनाने के लिए एक छोटा सा ऊनी, सूती या रेशमी पीले कपड़े का टुकड़ा लें। उसमें दूर्वा, अक्षत (साबुत चावल) केसर या हल्दी, शुद्ध चन्दन. सरसों के साबुत दाने-इन पाँच चीजों को मिलाकर कपड़े में बाँधकर सिलाई कर दें। फिर कलावे से जोड़कर राखी का आकार दें। सामर्थ्य हो तो उपरोक्त पाँच वस्तुओं के साथ स्वर्ण भी डाल सकते हैं।

वैदिक राखी का महत्त्व

वैदिक राखी में डाली जाने वाली वस्तुएँ हमारे जीवन को उन्नति की ओर ले जाने वाले संकल्पों को पोषित करती हैं।

दूर्वाः जैसे दूर्वा का एक अंकुर जमीन में लगाने पर वह हजारों की संख्या में फैल जाती है, वैसे ही ‘हमारे भाई या हितैषी के जीवन में भी सदगुण फैलते जायें, बढ़ते जायें…..’ इस भावना का द्योतक है दूर्वा। दूर्वा गणेश जी की प्रिय है अर्थात् हम जिनको राखी बाँध रहे हैं उनके जीवन में आने वाले विघ्नों का नाश हो जाय।

अक्षत (साबुत चावल)- हमारी भक्ति और श्रद्धा भगवान के, गुरु के चरणों में अक्षत हो, अखण्ड और अटूटट हो, कभी क्षत-विक्षत न हों – यह अक्षत का संकेत है। अक्षत पूर्णता की भावना के प्रतीक हैं। जो कुछ अर्पित किया जाय, पूरी भावना के साथ किया जाय।

केसर या हल्दीः केसर की प्रकृति तेज होती है अर्थात् हम जिनको यह रक्षासूत्र बाँध रहे हैं उनका जीवन तेजस्वी हो। उनका आध्यात्मिक तेज, भक्ति और ज्ञान का तेज बढ़ता जाय। केसर की जगह पर पिसी हल्दी का भी प्रयोग कर सकते हैं। हल्दी पवित्रता व शुभ का प्रतीक है। यह नजरदोष न नकारात्मक ऊर्जा को नष्ट करती है तथा उत्तम स्वास्थ्य व सम्पन्नता लाती है।

चंदनः चन्दन दूसरों को शीतलता और सुगंध देता है। यह इस भावना का द्योतक है कि जिनको हम राखी बाँध रहे हैं, उनके जीवन में सदैव शीतलता बनी रहे, कभी तनाव न हो। उनके द्वारा दूसरों को पवित्रता, सज्जनता व संयम आदि की सुगंध मिलती रहे। उनकी सेवा-सुवास दूर तक फैले।

सरसों- सरसों तीक्ष्ण होती है। इसी प्रकार हम अपने दुर्गुणों का विनाश करने में, समाज द्रोहियों को सबक सिखाने में तीक्ष्ण बनें।

अतः यह वैदिक रक्षासूत्र वैदिक संकल्पों से परिपूर्ण होकर सर्व मंगलकारी है। यह रक्षासूत्र बाँधते समय यह श्लोक बोला जाता हैः

येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः।

तेन त्वां अभिबध्नामि1 रक्षे मा चल मा चल।।

इस मंत्रोच्चारण व शुभ संकल्प सहित वैदिक राखी बहन अपने भाई को, माँ अपने बेटे को, दादी अपने पोते को बाँध सकती है। यही नहीं, शिष्य भी यदि इस वैदिक राखी को अपने सदगुरु को प्रेमसहित अर्पण करता है तो उसकी सब अमंगलों से रक्षा होती है तथा गुरुभक्ति बढ़ती है।

1 शिष्य गुरु को रक्षासूत्र बाँधते समय ‘अभिबध्नामि’ के स्थान पर ‘रक्षबध्नामि’ कहे।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2014, पृष्ठ संख्या 12,13 अंक 259

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करोड़ों का जीवन सँवारने वाले संत के साथ ऐसा क्यों ?


