असीम ईश्वरीय सुख की प्राप्ति

असीम ईश्वरीय सुख की प्राप्ति


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

तन सुकाय पिंजर कियो धरे रैन दिन ध्यान।

तुलसी मिटे न वासना बिना विचारे ज्ञान।।

तप करना, तन को सुखाना, तितिक्षा सहना, इनसे परमात्मप्राप्ति नहीं होती। तप से शक्ति तो प्राप्त होती है और पुण्य से उत्कृष्ट भोग प्राप्त होते हैं किन्तु अमरत्व की, परमात्मप्रेम की प्राप्ति नहीं होती और जब तक परमात्मप्रेम की प्राप्ति नहीं होती तब तक मन स्थिर नहीं होता। इसलिए परमात्म-प्राप्ति की दिशा में मन की स्थिरता प्रमुख सोपान है।

देवर्षि नारद गये सनकादि ऋषियों के पास और उनसे प्रार्थना करते हुए बोलेः

“हे भगवन् ! लोगों की नजर में तो मैं बहुत बड़ा साधु हूँ, तीनों लोकों में मेरी अबाध गति है, ʹनारायण-नारायण….ʹ करते हुए कहीं भी पहुँच जाता हूँ लेकिन जहाँ जाना चाहिए, जिसे पाना चाहिए, जिसे पाकर फिर हर्ष-शोक नहीं होता उस परमात्मप्रेम का, उस मुक्ति का अनुभव नहीं हो रहा है। सामान्य आदमी को तीन ताप सताते हैं किन्तु मुझे चार ताप सता रहे हैं।”

अपने दोष को खोजकर निकालें, उसका नाम संत है और दूसरों पर दोष आरोपित करे वह साधारण जीव है।

देवर्षि नारद आगे कहते हैं- “हे ऋषिवर ! सामान्य आदमी को तो आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक ये तीन ताप सताते हैं किन्तु मुझे तो चार ताप सता रहे हैं। चार वेद, छः दर्शन, धनुर्वेद, स्थापत्य वेद आदि चार उपवेद – ये सारी विद्याएँ जानता हूँ, तंत्र मंत्रादि भी जानता हूँ किन्तु जिसको जानने के बाद और कुछ जानना शेष नहीं रहता, जिसमें स्थिर होने के बाद बड़े भारी दुःख से भी आदमी चलायमान नहीं होता उस निर्दुःख पद का, उस आत्मानुभव का आनंद अभी तक नहीं मिला। मुझे अभी तक हर्ष-शोक व्याप्त है। भगवन् ! मेरे हृदय की बात तो मैं ही जानता हूँ। लोग बिचारे क्या जानेंगे ?”

अपना साक्षी आप है निज मन माहिं विचार।

नारायण जो खोट है उसको तुरत निकाल।।

जो कमियाँ हैं, उन्हें ढूँढकर निकालने लग जाओ तो तुरंत कल्याण हो जाये।

देवर्षि नारद की विनययुक्त प्रार्थना सुनकर सनकादि ऋषियों ने कहाः यो वै भूमा तत् सुखम्। उस भूमा, व्यापक ब्रह्म परमात्मा को ज्यों-का-त्यों जान। आकृतियों में जो देवी-देवता हैं, वे सब अच्छे हैं लेकिन ये सारी आकृतियाँ जहाँ से प्रकट होती हैं, जिसकी सत्ता से बोलती हैं और जिसमें विलय हो जाती हैं, उस भूमा ईश्वर को जानोगे, तब पूर्ण सुखी हो जाओगे।”

तब सनकादि ऋषियों के तत्त्वज्ञान के उपदेश से नारदजी हर्ष-शोक से परे उस भूमा तत्त्व में स्थित हुए।

यो वै भूमा तत् सुखम्। वास्तव में पूर्णता ही सत्य है। सबमें वही एक चैतन्य तत्त्व विराजमान है। उस एकत्व के अज्ञान से ही राग, द्वेष, अभिनिवेश, भय, शोक आदि पैदा होते हैं। सारे दुःखों की सृष्टि होती है। कलह, विद्रोह आदि सब उस एक के अज्ञान से ही उत्पन्न होते हैं। कबीर जी ने ठीक ही कहा हैः

एक साधे सब सधे, सब साधे सब जाये।

बहुत कुछ साध लिया, बहुत कुछ पा लिया लेकिन उस एक को छोड़कर पाया है तो वह सब टिकेगा नहीं और पूर्ण विश्रान्ति भी नहीं देगा। नरसिंह मेहता ने भी कहाः

