सनातन धर्म

सनातन धर्म


ज्ञान-प्रेम-माधुर्य का महासागर

पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

दुनिया के हर प्राचीन धर्म ने, दुनिया के हर सुलझे हुए संप्रदाय और कई प्रबुद्ध महापुरुषों ने और राजा-महाराजाओं ने जिसका सहर्ष स्वीकार किया और अनुभूतियाँ की हैं, सारी पृथ्वी पर, अतल, वितल, महातल, रसातल, स्वर्गलोक, भूर्लोक, भूवर्लोक, जनलोक, तपलोक पर जिसका साम्राज्य छाया हुआ है वह सार्वभौम ब्रह्माण्डव्यापी धर्म है सनातन धर्म।

भिन्न-भिन्न देश, काल और परिस्थिति के अनुसार पृथक-पृथक धर्म बने हैं किन्तु सनातन धर्म सम्पूर्ण मानव जाति के विकास का मार्ग प्रशस्त करता है। सनातन सत्य रूप धर्म जीवमात्र के भीतर, हर दिल में धड़कनें ले रहा है। सनातन सत्य हर दिल में छुपी हुई परमात्मा की वह सुषुप्त शक्ति है जिसके जागृत होने से मनुष्य का सर्वांगीण विकास होता है, पूर्ण आत्मिक विकास होता है। जितने अंश में मानव सनातन सत्य के निकट होता है, उतने अंश में उसका जीवन मधुर होता है। जितने अंश में उसका सनातन सत्य से संबंध जुड़ता है, जितने अंश में अपनी सुषुप्त शक्तियाँ सनातन चेतना से प्राप्त करता है, उतने अंश में वह अपने-अपने क्षेत्र में उन्नत होता है। यह एक हकीकत है कि जितना-जितना मनुष्य देह को सत्य मानकर संकीर्ण कल्पनाएँ रचता है, उतना-उतना सच्चे सुख से दूर होता जाता है। आज का मनुष्य शरीर के भोगों में बड़े-बड़े सुख-सुविधा से संपन्न महलों में रहने में, भौतिक ऐश आरामों में रचे-पचे रहने में ही सच्चा सुख मान बैठा है और उसे ही प्राप्त करने में अपना सारा समय बरबाद कर देता है। फलस्वरूप वह अपने आत्मा परमात्मा के ज्ञान से वंचित ही रह जाता है।

भागवत के प्रसंग में आता है कि रहुगण राजा, राज-पाट का सुख भोगते-भोगते विचार करते हैं- ʹजिस देह को जला देना है, उस देह को आज तक तो बहुत भोगों में रमाया लेकिन ज्यों ही मृत्यु का एक झटका आयेगा तो सब कुछ पराया हो जायेगा। मृत्यु आकर सब छीन ले उसके पहले उस सनातन शान्ति से मुलाकात कर लें तो अच्छा रहेगा।ʹ

जहाँ में उसने बड़ी बात कर ली।

जिसने अपने दिलबर से मुलाकात कर ली।।

सनातन धर्म हमें अपने वास्तविक स्वरूप अर्थात् स्व-स्वरूप को प्रकट करने की आज्ञा देता है। हमारा आदि धर्म हमें सिखाता है कि पंचभूतों का बना शरीर ʹहमʹ नहीं हैं। वास्तव में हम स्वयं ब्रह्म हैं, जो सृष्टि का कर्त्ता और धर्त्ता है। ʹमैं और तुमʹ- ऐसे भेद हमने बनाये हैं। वास्तव में हम अभेद ब्रह्म हैं। सारा जगत ब्रह्मस्वरूप ही है। माया के पाश में बँधे हुए एक दूसरे को हिन्दू, मुसलमान, सिख आदि मानते हैं और संकीर्ण विचारधाराओं में बहने लगते हैं। दुःख, अशान्ति, झगड़े, चिन्ता आदि में हम उलझते गये हैं, वरना सनातन धर्म एकोहम् द्वितीयो नास्ति। हम सभी एक हैं, भिन्न नहीं हैं… यह दिव्य सन्देश विश्व को दे रहा है और यही तो सनातन सत्य भी है। इस सनातन सत्यरूपी व्यापक दृष्टिकोण का प्रभाव समाज पर जितने अंश में होता है, उतने ही अंश में स्नेह, आनंद, भाईचारा, दया, करूणा, अहिंसा आदि दैवी गुणों से समाज संपन्न होता है। इस सत्य के साथ अपना नाता जोड़ना ही व्यावहारिक एवं आध्यात्मिक जगत में प्रगति का मूलमंत्र है, मधुर जीवन की कुँजी है। फिर चाहे रमण महर्षि हों, साँई टेऊँराम हों, याज्ञवाल्क्य हों चाहे रामावतार या कृष्णावतार हो चाहे कोई राजनैतिक जगत में सेवा करने वाला हो।

