Monthly Archives: September 2017

स्वास्थ्यवर्धक, हितकारी भोजन कैसा हो ?


हानिकारक रसायनों के सेवन से बचें !

कई खाद्य पदार्थों के निर्माण व उनकी सुरक्षा हेतु हानिकारक रसायनों का उपयोग किया जाता है। अतः सफेद चीनी, सफेद गुड़, वनस्पति घी, रिफाईंड तेल आदि से निर्मित भोजन तथा बाजार में मिलने वाले अधिकांशतः तैयार खाद्य पदार्थ जैसे – अचार, चटनियाँ, मुरब्बे, सॉस आदि का उपयोग स्वास्थ्यवर्धक नहीं है।

अपवित्र आहार से बचें

खूब नमक-मिर्चवाला, तला हुआ, भुना हुआ या अशुद्ध आहार जैसे – बाजारू, बासी व जूठा भोजन, चाय, कॉफी, ब्रेड, फास्टफूड आदि तामसी आहार से भी बचना चाहिए।

भोजन कब  व कितना करें ?

पहले का खाया हुआ भोजन जब पच जाय तभी उचित मात्रा में दूसरी बार भोजन करना चाहिए अन्यथा सभी रोगों की जड अजीर्ण रोग हो जाता है। दिन में बारम्बार खाते रहने वालों के पेट को आराम न मिल पाने से उन्हें पेट की गड़बड़ियाँ एवं उनसे उत्पन्न होने वाले अन्य अनेकानेक रोगों का शिकार होना पड़ता है। अनुचित समय में किया हुआ भोजन भी ठीक से न पचने के कारण अनेक रोगों को उत्पन्न करता है।

सुबह की अपेक्षा शाम का भोजन हलका व कम मात्रा में लेना चाहिए। रात को अन्न के सूक्ष्म पचन की क्रिया मंद हो जाती है अतः सोने से ढाई तीन घंटे पहले भोजन कर लेना चाहिए। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए अधिक भोजन की आवश्यकता नहीं होती अपितु जो भोजन खाया जाता है उसका पूर्ण पाचन अधिक महत्त्वपूर्ण होता है।

सुबह का भोजन 9 से 11 बजे के बीच और शाम का भोजन 5 से 7 बजे के बीच कर लेना चाहिए। शाम को प्राणायाम आदि संध्या के कुछ नियम करके भोजन करें तो ज्यादा ठीक रहेगा। भोजन के बीच-बीच में थोड़ा-थोड़ा गुनगुना पानी पीना चाहिए। भोजन के तुरंत बाद पानी नहीं पीना चाहिए अपितु पौने दो घंटे के बाद प्यास के अनुरूप पानी पीना हितावह है।

भोजन के समय ध्यान देने योग्य कुछ बातें

स्वच्छ, पवित्र स्थान पर शांत व प्रसन्नचित्त हो के भोजन करें।

भोजन भगवान का प्रसाद समझकर बिना किसी प्रतिक्रिया के समभाव एवं आदरपूर्वक करना चाहिए।

खड़े-खड़े खाने से आमाशय को भोजन पचाने में अधिक श्रम करना पड़ता है। अतः यथासम्भव सुखासन में बैठकर भोजन करना चाहिए

भोजन भूख से कुछ कम करें।

भोजन में विपरीत प्रकृति के पदार्थ न हों, जैसे दूध और नमकयुक्त पदार्थ, अधिक ठंडे और अधिक गर्म पदार्थ एक साथ नहीं खाने चाहिए।

भोजन करते समय सूर्य (दायाँ) स्वर चलना चाहिए ताकि भोजन का पाचन ठीक से हो। (स्वर बदलने की विधि हेतु पढ़ें ‘ऋषि प्रसाद’ जनवरी 2017, पृष्ठ 32)

भोजन में अधिक व्यञ्जनों का उपयोग न हो। भोजन ताजा, सुपाच्य व सादा हो। जिन व्यञ्जनों को बनाने में अधिक मेहनत लगती है, उनको पचाने के लिए जठराग्नि को भी अधिक मेहनत करनी पड़ती है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 30, अंक 297

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सम्पन्न घरों के कुशाग्र बच्चों की ऐसी दुर्दशा क्यों ?


अमेरिकन विश्वप्रसिद्ध साहित्यकार मार्क ट्वेन का चौंकाने वाला खुलासा

हर माँ-बाप चाहते हैं कि उनके बच्चे बड़े होकर उनके परिवार का नाम रोशन करने वाले बनें लेकिन ऐसी कौन सी कमी रह जाती है कि माँ-बाप जिन बच्चों को ऊँची शिक्षा दिलाने हेतु सब कुछ करते हैं वे ही बच्चे चोरी, धोखाधड़ी, नशाखोरी, स्वेच्छाचार आदि आपराधिक कार्यों में फँसकर उनके नाम पर धब्बा बन जाते हैं।

इस संबंध में अमेरिका के प्रसिद्ध साहित्यकार मार्क ट्वेन ने गम्भीरता से अध्ययन कर जो निष्कर्ष निकला वह विचारणीय है। उन्होंने अपराधी बालकों के एक गिरोह के चार बच्चों के पारिवारिक जीवन का अध्ययन किया। वे सभी बालक सम्पन्न घरों के थे। एक दिन उन्होंने किसी की नील गाय पकड़ ली और उसे मारकर उसकी खाल एक दुकानदार को बेच दी। दुकानदार ने खाल भीतर रख दी और बाहर आकर फिर काम करने में लग गया। लड़कों ने इतने ही क्षणों में कमरे की पीछे वाली खिड़की तोड़ ली और वह खाल निकाल के फिर से उसी दुकानदार को बेच दी। दुकानदार सस्ती खालें मिलने से प्रसन्न था और बच्चों की आमदनी बढ़ रही थी। एक ही खाल इन बच्चों ने चार बार बेची। इस बार दुकानदार अंदर गया तो एक ही खाल देखकर सन्न रह गया !

