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कार्तिक मास के पुण्य-प्रभाव से गुणवती बनी भगवत्पत्नी


(कार्तिक मास व्रतः 5 अक्तूबर से 4 नवम्बर)

कार्तिक मास की बड़ी महिमा है। पद्म पुराण (उ. खं. 120,23) में भगवान महादेव जी कार्तिकेय जी से कहते हैं- न कार्तिकसमो मासः…… ‘कार्तिक के समान कोई मास नहीं है।’

एक बार भगवान श्रीकृष्ण की पत्नी सत्यभामा ने श्रीकृष्ण से पूछाः “प्राणनाथ ! मैंने पूर्वजन्म में कौनसा दान, तप अथवा व्रत किया था जिससे मैं मर्त्यलोक में जन्म लेकर भी मर्त्य भाव से ऊपर उठ गयी और मुझे आपकी प्रिय अर्धांगिनी होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ ?”

श्रीकृष्ण ने कहाः “प्रिये ! हरिद्वार में वेद-वेदांगों के पारंगत देवशर्मा नामक एक धर्मात्मा ब्राह्मण रहते थे। उन्होंने अपनी पुत्री गुणवती का विवाह अपने शिष्य चन्द्र से कर दिया। एक दिन वे गुरु-शिष्य समिधा (हवन हेतु लकड़ी) लाने वन में गये। वहाँ एक भयँकर राक्षस ने उन्हें मार डाला।

यह समाचार सुन गुणवती शोक से विलाप करने लगी। किसी तरह धीरे-धीरे उसने अपने को स्वस्थ किया। फिर वह सत्य, शौच (आंतर-बाह्य पवित्रता) आदि के पालन में तत्पर रहने लगी। उसने जीवनभर एकादशी और कार्तिक मास के व्रत का विधिपूर्वक पालन किया।

प्रिये ! ये दोनों व्रत मुझे बहुत प्रिये हैं। ये पुत्र और सम्पत्ति के दाता तथा भोग और मोक्ष प्रदान करने वाले हैं। धीरे-धीरे गुणवती की अवस्था अधिक होती गयी। उसके अंग शिथिल हो गये और ज्वर से भी पीड़ित रहने लगी लेकिन उसका गंगा-स्नान का नियम था। ऐसी अशक्तावस्था में भी वह किसी तरह स्नान के लिए गयी। ज्यों ही जल के भीतर उसने पैर रखा, त्यों ही शीत की पीड़ा से वह काँप उठी और वहीं पर गिर पड़ी तथा उसका शरीर छूट गया।

तभी मेरे पार्षद आये और विमान में बैठाकर चँवर डुलाते हुए उसे वैकुण्ठ ले गये। हे प्रिये ! कार्तिक-व्रत के पुण्य और भगवद्-भक्ति से ही उसे मेरा सान्निध्य मेरा प्राप्त हुआ।

हे देवी ! अब रहस्य की बात सुनो। देवताओं की प्रार्थना करने पर मैंने जब पृथ्वी पर अवतार धारण किया तो मेरे पार्षद भी मेरे साथ आये। तुम्हारे पिता देवशर्मा अब सत्राजित हुए हैं और तुम ही पूर्वजन्म की गुणवती हो। पूर्वजन्म में कार्तिक-व्रत के पुण्य से तुमने मेरी प्रसन्नता को बहुत बढ़ाया है। वहाँ तुमने मेरे मंदिर के द्वार पर जो तुलसी की वाटिका लगा रखी थी, इसी से तुम्हारे आँगन में आज देव-उद्यान का कल्पवृक्ष शोभा पा रहा है। पूर्वजन्म के कार्तिक मास के दीपदान से ही तुम्हारे घर में स्थिर लक्ष्मी और ऐश्वर्य प्रतिष्ठित है। तुमने अपने व्रत आदि सभी कर्मों को भगवान को निवेदित (समर्पित) किया था, उसी पुण्य से तुम मेरी अर्धांगिनी हुई हो। मृत्युपर्यंत तुमने जो कार्तिक-व्रत का अनुष्ठान किया, उसके प्रभाव से तुम्हारा मुझसे कभी वियोग नहीं होगा। इसी प्रकार अन्य जो भी स्त्री पुरुष कार्तिक व्रतपरायण होते हैं वे मेरे समीप आते हैं।”

कार्तिक मास में पालनीय नियम

कार्तिक मास में सूर्योदय से पूर्व स्नान करने का बड़ा महत्व है। सभी को सब पापों का निवारण करने के लिए कार्तिक-स्नान करना चाहिए। गृहस्थ पुरुष को तिल और आँवले का चूर्ण लगाकर स्नान करना चाहिए और संन्यासी को तुलसी के मूल की मिट्टी लगाकर स्नान करना चाहिए। (आँवला चूर्ण आश्रमों व समितियों के सेवाकेन्द्रों पर उपलब्ध है।) द्वितिया, सप्तमी, नवमी, दशमी, त्रयोदशी और अमावस्या को आँवला चूर्ण तथा तिल के द्वारा स्नान निषिद्ध है।

