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गुरुदेव के दिये हुए गुरुमंत्र का अमोघ प्रभाव


आत्मारामी संत पूज्य बापू जी के आशीर्वाद से ही मुझे पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। उसका नाम नारायण रखा । पूरे परिवार में एक खुशी की लहर दौड़ गई। मैंने मन ही मन पूज्य गुरुदेव की पूजा-अर्चना की। मैं खुशी से फूली न समा रही थी।

मैंने सुना था कि कोई आत्मवेत्ता संत अपनी आत्मानंद की मस्ती में गोता लगाकर जो बोल देते हैं वह पत्थर पर लकीर हो जाता है। पूज्य बापू जी के द्वारा पुत्रप्राप्ति के लिए दिये गये प्रसाद के एक साल बाद मैं पूज्य गुरुदेव की कृपा को नवजात शिशु के रूप में प्रत्यक्ष देख रही थी।

लेकिन सब एक दिन से नहीं रहते।

कुछ दिन बीते कि अचानक दिनांकः 24-7-96 को नारायण का स्वास्थ्य बिगड़ा। उसको अस्पताल में दाखिल किया। डॉक्टर ने सभी परीक्षण करके बताया कि आपके पुत्र को जहरी मलेरिया हो गया।

डॉक्टर ने तत्काल दवा व इंजैक्शन आदि से उसका उपचार आरम्भ किया लेकिन जैसे-जैसे समय गुजरता जा रहा था। वैसे-वैसे उसकी तबीयत बिगड़ती ही जा रही थी। डॉक्टर ने आशा छोड़ दी थी, फिर भी प्रयत्न चालू रखा था।

नारायण के मस्तिष्क में मलेरिया का बुरा असर हो चुका था। सारे शरीर में तनाव शुरु हो गया।  पूरा शरीर अकड़ गया। नाड़ी की धड़कनें बढ़ गयीं। मुँह से झाग आना शुरु हो गया। फिर एकाएक उसका शरीर ठंडा हो गया। हृदय की धड़कनें सी बंद हो गयीं। शरीर निस्तेज हो गया। गर्दन एक ओर झुक गयी। मैं फफककर रो पड़ी। मैं उस विधि के विधान के आगे कर भी क्या सकती थी ? अब सिर्फ एक ही रास्ता था।

मैंने उस निस्तेज शरीर के सामने बैठकर गुरुमंत्र का जप शुरु कर दिया। दृढ़ संकल्प किया कि मेरा बच्चा ठीक हो जायेगा तो श्री आसारामायण का पाठ करूँगी। दूसरी तरफ मेरी बेटी ने श्रीमदभगवदगीता के 18 वें अध्याय का पाठ प्रारंभ कर दिया था। पाठ पूरा होते ही उसने गुरुमंत्र का जप शुरु किया व सामने कटोरी में रखे पानी में निहारा। फिर वही पानी गुरु मंत्र का जप करते-करते नारायण पर छाँटा।

आश्चर्य !

बच्चे के शरीर में थोड़ी हलचल हुई। इस हलचल को देखकर हमारे हृदयों में कुछ आशाओं का संचार हुआ। कुछ ही क्षणों में नारायण ने धीरे-धीरे आँखें खोलीं। शरीर में एक दिव्य चेतना का संचार हुआ। मेरी आँखों से आनंदाश्रुओं की अविरत धारा बह निकली।

जिनके कृपा-प्रसाद से उसे यह जन्म मिला, उन्हीं की करूणा-कृपा से उसे नया जीवनदान मिला। मैं आज ऐसे सदगुरुदेव के सत्संग सान्निध्य व मंत्रदीक्षा के कारण मिले धैर्य, श्रद्धा, भक्ति के कारण अपने आप में धन्यता का अनुभव कर रही हूँ।

चंद्रिकाबहन प्रवीणचंद पांचाल, लुणावाड़ा, पंचमहाल।

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विपत्ति में गुरुदेव की दिव्य प्रेरणा ने बचाया