श्रीमती नूतन भल्ला, स्पेशल एग्जीक्यूटिव ऑफिसर, मुंबई

अभी हाल ही में झूठे केस में फँसाये गये शंकराचार्य श्री जयेन्द्र सरस्वती जी न्यायालय से बाइज्जत बरी हुए और स्वामी नित्यानंदजी को बदनाम करने के लिए दिखायी गयी सेक्स सीडी फर्जी निकली। लेकिन वर्षों पहले जब इन पर आरोप लगे, तब से अब तक मीडिया ने जो संतों की इतनी बदनामी कर डाली, उसकी भरपाई कौन और कैसे करेगा ? करोड़ों हिन्दुओं की आस्था को ठेस पहुची, इसका जिम्मेदार कौन है ?

विदेशी ताकतें जो भारत को तोड़ना चाहती हैं, वे भोले-भाले लोगों को आज इस प्रकार भ्रमित कर रही हैं कि भारतवासियों को उनके ही साधु-संतों से नफरत हो जाय। जब संतों के ऊपर झूठे आरोप लगते हैं तो मीडियावाले एक दिन में 8-8 घंटे की ब्रेकिंग न्यूज चलाते हैं लेकिन जब वे न्यायालय से बाइज्जत बरी होते हैं तो मात्र 1-2 मिनट भी उस खबर को चलाते हैं। मीडिया के इस पक्षपातपूर्ण रवैये से भारत के बुद्धिजीवी लोगों का तो मीडिया से विश्वास ही उठ गया है।  मीडिया ने गैंगरेप, हत्या आदि की खबरें दिनभर चला-चलाकर भारत की छवि को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अत्यन्त खराब कर दिया है। अरे, भारत में बापू जी जैसे संतों द्वारा कितने निष्काम सेवाकार्य अविरत चल रहे हैं ! ये भी तो कभी मीडियावालों को दिखाने चाहिए। 14 फरवरी के दिन लाखों-करोड़ों बच्चे अपने माता-पिता की आरती-पूजा कर जीवन में आगे बढ़ने हेतु उनसे आशीष पाते हैं…. ये खबरें दिखाने के लिए मीडियावालों को फुर्सत नहीं है क्या ?

आज लगभग 7-8 करोड़ लोग बापू जी कारण अच्छाई के मार्ग पर चल रहे हैं। ये लोग अगर बापू जी से जुड़े नहीं होते तो इन्हीं में न जाने कितने लोग तनावग्रस्त, व्यसनी और क्या-क्या होते ! आकलन कीजिये कि जिन्होंने 7-8 करोड़ लोगों को नेकी की राह व स्वदेशी सिद्धांत पर चलना सिखाया हो, उन महापुरुष का इस देश की सुख, शांति व समृद्धि में कितना बड़ा योगदान है !

आज बापू जी की प्रेरणा से देश के विभिन्न स्थानों पर गरीबों में अनाज, वस्त्र, मिठाई, बर्तन आदि जीवनोपयोगी सामग्रियों का वितरण, गौ सेवा आदि की जा रही है। यह सब कानून के डर से नहीं अपितु लोगों की अच्छाई काम कर रही है, जिसे बापू जी जैसे संतों ने जागृत किया है। ऐसे संतों की बिकाऊ मीडियावाले दिन-रात आलोचना करते रहते हैं। कानून अगर बापू जी के लिए है तो मीडियावालों के लिए भी है। उऩ्हें लोगों की भावनाओं के साथ छेड़छाड़ करने का अधिकार नहीं है।

आज करोड़ों लोग जो बापू जी को  मानते हैं क्या वे सब-के-सब अंधश्रद्धालु हैं ? अरे, कोई 500-1000 लोगों को भ्रमित किया जा सकता है लेकिन क्या 7-8 करोड़ लोगों को कोई भ्रमित कर सकता है ? अरे, स्वयं भारत के पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी जैसे उच्च कोटि के बुद्धिजीवी बापू जी के पास 2 घंटे सत्संग सुनने के लिए बैठे रहे। ऐसे और भी कई हैं।

