Monthly Archives: September 2017

महाबलवान है मन, भगवान बताते हैं उसे जीतने का रहस्य


संत एकनाथ जी महाराज द्वारा विरचित सद्ग्रंथ ‘श्रीमद् एकनाथी भागवत’ (अध्याय 23) में एक महानतम रहस्य का उद्घाटन करने से पूर्व मन की चालबाजी का प्रतिपादन करते हुए भगवान श्रीकृष्ण उद्धवजी से कहते हैं- “मन ने सबको अपने वश में किया है किंतु मन किसी के वश में नहीं रहता।

इन्द्रियों का स्वामी है मन

आप कहेंगे कि ‘इन्द्रियाँ मन पर नियंत्रण करेंगी।’ लेकिन वे इन्द्रियाँ भी मन के अधीन होती हैं। जब इन्द्रियों को स्वाधीन करके मन ही किसी विषय में एकाग्र होता है तब इन्द्रयों का सामर्थ्य सचमुच निष्फल हो जाता है। इन्द्रियाँ एवं विषय यदि एक हो जायें परंतु उस वक्त मन की वृत्ति बदल जाय तो उन विषयों का उपभोग नहीं हो पाता क्योंकि इन्द्रियों को उपभोग की स्फूर्ति ही नहीं मिलती। जब मन के धर्म आसक्तिरहति हो जाते हैं तब इन्द्रियों की अपनी इच्छा बिल्कुल नहीं चलती। मन महाबलवान है, उसके आगे बेचारी इन्द्रियाँ क्या !

मन को नियंत्रित करने की युक्ति

हे उद्धव ! जिस मन को सुगमता से काबू नहीं कर सकते, उसे नियंत्रित करने की युक्ति और उसका मर्म तुम्हें बताता हूँ, ध्यान देकर सुनो। जिस प्रकार हीरे से हीरा काटते हैं, उसी प्रकार मन से ही मन को काबू में करना चाहिए। लेकिन जब स्वयं श्री सदगुरु भगवान की कृपा होती है तभी यह हो सकता है। मन गुरु कृपा की क्रीतदासी (खरीदी गयी दासी) है। मन सदगुरु से सदा भयभीत रहता है। उसे गुरुचरणों में लगाने से ही साधकों को संतोष मिलता है।

इस मन का एक उत्तम गुण यह है कि यदि यह स्वयं परमार्थ की ओर लग जाय तो (सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य व सायुज्य-इन) चारों मुक्तियों को दासी बनाकर रखता है और परब्रह्म-परमात्मा का हस्तामलकवत् (हाथ पर रखे आँवले की तरह सुस्पष्ट एवं प्रत्यक्ष) अनुभव (साक्षात्कार) करा देता है।

मन ही मन का द्योतक (बोधक) है, मन ही मन का साधक है, मन ही मन का बाधक है और मन ही मन का घातक है। जिस प्रकार बाँस अपना जंगल बढाता है और एक बाँस दूसरे से रगड़ने पर जो चिन्गारी निकलती है उससे स्वयं ही अपने को जला डालता है, उसी प्रकार जब मन ही मन को मारने (नियंत्रित करने) की इच्छा करता है, तभी वह सदगुरु की शरण में ले जाता है और उनके वचनों में विश्वास रखकर अभिमानरहित हो के गुरु भजन करवाता है। सदगुरु की पूर्ण कृपा होने पर मन ही मन को (परमात्म-प्राप्ति का) लक्ष्य दिखाता है और अपने सुख से सुखी होकर खुद पर ही प्रसन्न होता है। जब मन ही मन पर प्रसन्न हो जाता है, तब वृत्ति अभिमानरहित हो जाती है, मानो मन स्वयं ही साधक को निज का समाधान (आत्मसंतोष) साध्य करा रहा हो। गुरुकृपा का प्रसाद मिलने पर स्वयं ही मनोजय की पताका (ध्वजा) फहराता है और साधक के हाथ में देता है।

इस प्रकार साधक का मन स्वयं ही अपनी विजय करा देता है और अंत में सदगुरु के आत्मज्ञान में स्वयं आत्मस्वरूप में पूर्णतः लीन हो जाता है। जिस प्रकार नमक का टुकड़ा समुद्र के जल में घुलकर स्वयं समुद्र हो जाता है, उसकी प्रकार साधक भी अभिमानरहित होते ही मैं-मेरा पन नष्ट कर स्वयं पूर्ण ब्रह्म हो जाता है, यह ध्यान में रखो। फिर उसकी आत्मदृष्टि की सारी सृष्टि में केवल एक मैं (परब्रह्म-परमात्मा) ही दिखाई देता हूँ। द्वन्द्व की त्रिपुटी नष्ट हो जाती है और सुख-दुःख का पीछा छूट जाता है। फिर कैसा सुख और कैसा दुःख ? कैसा बंधन और कैसा मोक्ष ? पंडित कौन और मूर्ख कौन ? सर्वत्र केवल एक ही ब्रह्म ही दिखाई देता है। फिर वहाँ कौन देवता और कौन भक्त ? कौन शांत और कौन अशांत ? द्वैत-अद्वैत विलीन हो जाता है और केवल एक परब्रह्म ही सदा आनंदस्वरूप से रहता है। वहाँ क्रिया और कर्म नष्ट हो जाते हैं, फिर वहाँ कनिष्ठ, उत्तम और मध्यम की क्या गति ? परिपूर्ण ब्रह्म ही सर्वत्र भर जाता है। फिर कैसे शास्त्र और कैसे वेद ? कैसी बुद्धि और कैसा बोध ? वहाँ तो भेद ही पूर्णतः नष्ट हो जाता है और परिपूर्ण परब्रह्म सर्वत्र समा जाता है।” देखो, इस प्रकार मनोजय से अपना इस स्थिति में पहुँचता है। यह स्वयं भगवान ने बताया है इसलिए इसमें कोई संदेह नहीं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 24-45 अंक 297

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महापुरुषों का दृष्टिकोण


शरीर की सार्थकता

एक दिन श्री रमण महर्षि के एक भक्त ने उन्हें आश्रमवासियों हेतु पत्तल बनाते हुए देखा। भक्त ने महर्षि से पूछाः “आप पत्तल बनाने का यह छोटा सा काम कर रहे हैं ! क्या यह समय का अपव्यय नहीं है ?”

