आपकी सबसे बड़ी कमजोरी

आपकी सबसे बड़ी कमजोरी


पूज्यपाद संत श्री आशारामजी बापू

आज के दौर में मनुष्य श्रद्धा रखने के पूर्व, श्रद्धावान बनने के पूर्व तर्क पहले रखता है। हर बात में अपनी बुद्धि की बुद्धिमानी दर्शाना चाहता है लेकिन ऐसी बुद्धिमानी किस काम की जो आपको बुद्धिदाता से ही दूर रखे ? यह भी कैसा संयोग है कि आप स्वयं को बुद्धिमान मानते हैं फिर भी दुःखी, चिन्तित, भयभीत और शोकातुर हैं। जब आप सचमुच बुद्धिमान हैं तो ये सारी परेशानियाँ क्यों ? कोई बुद्धिमान भी हो और अज्ञानवश दुःख भी उठाये यह कैसे संभव है ?

दरअसल, यह आपकी सबसे प्रमुख कमजोरी है कि आप अपने-आपको बुद्धिमान मानकर दुःख झेल रहे हैं। दुःखों की निवृत्ति के लिए सिर्फ आपका बुद्धिमान होना ही पर्याप्त नहीं है। आपके पास जो बुद्धि है उससे ज्ञानवानों के वचनों को समझने से, उन्हें जीवन में उतारने से, उनमें श्रद्धा रखने से ही सच्ची शांति मिलेगी। श्रद्धा के सामने कोई तर्क मायना नहीं रखता। कितने ही लोगों का यह सवाल होता है किः “हम ईश्वरपरायण नहीं हुए, सत्संग-सेवा का लाभ नहीं लिया तो क्या घाटा पड़ जाएगा ? करोड़ों लोगों की तरह हम भी ऐसे ही खायें, पियें और जियें तो क्या फर्क पड़ेगा ?”

इस तरह के सवाल  आपके मन-मस्तिष्क में विषयों, सुख-सुविधा और जगत के प्रति गहरे आकर्षण के प्रभाव को दर्शाते हैं। ईश्वरपरायण होने के पीछे भी आपका दगेबाज मन लाभ हानि खोजता है, यह कितने अफसोस की बात है ! सही है…. यदि आप ईश्वरपरायण नहीं हुए तो किसे क्या फर्क पड़ेगा ? न तो इससे ईश्वर आपसे नाराज होंगे और न ही आपको किसी दण्ड का भागीदार बनना पड़ेगा। मगर आपको जो कुछ सहना होगा, वह किसी दण्ड से कम नहीं होगा। ईश्वर को छोड़कर जगतपरायण होना ही समस्त दुःखों का घर है। ईश्वर का सहारा त्यागकर नश्वर संसार का सहारा लेना, यही तो दुःखों का मूल है। जहाँ अशान्ति है, वहाँ से शान्ति कैसे मिलेगी ?

ईश्वरपरायण होने का अर्थ है हृदय में परमात्मशांति का प्राकट्य। भैया ! ईश्वरपरायण नहीं होने के पीछे कारण यही है कि आप संसार की तपन में इतने झुलसे हैं कि आपको शांति के शीतल स्रोत में तपन शांत करने की उत्कंठा भी नहीं रही। आप उस स्रोत को ही भूल गये। यदि आप ईश्वरपरायण हैं तो संसार भी आपको सुखदायी लगेगा क्योंकि आप संसार में रहेंगे, संसार के संबंधों में उलझने के लिए नहीं वरन् जिससे सच्चा संबंध है उससे संबंध प्रगाढ़ करके सत्य स्वरूप की अनुभूति करने के लिए।

मगर धोखबाज मन आपको हमेशा तर्क-कुतर्क के सहारे उलझाये रखता है। ईश्वरपरायण न होने से विषयों का चिंतन होगा और विषयों का चिन्तन विष से भी अधिक खतरनाक है, हानिकारक है क्योंकि विषपान से मनुष्य एक बार मरता है परन्तु विषयों के चिन्तन से तो वह हर क्षण, हर पल, हर दिन मरता ही रहता है। विषयों के चिन्तन से कामना उठेगी और वह पूरी होगी तो आसक्ति होगी। कामना पूरी नहीं होगी तो क्रोध आयेगा। क्रोध होगा तो बुद्धि का नाश होगा। बुद्धि का नाश हुआ तो सर्वनाश हुआ। यह बुद्धि के नाश का ही तो परिणाम है कि जहाँ आपको श्रीहरि के सहारे उन्नत होना है वहाँ आप तर्क-कुतर्क लड़ाकर अशांति बढ़ाते रहते हैं। मन में अशान्ति से ही क्रोध होता है।

स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में यही बात कही हैः

ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते।

संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधाभिजायते।।

क्रोधाद् भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।

स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।

ʹविषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से अत्यन्त मूढ़भाव उत्पन्न हो जाता है। मूढ़भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है। स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात् ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है।ʹ भगवद् गीताः 2.62.63

जो भगवान का चिन्तन नहीं करेगा उसको संसार का चिन्तन होगा। संसार का चिन्तन क्या है ? राग-द्वेष की अग्नि, अहंकार का सर्जन, विषयों में गहरी प्रीति, जन्म-मृत्यु का लगातार जारी रहना। ब्रह्मचिन्तन करने वाला थोड़े ही जन्म-मृत्यु जरा व्याधि की चक्की में पिसता है ! जो आदमी विषय विकारों में फँसा रहता है उसकी बुद्धि दबी रहती है। ईश्वर को पीठ दिखाना ही पतन की शुरुआत है।

