Monthly Archives: May 2013

जानो उसको जिसकी है ʹहाँʹ में ʹहाँʹ – पूज्य बापू जी


संसार का सार शरीर है। शरीर का सार इऩ्द्रियाँ हैं। इन्द्रियों का सार प्राण हैं। प्राणों का सार मन है। मन का सार बुद्धि है। बुद्धि का सार अहं है, जीव है। जीव का सार चिदावली है और चिदावली का सार वह चैतन्य आत्मदेव है। उसी आत्मदेव से संवित् (वृत्ति) उठती है, फुरना (संकल्प) उठता है। उसी से श्वास को भीतर भरने और बाहर फेंकने की प्रक्रिया होती है।

स्टोव कम्पनी का मालिक अथवा टायर-टयूब कम्पनी का मालिक खुद भी खड़ा हो जाये तो भी एक बार छिद्र होने न स्टोव जल सकता है, न टयूब गाड़ी के काम आ सकती है। छिद्र हो गया तो फिर उसमें हवा नहीं रूकती है। लेकिन हमारे शरीर में देखो तो नाक का छिद्र, मुँह का छिद्र, कान का छिद्र… इसमें नौ-नौ छिद्र हैं फिर भी वायु कैसे आती है, जाती है ! इसमें तो नौ-नौ हैं फिर भी चल रहा है तो कैसी विलक्षण शक्ति है इस चैतन्यदेव की ! श्वास खत्म हो जाते हैं तो आदमी मर जाता है। कैसे प्रारब्ध की व्यवस्था का सहयोग देता है !

यह देव सबको सहयोग देता है। चोरी करने का इरादा करो तो बुद्धि में वही ज्ञान का सहयोग देता है। साहूकार बनना है तो उसमें सहयोग देता है। ʹवह दूर हैʹ – दूर है…ʹ तो दूर ही लगेगा और सोचोगे कि वह मन्दिर में है तो मन्दिर में ही दिखेगा। जैसा उसको मानो वैसा ही आपको सहयोग देता है ʹहाँʹ में। ૐ…. बराबर हैʹ. ૐ…ʹठीक है।ʹ ૐ मतलब ʹहाँʹ, साधो ! ʹहाँʹ जैसे विद्युत है न, पंखे में लगा दो तो ʹहाँʹ, टयूबलाइट में लगा दो…. ʹहाँʹ, टीवी में ʹहाँʹ, ʹगीजरʹ में ʹहाँʹ, फ्रिज में ʹहाँʹ… सत्ता देती है जहाँ भी लगा दो वही। गीजर में लगा दी, लो गरम पानी, फ्रिज में लगा दी, लो ठंडा पानी। टुल्लू में लगा दो, लो ऊपर पानी… हाँ भाई ! जब भगवान की बनायी हुई विद्युत भी ʹहाँʹ में ʹहाँʹ कर देती है तो भगवान में भी ʹहाँʹ में ʹहाँʹ करेंगे ही।

ʹश्रीविष्णुसहस्रनामʹ में आता हैः भयकृत भयनाशन। भगवान भय पैदा करने वाले भी है और भय का नाश करने वाले भी हैं। पशु में भय पैदा कर देते हैं और शेर में गर्जना का बल भर देते हैं। रावण के पक्ष में लड़ने वालों को राम के पक्ष मेंच लड़ने वालों के प्रति बल दे देते हैं और राम जी के पक्ष में लड़ने वालों को रावण के पक्षवालों को पीटने में बल दे देते हैं- लो लड़ो, मार दो इनको। यह कैसा दैव है !