ऐसा नहीं कि उन्होंने जो पाया है, वह हम नहीं पा सकते। हममें भी वही योग्यता है। सिर्फ ठीक मार्गदर्शन से सही पथ पर लगने की आवश्यकता है। स्वामी रामतीर्थ अपने दिलबर से मुलाकात करके ऐसे छलके कि सनातन धर्म के अमृत को बाँटते-बाँटते वे अमेरिका पहुँचे। उस समय (सन् 1899-1901) अमेरिका के राष्ट्रपति रूझवेल्ट ने स्वामी रामतीर्थ की उदारता को अखबारों द्वारा सुना और उससे वे इतने प्रभावित हुए कि स्वयं चलकर रामतीर्थ के दर्शन करने गये। अखबार वालों को स्वामी रामतीर्थ के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा थाः

“मैंने आज तक सुना था कि जीसस सनातन सत्य के अमृत को पाये हुए थे लेकिन भारत के इस साधु को तो अमृत बाँटते देखा। मेरा जीवन सफल हो गया।”

आज हम अपने जीवन में सनातन सत्य के अमृत को पाने की आकांक्षा नहीं रखते इसलिए हम सुविधाओं के बीच पैदा होते हैं, पलते हैं फिर भी जिंदगी भर परेशान ही रहते हैं और आखिर मर जाते हैं, जीवन व्यर्थ गँवा देते हैं।

धन, सौन्दर्य से हम सुन्दर नहीं होते वरन् सुन्दर से भी सुंदर आत्मस्वरूप के करीब पहुँचने पर हम सुंदर होते हैं। जितने हम भीतर के धन से खोखले या कंगाल होते हैं उतनी बाह्य भोग-पदार्थों की गुलामी करनी पड़ती है क्योंकि सुख इन्सान की जरूरत है। जब तक हमें आत्मिक आनंद नहीं मिलता तब तक हम विषय-वासना में सुख ढूँढते हैं किन्तु दुःख-परेशानी के अलावा कुछ हाथ नहीं लगता। इससे विपरीत, जितने हम भीतर के धन से संपन्न होते हैं, आत्मसुख से तृप्त होते हैं उतना हम बाह्य भोग-पदार्थों की ओर से बेपरवाह होते हैं।

अष्टावक्र के शरीर में आठ कमियाँ थीं। छोटा कद, टेढ़ी टाँगें थीं और उम्र 12 वर्ष थी। फिर भी संसार से विरक्त होकर सरकने वाली चीजों से, देह और मन के निर्णयों, आकर्षणों से पार होकर मुक्तिपद प्राप्त किये हुए थे तो राजा जनक उनके चरणों में प्रणाम करके उनके आगे प्रश्न करते हैं- “भगवन ! आत्मसुख कैसे प्राप्त होता है ?”

सनातन सत्य के सुख को पाने की चाह हर मनुष्य में होती है परन्तु सच्ची दिशा न मिलने पर वह संसारसुख में भटक जाता है। मिथ्या जगत के नश्वर सुख में सत्यबुद्धि करके हम क्षणिक सुख प्राप्त करने में लगे रहते हैं फिर चाहे कितने ही विघ्न क्यों न आएँ ? पैसे कमाने के लिए न जाने क्या-क्या करना पड़ता है ? यदि धन बहुत हो तो शरीर में रोग घुसा होता है, किसी के घर में पुत्र नहीं है तो किसी के माँ-बाप अकस्मात चल बसते हैं। जीवन है तो कुछ न कुछ आफतें आती ही रहती हैं। अरे ! भगवान स्वयं जब श्रीरामचन्द्र जी तथा श्रीकृष्ण के रूप में पृथ्वी पर अवतरित हुए तब उन्हें भी विघ्न-बाधाएँ आयी थीं किन्तु फर्क है तो इतना कि हम जब विघ्न-बाधाएँ आती हैं तो उनमें बहकर हताश-निराश हो जाते हैं जबकि संत-महापुरुष, सत्य-स्वरूप ईश्वर के साथ अपना सनातन संबंध जोड़े हुए होते हैं जिससे वे लेशमात्र भी विघ्न-बाधाओं में बहते नहीं हैं। वे निराश या हताश बिल्कुल नहीं होते वरन् मुसीबतें उनके जीवन को चमकाने, प्रसिद्धि दिलाने एवं पूजनीय बनने का कारण बन जाती हैं। भगवान श्रीरामचन्द्रजी को 14 साल का वनवास मिला था। भगवान श्रीकृष्ण का जन्म ही काल-कोठरी में हुआ था। महीने भर के थे पूतना जहर पिलाने आ गयी थी। कंस मामा ने लगातार कई षडयंत्र रचे। फिर भी श्रीकृष्ण और रामजी सदैव अपने सनातन सत्य स्वरूप में प्रतिष्ठित रहे, मुस्कराते रहे।

यही तो है जीव को अपने आत्मस्वरूप में जगाने का सनातन धर्म का उद्देश्य।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2012, पृष्ठ संख्या 7,8, 15 अंक 48

ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *