Monthly Archives: April 2018

सौंदर्य, शक्ति और कर्मण्यता के पीछे कौन है ?


यह सौंदर्य या शोभा, चेष्टा, सजीवता और उत्साह क्या वस्तु है ? क्या वह आँख, कान या नाक के कारण है ? नहीं, नेत्र-कान इत्यादि में तो वह प्रकट होती ह। सुंदरता, शोभा आपके भीतर के परमेश्वर से मिलती है, और किसी दूसरी चीज से नहीं। वह चेतनता है। चेतनता, उद्योगशक्ति या गति जिसके कारण है ? देखिये, आप मार्ग चल सकते हो, ढालू पहाड़ों पर चढ़ सकते हो, जहाँ चाहो जा सकते हो किंतु देहपात होने पर क्या हो जाता है ? प्राणांत होने पर चेतनना और उद्योगशक्ति, आपके भीतर का वह ईश्वर, जो आपको ऐसी-ऐसी ऊँचाइयों पर उठा ले जा सकता था, जो पहले आपकी सहायता किया करता था वैसी अब नहीं करता। तो फिर इस शरीर के अंदर कौन है जिसके कारण नसें डोलती हैं, बाल बढ़ते हैं, नाड़ियों में रक्त का संचार होता है ? शरीर के अंगों को यह सब चाल, शक्ति, फुर्ति देने वाला कौन है ? वह एक विश्वव्यापी शक्ति है, एक ‘विश्वेश्वर’ है जो वस्तुतः आप ही हो, वह ‘आत्मा’ है।

जब कोई मनुष्य मर जाता है तब कुछ आदमियों को उसे उठाकर श्मशान ले जाना पड़ता है। और जब वह जीवित था तब वह कौन चीज थी जो उसका मनों भारी बोझ बड़ी-बड़ी ऊँचाइयों पर, ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों पर उठा ले जाती थी ? वह कोई अदृश्य, अवर्णनीय वस्तु है परंतु है अवश्य। वह आपके अंदर आत्मदेव है, वही हर एक शरीर में परमात्मा है और वही परमेश्वर हर एक वस्तु को शक्ति और कर्मण्यता प्रदान करता है। प्रत्येक व्यक्ति की गति और चेष्टा में शोभा का कारण भी वही परमेश्वर। जब कोई मनुष्य सोया होता है तब उसके नेत्र नहीं देखते, कान नहीं सुनते। जब मनुष्य मर जाता है तब भी उसके नेत्र जहाँ-के-तहाँ रहते हैं पर वह देखता नहीं, उसके कान ज्यों-के-त्यों रहते हैं पर वह सुनता नहीं। क्यों ? क्योंकि भीतर का वह ईश्वर या वह आत्मदेव अब उसी तरह सहायता नहीं करता जैसे पहले करता था। वह भीतर का ईश्वर ही है जो नेत्रों द्वारा देखता है, कानों को सुनवाता है, नाक को सूँघने की शक्ति देता है और सब रगों का शक्तिदाता भी वह भीतरी ईश्वर-परमात्मा ही है। अंतर्गत (अंदर छिपा हुआ) ईश्वर ही समस्त बाह्य शोभा एवं सौंदर्य का सारांश तत्त्व है, इसे याद रखो। आपके सामने कौन है ? जब आप किसी व्यक्ति की ओर देखते हैं तब आपसे नज़र कौन मिलाता है ? वही भीतर का ईश्वर ! बाहरी नेत्र, त्वचा, कान इत्यादि साधनमात्र हैं। वे केवल बाहरी वस्त्र हैं, और कुछ नहीं।

इस दुनिया में जब लोग पदार्थों को प्यार और उनकी इच्छा करने लगते हैं, तब सच्चिदानंद की अपेक्षा पोशाक को, वस्त्र को अधिक प्यार करने लगते हैं, जिस पोशाक के द्वारा वह सच्चिदानंद चमकता है। इस प्रकार वे सच्चिदानंद के सत्य, मूल और तत्त्व की अपेक्षा वस्त्रों, बाह्य रूपों व आकारों को अधिक प्यार और पूजा करते हैं। इसी से लोग दुःख उठाते हैं और इस गलती के कुफल भोगते हैं। यह तथ्य है। इससे ऊपर उठो। प्रत्येक पत्नी और पति को एक दूसरे में परमेश्वर को देखने का यत्न करना चाहिए। भीतरी ईश्वर को देखो, भीतर के ईश्वर की पूजा करो।

हर एक वस्तु आपके लिए ईश्वर बन जानी चाहिए। नरक का खुला द्वार होने के बदले स्त्री को पति के लिए दर्पण के समान होना चाहिए, जिसमें वह परमेश्वर के दर्शन कर सके। पति को भी नरक का खुला द्वार होने के बदले स्त्री के लिए दर्पण के समान होना चाहिए, जिसमें वह भी परमेश्वर को देख सके।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2018, पृष्ठ संख्या 20,22 अंक 304

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भगवान से क्या माँगें ?


-भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाह जी महाराज

एक विद्यार्थी ने मेरे पास आकर कहाः “स्वामी जी ! आप कह रहे थे कि ‘ईश्वर हमसे अलग नहीं हैं।’ जब वे अलग नहीं हैं तो फिर माँगें किससे व क्या माँगें ?”