मैं राजेन्द्र प्रसाद शर्मा मन्डी बोर्ड उज्जैन में सब इंजीनियर पद पर कार्यरत हूँ। दिनांक 4 अप्रैल 96 को रात्रि करीब 10-30 बजे हरदा इन्दौर मार्ग पर चापड़ा से इन्दौर के लिए टैक्सी से रवाना हुआ। साथ में मेरे एक करीबी मित्र भी थे। रास्ते में टैक्सी का टायर पंक्चर हुआ। ड्रायवर ने पच्चीस-तीस मिनट के श्रम से टायर बदल दिया। रात्रि के 11 बज चुके थे। वहाँ से चार-पाँच कि.मी. ही चले थे कि हम पर विपत्तियों का पहाड़ टूटा। जंगल में घाट पर करनावद फाटा से चढ़ते ही कंजरों ने गाड़ी को घेर लिया और पत्थर बरसाने लगे। हमने टैक्सी भगानी चाही लेकिन सड़क पर झाड़-झंखार डाल रखे थे। अब क्या होगा ? मेरे मन में तुरंत विचार आयाः अपने रक्षक तो पूज्य सदगुरुदेव हैं। मैंने मौन होकर बापू को याद कियाः प्रभु ! मैं तो बस, आपका ही हूँ।

तेरे फूलों से भी प्यार तेरे काँटों से भी प्यार।

जो भी देना चाहे दे दे किरतार।।

ग्वालियर सत्संग-कार्यक्रम में पूज्य बापू ने प्रपत्तियोग का समर्पण भाव बताया थाः ʹतेरा हूँ… तेरा हूँ….ʹ बस फिर क्या था ? ʹतेरा हूँ…ʹ की महिमा याद आ गई। मेरे मुँह से निकल पड़ाः

“ड्राइवर ! गाड़ी को झाड़-झंखार के ऊपर से ही कुदा दो।”

वही हुआ। गाड़ी वहाँ से ऐसे दौड़ी कि गाँव की चौकी पर ही जाकर रुकी। हमने रिपोर्ट लिखाई। पुलिस स्थल घटना स्थल को रवाना हुआ और हम अपने सफर में चल पड़े। दूसरे दिन 5 अप्रैल को इन्दौर से प्रकाशित सभी समाचार पत्रों में छपा था कि उस रास्ते आ रही शिवशक्ति बस को लूटा गया। हम दोनों मित्र एक दूसरे की ओर देखने लगे क्योंकि वह बस हमारे पीछे-पीछे ही आ रही थी।

गुरुदेव  कृपा से हम विपत्तियों से किस तरह बचे यह पूरा-पूरा वर्णन करना हमारे बस की बात नहीं। मैं तो बस, इतना ही कहूँगा कि विपत्ति में पूरी श्रद्धा से ऐसे आत्मारामी संतों का स्मरण करने पर दिव्य प्रेरणा मिलती ही है। श्रद्धाहीन, नास्तिक निगुरे बेचारे क्या जानें ?

गुरुदेव का चरणसेवक,

राजेन्द्र प्रसाद शर्मा, 2/6, अलखधाम नगर, उज्जैन (म.प्र.)

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असंभव कुछ नहीं…. सब कुछ संभव है….