यह अंतर्यामी देव कहता है, ʹयह प्रकृति में हो रहा है – दो नम्बर में। मैं एक नम्बर हूँ – सत्ता देता हूँ और दो नम्बर (प्रकृति) की लीला करता हूँ। जिससे देखा जाता है वह एक नम्बर मैं हूँ, और जो दिखता है वह दो नम्बर मेरी शक्ति है। ʹयह मेरा मन है, यह मेरा हाथ है, यह मेरा पैर है, यह मेरी बुद्धि है, यह मेरा अहं है…ʹ यह सब दो नम्बर, मैं एक नम्बर।ʹ

तो एक नम्बर देव ʹमैंʹ में प्रीति करनी है, उसी में विश्रान्ति पानी है, उसी का ज्ञान पाना है।

ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशेभ्यः।

उस देव को जाना तो सब पाशों से छूट जाओगे। आपको बड़ी भयंकर सजा सुना दी जाये, डर नहीं लगेगा। खूब निंदा कर दी जाये, आप विक्षिप्त नहीं होंगे, बाहर से दिखें तब भी भीतर गहराई में नहीं होंगे, बाहर से दिखें तब भी भीतर गहराई में नहीं होंगे। जय-जयकार कर दी जाय, सारे काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य, भय, चिंता, शोक, मुसीबत, जन्म-मृत्यु, जरा-व्याधि सब-का-सब टिकेगा ही नहीं। बहते पानी में जैसे उँगली लगाओ और अक्षर लिखते जाओ, हस्ताक्षर भी करते जाओ और मुहरें भी मारते जाओ, कुछ भी टिकेगा नहीं। ऐसे ही उस देव को जाना तो सारे कर्म ऐसे ही हो जायेंगे। जो कुछ भी कर्म आपने किये, उन कर्मों का कर्तृत्व नहीं रहेगा आपको, कर्मबन्धन नहीं रहेगा, भोक्तृत्व नहीं रहेगा। सुखी से दिखोगे लेकिन साधारण लोगों जैसा सुख नहीं रहेगा, दुःखी दिखोगे लेकिन साधारण लोगों जैसा दुःख नहीं रहेगा…. आभासमात्र ! दुःखाभास, सुखाभास… जैसे रंगमंच पर सुखी-दुःखी दिखते हैं, ʹहाय ! मैं तो मर गया…. मेरा इकलौता बेटा चला गया। हाय रे हाय !ʹ मेरी तो शादी हो गयी… आय-हाय !ʹ

तो उस देव को जानो। उसको जानने के लिए ऐसे प्रश्न करो कि ʹमैं क्या करूँ ? कैसे जानूँ ? हे देव ! तुम ही बताओ तो मैं कौन हूँ ? आप कौन हैं ? आपको जानने वाला मैं कौन हूँ और आप जानने में आऩे वाले देव कौन हो ?ʹ ऐसा करके उस देव की प्रार्थना करो। अंदर से आवाज आ जाय, भीतर से। अरे ! भीतर से आवाज क्या आयेगी, पूछने वाला धीरे-धीरे उसी में शांत हो जायेगा… आनंद ही आनंद ! फिर क्या होता है उसका वाणी वर्णन नहीं कर सकती। ऐसा वह देव है ! कल्पना नहीं है, सचमुच में है। ऐसा नहीं समझना कि कल्पना है, ऐसा है-वैसा है….। हाँ, ध्यान में कुछ दिखा तो उसमें हो सकती है कल्पना लेकिन इस देव के वास्तविक स्वभाव के अनुभव में… ऐसा नहीं कि ध्यान में सब कल्पना ही होती है, ध्यान में तो आधिदैविक जगत के दृश्य भी दिखते हैं लेकिन यह देव तो वास्तविक देव है। आधिदैविक नहीं है, आधिभौतिक नहीं है, सबका आदि व सबका अंत… सबकी उत्पत्ति का और सबके प्रलय का स्थान है वह देव। वासुदेव, अच्युत देव….. ૐ नारायण…. नारायण… नारायण….. ૐૐૐૐૐૐ

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2013, पृष्ठ संख्या 8,9 अंक 245

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गुणों के चक्र से परे हैं आप !


