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सनातन धर्म


ज्ञान-प्रेम-माधुर्य का महासागर

पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

दुनिया के हर प्राचीन धर्म ने, दुनिया के हर सुलझे हुए संप्रदाय और कई प्रबुद्ध महापुरुषों ने और राजा-महाराजाओं ने जिसका सहर्ष स्वीकार किया और अनुभूतियाँ की हैं, सारी पृथ्वी पर, अतल, वितल, महातल, रसातल, स्वर्गलोक, भूर्लोक, भूवर्लोक, जनलोक, तपलोक पर जिसका साम्राज्य छाया हुआ है वह सार्वभौम ब्रह्माण्डव्यापी धर्म है सनातन धर्म।

भिन्न-भिन्न देश, काल और परिस्थिति के अनुसार पृथक-पृथक धर्म बने हैं किन्तु सनातन धर्म सम्पूर्ण मानव जाति के विकास का मार्ग प्रशस्त करता है। सनातन सत्य रूप धर्म जीवमात्र के भीतर, हर दिल में धड़कनें ले रहा है। सनातन सत्य हर दिल में छुपी हुई परमात्मा की वह सुषुप्त शक्ति है जिसके जागृत होने से मनुष्य का सर्वांगीण विकास होता है, पूर्ण आत्मिक विकास होता है। जितने अंश में मानव सनातन सत्य के निकट होता है, उतने अंश में उसका जीवन मधुर होता है। जितने अंश में उसका सनातन सत्य से संबंध जुड़ता है, जितने अंश में अपनी सुषुप्त शक्तियाँ सनातन चेतना से प्राप्त करता है, उतने अंश में वह अपने-अपने क्षेत्र में उन्नत होता है। यह एक हकीकत है कि जितना-जितना मनुष्य देह को सत्य मानकर संकीर्ण कल्पनाएँ रचता है, उतना-उतना सच्चे सुख से दूर होता जाता है। आज का मनुष्य शरीर के भोगों में बड़े-बड़े सुख-सुविधा से संपन्न महलों में रहने में, भौतिक ऐश आरामों में रचे-पचे रहने में ही सच्चा सुख मान बैठा है और उसे ही प्राप्त करने में अपना सारा समय बरबाद कर देता है। फलस्वरूप वह अपने आत्मा परमात्मा के ज्ञान से वंचित ही रह जाता है।

भागवत के प्रसंग में आता है कि रहुगण राजा, राज-पाट का सुख भोगते-भोगते विचार करते हैं- ʹजिस देह को जला देना है, उस देह को आज तक तो बहुत भोगों में रमाया लेकिन ज्यों ही मृत्यु का एक झटका आयेगा तो सब कुछ पराया हो जायेगा। मृत्यु आकर सब छीन ले उसके पहले उस सनातन शान्ति से मुलाकात कर लें तो अच्छा रहेगा।ʹ

जहाँ में उसने बड़ी बात कर ली।

जिसने अपने दिलबर से मुलाकात कर ली।।

सनातन धर्म हमें अपने वास्तविक स्वरूप अर्थात् स्व-स्वरूप को प्रकट करने की आज्ञा देता है। हमारा आदि धर्म हमें सिखाता है कि पंचभूतों का बना शरीर ʹहमʹ नहीं हैं। वास्तव में हम स्वयं ब्रह्म हैं, जो सृष्टि का कर्त्ता और धर्त्ता है। ʹमैं और तुमʹ- ऐसे भेद हमने बनाये हैं। वास्तव में हम अभेद ब्रह्म हैं। सारा जगत ब्रह्मस्वरूप ही है। माया के पाश में बँधे हुए एक दूसरे को हिन्दू, मुसलमान, सिख आदि मानते हैं और संकीर्ण विचारधाराओं में बहने लगते हैं। दुःख, अशान्ति, झगड़े, चिन्ता आदि में हम उलझते गये हैं, वरना सनातन धर्म एकोहम् द्वितीयो नास्ति। हम सभी एक हैं, भिन्न नहीं हैं… यह दिव्य सन्देश विश्व को दे रहा है और यही तो सनातन सत्य भी है। इस सनातन सत्यरूपी व्यापक दृष्टिकोण का प्रभाव समाज पर जितने अंश में होता है, उतने ही अंश में स्नेह, आनंद, भाईचारा, दया, करूणा, अहिंसा आदि दैवी गुणों से समाज संपन्न होता है। इस सत्य के साथ अपना नाता जोड़ना ही व्यावहारिक एवं आध्यात्मिक जगत में प्रगति का मूलमंत्र है, मधुर जीवन की कुँजी है। फिर चाहे रमण महर्षि हों, साँई टेऊँराम हों, याज्ञवाल्क्य हों चाहे रामावतार या कृष्णावतार हो चाहे कोई राजनैतिक जगत में सेवा करने वाला हो।

ऐसा नहीं कि उन्होंने जो पाया है, वह हम नहीं पा सकते। हममें भी वही योग्यता है। सिर्फ ठीक मार्गदर्शन से सही पथ पर लगने की आवश्यकता है। स्वामी रामतीर्थ अपने दिलबर से मुलाकात करके ऐसे छलके कि सनातन धर्म के अमृत को बाँटते-बाँटते वे अमेरिका पहुँचे। उस समय (सन् 1899-1901) अमेरिका के राष्ट्रपति रूझवेल्ट ने स्वामी रामतीर्थ की उदारता को अखबारों द्वारा सुना और उससे वे इतने प्रभावित हुए कि स्वयं चलकर रामतीर्थ के दर्शन करने गये। अखबार वालों को स्वामी रामतीर्थ के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा थाः

“मैंने आज तक सुना था कि जीसस सनातन सत्य के अमृत को पाये हुए थे लेकिन भारत के इस साधु को तो अमृत बाँटते देखा। मेरा जीवन सफल हो गया।”

आज हम अपने जीवन में सनातन सत्य के अमृत को पाने की आकांक्षा नहीं रखते इसलिए हम सुविधाओं के बीच पैदा होते हैं, पलते हैं फिर भी जिंदगी भर परेशान ही रहते हैं और आखिर मर जाते हैं, जीवन व्यर्थ गँवा देते हैं।

धन, सौन्दर्य से हम सुन्दर नहीं होते वरन् सुन्दर से भी सुंदर आत्मस्वरूप के करीब पहुँचने पर हम सुंदर होते हैं। जितने हम भीतर के धन से खोखले या कंगाल होते हैं उतनी बाह्य भोग-पदार्थों की गुलामी करनी पड़ती है क्योंकि सुख इन्सान की जरूरत है। जब तक हमें आत्मिक आनंद नहीं मिलता तब तक हम विषय-वासना में सुख ढूँढते हैं किन्तु दुःख-परेशानी के अलावा कुछ हाथ नहीं लगता। इससे विपरीत, जितने हम भीतर के धन से संपन्न होते हैं, आत्मसुख से तृप्त होते हैं उतना हम बाह्य भोग-पदार्थों की ओर से बेपरवाह होते हैं।

अष्टावक्र के शरीर में आठ कमियाँ थीं। छोटा कद, टेढ़ी टाँगें थीं और उम्र 12 वर्ष थी। फिर भी संसार से विरक्त होकर सरकने वाली चीजों से, देह और मन के निर्णयों, आकर्षणों से पार होकर मुक्तिपद प्राप्त किये हुए थे तो राजा जनक उनके चरणों में प्रणाम करके उनके आगे प्रश्न करते हैं- “भगवन ! आत्मसुख कैसे प्राप्त होता है ?”