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

सन् 1910 की एक घटित घटना हैः

जर्मनी का एक लड़का वुल्फ मेहफिन स्कूल में ढंग से पढ़ता न था। मास्टर की मार के भय से एक दिन वह स्कूल छोड़कर भाग गया। भागकर वह गाड़ी में जा बैठा किन्तु उसके पास टिकट नहीं था। जब टिकट चेकर टिकट चैक करने के लिए आया तो वह सीट के नीचे जा छुपा किन्तु उसके मन में आया कि ʹयदि टिकट चेकर आकर मुझसे पूछेगा तो मैं क्या करूँगा ? हे भगवान्…! मैं क्या करूँ तू ही बता….ʹ इस प्रकार प्रार्थना करते-करते उसे कुछ अन्तःप्रेरणा हुई। उसने पास में पड़ा हुआ कागज का एक टुकड़ा उठाया और मोड़कर टिकट के आकार का बना दिया। जब टिकट चेकर ने टिकट माँगा तो वुल्फ मेहफिन ने उसी कागज के टुकड़े को देते हुए कहाः “This is my Ticket. यह मेरा टिकट है।” उसने इतनी एकाग्रता और विश्वास से कहा कि टी.सी. को वह कागज का टुकड़ा सचमुच टिकट जैसा लगा। तब उसने कहाः “लड़के ! जब तेरे पास टिकट है तो तू नीचे क्यों बैठा है ?”

यह कहकर टी.सी. ने उसे सीट दे दी। वुल्फ मेहफिन को युक्ति आ गयी कि प्रार्थना करते-करते मन जब एकाग्र होता है तब आदमी जैसा चाहता है वैसा हो जाता है। धीरे-धीरे उसने ध्यान करना शुरु किया और उसका तीसरा नेत्र (जहाँ तिलक करते हैं वह आज्ञा चक्र) खुल गया।

फिर तो वह तीसरे नेत्र के प्रभाव से लोगों को जादू दिखाने लगा। जो चीज ʹहैʹ उसे ʹनहींʹ दिखा देता और जो चीज ʹनहींʹ है उसे ʹहैʹ दिखा देता। धीरे-धीरे उसका नाम दूर-दूर तक प्रसिद्ध होने लगा। यहाँ तक कि रशिया के प्रेसिडेण्ट स्तालिन के कान में भी वुल्फ मेहफिन की बात पहुँची।

स्तालिन नास्तिक था। अतः उसने कहाः “ध्यान व्यान कुछ नहीं होता। जाओ पकड़कर लाओ वुल्फ मेहफिन को।”

वुल्फ मेहफिन एक मंच पर खड़ा होकर लोगों को चमत्कार दिखा रहा था, वहीं उसे स्तालिन के सैनिकों ने कैद करके स्तालिन के पास पहुँचा दिया।

स्तालिन ने कहाः “यह जादू वादू कैसे संभव हो सकता है ?”

मेहफिनः “Nothing is impossible. Everything is possible in the world.”

असंभव कुछ नहीं है। इस दुनिया में आत्मा की शक्ति से सब कुछ संभव है। जहाँ आप आत्मशक्ति को लगायें वहाँ वह कार्य हो जाता है।

जैसे विद्युत को आप फ्रीज में लगायें तो पानी ठण्डा होगा, गीजर में लगायें तो पानी गर्म होगा और सिगड़ी में लगायें तो आग पैदा करेगा। पंप में लगायें तो पानी को ऊपर टंकी तक पहुँचा देगा। विद्युत एक शक्ति है। उसे जहाँ भी लगायेंगे, वहाँ उस साधन के अनुरूप कार्य करेगी। विद्युत शक्ति, अणु शक्ति, परमाणु शक्ति आदि सब शक्तियों का मूल है आत्मा और वह अपने हृदय में रहता है। अतः असंभव कुछ नहीं।

स्तालिनः “यदि सब संभव है तो मैं जैसा कहूँ वैसा तुम करके बताओ। मास्को की बैंक से एक लाख रूबल लेकर आओ तो मैं तुम्हें मानूँगा। बैंक के चारों ओर मेरे सैनिक होंगे। तुम किसी ओर से पैसे लेकर नहीं जाओगे। बैंक में खाली हाथ जाओगे और बैंक वाले से एक लाख रूबल लेकर आओगे।”

मेहफिनः “मेरे लिए असंभव कुछ नहीं है। मुझे ध्यान की कुँजी पता है।”