मार्क ट्वेन ने इन बच्चों की घरेलू परिस्थितियाँ व उनका स्कूली जीवन देखा तो पाया कि ये बच्चे स्कूल में तीक्षणबुद्धि माने गये हैं पर घर में उनके माता-पिता में से किसी ने उन्हें शायद ही किसी दिन 10-15 मिनट देकर उनकी परिस्थितियाँ पूछी हों, उनके संस्कारों पर ध्यान दिया हो। सरंक्षण और उचित मार्गदर्शन के इस अभाव ने इन बच्चों के साहस और बुद्धिमत्ता को यहाँ तक  ला दिया।

उनके माता-पिता ने मार्क ट्वेन के परामर्श को स्वीकार कर अपने किशोरों को प्रतिदिन निश्चित समय पर सही मार्गदर्शन देना प्रारम्भ किया तो वे ही बच्चे बड़े पदों पर पहुँचे।

शिक्षा के साथ सुसंस्कार भी जरूरी

संसार के पद तो बहुत छोटे हैं, यदि बच्चों को शिक्षा के साथ किन्हीं ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष की दीक्षा एवं सत्संग मिल जाय तो वे महापुरुष भी  बन सकते हैं, अनंत सामर्थ्य-स्रोत ब्रह्मांडनायक परमात्मा का ज्ञान अपने भीतर प्रकट कर सकते हैं। फिर उनके चरणों में कई डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक, बड़ी-बड़ी डिग्रियों वाले ही नहीं, देवता भी नतमस्तक होकर अपना भाग्य बनाने को उत्सुक होंगे।

सुसंस्कार कहीं बाजार से मिलने वाली चीज नहीं है। बच्चों को संस्कारवान बनाना है तो जहाँ अच्छे संस्कार मिलते हैं ऐसे बापू जी के बाल संस्कार केन्द्रों या गुरुकुलों में उन्हें भेजना चाहिए। महापुरुषों के जीवन-चरित्र पढ़ाना-सुनाना चाहिए और उन्हें प्यार से समझाना चाहिए कि ‘बेटा ! तुम्हारे अंदर भी महापुरुषों का यह…. यह…. सदगुण है…. ऐसी-ऐसी योग्यता है…. तुम इन्हें बढ़ाकर अवश्य महान बन सकते हो।’ बच्चे कोमल पौधे की तरह होते हैं, उन्हें जिस ओर मोड़ना चाहें उधर मोड़ सकते हैं। और हम अपने बच्चों से जिन सदगुणों की अपेक्षा रखते हैं, अगर वे हम अपने जीवन में ले आयें तो फिर बच्चों को सिखाने के लिए ज्यादा प्रयास नहीं करने पड़ेंगे, वे सहज में ही उन सदगुणों से प्रेरित होकर उच्च दिशा में चल पड़ेंगे।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 18, अंक 297

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वह अपने चरित्र का विनाश नहीं कर सकता


अधिक धन होने से, अधिक शिक्षा से, उच्च पद मिलने से चरित्र की शुद्धि नहीं होती है। आज की उच्च शिक्षा पाकर लोग एक दूसरे पर कुर्सी चलाते हैं, गाली-गलौज करते हैं, एक दूसरे के विरूद्ध दुरालोचना छपवाते हैं क्योंकि आज शिक्षा में यह संस्कार नहीं रह गया है। जिस देह को लेकर मनुष्य यह सब अनर्थ करता है, वह थोड़े दिनों की है, ठीक वैसे ही जैसे होटल में किराये पर कमरा ले लिया जाता है।

कंकर चुनि चुनि महल बनाया लोग कहें घर मेरा।

ना घर मेरा ना घर तेरा चिड़िया रैन बसेरा।।

इस जीवन के परे भी कुछ सत्य है। उस सत्य (परमात्मा) की खोज न करने से ही जीवन के सब पाप हैं। जिसके जीवन में जीवनोत्तरकालीन (जो मृत्यु के बाद भी, जन्म के पहले भी और सदा साथ रहता है, उस परमात्मा को पाने का) लक्ष्य है, वह जाने या अनजाने आने वाले धन, सुख-भोग अथवा पद-प्रतिष्ठा के लिए अपने चरित्र का विनाश नहीं कर सकता है।

तुझसे है सारा जग रोशन

ओ भारत के नौजवान !

संयम सदाचार को मत छोड़ना,

भले आयें लाखों तूफान।।

 

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 19, अंक 297

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