सनातन सत्य के सुख को पाने की चाह हर मनुष्य में होती है परन्तु सच्ची दिशा न मिलने पर वह संसारसुख में भटक जाता है। मिथ्या जगत के नश्वर सुख में सत्यबुद्धि करके हम क्षणिक सुख प्राप्त करने में लगे रहते हैं फिर चाहे कितने ही विघ्न क्यों न आएँ ? पैसे कमाने के लिए न जाने क्या-क्या करना पड़ता है ? यदि धन बहुत हो तो शरीर में रोग घुसा होता है, किसी के घर में पुत्र नहीं है तो किसी के माँ-बाप अकस्मात चल बसते हैं। जीवन है तो कुछ न कुछ आफतें आती ही रहती हैं। अरे ! भगवान स्वयं जब श्रीरामचन्द्र जी तथा श्रीकृष्ण के रूप में पृथ्वी पर अवतरित हुए तब उन्हें भी विघ्न-बाधाएँ आयी थीं किन्तु फर्क है तो इतना कि हम जब विघ्न-बाधाएँ आती हैं तो उनमें बहकर हताश-निराश हो जाते हैं जबकि संत-महापुरुष, सत्य-स्वरूप ईश्वर के साथ अपना सनातन संबंध जोड़े हुए होते हैं जिससे वे लेशमात्र भी विघ्न-बाधाओं में बहते नहीं हैं। वे निराश या हताश बिल्कुल नहीं होते वरन् मुसीबतें उनके जीवन को चमकाने, प्रसिद्धि दिलाने एवं पूजनीय बनने का कारण बन जाती हैं। भगवान श्रीरामचन्द्रजी को 14 साल का वनवास मिला था। भगवान श्रीकृष्ण का जन्म ही काल-कोठरी में हुआ था। महीने भर के थे पूतना जहर पिलाने आ गयी थी। कंस मामा ने लगातार कई षडयंत्र रचे। फिर भी श्रीकृष्ण और रामजी सदैव अपने सनातन सत्य स्वरूप में प्रतिष्ठित रहे, मुस्कराते रहे।

यही तो है जीव को अपने आत्मस्वरूप में जगाने का सनातन धर्म का उद्देश्य।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2012, पृष्ठ संख्या 7,8, 15 अंक 48

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पूर्ण जीवन के तीन सूत्र


प्रशान्ति-निर्भयता-ब्रह्मचर्यव्रत

पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

नानक जी ने कहा हैः

पूरा प्रभु आराधिया पूरा जा का नाँव।

नानक पूरा पाइया, पूरे के गुन गाँव।।

जब तक पूरे प्रभु का ज्ञान नहीं मिलता, पूरे प्रभु की आराधना नहीं होती, ʹपूरे प्रभु के साथ अपना नित्य संबंध हैʹ ऐसा अनुभव नहीं होता तब तक अपूर्ण प्रकृति में, अपूर्ण परिस्थिति में, अपूर्ण वस्तुओं में, अपूर्ण देश में, अपूर्ण काल में जीव बेचारा अपूर्ण-सा ही रह जाता है।

कितनी ऊँची बात कह दी है नानक जी ने !

पूरा प्रभु आराधिया……

कोई मुहल्ले का नेता होता है तो कोई गाँव का होता है, कोई तहसील का नेता होता है तो कोई जिले का नेता होता है, कोई प्रांत का नेता होता है तो कोई देश भर का नेता होता है लेकिन जो अनंत ब्रह्माण्डों का आधार है उसको आराधें तो अनंत ब्रह्माण्डनायक का सुख मिल जायेगा, कल्याण हो जायेगा। यह सत्य है कि आप यदि पूरे के गुण गायेंगे तो पूरे का ज्ञान पायेंगे। पूरे का चिन्तन करेंगे तो हमारा मन भी पूर्ण सुखी, आनंदित होगा और पूर्ण उपलब्धि करेगा।