मेहफिन गया बैंक के कैशियर के पास और कागज लेकर उसे भरा, और भी जो कुछ करना था वह किया। फिर वह पर्ची कैशियर को दी। कैशियर ने एक लाख रूबल गिनकर मेहफिन को दे दिये। मेहफिन ने वे रूबल ले जाकर स्तालिन को दे दिये। स्तालिन हतप्रभ रह गया कि “यह कैसे संभव हुआ ! तुम्हारे सिवा उस बैंक में दूसरा कोई न जा सके, ऐसा कड़क बंदोबस्त किया गया था। फिर भी तुम पैसे कैसे निकाल लाये ? अच्छा, अब उसे वापस देकर आओ।”

मेहफिन पुनः गया बैंक में कैशियर के पास और बोलाः  “कैशियर ! मैंने तुम्हें जो सैल्फ चेक दिया था लाख रूबल का, वह वापस करो।”

कैशियर ने वह कागज निकालकर देखा तो दंग रह गया। ʹइस साधारण कागज की पर्ची पर मैंने लाख रूबल कैसे दे दिये !ʹ सोचकर वह घबरा उठा। मेहफिन ने कहाः “इस पर्ची पर तुमने मुझे लाख रूबल कैसे दे दिये ?”

कैशियरः “मुझे माफ करो, मेरा कसूर है।”

मेहफिनः “यह तुम्हारा कसूर नहीं है। मैंने ही दृढ़ संकल्प किया था कि यह कागज तुम्हें लाख रूबल का ʹसेल्फ चैकʹ दिखे इसीलिए तुमने लाख रूबल गिनकर मुझे दे दिये। लो, ये लाख रूबल वापस ले लो और मुझे यह कागज दे दो।”

कागज ले जाकर स्तालिन को बताया। स्तालिन के आश्चर्य का पार न रहा। फिर भी वह बोलाः “अच्छा, अगर आत्मा की शक्ति में इतना सामर्थ्य है तो तुम एक चमत्कार और दिखाओ। मैं रात को किस कमरे में रहूँगा यह मुझे भी पता नहीं है। अतः आज रात के बारह बजे मैं जिस कमरे में सो रहा होऊँगा वहाँ आकर मुझे जगा दो तो मैं आत्मा की शक्ति को स्वीकार करूँगा।”

स्तालिन बड़ा डरपोक व्यक्ति था। ʹकोई मुझे मार न डालेʹ इस डर से उसके पाँच सौ कमरे में से वह किस कमरे में रहेगा इस बात का पता उसके अंगरक्षकों तक को नहीं चलने देता था। 112 नंबर के कमरे में सोयेगा कि 312 में, 408 में सोयेगा कि 88 में… इसका पता किसी को नहीं रहता था। स्तालिन ने अपने महल के चारों ओर इस प्रकार सैनिक तैनात कर रखे थे कि कोई भी उसके महल में प्रवेश न कर सके। उसने आदेश दे दिया कि आज रात को कोई भी व्यक्ति उसके महल में प्रवेश न कर सके इस बात का पूरा ध्यान रखा जाये।

फिर भी रात्रि के ठीक बारह बजे स्तालिन के कमरे में पहुँच कर मेहफिन ने दरवाजा खटखटाया। स्तालिन दंग रह गया और बोलाः “तुम यहाँ कैसे आ सके ?”

मेहफिनः “आपने पूरी सेना तैनात कर दी थी ताकि कोई भी महल में प्रवेश न कर सके। सैनिक किसी को भी आने नहीं देंगे किन्तु सेनापति को तो नहीं रोक सकेंगे ? मैंने सेनापति बेरिया (तत्कालीन के.जी.बी. का चीफ) का ड्रेस पहना और दृढ़ संकल्प किया कि ʹमैं सेनापति मि. बेरिया हूँ…. मैं मि. बेरिया हूँ….ʹ और उसी अदा से तुम्हारे महल में प्रवेश किया। मैंने ध्यान कर के पता कर लिया कि आप किस कमरे में सो रहे हो। मुझे आता देखकर आपके सैनिकों ने मुझे सेनापति बेरिया समझा और सलाम करके मुझे आसानी से अंदर आने दिया। इसलिए मैं आपके कमरे तक इतनी सरलता से, आत्मा की शक्ति से ही आ गया।”