पराशरजी अपने जिज्ञासु शिष्य मैत्रेय को संसार-चक्र से निकलने की सरल युक्ति बताते हुए कहते हैं- “हे शिष्य ! जैसे आकाश में सप्त ऋषियों से लेकर सूर्य, चन्द्र आदि नक्षत्र तथा तारामंडल का चक्र दिन रात घूमता रहता है परंतु ध्रुव तारा अचल, एकरस रहता है। यदि अन्य तारों की तरह ध्रुव भी चलायमान होता तो उसका नाम ध्रुव नहीं, अध्रुव होता। उसी प्रकार माया व अज्ञानरूप आकाश में नक्षत्र व तारों के समान देह आदि पदार्थों का चक्र निरंतर घूमता रहता है परंतु आत्मा एकरस, अचल है।

जैसे अनेक बार जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति अवस्थाएँ होती हैं और मिट जाती हैं, वैसे ही बाल-युवा-वृद्ध अवस्थाएँ अनेक शरीरों में अनेक बार प्राप्त हुई तथा मिट गयीं। उसी प्रकार भविष्यकाल वर्तमान काल हो जाता है, वही वर्तमानकाल भूतकाल हो जाता है और पुनः पुनः भूत, भविष्य और वर्तमान होता रहता है। दिन रात, ग्रहण-त्याग का चक्र निरंतर चलता रहता है।

ऐसे ही सत्त्व आदि गुणों का अदल-बदल होता रहता है अर्थात् कभी दैवी गुण तो कभी आसुरी गुणों का चक्र निरंतर चलता रहता है। ऐसे ही काम, क्रोध, लोभ, मोह, शांति आदि का चक्र भी घूमता रहता है। सब अदल-बदल होता रहता है परंतु ये सभी चक्र मिथ्या है और जिससे ये सभी चक्र घूमते तथा अदल-बदल होते सिद्ध होते हैं, वह चैतन्य निर्विकार, निर्विकल्प, अचल, असंग आत्मा तुम्हारा स्वरूप है। यदि आत्मा भी इन्हीं चक्रों की नाई चलायमान होता तो अनित्य हो जाता लेकिन वह तो नित्य, अचल है। वह तुम हो। (आध्यात्मिक विष्णु पुराण से)

आध्यात्मिक विष्णु पुराण कहता हैः ʹवह तुम हो जहाँ से ʹमैं-मैंʹ स्फुरित होता है। वही तुम्हारा ʹमैंʹ जीव बन जाता है, वही तुम्हारा ʹमैंʹ ईश्वर भी बन जाता है। सबसे प्यारा, सबका प्यारा अपना आत्मा है। दूर नहीं, दुर्लभ नहीं, परे नहीं, पराया नहीं। ૐ…ૐ…ૐ….

सबके रूपों में वही है अनंत ! अनेक दिखते हुए भी अद्वितीय। अनंत दो नहीं होते। अनंत दो या एक होगा तो अनंत कैसे रहेगा ? सारे दुःखों व मुसीबतों का मूल है सच्चे अनंत अपने-आपको भूलना और मिथ्या द्वैत को सच्चा मानना।ʹ

चांदणा कुल जहान का तू,

तेरे आसरे होये व्यवहार सारा।

तू सब दी आँख में चमकदा है,

हाय चांदणा तुझे सूझता अँधियारा।।

जागना सोना नित ख्वाब तीनों,

होवे तेरे आगे कई बारा।

बुल्लाशाह प्रकाश स्वरूप है,

इक तेरा घट वध न होवे यारा।।

प्रकाशस्वरूप तेरा अऩंत एकरस आत्मा है। खोज ले ब्रह्मज्ञानियों की शरण, जो जगा दें परब्रह्म स्वभाव में ! श्रीकृष्ण कहते हैं-

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।

उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।।

ʹउस ज्ञान को तू तत्त्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ। उनको भलीभाँति दंडवत् प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने और कपट छोड़कर सरलता पूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्म-तत्त्व को भलीभाँति जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे।ʹ (गीताः 4.34)