ज्यां लगी आत्मतत्त्व चीन्यो नहि।

त्यां लगी साधना सर्व झूठी।।

अतः हमें चाहिए कि उसी एक को पाने के प्रयत्न में लगें और यह तभी संभव होगा जब हम अपने दोषों को, अपनी दुर्बलताओं को जानकर उसे उखाड़ फेंकने के लिए कटिबद्ध हो जायें।

दुर्बलता, कमजोरी दो प्रकार की हैः प्रेमपात्र से भेद मानना, ʹवह पराया है… दूर है… मरने के बाद मिलेगा…ʹ ऐसा बेवकूफीभरा विचार यह पहली कमजोरी है। जो ʹआद सत् जुगाद सत् है भी सत् नानक होसे भी सत्ʹ है ऐसे उस व्यापक परब्रह्म परमेश्वर के लिए यह मानना कि ʹभाई ! हम तो संसारी हैं। हम कैसे पा सकते हैं…? हम भक्त तो हैं पर उस सुख को पाना हमारे बस की बात कहाँ….?ʹ यह बड़ी भारी मूर्खता है।

उस प्रेमास्पद को पराया मानना, उसमें भेद मानना अथवा तो ऐसा कहो कि भक्त होकर भी उससे विभक्त रहना यह बड़ी कमजोरी है, हमारे मन की दुर्बलता है। अपने से वह अलग है या अपने से वह भिन्न सत्ता है – यह मानना बड़ी भारी भूल है।

अपने से भिन्न मानकर फिर उसकी खोज करना यह दूसरी दुर्बलता है। जैसे, छोटा-सा बालक आईने में अपने ही प्रतिबिंब को दूसरा बालक मान बैठता है या चिड़िया आईने में अपने प्रतिबिंब को ही दूसरी चिड़िया मानकर, अपने से भिन्न मानकर चोंचें ठोकती है।

मैंने सुनी है एक कहानीः

गुलाम नबीर जा रहा था खेत में। रास्ते में उसे ʹएक दर्पण का टुकड़ा मिला। यह बात तब की है जब दर्पण इतना प्रसिद्ध नहीं हुआ था। जैसे ही गुलाम नबीर ने उसमें देखा तो अपना प्रतिबिंब देखकर उसे लगाः ʹअरे, यह तो अब्बाजान का चित्र है !ʹ उसके अब्बाजान गुजर चुके थे अतः उन्हें याद करके रो पड़ा और बोलाः ʹअब्बाजान ! मेरी औरत ने तुम्हें बहुत सताया था… अब मैं तुम्हें घर ले चलूँगा, रोज तुम्हारा दीदार करूँगा, अब्बाजान !ʹ

था तो स्वयं का प्रतिबिंब, किन्तु अब्बाजान का चित्र मानकर उसे घर ले आया। पत्नी भैंस दोह रही थी, उससे बोलाः “तू इधर मत देखना, मैं खास काम कर रहा हूँ”। यह कहकर चुपके से एक पेटी में उस फोटो (दर्पण के टुकड़े) को छुपा दिया और खेत पर चल दिया।

उसके जाने के बाद उसकी पत्नी की जिज्ञासा हुई कि ʹपता नहीं क्या है ? देखने का मना कर गये हैं ! लाओ, जरा देखूँ !ʹ इन्कार भी तो आमंत्रण देता है। ढूँढते-ढूँढते वह दर्पण का टुकड़ा उसके हाथ लग गया। उसमें देखते ही उसने समझा कि यह गुलाम नबीर की प्रेयसी का फोटो है और वह गरज उठीः ʹयह औरत ? इसने ही मेरा घर बरबाद कर दिया….ʹ

दर्पण में प्रतिबिंब तो उसी का था। अपने ही प्रतिबिंब को अब्बाजान का चित्र समझकर गुलाम नबीर प्यार करता है और अपने ही प्रतिबिंब को दूसरी स्त्री समझकर उसकी पत्नी द्वेष करती है।

राग भी पराये में होता है और द्वेष भी पराये में होता है। अपने में तो सिर्फ प्रेम ही होता है। हमारा वास्तविक स्वरूप प्रेमास्पद ही है। उसी प्रेमास्पद में विश्रान्ति पाना है और यह कोई कठिन काम नहीं है लेकिन जिनके कठिन नहीं लगता है ऐसे ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों का मिलना कठिन है…. और यदि मिल भी जायें तो उनमें श्रद्धा होना कठिन है।