कार्तिक में तुलसी-पौधे के रोपण का बड़ा महत्त्व है। निम्नलिखित मंत्र से तुलसी की प्रदक्षिणा और नमस्कार करना चाहिएः

देवैस्त्वं निर्मिता पूर्वमर्चितासि मुनीश्वरैः।

नमो नमस्ते तुलसि पापं हर हरप्रिये।।

‘हे हरिप्रिया तुलसीदेवी ! पूर्वकाल में देवताओं ने आपको उत्पन्न किया और मुनीश्वरों ने आपकी पूजा की। आपको बार-बार नमस्कार है। आप मेरे पापों को हर लें।

अन्नदान, गायों को ग्रास देना, भगवद्भक्तों का संग करना तथा दीपदान करना-ये कार्तिक-व्रती के मुख्य कर्म हैं। कार्तिक-व्रत करने वाला निंदा का सर्वथा परित्याग कर दे। इस मास में किया गया सत्कर्मानुष्ठान अक्षय फलदायी होता है।

इस मास में दीपदान करने से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और महान श्री, सौभाग्य और सम्पत्ति की प्राप्ति होती है।

कार्तिक मास में भगवन्नाम-कीर्तन नित्य करना चाहिए। इस मास में गीता-पाठ के पुण्य की महिमा बताने की शक्ति मुझमें नहीं है ऐसा ब्रह्मा जी ने कहा  है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 12-13 अंक 297

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इसके बिना उन्नति हो ही नहीं सकती


संयम वह साधना है जिससे शक्तिरूपी सिद्धि सुलभ है। संयम शक्ति का कोष है। आत्मसंयम से ही सर्वत्र विजय मिलती है। जो मन-इन्द्रियों पर पूर्ण संयम रखता है, विद्वानों ने उसे ही विश्वविजयी वीर कहा है। जो सदगुरु एवं सत्शास्त्रों के आज्ञापालन में तत्पर है, उसी को अपने ऊपर अधिकार प्राप्त होता है। असंयमी व्यक्ति भय, चिंता, तृष्णा, क्रोध से प्रायः अशांत ही रहता है। उसकी बुद्धि स्थिर नहीं होती। व्यर्थ चेष्टा के त्याग से, स्थिर आसन से शरीर संयमी होता है। रसना (जिह्वा) को संयम में रखने से स्वाद की दासता (गुलामी) नहीं रहती। रसना के द्वारा जो वस्तु बार-बार सेवन की जाती है उसी का व्यसन पड़ जाता है, फिर छूटना कठिन होता है। व्यसनी व्यक्ति का मन भगवान के चिंतन में लगेगा ही नहीं।

जिस प्रकार रसना में स्वाद-आसक्ति दृढ़ हो जाती है, उसी प्रकार यदि अधिक बात करने की आदत बढ़ा ली जाती है अथवा किसी अनावश्यक वाक्य को वार्तालाप के बीच में बार-बार दोहराया जाता है तो उसका भी  अभ्यास हो जाता है। जो मितभाषी है वही मननशील होता है, वही शांत पद प्राप्त करता है। हमें ऐसे लोगों से मिलते हुए संकोच करना चाहिए जो अधिक वार्ता करते हुए प्रसन्न होते हैं।

असत्य बोलना, दूसरों की निंदा करना, कठोर वाक्य बोलना, व्यर्थ वार्ता करना और अपनी प्रशंसा करना – पाँच पाप वाणी के हैं।

हमें  वाणी का कहीं दुरुपयोग नहीं करना चाहिए। जिसने अधिक बोलने की आदत डाल ली है उसे तो मौन रहकर वाणी को संयम में रखने का अभ्यास आवश्यक है।

संयमी पुरुष तो संक्षेप में प्रश्न करने के लिए या फिर प्रश्न का उत्तर देने के लिए वाणी का प्रयोग करते हैं, अनावश्यक बोलने में शक्ति का दुरुपयोग नहीं करते।

जिह्वा और उपस्थ (जननेंद्रिय) का संयम अनिवार्य है। इनके संयम बिना शक्ति की गति अधोमुखी रहती है, उन्नति हो ही नहीं सकती। इन दो इन्द्रियों का संयम सध जाने पर दृष्टि को भी संयम में रखना आवश्यक होता है।

आँख कान मुख ढाँपि कै1, नाम निरञ्जन लेय।

भीतर के पट तब खुलें, जब बाहर के पट देय2।।

  1. आँख, कान, मुख आदि इन्द्रियों को बाह्य विषयों की ओर जाने से रोककर अंतर्मुख हो के. 2. बंद करे।

अतः हमको शक्ति एवं सरलता के लिए सर्वांग-संयमी होना चाहिए। आज्ञाचक्र में ॐकार या सदगुरु का ध्यान करने से पाँचों इन्द्रियों को संयत करने में तेजी से मदद मिलती है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 17 अंक 297

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इन्द्रियों से भी ब्रह्मरस पिला दें ऐसे माधुर्य-अवतार