आत्मा की यह शक्ति जब तीसरे केन्द्र में आती है तो असंभव सा दिखने वाला कार्य भी संभव हो जाता है। इस शक्ति को अगर योग में लगाये तो व्यक्ति योगी हो जाता है और अगर भगवान को पाने में लगाये तो व्यक्ति भगवान को भी पा लेता है। जिस-जिस कार्य में यह शक्ति लगायी जाती है वह-वह कार्य अवश्य सिद्ध हो जाता है लेकिन शर्त केवल इतनी ही है कि दूसरों को सताने में यह शक्ति न लगाई जाय। अगर दूसरों को सताने में इस शक्ति का उपयोग किया जाता है तो हिरण्यकशिपु जैसी या रावण और कंस जैसी दुर्दशा होती है। यदि अच्छे कार्यों में उपयोग किया जाता है तो व्यक्ति हजारों-लाखों लोगों को उन्नत करने में भी सहायक हो जाता है। फिर वही व्यक्ति महापुरुष बन जाता है….. जैसे, एकनाथ जी महाराज।

एकनाथ जी महाराज के पास कोई ब्राह्मण पारस रखकर यात्रा करने के लिए निकल पड़ा। एकनाथजी महाराज ने उस पारस को पूजा के पाटिये के नीचे रख दिया। उनके श्रीखण्डया नामक सेवक ने उस पारस को पत्थर समझकर गोदावरी में फेंक दिया।

जब वह ब्राह्मण यात्रा करके वापस आया और उसने अपना पारस वापस माँगा तब सेवक ने कहाः

“अरे ! मैंने तो उसे सामान्य पत्थर समझकर गोदावरी में फेंक दिया।”

ब्राह्मण उदास हो गया। उसे उदास देखकर एकनाथजी महाराज ने कहाः “चलो, गोदावरी के तट पर।”

गोदावरी के तट पर पहुँचकर एकनाथजी महाराज ने गोता मारा और ब्राह्मण का जैसा पारस पत्थर था उसी प्रकार के बहुत सारे पत्थर लेकर बाहर निकले और उस ब्राह्मण से बोलेः “अपना पारस पहचान कर ले  लो।”

वह ब्राह्मण तो देखकर दंग रहा गया कि ʹमैं तो पारस-पारस करके दुःखी हो रहा था लेकिन एकनाथजी महाराज ने अपने योगबल से सभी पत्थरों को पारस करके दिखा दिया!ʹ

महापुरुषों के पास ऐसी शक्ति है लेकिन वे उसका उपयोग अपने अहं के पोषण अथवा प्रजा के शोषण में नहीं करते। उनकी दृष्टिमात्र से लोगों का चरित्र भी उन्नत होने लगता है। उनकी नूरानी नजर से अभक्त भी भक्त बनने लगता है। वे अपने कृपा-प्रसाद से लोगों के हृदय में भक्ति, ज्ञान, आनंद और माधुर्य भर देते हैं…. प्रेम भर देते हैं…. यह शक्ति का सदुपयोग है।

महापुरुष अपनी आत्मशक्ति से लोगों का मन भगवान में लगा देते हैं। कीर्तन कराते-कराते संप्रक्षेण शक्ति बरसाकर लोगों की सुषुप्त शक्तियाँ जगा देते हैं। महापुरुष ऐसे होते हैं। नानक जी कहते हैं-

ब्रह्मज्ञानी का दर्शन बड़भागी पावहि।

ब्रह्मज्ञानी को बलि-बलि जावहि।।

सच्चे संतों के नेत्रों से आध्यात्मिक ऊर्जा निकलती रहती है जो हमारे पाप-ताप मिटाती है। सच्चे संतों की वाणी से हमारे कान पवित्र होते हैं, हमारा आत्मिक बल जगता है।