करोड़ों लोगों को जीवन जीने की कला सिखाने वाले बापू जी जैसे संतों के सम्मान की सुरक्षा के लिए भारत के कानून में ठोस प्रावधान होने चाहिए ताकि कोई भी इनकी प्रतिष्ठा और छवि के साथ खिलवाड़ करने का दुस्साहस न कर पाये।

भारतवासियों से अपील है कि आप किसी भी विदेशी षड्यंत्र के शिकार न बनें। हमें जिन संतों ने ध्यान-भजन सिखाया, परिवार में आपसी सौहार्द सिखाया हम उनसे जुड़े रहें व लाभ उठाते रहें।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2014, पृष्ठ संख्या 25, अंक 259

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जीव को शिव बनाते हैं सदगुरु – पूज्य बापू जी


एक बालक था मुकुंद। जब वह थोड़ा बड़ा हुआ तो गुरु महाराज की खोज के लिए इधर-उधर घूमा। हम भी घूमे थे इधर-उधर गुरु महाराज की खोज के लिए। तो गुरु की खोज में घूमते-घामते मुकुंद को मिल गये एक महापुरुष, गुरु महाराज युक्तेश्वर।

मुकुंद ने उनसे प्रार्थना कीः “गुरुदेव ! मुझे दूसरा कुछ नहीं चाहिए, मेरा जो अंतरात्मा-परमात्मा है उसका साक्षात्कार करना है। सुना है कि भगवान हैं लेकिन भगवान का जब तक साक्षात्कार नहीं होता, तब तक दुःख, चिंता नहीं मिटती, अहं नहीं मिटता और अहं को ही मान-अपमान की ठोकर लगती है, अहं ही भागता भगाता है। तो मेरा अहं ले लो और मेरे को भगवान का दर्शन करा दो।”

युक्तेश्वर महाराज बोलेः “मेरी शर्त यह है कि जो मैं बोलूँ वही करना पड़ेगा। आज्ञा का पालन करेगा तो वासना मिटेगी और आज्ञा को ठुकरायेगा तो तू ठुकराया जायेगा। है ताकत ?”

“गुरु महाराज ! आपकी दया से होगा।”

“तो अच्छा ! अब जाओ कलकत्ता और महाविद्यालय में भर्ती हो जाओ।”

मुकुंद सोचने लगा कि ‘यह तो मेरी इच्छा के विरूद्ध है। मैं तो सब छोड़ के गुरु महाराज के पास आया और गुरु महाराज बोलते हैं कि ‘जाओ, महाविद्यालय में भर्ती हो जाओ।’ अब गुरु की आज्ञा कैसे टालूँ ?’ मन तो नहीं था जाने का लेकिन वह गया।

गुरु ने कहा था कि “जाओ, महाविद्यालय में भर्ती हो जाओ और बीच बीच में तुम मेरे पास आते रहोगे।” जो गुरु ने कहा था वही हुआ। बीच-बीच में जब भी मौका मिलता, छुट्टियों में वह गुरु जी के पास आता रहा। गुरु जी ने उसे बहुत परखा। श्रीरामपुर आश्रम में उसे अलग अलग सेवाएँ दी गयीं।

गुरु के यहाँ गुप्त (शाश्वत) धन लेना हो तो अपनी वासना, अहंकार और पकड़ – ये छोड़ना पड़ता है। सोने में से गहने तभी बनते हैं जब उनको आग में तपाया जायेगा। पुराना घाट छोड़ें तब नया घाट आये। ठोको, पीटो, तपाओ फिर बने गहना। ऐसे ही भगवान को पाने वाले को गुरुमुख बनने के लिए गुरु जी की कसौटी में, गुरु जी की आज्ञा में उत्तीर्ण होना पड़ता है।

एक दिन मुकुंद से मिलने उसके पिता आये और मन ही मन सोचने लगे कि ‘मेरा बेटा जवानी में समर्पित हुआ है, बड़ा होशियार है। बचपन में ही भगवान से बातें करता था ! अब गुरु महाराज के पास रह रहा है तो वे बहुत खुश होंगे।’ लेकिन गुरुजी ने एकदम उलटा सुनाया कि “तेरा बेटा है कि गधा है ! मेरा तो सिर खपा गया…..” ऐसी बातें सुनायीं कि वह बाप तो रोने लग गया और मुकुंद को फटकारा कि “गुरु महाराज तो तेरे पर इतने नाराज हैं ! तू ऊँधा काम करता है। सब छोड़ के इधर आया और तू तो भ्रष्ट हो गया। हम तो समझे थे गुरु महाराज के पास कुछ पायेगा लेकिन वे तो बोल रहे हैं कि ऐसा है, ऐसा है…… तू किसी काम का नहीं रहा।”