पूज्य  बापू जी

(शरद् पूर्णिमाः 5 अक्तूबर 2017)

शरद् पूर्णिमा की रात्रि का विशेष महत्त्व है। माना जाता है कि इस रात्रि को चन्द्रमा अपनी पूर्ण कलाओं के साथ पृथ्वी पर शीतलता, पोषक शक्ति एवं शांतिरूपी अमृतवर्षा करता है। इससे चित्त को शांति मिलती है और पित्त का प्रकोप भी शांत होता है। मनुष्य को चाहिए कि वह इस महत्त्वपूर्ण रात्रि की चाँदनी का सेवन करे। महर्षि वेदव्यास जी ने ‘श्रीमद्भागवत’ के दसवें स्कन्ध में शरद् पूर्णिमा की रात्रि को अपनी पूर्ण कलाओं के साथ धरती पर अवतरित परब्रह्म श्रीकृष्ण के महारासोत्सव की रात्रि कहा है। शरद पूर्णिमा की रात्रि को चन्द्रमा की शीतलतारूपी अमृतवर्षा की तरह भगवान श्रीकृष्ण ने भी अपनी रासलीला में धरती पर भक्तिरस छलकाया था। इस रासलीला में हजारों धनभागी गोपियों ने योगेश्वर श्री कृष्ण के सान्निध्य में भक्तिरस की प्यालियाँ पीकर अपने जीवन को धन्य किया था।

हम लोग जो चित्रों आदि में श्रीकृष्ण के इर्द-गिर्द गोपियों को देखते हैं, नृत्य देखते हैं, वह तो श्री कृष्ण की महिमा का बिल्कुल बाह्य रूप है। वास्तव में तत्त्वरूप से तो श्रीकृष्ण परात्पर ब्रह्म हैं, सच्चिदानंद ब्रह्म हैं।  विकारी मनुष्य को श्री कृष्ण की रासलीला विकाररूप दिखे तो यह उसकी दुर्मति है। बोलते हैं, ‘चीर-हरण लीला में भगवान ने गोपियों के कपड़े हर लिये….।’ इसका अर्थ भी आता है कि जब गुरु की कृपा होती है तब हृदय का आवरण भंग होता है, पर्दा हटता है और तब जीवात्मा-परमात्मा की मुलाकात होती है। श्रीकृष्ण ने चीर-हरण लीला की अर्थात् गोपियों के हृदय का आवरण भंग किया। अपना सच्चिदानंद स्वभाव तो अंतरात्मा होकर बैठा था और जीव बेचारा उसे इधर-उधर ढूँढ रहा था। वह अज्ञान का आवरण हटा, इसका नाम है चीर-हरण।

‘गो’ माना इन्द्रियाँ। इन्द्रियों के द्वारा जो भगवद्-रस पी ले वह ‘गोपी’। जो आँखों से भी भगवान के प्रेमरस को पीते हैं, बंसी से भी उनके प्रेमरस का पान करते हैं, भगवान को छूकर जो हवा आती है, भगवान को छू के जो भगवद्-तत्त्व को स्पर्श की हुई आह्लादिनी, मधुमय सुगंध आती है, उसका भी जो रसपान करते हैं – ऐसे इन्द्रियों के द्वारा भगवान के आनंद रस को पीने की क्षमतावाले जीव हैं ‘गोपी’।

गोपियों के बीच में कृष्ण रास करते, सबकी तरफ तिरछी नज़र से देखते। सौ-सौ गोपियों का एक-एक घेरा और उसमें श्रीकृष्ण। प्रत्येक को लगे कि ‘मेरी ओर देख रहे हैं।’ फिर श्रीकृष्ण ने संकल्प किया और रास का दूसरा रूप हुआ तो दो गोपियों के बीच एक कृष्ण थे। फिर रासलीला में यह एहसास हुआ कि एक-एक गोपी के साथ एक-एक कृष्ण हैं।

जैसे नरकासुर के वध के बाद सोलह हजार कन्याओं के साथ विवाह के लिए श्रीकृष्ण सोलह हजार बन गये थे और सोलह हजार गर्गाचार्य बना दिये थे, ऐसा ही शरद पूनम की रात को हुआ। स्थूल दृष्टि से देखा जाय तो श्रीकृष्ण ने जितनी गोपियाँ थीं उतने रूप धारण कर लिये थे। जैसे आप एक व्यक्ति होते हुए भी स्वप्न में अनेक व्यक्तियों का रूप धारण कर लेते हैं। आज का कलियुग का आदमी स्वप्न में एक में से अनेक बनता है कि नहीं ? बनता है। ऐसे ही जो सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के मूल हैं, वे सच्चिदानंद परमात्मा अंतःकरण में एक में से अनेक बनाकर दिखाते हैं। बाहर की सृष्टि में भी यह लीला माधुर्य-अवतार का प्रसाद है ! विषय-विकारों और इन्द्रियों के सुखों में जो लोग फँस रहे हैं उनको भी ब्रह्मसुख की झलकें मिलें इसलिए यह अवतार की लीला थी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 20 अंक 297

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