महर्षि बोलेः “बेटे ! ऊँचा उद्देश्य सामने रखकर उचित मार्ग से कर्म करना यह समय का अपव्यय नहीं। आप अपने प्रत्येक कार्य से उपयुक्त (योग्य) बातें सीख सकते हैं। अब पत्तल बनाने का ही उदाहरण लो। जब जोड़े हुए पत्ते भूखे व्यक्तियों के भोजन के काम आते हैं तभी उनकी उपयोगिता समझ में आती है। भोजन के बाद वे केवल फेंकने के ही काम आते हैं। उसी तरह अगर हम अपने शरीर का उपयोग उन्नत जीवन जीने के लिए और जरूरतमंदों की मदद के लिए करते हैं तो ही इस शरीर की सार्थकता है। केवल अपने लिए जीने वाला स्वार्थी मनुष्य सौ साल तक भी जिया तो भी उसका वह जीवन निरर्थक ही है। जीना, खाना और बढ़ना – इतना करने वाले भेड़-बकरियों से अधिक वह कुछ नहीं होगा।”

हरेक दाने में है ईश्वर का हाथ !

एक दिन महर्षि को रसोईघर के आसपास चावल के दाने बिखरे हुए दिखे। उसी समय वे उन दानों को चुनने लगे। महर्षि के भक्तगण उनके आसपास इकट्ठे हो गये। ईश्वर के लिए सब कुछ छोड़ने वाले ऐसे महापुरुष को इतनी एकाग्रता के साथ चावल के कुछ दाने इकट्ठे करने में मग्न देखकर भक्त को कुछ जानने की जिज्ञासा हुई।

एक भक्त ने पूछाः “भगवन् ! रसोईघर में चावल की कितनी ही बोरियाँ पड़ी हैं। आप इन थोड़े दानों के लिए इतना कष्ट क्यों उठा रहे हैं ?”

महर्षि बोलेः “आपको ये केवल चावल के कुछ दाने ही दिखते हैं पर इनके अंदर क्या है यह देखने की कोशिश करो। खेत की जुताई करने वाले और बीज बोने वाले किसान का कठोर परिश्रम, समुद्र का पानी एवं सूरज की तपन, बादल और बारिश, शीतल हवाएँ और ऊष्मायुक्त सूर्य प्रकाश, नर्म जमीन और चावल के पौधे का जीवन-चैतन्य – यह सब कुछ उस दाने में आ गया है। यह बात आपने पूर्णरूप से समझ ली तो आपको हरेक दाने में ईश्वर का हाथ दिखेगा। अतः उसे आप अपने पैरों के नीचे न रौंदें। आपको उन्हें खाना नहीं है तो पक्षियों को खिला दो।”

पूज्य बापू जी के सत्संग में आता हैः “आप जो कौर खाते हैं वह प्रत्येक कौर किसी न किसी के मुँह से बचाकर, छीना-झपटी करके आप तक लाया गया होता है। जीव-जंतुओं और पक्षियों के मुँह से छीनकर अन्न आपकी रसोई तक पहुँचाया जाता है। अतः वस्तुओं का सदुपयोग करके कर्म को कर्मयोग बना लो।”

इस प्रकार श्री रमण महर्षि, साँईं श्री लीलाशाह जी महाराज, पूज्य बापू जी जैसे ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष हमें कितना उपयोगी, उद्योगी, सहयोगी और आनंदमय जीवन जीने की कला सिखा देते हैं !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 10 अंक 297

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नीच मनुष्यों का संग न करें !


साँईं श्री लीलाशाह जी की अमृतवाणी

जैसे धुआँ सफेद मकान को भी काला कर देता है, वैसे ही कुसंगी मनुष्य अच्छे मनुष्य को भी बिगाड़ देता है। ‘सत्संग तारता है, कुसंग डुबोता है।’ यह सच ही है। भँवरी एक कीड़े को लाकर अपने घर में बंद कर देती है। थोड़े दिनों के पश्चात कीड़ा उसके सदृश हो जाता है।

इसी प्रकार दुष्टों का संग है। उनका संग करने से मन मलिन होता है। नीच मनुष्यों के के संग को विषवत् समझें।

अशुभ विचारों का उदय न होने दें

आप ज्ञान के अंकुश से अशुभ विचारों को अपने हृदयरूपी मंदिन में आने ही न दो। यदि किसी प्रकार आपके मन में अशुभ विचार ने आकर वास किया तो बस, अपनी कुशल न समझना। इसका परिणाम यह निकलेगा कि वह आपसे अयोग्य, शैतानी कार्य करवा के आपका अपने बल से सर्वनाश कर देगा।

आपकी शुद्ध बुद्धि ही अशुभ विचार को झुकायेगी। आरम्भ से ही (अशुभ विचार को) उदय न होने दो।

अपने भीतर (मन में) काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि विकारों को बिठाकर उसमें परमात्मा को कैसे बैठा सकोगे ! मन को मंदिर बनाओ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 25 अंक 297

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