स्रोतः ऋषि प्रसाद मई 2013, पृष्ठ संख्या 28, अंक 245

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आत्मविकास के 15 साधन – पूज्य बापू जी


आत्मविकास करना हो, आत्मबल बढ़ाना हो और अपना कल्याण करना हो तो विद्यार्थियों को 15 बातों पर ध्यान देना चाहिए।

संकल्पः संकल्प में अथाह सामर्थ्य है। दृढ़ संकल्पवान मनुष्य हर क्षेत्र में सफल और हर किसी का प्यारा हो सकता है। आत्मबल बढ़ाने के लिए कोई भी छोटा-मोटा जो जरूरी है, वह संकल्प करें।

दृढ़ताः अपनी योग्यता, आवश्यकता और बलबूते अनुसार संकल्प करें और फिर छोड़ें नहीं, उसको पूरा करें। मैं हिमालय में एक ऐसी जगह पर पहुँचा कि जहाँ 15-20 कदम चलो तो श्वास फूले। ऑक्सीजन कम थी और मेरे पास सामान भी था। मैं बार-बार थोड़ा रूक जाऊँ, सामान रखकर थोड़ा आराम करूँ फिर चलूँ। मुझे जाना था बस पकड़ने के लिए। मैंने सोचा ऐसे रुकते-रुकते जाऊँगा तो बस भी चली जायेगी, रात को ठंड में कहाँ भटकना !ʹ संकल्प किया कि ʹजब तक बस स्टैंड नहीं आयेगा तब तक हाथ में से सामान नीचे नहीं रखूँगा।ʹ शक्ति (बलबूते) के अनुसार थोड़ा दम तो मारना पड़ा लेकिन कैसे भी करके वहाँ पहुँच गये। दृढ़ता से कार्य सम्पादन करने पर संतोष होता है। जो भी अच्छा काम ठान लें, बस उसमें दृढ़ रहें। इससे आत्मबल बढ़ता है और आत्मबल बढ़ने से संकल्प फलित होता है।

निर्भयताः भय मृत्यु है, निर्भयता ही जीवन है। दुर्बलता को अपने जीवन में स्थान मत दो। जो डरता है उसे दुनिया डराती है। भय आते ही ʹभय मन में है, मैं निर्भय हूँ।ʹ – ऐसे शुद्ध ज्ञान के विचार करो। छोटी सी पुस्तक ʹजीवन रसायनʹ जेब में रखो और बार-बार पढ़ो। यह तुम्हें निर्भिक व निर्दुःख बना देगी। जो भी डरपोक हैं, उनको भी ʹजीवन रसायनʹ पुस्तक भेज दो। यह बड़ी सेवा है। जिनके स्वभाव और घर में झगड़ा हो उऩ्हें ʹमधुर व्यवहारʹ पुस्तक, जहाँ मृत्यु और शोक है वहाँ ʹमंगलमय जीवन मृत्युʹ जिनको ईश्वर की ओर बढ़ना है उनको ʹईश्वर की ओरʹ और जिनको जीवन में विकास करना है उनको ʹजीवन विकासʹ पुस्तक पहुँचायें।

ज्ञानः आत्मा-परमात्मा और प्रकृति का ज्ञान पाने से भी आत्मबल बढ़ता है। जब सदगुरु सत्संग से आंतरिक ज्ञान की ज्योति प्रज्जवलित कर देते हैं तो वह पापों को जलाकर जीवन में प्रकाश, शांति और माधुर्य ले आती है।

सत्यस्वरूप परमात्मा का चिंतनः ʹजो साक्षी है, सत् है, चेतन है, जो कभी मरता नहीं, बिछुड़ता नहीं और बेवफाई नहीं कर सकता, उस परमात्मा के साथ मेरा नित्य योग है और मरने, बिछुड़ने, बेवफाई करने वाले संसार और शरीर के साथ नित्य वियोग है।ʹ – ऐसे चिंतन भी आत्मबल विकसित होता है।