आप ध्यान रखें कि जब प्रकृति पूर्ण नहीं है तो प्रकृति की चीजें पूर्ण सुख कैसे दे सकती हैं ? प्रकृति में जो प्राप्त किया है वह पूर्ण कैसे हो सकता है ? प्रधानमंत्री का पद मिल जाये चाहे राष्ट्रपति हो जायें फिर भी भय तो बना ही रहता है। अरे ! चाहे इन्द्र का पद मिल जाये फिर भी खटका तो बना ही रहेगा क्योंकि ये सब छूटने वाले हैं, अपूर्ण हैं।

पूरे की आराधना करनी हो तो क्या करना चाहिए ? किस तरीके से आम आदमी उस पूरे प्रभु की आराधना करे ? इसके लिए भगवान कहते हैं-

प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः।

मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः।।

ʹजिसका अन्तःकरण शांत है, जो भयरहित है और जो ब्रह्मचर्यव्रत में स्थित है, ऐसा सावधान योगी मन का संयम करके, मुझमें चित्त लगाता हुआ, मेरे परायण होकर स्थित होवे।ʹ (गीताः 6.14)

भगवान जब ʹमेरे परायण होʹ या ʹमुझे पा लेʹ – ऐसा बोलते हैं तब यह नहीं समझना चाहिए कि अर्जन के रथ पर बैठे हुए श्रीकृष्ण को पा लें। उन श्रीकृष्ण को तो शकुनि और दुर्योधन ने कई बार देखा था  लेकिन इससे क्या ? ʹमुझको पा लेʹ का तात्पर्य यह समझना चाहिए कि जहाँ से तुम्हारा ʹमैंʹ उठता है उसमें विश्रान्ति पाने का, उसको अपना स्वरूप जानने का इशारा भगवान कर रहे हैं। वही पूर्ण है।

जैसे घटाकाश महाकाश से अभिन्न है, बिन्दु सिन्धु से अभिन्न है, लहर सागर से अभिन्न है ऐसे ही जीवात्मा परब्रह्म परमात्मा से अभिन्न है। उस परब्रह्म परमात्मा की जो आराधना करता है, ज्ञान पाकर चिंतन मनन करता है, वह उसीमय हो जाता है। उसी पूर्ण में पूर्णाकार हो जाता है।

यहाँ पर तीन बातें आयी हैं- प्रशान्तात्मा। विगत भीः। ब्रह्मचारिव्रते स्थितः। अर्थात् प्रशान्ति, निर्भयता और ब्रह्मचर्यव्रत। इस प्रकार बुद्धि, मन और शरीर को ध्यान के योग्य, पूरे प्रभु को पाने के योग्य बनाने की व्यवस्था का वर्णन किया है भगवान ने।

अशान्ति क्यों होती है ? राग-द्वेष से। राग-द्वेष मिटने पर शांति स्वतः प्रगट होने लगती है। अरे ! प्रकट क्या होगी ? आपका मूल स्वरूप शांति ही तो है। राग-द्वेष होता क्यों है ? जगत की वस्तुओं से सुख लेने की बेवकूफी से। राग-द्वेष से अन्तःकरण मलिन होता है और मलिन अन्तःकरण में अशान्ति होती है। राग-द्वेष जितना कम होता जायेगा, उतना अंतःकरण शुद्ध होता जायेगा और जितनी राग-द्वेष कम, जितना अंतःकरण शुद्ध, उतना वह प्रशान्तचित्त होता जायेगा और जितनी शांति उतना सामर्थ्य, उतनी योग्यताएँ निखरती जायेंगी।

दूसरी बात है ब्रह्मचर्यव्रत में स्थिति। ब्रह्मचारी का अर्थ यह नहीं कि जो लंगोटी लगाकर बैठा है या जिसने शादी नहीं की है। ऐसे अविवाहित तो कई होते हैं किन्तु सच्चा ब्रह्मचारी तो कोई विरला ही होता है। ब्रह्मचारी का व्रत क्या है ? पाँच विषयों से आकर्षित न होकर, अपने गुरुकुल में विद्याध्ययन करने के लिए तीन गुण और भी ले आता है, मान, बड़ाई और शरीर के आराम से अपने को बचाना।