मुकुंद मन से एकदम टूट गया लेकिन बाद में सामान्य हो गया।

एक बार मुकुंद के मन में हुआ कि ‘हिमालय में जा के समाधि करूँगा……’

ऐसा सोचकर वह गुरु जी से बोलाः “मेरे को हिमालय जाने की आज्ञा दो। कृपा करो ! मेरा मन कहता है कि मैं भाग जाऊँ लेकिन भाग जाने से तो मेरा सर्वनाश हो जायेगा।”

गुरु जी ने मुकुंद को समझाया और मौन हो गये।

मुकुंद ने मन में सोचा कि ‘उधर ही बैठूँगा, ध्यान करूँगा, समाधि करूँगा, भगवान को पाऊँगा।’

उसने योगिराज रामगोपाल का नाम सुना था कि ‘वे बड़े योगी हैं। उन्होंने 20 साल तो एक जगह पर ध्यान समाधि में बिताये थे। 18 घंटा रोज ध्यान करते थे 20 साल तक। फिर 25 साल दूसरी जगह बिताये। 45 साल की समाधि !’

वह उनके पास गया और बोलाः “गुरु महाराज ! मेरे को ध्यान समाधि सिखाओ। हिमालय के एकांत में आपकी शरण आया हूँ।”

“अरे, तू तो भटक रहा है। युक्तेश्वर महाराज को छोड़ के तू मेरे पास आया ! मैंने 45 साल झख मारी तो मेरे को कुछ नहीं मिला तो तेरे को क्या मिल जायेगा ! समाधि में सुन्न-मुन्न होते हैं। इन जड़ पत्थरों में, हिमालय में अगर भगवान होते तो हिमालय में बहुत लोग रह रहे हैं तो क्या सबको भगवान मिल गये ! गुरु की अवज्ञा करके, गुरु की इच्छा नहीं हुई तब भी तू इधर भटकता है ! अब मैं तेरे को क्या सिखाऊँगा ? तू क्या सीख लेगा ?

गुरु महाराज तो व्यवहार में, उतार में, चढ़ाव में, हर तरीके से अहंकार व वासना को मिटाते हैं। प्रशंसा करके तो कोई भी उल्लू बना देगा लेकिन तुम्हारे गुरु तो सच्चे संत हैं। वे तुम्हारी वाहवाही करेंगे क्या ? कैसा पागल आदमी है ! जो उन गुरु से, ऐसे युक्तेश्वर महाराज से नहीं सीखा, नहीं पाया तो मेरे पास क्या सीखेगा-पायेगा तू ?”

गया तो था बड़े उत्साह से लेकिन उसके दिमाग से हवा निकल गयी कि ‘जड़ पहाड़ क्या दे देगा ? जो मिलेगा वह चेतन गुरु की हाजिरी में, ज्ञान में, सत्संग में, घड़ाई में….’

जैसे माई चावल बीनती है न, तो कंकड़-पत्थर, जीव-जंतु एक-एक को चुन-चुन के निकालती है, ऐसे ही छुपे हुए संस्कारों में क्या-क्या पड़ा है, भरा हुआ है, वह तो आत्मसाक्षात्कारी महापुरुष ही जानते हैं कि कैसे घड़ाई होती है।

योगिराज रामगोपाल ने कहाः “जा, युक्तेश्वर महाराज के पास।”

कुछ दिनों के बाद मुकुंद वापस आ गया और सोचने लगा कि ‘गुरु महाराज की आज्ञा नहीं थी और गया था और उन बड़े संत ने भी डाँट दिया। अब गुरु जी तो फटकारेंगे…..’

