अक्ष्युपनिषद् में भगवान सूर्यनारायण सांकृति मुनि से कहते हैं- “असंवेदन अर्थात् आत्मा-परमात्मा के अतिरिक्त दूसरी किसी वस्तु का भान न हो – ऐसी स्थिति को ही योग मानते हैं, यही वास्तविक चित्तक्षय है । अतएव योगस्थ होकर कर्मों को करो, नीरस अर्थात् विरक्त हो के मत करो ।”
इसी सिद्धान्त को सरल शब्दों में समझाते हुए भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाह जी महाराज कहते हैं- “परमात्मा के अतिरिक्त पदार्थों की सत्ता है ही नहीं । जब हम उस सत्ता के अस्तित्व को स्वीकार करके उसकी ओर चलते हैं तो हमारे पास उपलब्ध पदार्थों का उपयोग भी उसी सत्कार्य में होता है । अतः उनकी शोभा बढ़ती है परंतु जब हम उस ‘एक’ का अस्तित्व भुला बैठते हैं तो हमारे पास शून्यरूपी वस्तुएँ कितनी भी क्यों न हों, वे दुःखदायी ही होती हैं तथा पापकर्म और जन्म-मरण का कारण बनती हैं । दुःख संसार में है परंतु आत्मा में तो संसार है ही नहीं और वह आत्मा हमारी जान है । यदि उस आत्मा को पाने का यत्न करोगे तो तुम्हें आनंद और सुख के अतिरिक्त कुछ दिखेगा ही नहीं ।”
अतः कर्म करने का ढंग यही है कि योगस्थः कुरु कर्माणि…. योग में स्थित हुआ कर्तव्य-कर्मों को कर ।’ (गीताः 2.48)
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2019, पृष्ठ संख्या 17 अंक 315
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