ब्रह्मचारी देखता तो है लेकिन फिल्म आदि देखकर विषयों का मजा नहीं लेता बल्कि अपनी पुस्तकों को पढ़ता है, अपने सेवाकार्य को देखता है। सुनता है तो ज्ञान पाने के विषयों को ही सुनता है, फालतू का नहीं सुनता। खाता है तो शरीर को क्रियाशील रखने के लिए, ऐश करने के लिए गुरुकुल में नहीं खाता। सूँघता है तो भगवान का प्रसाद-फूल सूँघता है, परफ्यूम आदि के चक्कर में नहीं पड़ता।

शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध – ये पाँच विषय हैं। इनमें ब्रह्मचारी फँसता नहीं है अपितु पाँचों इन्द्रियों को संयत करके अपने को विद्याध्ययन के योग्य बनाता है। गुरुकुल में वह मान की इच्छा भी नहीं रखता, बड़ाई की इच्छा भी नहीं रखता और आराम-पसंदगी भी नहीं रखता तभी वह ब्रह्मचारी कहलाता है। जो पूरे प्रभु को पाना चाहता है उसे भी ब्रह्मचर्य के व्रत में स्थित होना चाहिए।

ब्रह्मचर्य व्रत में स्थित होने वाले व्यक्ति को पूरे प्रभु को पाने में सुगमता होती है और पूरे प्रभु को पाने के बाद अपूर्ण वस्तु का कोई आकर्षण या कोई भय नहीं रहता है।

कभी न छूटे पिण्ड दुःखों से।

जिसे ब्रह्म का ज्ञान नहीं।।

जब तक पूरे की आराधना नहीं की तब तक चाहे कैसा भी शरीर बन जाये लेकिन कोई-न-कोई दुःख, मुसीबत और मौत तो पीछे लगी ही रहेगी। साधक को चाहिए कि प्रभु की आराधना करते वक्त, ध्यान, भजन करते मन इधर-उधर चला जाये, भूतकाल की घटना या भविष्य की कल्पना में चला जाये तो उस समय ऊँचे स्वर से भगवान का नामोच्चारण शुरु कर दे अथवा गहरे श्वासोच्छवास ले और मन से कहेः “ऐ मेरे मन ! भूतकाल तो बीत गया, अब वह वापस आने वाला नहीं है। उसका क्या चिंतन करता है ? भविष्य भी अपने सामने नहीं है तो भविष्य की कल्पना क्या करना ? अभी तो वर्त्तमान में अपना काम कर। जैसे –विद्यार्थी वर्त्तमान की (जिसकी परीक्षा देनी है उसकी) पुस्तकें पढ़ता है ऐसे ही अभी तो हमें परमात्मा को पाने के लिए ध्यान करना है, परमात्मशांति में शांत होना है। परमात्मा के माधुर्य में मधुर होना है। क्यों तू इधर-उधर जाता है ? रे मन !”

थोड़ी देर मन शांत हो न हो, फिर इधर-उधर भटकेगा। पुनः उसे नाम जप में लगाने का प्रयास करें। जैसे विद्यार्थी का मन इधर-उधर जाता है फिर भी वह उसे प्रयत्नपूर्वक पाठ्य-पुस्तकों में लगाता है वैसे ही भगवद्-ध्यान, भगवद्-भजन के समय मन इधर-उधर जाये तो उसे भी प्रयत्नपूर्वक परमात्मा में लगाना चाहिए। बार-बार अनात्मा से हटाकर मन को आत्मा में लगाना चाहिए। यदि मन भूत-भविष्य में जाता हो तो ध्यान-योग का अभ्यास करने वाले साधकों को सावधान रहना चाहिए।