गया और गुरु महाराज के आगे लम्बा पड़ने लगा तो गुरुजी ने पकड़ लिया, नीचे नहीं गिरने दिया और बोलेः “चल मुकुंद ! झाड़ू उठा, उधर सफाई करनी है। फिर थोड़ा खाना है, अपन खा के फिर गंगा किनारे चलते हैं।”

मुकुंद तो सोचता ही रह गया कि ‘मेरे को डाँटना-फटकारना कुछ भी नहीं ! चरणों पर गिर रहा था माफी माँगने के लिए लेकिन गिरने भी नहीं दिया, बाहर से तो इतने कठोर लेकिन अंदर से कितने दयालु मेरे गुरु ! कितने उदार हैं !’

ज्यों-ज्यों वर्ष बीतते गये, त्यों-त्यों उसे पता चला कि ‘अरे, गुरु महाराज दुश्मन जैसे लगते हैं लेकिन इनके जैसा कोई मित्र नहीं है, कोई तारणहार नहीं है। संसार की मिठाइयाँ भी इनकी कृपा के आगे फीकी हैं।’

फिर तो ‘गुरु महाराज जो भी करते हैं, भलाई के लिए करते हैं’ ऐसा उसे एक आश्रय मिल गया। फिर कभी भी वे डाँटते तो उसे अंदर में प्रसन्नता होती कि ‘भीतर तरल थे बाहर कठोरा…’

एक दिन गुरु जी मुकुंद को बुलायाः “क्या कर रहा है ?”

“गुरु जी ! ध्यान कर रहा हूँ।”

“ध्यान में तो कर्तापन है, ध्यान क्या करता है ! इधर आ।”

वह गया। तब युक्तेश्वर महाराज ने स्नेह से समझाते हुए कहाः “ध्यान करूँ, ईश्वर मिल जाय…. जो नहीं करते हैं उनके लिए तो ध्यान ठीक है लेकिन गुरु जी मिल गये फिर जो गुरु जी बोलें वही किया करो।”

“जी महाराज !”

गुरु ने जरा-सा थपथपा दिया। मुकुंद को हुआ कि ‘मैं तो मर गया और जिसको खोजता था वही रह गया।’ गुरु जी ने ऐसा थपथपाया, ऐसा कुछ ध्यान लग गया, ऐसा कुछ हुआ कि अरे, जिसके लिए बड़े-बड़े लोग 60-60 हजार वर्ष तपस्या करते हैं, झख मारते हैं तो भी नहीं मिलता, वह तो अपना आत्मा है, वही हरि है, हाजरा-हजूर है, उसका अनुभव गुरुकृपा से होने लगा।

जो दूर नहीं, दुर्लभ नहीं, परे नहीं पराया नहीं वह तो अपना आत्मा है।

ब्राह्मी स्थिति प्राप्त कर, कार्य रहे ना शेष।

मोह कभी न ठग सके, इच्छा नहीं लवलेश।।

पूर्ण गुरु किरपा मिली, पूर्ण गुरु का ज्ञान।…..

‘इच्छा नहीं लवलेश…..‘ जगत की इच्छा मिटाने के लिए भगवान को पाने की इच्छा ती लेकिन जब भगवान को खोजा तो वह तो अपना आत्मा ही है।

गुरु महाराज ने क्या पता कैसी कृपा की ! पर्दा हट गया तो लगा कि भगवान को क्या खोजना ! भगवान तो अपना आत्मा ही है। मुकुंद को पता चल गया कि गुरुकृपा ही केवलं…..

मैं युक्तेश्वर बाबा को तो प्रणाम करूँगा हृदय से लेकिन उनकी इतनी कड़क, कठोर घुटाई-पिटाई सहने वाला मुकुंद, जो परमहंस योगानंद बन गये, उनके लिए भी मेरे हृदय में बहुत स्नेह है।

इसलिए बोलते हैं कि हजार बार गंगा नहा लो, हजार एकादशी कर लो, अच्छा है, पुण्य होता है लेकिन सदगुरु के सत्संग के आगे वह सब छोटा हो जाता है, गुरु की कृपा, गुरु का संग सर्वोपरि है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2014, पृष्ठ संख्या 8-10, अंक 259

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