जिसने सत्संग और सेवा का लाभ नहीं लिया, इसका महत्त्व नहीं समझा वह सचमुच अभागा है। आत्मवेत्ताओं का सत्संग तो मनुष्य के उद्धार का सेतु है। सत्संग माने सत्यस्वरूप परमात्मा में विश्रान्ति। जिसके जीवन में सत्संग नहीं होगा, वह कुसंग तो जरूर करेगा और एक बार कुसंग मिल गया तो समझ लो तबाही ही तबाही, लेकिन अगर सत्संग मिल गया तो आपकी 21-21 पीढ़ियाँ निहाल हो जाएँगी। हजारों यज्ञों, तपों, दानों से भी आधी घड़ी का सत्संग श्रेष्ठ माना गया है क्योंकि सदगुरु का सत्संग-सान्निध्य जीव को जीवपद से शिवपद में  आरूढ़ करता है। इतना ही नहीं, सत्संग से आपके जीवन को सही दिशा मिलती है, मन में शान्ति, बुद्धि में बुद्धिदाता का ज्ञान छलकता है।

सत्संग की आधी घड़ी, सुमिरन वर्ष पचास…..

आदमी कितना भी छोटा हो, कितना भी गरीब हो, कितना भी असहाय हो मगर उसे सत्संग मिल जाये तो वह इतना महान बन सकता है कि उसकी महिमा कोई नहीं बतला सकता। जो सुख, सत्ता मिलने से और जो भोग, स्वर्ग मिलने से भी नहीं मिलता, वह सत्संग से सहज ही प्राप्त हो जाता है। सत्संग से आत्मशान्ति, परमात्मसुख की प्राप्ति होती है। यह वह सत्संग है जो हमें राग-द्वेष की अग्नि से, अहंकार सजाने की आदत से, विषयों में आसक्ति से बचाकर अंततोगत्वा जन्म-मृत्यु के बंधन से भी विनिर्मुक्त कर नारायण पद में विश्रान्ति दिला देता है। तुलसीदास जी ने कहा हैः

एक घड़ी आधी घड़ी आधी में पुनि आध।

तुलसी संगत साध की हरे कोटि अपराध।।

जीवन में जितना-जितना सेवा का महत्त्व समझ में आयेगा उतना-उतना कल्याण होता जायेगा। विवेकानन्द कहा करते थेः “भगवान ने दरिद्रों को जन्म देकर तुम्हें सेवा का अवसर दिया है। उऩकी सेवा करके उन पर कोई एहसान नहीं करते हो।”

अंतःकरण की शुद्धि का, अहंकार से मुक्ति का सीधा सरल उपाय है कि आप निःस्वार्थभाव से सेवा में जुट जाइये। जो समझदार है व कहीं-न-कहीं से सेवा का अवसर ढूँढकर अपना काम बना लेते हैं।

आपने यदि सत्संग-सेवा का लाभ नहीं लिया तो कोई खास घाटा नहीं पड़ेगा। बस, सत्संग से वंचित रहे तो मनुष्य जन्म का महत्त्व नहीं समझ पायेंगे और सेवा से वंचित रहे तो जन्म-जन्मान्तर से आपके मन में ʹमेरे-तेरेʹ का जो मैल जमा है उसे कभी धो नहीं पायेंगे। आप  भी करोड़ों लोगों की तरह दुःखी, चिन्तित रहेंगे। सब कुछ होते हुए भी आप सुख के लिए हाथ फैलाते रहेंगे। जो मन में आया वह खाया-पिया, जैसे चाहा वैसे जिया तो जीवन मुसीबतों का घर बन जायेगा। आज यही तो हो रहा है। जीवन से श्रद्धा और संयम उठ गया तो मानव घोर अशान्त हो गया। जब तक संयम नहीं होगा, तब तक कष्ट सहना पड़ेगा।

इसलिए कृपानाथ ! ऐसे बेबुनियादी प्रश्नों, तर्कों-कुतर्कों में अपने मत को मत उलझाइये। यदि हजारों-लाखों लोग आज ईश्वरपरायण होकर, सत्संग-सेवा का महत्त्व समझकर, जीने का ढंग सीखकर अपने जीवन को सफल कर रहे हैं तो आप क्यों व्यर्थ को मान्यताओं में जकड़कर दुःखी, चिन्तित हैं ? आप भी उन महापुरुषों का परम प्रसाद पाकर अपने जीवन को महकाइये। हे प्रेमस्वरूप ! हे आनन्दस्वरूप ! हे सुखस्वरूप मानव ! सुख, प्रेम और आनंद के लिए अपने को क्यों बाहर भटका रहा है, झुलसा रहा है…. खपा रहा है…. तपा रहा है ? ठहर…. रूक जा। अपने आपको देखने की कला किन्हीं ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों से सीख ताकि पता चले कि तू कितना मधुर है… तु कितना प्यारा है… तू कितना सुखस्वरूप महान् आत्मा है….!

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 1997, पृष्ठ संख्या 20,21,22 अंक 53

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