पहले के समय में बड़े-बड़े राजा-महाराजा बारह-बारह कोस दूर तक रथ में जाते थे महापुरुषों के श्रीचरणों में मस्तक नवाने के लिए। संतों-महापुरुषों के श्रीचरणों में मस्तक नवाने के लिए। संतों महापुरुषों में जिसकी श्रद्धा नहीं है उसे समझना कि या तो वह शोषक है या उसके मन में कोई बड़ा पाप है इसलिए उसके हृदय में महापुरुषों के लिए नफरत है। अगर महापुरुषों के लिए नफरत है तो वह व्यक्ति नरकगामी होगा। सच्चे संतों के प्रति किसी को नफरत है तो समझ लेना कि उसके ऊपर कुदरत का कोप होगा। सच्चे संतों के प्रति जिनको श्रद्धा है तो समझ लेना कि देर-सबेर उनके हृदय में भगवान प्रगट होने वाले हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 1996, पृष्ठ संख्या 6,7,8,14 अंक 46

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आत्म-साक्षात्कार – पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू


दिनांकः 14 अक्तूबर 1996 पूज्य श्री के आत्मसाक्षात्कार दिवस पर विशेष

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।

स्थितोस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।।

ʹहे अच्युत ! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है और मुझे स्मृति प्राप्त हुई है। इसलिए मैं संशयरहित हुआ स्थित हूँ और आपकी आज्ञा का पालन करूँगा।ʹ (गीताः 18.73)

आदमी तब तक स्थिर नहीं होता जब तक उसका संदेह दूर नहीं होता। संदेह तब तक दूर नहीं होता जब तक तत्त्वज्ञान नहीं होता। तत्त्वज्ञान तब तक हजम नहीं होता जब तक एकाग्रता, संयम और साधना नहीं होती।

यह ब्रह्म विद्या समय पाकर परिपक्व होती है। अधीर व्यक्ति के हृदय में तत्त्वज्ञान प्रतिष्ठित नहीं होता, समय पाकर ही होता है। तत्त्वज्ञान के लिए अभ्यास की जरूरत है और अभ्यास भी कैसा ? तैलधारवत्। यदि ब्रह्मविद्या का अभ्यास तैलधारवत् किया जाये तो जीव जन्म-मरण के दुःखों से पार होकर परम शान्ति को पा लेता है। परम शांति ऐसा सुख है, ऐसी उपलब्धि है कि जिसकी बराबरी किसी के साथ नहीं की जा सकती। जैसे, पृथ्वी का भार और किसके साथ तौला जाये ? सूर्य के प्रकाश की तुलना किस प्रकाश से की जाये ? ऐसे ही संसार में तो क्या पूरे ब्रह्मांड में ऐसी कोई वस्तु नहीं जिसकी तुलना आत्मज्ञान के साथ की जा सके।

जब तक जीव को अपने वास्तविक स्वरूप का बोध नहीं हुआ तब तक कोई भी अवस्था आ जाये किन्तु व्यक्ति पूर्ण निश्चचिंत नहीं होता। अपने-आपका बोध हो जाये, अपने आपका पता चल जाये इसे आत्म-साक्षात्कार बोलते हैं।

यह साक्षात्कार किसी अन्य का नहीं वरन् अपना ही साक्षात्कार है, इसीलिए इसको आत्म-साक्षात्कार कहते हैं। जब तक आत्म-साक्षात्कार नहीं होता तब तक व्यक्ति चाहे तैंतीस करोड़ क्राइस्ट या तैंतीस करोड़ श्रीकृष्ण के बीच रहे फिर भी उसको पूर्ण विश्रान्ति नहीं मिलती।