मन पर निगरानी रखने के साथ ही साथ व्यवहार पर नियंत्रण होना भी अति आवश्यक है। कई लोग ध्यान-भजन तो करते हैं किन्तु जो आया सो खा लिया, जो आया सो बोल दिया, जैसा जी में आया वैसा कर लिया…. नहीं, अपने ध्यान-भजन क समय का ख्याल करके व्यवहार करके व्यवहार करना चाहिए और व्यवहार काल में भी चित्त अशुद्ध न हो इसका ध्यान रखना चाहिए। जो इस प्रकार व्यवहार काल में भी अपने चित्त की शुद्धि का ख्याल रखता है उसका चित्त भगवान में जल्दी लगता है। शरीर एवं वस्तुओं को ʹमैं-मेराʹ मानने से भय होता है कि ʹवस्तुएँ चली न जाये….ʹ लेकिन ये शरीररूपी बुलबुले तो हजारों-लाखों बार मिले और मिट गये। इनका भय न रखें। ʹजो हो गया देख लिया, जो हो रहा है देख रहे हैं और जो होगा देखा जायेगा…. ऐ मेरे मन ! अभी तो तू भगवान के चिंतन में लग।ʹ इस प्रकार भगवान के चिंतन में लगने से अंतःकरण चैतन्य के आनंद से, चैतन्य के माधुर्य से, चैतन्य के ज्ञान से और चैतन्य की शांति से सराबोर हो उठेगा।

दो प्रकार की माताएँ होती हैं- एक निषेधायुक्ति से समझाती हैं और दूसरी विधियुक्ति से समझाती है। बालक खिलौने का आम चूसता है तो एक माँ उस खिलौने का आम छुड़ाने के लिए डाँटती है। डाँट से डरकर बालक आम तो छोड़ देता है लेकिन मन से आम का आकर्षण नहीं छूटता। जैसे ही माँ चली जाती है, बालक धीरे-से खिलौने का आम चूसने लग जाता है। दूसरी माँ असली आम को धोकर उसका थोड़ा सा रस उसे चटा देती है, आम चूसने के लिए दे देती है। जब बालक को असली आम का स्वाद आ जाता है तो वह खिलौने का आम अपने-आप छोड़ देता है।

ʹयह नहीं करो… वह नहीं करो…. ऐसा करोगे तो पाप होगा… नरकों में जाओगे…ʹ ऐसा करके समझाने… की रीति है निषेध युक्ति। कोई महापुरुष मिल जायें और ध्यान-भजन कराते-कराते, भगवदरस का स्वाद चखा दें तो हमारा मनरूपी बच्चा भगवान के स्वाद में लग जाता है। यह है विधि युक्ति। जब असली आम का स्वाद आ जाये तो खिलौने के आम को कोई कब तक चाटेगा ? ऐसे ही जब ध्यान-भजन करके असली भक्ति का सुख मिल गया तो फिर विकारी सुखों में मन जायेगा नहीं…. और कभी –कभार पुरानी आदत से गया भी तो सावधान हो जायेगा।

सुन्दर सदगुरु है सही, सुंदर शिक्षा दीन्ह।

सुंदर वचन सुनाय के, सुंदर सुंदर कीन्ह।।

सदगुरु का जो अनुभव है वह सुन्दर है। सत्य स्वरूप ईश्वर का अनुभव करने वाले जो महापुरुष हैं, उनके वचन सुन्दर हैं।

अतः अपने परम सौंदर्य परमात्मस्वरूप को पाने के लिए शांत बनो। ब्रह्मचर्य का आश्रय लेकर परम निर्भय बनो परमात्म-प्राप्ति की बाजी तुम्हारे हाथ में है।

दृढ़ता से चलो। लड़खड़ाते दीन-हीन होकर मजदूर की नाईं संसार का बोझा नहीं उठाओ वरन् अपने आत्मवैभव को पाओ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2012, पृष्ठ संख्या 11,12,13 अंक 48

