दुर्जन की करुणा बुरी, भलो साँईं को त्रास-पूज्य बापू जी

दुर्जन की करुणा बुरी, भलो साँईं को त्रास-पूज्य बापू जी


वसिष्ठ जी बोलते हैं- “हे राम जी ! यदि असाधु का संग साधुपुरुष भी करता है तो साधु भी असाधु होने लगता है और यदि साधुओं का संग असाधु कर ले तो असाधु भी साधु होने लगता है ।

जो परम साध्य साध रहे हैं वे ‘साधु’ हैं और जो अस्थिर संसार के पीछे समय लगा रहे हैं वे ‘असाधु’ हैं । असाधु पुरुषों का अधिक समय हम संग करते हैं तो हमको भी लगता है कि ‘अपने को भी इतना तो करना ही चाहिए, थोड़ा तो कर लेना चाहिए, यहाँ मकान बना लेना चाहिए, यहाँ से इतना ऐसा कर लेना चाहिए, यह मौका नहीं छोड़ना चाहिए । 2-5 घंटे काम किया तो रोज के 100 रूपये मिलते हैं, ले लेने चाहिए ।’ अरे, रोज के लाख रूपये भी तुम्हारे काम के नहीं हैं ।

तो हम पामर लोगों के संग में आते हैं इसीलिए अपने-आपको धोखा देते हैं । जब आप गहराई जाओगे, तब आपको पता चलेगा कि हमने 25 साल ऐसे ही गँवा दिये, 40 साल ऐसे ही गँवा दिये…। आपको जब साक्षात्कार होगा तो पीछे के जीवन पर आपको आश्चर्य होगा, ग्लानि होगी कि ‘कितना खजाना मेरे पास था और मैंने कौड़ियों को गिनने और रखने में ही अपना जीवन बर्बाद कर दिया । हाय ! मैंने वह किया जो अंधा भी न करे ।’ राजा जनक जैसा व्यक्ति आश्चर्य से भर जाता हैः ‘अहो, गुरु आश्चर्य ! परम आश्चर्य !’ वह सम्राट था, जैसा-तैसा व्यक्ति तो नहीं था जो उसको छोटी-छोटी बात पर आश्चर्य हो जाय । जनक बोलते हैं- ‘अहो, मैं इतना समय मोह में व्यतीत कर रहा था !’ जिस समय आपको अपना खजाना मिलता है न, उस समय आप खूब आश्चर्यमय हो जाते हैं । आश्चर्यमय हो जाना इसी का नाम ‘समाधि’ है ।

निज स्वरूप का ज्ञान दृढ़ाया

ढाई दिवस होश न आया ।।

होश कैसे आयेगा ? क्या थे ? शक्करवाले सेठ…. यह, वह… और अब क्या हैं ! इतने दिन क्या झख मार रहे थे ? हाय-रे-हाय ! जैसे नितांत अँधेरे में से आदमी एकदम प्रकाश में आ जाय तो उसकी आँखें बंद हो जाती हैं, ऐसे ही परम प्रकाश परमात्मा का जब साक्षात्कार होता है तो लगता है कि ‘हाय-रे-हाय ! हम क्या कर रहे थे और अपने को चतुर मान रहे थे ।’ हम जब दुकान पर थे तो अपने को बेवकूफ थोड़े ही मान रहे थे ! अभी दुकान में हो, डॉक्टर हो, कोई वकील है, कोई नेता है, कोई कुछ है तो अपने बारे में ऐसा थोड़े ही मानते हो कि हम मूर्खता कर रहे हैं । मान रहे हो कि हम ठीक कर रहे हैं । बिल्कुल सच्चाई का, परिश्रम का, ईमानदारी का पैसा लेकर अपन लोगों की थोड़ी सेवा कर रहे हैं । हम बहुत अच्छा कर रहे हैं ।’ जब परमात्मा का साक्षात्कार होगा तब पता चलेगा कि ये बेवकूफी के दिन थे । महापुरुष अपनी उस महिमा को जानते हैं, ईश्वर की उस गरिमा को जानते हैं इसीलिए हमारे परम हितैषी होते हैं और जब हम नादानी करते हैं तो हम पर थोड़ा-बहुत खीझ भी जाते हैं । खीझ जाते हैं उस समय लगता है हमको ताने मार रहे हैं लेकिन ये कोई दुश्मनी के ताने नहीं, परम कल्याण के ताने हैं, परम कृपा के ताने हैं और ऐसे ताने यदि तुमको ताने लगते हैं तो उनको धन्यवाद ! नारद जी भी डाँटकर, ताने मारकर सामान्य लोगों का, राजा-महाराजाओं का कल्याण करते थे । कबीर जी ने भी ऐसे ताने लोगों को मारे तो लोग ऊब जाते थे । तब कबीर जी को साखी बनानी पड़ी होगीः

दुर्जन की करुणा बुरी, भलो साँईं को त्रास । हम तुम्हें त्रास भी दें, तुम्हें डाँटें, तुम पर अपना गुरुपद का वीटो पावर भी चला दें फिर भी तुम भूलक भी हमारा दामन  मत छोड़ना क्योंकि –

दुर्जन की करुणा बुरी, भला साँईं को त्रास ।

सूरज जब गर्मी करे, तब बरसन की आस ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2009, पृष्ठ संख्या 2,3 अंक 199

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