मैंने कहाः “अच्छा प्रश्न पूछा है।”

इस समय हमारे देश में रजोगुण बढ़ गया है। देश की दुर्गति हो रही है। विद्यार्थी व अन्य लोग संस्कारों से दूर होते जा रहे हैं। रिश्तेदार व अध्यापक भी धर्म से विमुख हो रहे हैं। ऐसे समय में विद्यार्थी ऐसा प्रश्न पूछे यह अच्छी बात है।

मैंने उससे कहा कि “यह बात समझ में आये तथा दिमाग में बैठे इसके लिए आवश्यक है कि सत्संग करो। अच्छे कर्म करो तथा कर्तव्य का पालन करो। हम क्या हैं वह समझें। हम ये स्थूल व सूक्ष्म शरीर नहीं हैं। जब स्वयं को ईश्वर का अविभाज्य स्वरूप मानते हैं, तब जीवन्मुक्ति माँगते हैं। जीवन्मुक्ति क्या है ? सदैव आनंद में रहना। अपना-अपना कर्तव्य निभा के स्वयं को पहचान कर जीवन्मुक्त बनें।

यह बात आम नहीं है। हममें जीवन्मुक्ति प्राप्त करने के लक्षण होने चाहिए। राजा वह जिसके पास सेना हो, खजाना हो। इनके बिना शाह होना नामुमकिन है। हममें भी विवेक, वैराग्य, षट्सम्पत्ति आदि गुण नहीं हैं तो जीवन्मुक्त कैसे होंगे ?”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2018, पृष्ठ संख्या 19 अंक 304

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अंत न होय कोई आपणा….


बड़वानी (म.प्र.) रियासत के खजूरी गाँव में संवत् 1576 में एक बालक का जन्म हुआ, जिसका नाम रखा गया सिंगा जी। पिता भीमा और माँ गौराबाई ने बचपन से ही अपने पुत्र को भगवद्भक्ति के संस्कार दिये। 21-22 साल की उम्र में सिंगा जी भामगढ़ (पूर्वी निमाड़) के राज के यहाँ वेतन पर चिट्ठी पत्री ले जाने का काम करने लगे। पूर्व जन्म के पुण्य कहो या माता-पिता के संस्कार कहो, बाल्यावस्था से ही सिंगाजी का मन संसार की ओर से विरक्त हो गया था।

एक बार सिंगाजी घोड़े पर सवार हो कर कहीं  जा रहे थे। रास्ते में संत मनरंगगीर जी के श्रीमुख से निकले वचन कानों में पड़ेः

समुझी लेओ ले मना भाई,

अंत न होये कोई आपणा।1

यही माया के फंदे में तर2 आन3 भुलाणा।।

1 अंत समय अपना कोई साथ नहीं निभाता 2 उलझ के 3 निज आत्मस्वरूप की महिमा

बचपन में फूटा वैराग्यरूपी अंकुर यौवन में पनप उठा। अंत न होय कोई आपणा…. संत वचन हृदय की गहराई में चोट कर गये।

हृदय में चोट का अनुभव हर व्यक्ति जीवन में करता है। किसी को किसी की गाली चोट कर जाती है, किसी को किसी की मृत्यु चोट कर जाती है तो किसी को दूसके के द्वारा किया गया अपमान चोट कर जाता है। चोटें तो सबके जीवन में आती हैं किंतु जो चोट खाकर द्वेष या वैर वृत्ति के बहाव में बहते जाते हैं वे दुःख, अशांति की खाई में गिर जाते हैं और जो ईश्वर या सदगुरु की शरण चले जाते हैं वे सुख-दुःख, मान-अपमान की बड़ी से बड़ी चोटों में भी अप्रभावित अपने अचल आत्मस्वरूप में जागने के रास्ते चल पड़ते हैं।

सिंगा जी संत चरणों में गिर पड़े…

“महाराज ! आपने कहा, अंत न होय कोई आपणा… दूसरा कोई अपना नहीं है तो आप तो हमारे हैं न ! आप ही मेरे हो जाइये न !”

नवयुवक की वाणी से प्रेम टपक रहा था और संत की दृष्टि से करूणा… मनरंगगीर जी ने सिंगा जी को दीक्षा दी।

सिंगाजी ने नौकरी छोड़ी, राजा के पास जाना भी छोड़ दिया। सोचने लगे, जगतपालक प्रभु की सृष्टि में दो वक्त की रोटी के लिए गुलामी क्यों करना ? विश्वनियंता को कब तक पीठ देना ? अब तो मैं गुरुकृपा से भीतर का रस और ज्ञान पाकर ही रहूँगा, जो होगा देखा जायेगा।’

राजा ने आकर वेतनवृद्धि का प्रलोभन दिया पर सिंगा जी ने आँख खोलकर भी न देखा। अब जगत की सुध-बुध ही न रहती। वे पीपल्या में आकर रहने लगे। परमात्मप्राप्ति की तीव्र उत्कंठा ने गुरुहृदय को छलका दिया। नाम-रूप का भ्रम टूट गया, शाश्वत चैतन्य स्वभाव रह गया।

सिंगाजी की कई रचनाएँ हैं। उनका कहना है कि हृदय में सच्चा प्रेम होना चाहिए, परमात्मा को बाहर खोजने की जरूरत नहीं है।

जल विच कमल, कमल विच कलियाँ,

जहँ बासुदेव अबिनासी।

घट में गंगा, घट में जमुना, वहीं द्वारका कासी।।

घर बस्तू बाहर क्यों ढूँढो, बन-बन फिरा उदासी।

कहै जन सिंगा, सुनो भाई साधो, अमरपुरा के बासी।।

पीपल्या गाँव में संवत् 1616 में सिंगा जी ने समाधि ली। वहाँ उनकी स्मृति में प्रतिवर्ष विशाल ‘सिंगा जी का मेला’ लगता है। आज भी लोग उनके भजनों को गाकर आनंदित होते हैं। कैसी महिमा है संतों, सदगुरुओं के वचनों व कृपा की ‘

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2018, पृष्ठ संख्या 17 अंक 304

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