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मौत के मुख से सकुशल वापसी


आज तक तो साधकों के मुख से सुना ही था कि श्रीआसारामायण का पाठ करने वाले साधकों की रक्षा स्वयं पूज्य श्री ही करते हैं परन्तु गत दिनों मेरे जीवन में भी ऐसा प्रसंग आया कि उन अनुभवसंपन्न साधकों में मैं भी शरीक हो गया। घटना 17 सितम्बर 1996 की है। मैं दिल्ली से करीब 1.30 बजे दिन को हरियाणा रोडवेज की बस से जयपुर के लिए रवाना हुआ। जैसे ही बस दिल्ली से बाहर निकली, मैंने श्री आसारामायण का पाठ आरंभ किया लेकिन कितनी ही बार पाठ बीच-बीच में खण्डित होने लगा। एक ओर जैसे कोई मुझे पाठ करने में विघ्न पैदा कर रहा था तो मानों दूसरी और कोई मुझसे पाठ सतत कराने की प्रेरणाशक्ति का संचार कर रहा था। यह सब क्या हो रहा था ? मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था। जैसे ही पाठ पूर्ण हुआ, मैं निश्चिन्त हो खिड़की के सहारे टिककर सोने की कोशिश कर रहा था कि यकायक मैं जिस ओर बैठा था उस ओर की सभी खिड़कियों के शीशे टूटने शुरु हो गये और बस जो कि 60-70 कि.मी. की गति से भाग रही थी, संतुलन बिगड़ जाने से सड़क के नीचे उतर गई और लगा कि बस अब पलटने वाली ही है। बस में कोहराम मच गया। सभी यात्रियों ने अपनी जान बचाने के लिए अगली सीट के पाईप पकड़ रखे थे। बस के असंतुलन की दशा को देख ऐसा लग रहा था, जैसे सभी मौत के मुख में प्रवेश कर चुके हैं।

यद्यपि बस में सर्वत्र जोर-जोर से चीखें आ रही थीं, किन्तु मेरे मुख से स्वाभाविक ही ʹगुरुदेव… गुरुदेव….ʹ निकलने लग गया। मानो मेरे भीतर से कोई इस संकट की घड़ी से उबारने के लिए गुरुदेव को पुकार रहा था। मैंने देखा कि सामने एक बबूल का बड़ा पेड़ है और बस उससे टकराकर चकनाचूर होने ही वाली है। मैंने आँखें बन्द कर लीं और हृदयपूर्वक पूज्यश्री को पुनः पुकारा। बस, फिर तो मानो चमत्कार हो गया ! श्री आसारामायण की इन पावन पंक्तियों का प्रत्यक्ष अनुभव हो गया।

सभी शिष्य रक्षा पाते हैं।

सूक्ष्म शरीर गुरु आते हैं।।

धर्म कामार्थ मोक्ष वे पाते।

आपद रोगों से बच जाते।।

मैं क्या देखता हूँ कि बस उसी क्षण बबूल के पेड़ के पास खड्डे में धंस जाने से रुक गई और मुझे तो क्या, बस में सवार किसी भी यात्री का बाल भी बाँका नहीं हुआ। सभी यात्रियों को पूज्यश्री की असीम अनुकंपा से एक नया जीवन मिल गया। मुझे आज पता चला कि किस तरह हृदयपूर्वक पुकारने से गुरुदेव सूक्ष्म शरीर से आकर शिष्यों की तो क्या, सभी की रक्षा करते हैं। हम भले ही गुरुदेव को शिष्य-अशिष्य की परिधि में अपनी मानवीय बुद्धि से बाँधें लेकिन वे तो पूरे विश्व के गुरु हैं। सचमुच, पूरी मानव जाति पूज्यश्री को पाकर कृतार्थ हो चुकी है।

महेन्द्रपाल गौरी, डिप्टी मैनेजर एच.एम.टी.लि. अजमेर (राजस्थान)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 1996, पृष्ठ संख्या 20, अंक 48

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