अष्टावक्रजी कहते हैं राजा जनक सेः

श्रद्धत्स्व तात श्रद्धत्स्व नात्र मोहं कुरुष्व भोः।

ज्ञानस्वरूपो भगवानात्मा त्वं प्रकृतेः परः।।

ʹहे सौम्य ! हे प्रिय ! श्रद्धा कर, श्रद्धा कर। इसमें मोह मत कर। तू ज्ञानरूप ईश्वर परमात्मा प्रकृति से परे है।ʹ (अष्टावक्रगीताः 15.8)

काला-गोरा होने वाला चमड़ा तू नहीं है, भूख-प्यास जिसको लगती है वह प्राण तू नहीं है। यह पंचभौतिक शरीर तू नहीं है, सुखी-दुःखी होने वाला मन तू नहीं है, राग-द्वेष से पचने वाली बुद्धि तू नहीं है। प्रकृति से परे तू अपने-आप में आ जा।

कोई समझता हैः ʹचलो, गाड़ी मिल गयी, बंगला मिल गया, हाश !ʹ लेकिन यह हाश ! यह अहा !! कब तक ? असुविधा में दुःखी होना और सुविधा में हर्षित होना – यह भी एक कमजोरी है। सुविधा भी जाने वाली चीज है और असुविधा भी जाने वाली चीज है।

कोई हाल मस्त कोई माल मस्त।

कोई तूती मैना सुए में।।

कोई खान मस्त पहरान मस्त।

कोई राग-रागिनी दोहे में।।

कोई अकल मस्त कोई शकल मस्त।

कोई चंचलताई हाँसी में।।

इक शुद मस्ती बिन और मस्त।

सब बँधे अविद्या फाँसी में।।

जो अविद्यमान शरीर है, अविद्यमान परिस्थिति है उसमें बँध जाते हैं। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः। ʹसुख आ जाये चाहे दुःख आ जाये, उससे प्रभावित नहीं होता, मेरे मत में वह परम योगी है।ʹ

तस्मात् योगी भवार्जुन।

ʹइसलिए हे अर्जुन ! तू योगी बन।ʹ

मैं अपने साधकों से कहता हूँ किः

तस्मात् योगी भव मम साधक। दृढ़ निश्चय कर लो कि इसी जन्म में उस प्रेमास्पद का, उस दुलारे का अनुभव करना है। इसी जन्म में, इसी शरीर में और अभी ही जो आद सत् जुगाद सत् है भी सत नानक ! होसे भी सत् है उस अकाल को, उस परमेश्वर को पराया मानने की गल्ती को निकाल देंगे और वह हमें नहीं मिलेगा इन नकारात्मक विचारों को निकाल फेंकेगे।

हरि ૐ…. ૐ….. ૐ….

जब भेद बुद्धि होती है तब राग-द्वेष, भय-चिंता, विकार और कलह उत्पन्न होते हैं और जब अभेदज्ञान हो जाता है कि एक ही सत्ता है, एक ही आत्मतत्त्व है और वही मेरा अपना आपा है तब सब चिंता, विकार, परेशानियाँ दूर हो जाती हैं, रोम-रोम उस अन्तर्यामी राम की मस्ती से सराबोर होने लगता है और साधक सहज ही में कह उठता हैः

देखा अपने आपको मेरा दिल दीवाना हो गया।

न छेड़ो मुझे यारों ! मैं खुद पे मस्ताना हो गया।।

अष्टावक्र कहते हैं जनक सेः

श्रद्धत्स्व तात श्रद्धत्स्व…. ʹश्रद्धा कर तात ! श्रद्धा कर। तू प्रकृति से परे है। तू सुख-दुःख से परे है। तू सुख-दुःख का भोक्ता मत बन।ʹ

जब सुख और दुःख का भोक्ता बनने की आदत कम होती जायेगी तो दुःखहारी श्रीहरि का अनुभव तुम्हारा अनुभव होता जायेगा, सुखस्वरूप आत्मा का अनुभव तुम्हारा अनुभव होता जायेगा। यह काम कठिन नहीं है किन्तु अटपटा है, झटपट समझ में नहीं आता और एक बार समझ में आ जाये तो सारी खटपट मिट जाती है, महाराज !

….और यह सच्ची समझ आती है योगवाशिष्ठ, उपनिषदों आदि के अध्ययन एवं ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों के सान्निध्य से।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 1997, पृष्ठ संख्या 6,7,8 अंक 49

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