आत्म-साक्षात्कार का तात्पर्य क्या है ? भगवान दत्तात्रेय कहते हैं कि नाम-रूप और रंग जहाँ नहीं पहुँचते, ऐसे परब्रह्म में जिसने विश्रान्ति पायी है, वह जीते जी मुक्त है। नानक जी कहते हैं-

रूप न रंग न रेख कछु प्रभु त्रेय गुणा ते भिन्न।

रूप, रंग, रेख जो कुछ भी है वह स्थूल शरीर में है, मन में है, सूक्ष्म बुद्धि में, संस्कार में हैं। यदि देवी-देवता भी आकर दिख जायें तब भी वे होंगे माया-विशिष्ट चैतन्य में ही। उनसे पूरी विश्रान्ति नहीं मिलेगी। यह स्थूल जगत, सूक्ष्म जगत, जीव जगत और ईश्वर – ये सब हैं माया के ही अंतर्गत। आत्म-साक्षात्कार है माया से परे। जिसकी सत्ता से ये जीव, जगत, ईश्वर दिखते हैं, उस सत्ता को ʹमैंʹ रूप से ज्यों का त्यों अनुभव करना, इसका नाम है आत्म-साक्षात्कार। जीव की हस्ती, जगत की हस्ती और ईश्वर की हस्ती जिसके आधार से दिखती है और जो टिकती नहीं है, बदलती रहती है फिर भी जो अबदल आत्मा है उसे ज्यों का त्यों जानना, इसको आत्म-साक्षात्कार कहते हैं।

हकीकत में जीव का असली स्वरूप ब्रह्म से अलग नहीं है। जैसे तरंग, का असली स्वरूप पानी से भिन्न नहीं है, गहनों का असली स्वरूप सोने से भिन्न नहीं है ऐसे ही हम अपने असली स्वरूप को जान लें, इसका नाम है आत्म-साक्षात्कार। अभी तक हमें अपने असली स्वरूप को नहीं देख पाये, इसीलिए कई नकली स्वरूप धारण किये और जो भी नकली स्वरूप मिला उसे ही ʹमैंʹ मान बैठे। जिस जन्म में जैसा सूक्ष्म शरीर रहा वैसे ही विचार रहे, जिस जन्म में जैसा स्थूल शरीर रहा वैसे ही विचार रहे और वासना रही लेकिन उनके पीछे भटक-भटककर युग बीत गये। कबीर जी कहते हैं-

भटक मूँआ भेदू बिना पावे कौन उपाय।

खोजत-खोजत युग गये पाव कोस घर आय।।

जीवमात्र यही चाहता है कि मेहनत थोड़ी करूँ और सुख ज्यादा मिले। वह सुख भी कैसा ? वह सुख स्थायी हो, टिकने वाला हो।

माँग कब होती है ? जब कोई चीज होती है तभी उसकी माँग होती है। तो अपना-आपा ऐसी ही चीज है जो बिना मेहनत के मिलता है और एकबार मिल जाय तो फिर कभी जाता नहीं। इसी को बोलते हैं आत्म-साक्षात्कार।

अपने स्वरूप का, अपनी आत्मा का पता चल जाना यह बड़े में बड़ी उपलब्धि है। इसके अतिरिक्त जितनी भी उपलब्धियाँ हैं फिर चाहे सब देवी-देवता ही खुश क्यों न हो जायें, तब भी यात्रा अधूरी ही रहेगी। नरसिंह मेहता ने ठीक ही कहाः

ज्यां लगी आत्मा तत्त्व चीन्यो नहीं।

त्यां लगी साधना सर्व झूठी।।

जब तक आत्म-तत्त्व को नहीं पहचाना तब तक सब साधनाएँ झूठी हैं।

जब तक आत्मज्ञान नहीं हुआ तब तक सब ऐसे ही है…. कोई लोहे की हथकड़ी है तो कोई ताँबे की, कोई पीतल की है तो कोई सोने की लेकिन हैं  सब हथकड़ी ही। जन्म चाहे महारानी के गर्भ से हो चाहे दासी के गर्भ से, जन्म तो जन्म ही है। गर्भ में जीव तब तक पड़ता ही रहता है, जब तक उसे अपने स्वरूप की स्वतन्त्रता का बोध नहीं होता।

पुराणों में, शास्त्रों में भी जिन साधु-संतों की गाथाएँ आती हैं उनमें भी कोई विरला ही तत्त्व को उपलब्ध हुआ बाकी तो ऋदि-सिद्धि या साकार भगवत् दर्शन तक पहुँचे। जिसे भाल के भाग्य अत्यंत भले होते हैं उसको ब्रह्मवेत्ता गुरु मिलते हैं और जिसको अत्यंत वैराग्य होता है उसी को समाधि मिलती है अर्थात् उसको समाधान होता है, अपने स्वरूप में विश्रान्ति मिलती है और जिसे अपने स्वरूप में विश्रान्ति मिल जाती है फिर उसका मोह नष्ट हो जाता है।

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा……

श्रीकृष्ण के दर्शन हुए अर्जुन को, फिर भी उसका मोह नहीं गया। उस जमाने में बल, बुद्धि और सामर्थ्य में जितना ऊँचा, आदमी हो सकता था वैसा ऊँचा था। अर्जुन। उसे श्रीकृष्ण का, साक्षात् नारायण का साथ था, विराट रूप के दर्शन भी किये, किन्तु मोह नष्ट नहीं हुआ। मोह तो तब नष्ट हुआ जब अर्जुन को आत्म-साक्षात्कार हुआ। फिर अर्जुन कहता हैः

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।

स्थितोस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।।

अपने स्वरूप में संदेह रहता है कि मैं सचमुच चैतन्य स्वरूप, अनंत ब्रह्माण्डों में व्यापक आत्मा हूँ कि नहीं ? यह संदेह आखिरी समय तक रहता है। लेकिन जब अपना पुरुषार्थ होता है और सदगुरु की कृपा पचती है तब जीवत्व की भ्रांति टूटती है।

जीव गया और शिव को पाया…

जान लिया हूँ शान्त निरंजन।

लागू मुझे न कोई बंधन।।

यह जगत सारा है नश्वर।

मैं ही शाश्वत एक अनश्वर।।

दीद हैं दो पर पर दृष्टि एक है।

लघु गुरु में वही एक है।।

जैसे देखने के विषय अनेक देखने वाला एक, सुनने के विषय अनेक सुनने वाला एक, चखने के विषय अनेक, चखने वाला एक, मन के संकल्प-विकल्प अनेक लेकिन मन का दृष्टा एक, बुद्धि के निर्णय अनेक लेकिन उसका अधिष्ठान एक। उस एक को जब ʹमैंʹ रूप में देख लिया वे घड़ियाँ सुहावनी हैं, मंगलकारी हैं। वे ही आत्म-साक्षात्कार की घड़िया हैं।

एक इंच भी परमात्मा हमसे दूर नहीं है फिर भी आज तक मुलाकात नहीं हुई।

पानी बीच मीन प्यासी रे,

सुन-सुन बतिया आये मोहे हाँसी…..

हम ब्रह्म-परमात्मा में उत्पन्न होते हैं, ब्रह्म परमात्मा में रहते हैं, परमात्मा में जीते हैं, खाते-पीते हैं, परमात्मा में देखते सुनते हैं, परमात्मा में बोलते हैं और आज तक परमात्मा का साक्षात्कार नहीं हुआ। कितना अटपटा मामला है ! इस अटपटे मामले को झटपट समझा नहीं जाता लेकिन जब प्रातःस्मरणीय पूज्यपाद श्रीलीलाशाहजी बापू जैसे कोई ब्रह्मनिष्ठ सदगुरु मिल जाते हैं तो जन्म-मरण की खटपट मिट जाती है।

ૐ शांति….. ૐ शांति…..

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 1996, पृष्ठ संख्या 9,10 अंक 46

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