श्रद्धाः भगवान, भगव्तप्राप्त महापुरुष, शास्त्र, गुरुमंत्र और अपने-आप पर श्रद्धा आत्मविकास व परम सुख की अमोघ कुंजी है।

ईश्वरीय विकासः सत्संग, भगवन्नाम जप, ध्यान एवं व्रत-उपवास से ईश्वरीय विकास होता है। ईश्वरीय अंश विकसित होने पर समता, नम्रता, प्रसन्नता, उदारता, परोपकार, आत्मबल आदि दैवी गुण स्वाभाविक ही आ जाते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2013, पृष्ठ संख्या 13, अंक 244

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सदाचारः जैसा व्यवहार आप दूसरों से अपने प्रति नहीं चाहते हो, वही ʹदुराचारʹ है। जैसा व्यवहार आप दूसरों से अपने प्रति चाहते हो, वही ʹसदाचारʹ है। दूसरों को मान देना, आप अमानी रहना – यह सफलता की कुंजी है। झूठ-कपट, बेईमानी, दुराचार से नहीं, सदाचार से आत्मविकास होता है। बस, आप सत्कर्म करते रहो, सदाचारयुक्त जीवन जियो और अपने आत्मस्वभाव, ʹसोઽहंʹ स्वभाव में स्थित होने का प्रयत्न करते जाओ, इसी से आपका कल्याण होगा।

सच्चाई का आचरणः सत्य, मधुर एवं हितकर वाणी से सदगुणों का पोषण होता है, मन पवित्र व बुद्धि निर्मल बनती है। तुम्हारी वाणी में जितनी सच्चाई होगी उतनी ही तुम्हारी और तुम जिससे बात करते हो उसकी आध्यात्मिक उन्नति होगी।

संयमः जीवन के विकास का मूल संयम है। जिसके जीवन में संयम नहीं है, वह न तो स्वयं की ठीक से उन्नति कर पाता है और न ही समाज में कोई महान कार्य कर पाता है। हाथों-पैरों का संयम, वाणी का संयम, संकल्प-विकल्पों का संयम और ब्रह्मचर्य का पालन-इनसे आत्मविकास होता है। मौन है, नहीं बोलना है तो नहीं बोलना है। एकादशी है, अऩ्न नहीं खाना है तो नहीं खाना है। संकल्प-विकल्प रोकने के लिए बार-बार दीर्घ प्रणव का जप करना चाहिए। आश्रम की पुस्तक ʹदिव्य प्रेरणा प्रकाशʹ में ब्रह्मचर्य के लिए निर्दिष्ट उपायों का अवलम्बन लेकर ब्रह्म परमात्मा में पहुँचना चाहिए। सुबह जल्दी उठें, ध्यान भजन करें, दीर्घ प्रणव का जप करें तो सत्त्वगुण बढ़ जाता है। इससे आत्मविकास होता है।

अहिंसाः किसी को मन से, शरीर से, वचन से दुःख न पहुँचाना अहिंसा है।

दयाः जो दूसरों का दुःख मिटाकर आनंद पाता है, उसको अपना दुःख मिटाने हेतु अलग से मेहनत नहीं करनी पड़ती। यदि तुम्हारा दिल परोपकार की भावना से ओतप्रोत हो, निर्भयता और निष्कामता से भरा हो तो प्रकृति तुम्हारे अनुकूल होने को तत्पर रहती है। इसीलिए सबके मंगल के लिए दयाभाव रखो।

सेवाः महापुरुषों, गुरुओं या किसी की भी निःस्वार्थ सेवा से आत्मबल बढ़ता है। सेवा का अपना आनंद, औदार्य, पुण्य व प्रभाव है। ईमानदारी की सेवा से अंतःकरण शुद्ध होता है। सेवा में दिखावा न हो। आप लौकिक दुनिया में चाहे आध्यात्मिक जगत में, सेवा के बिना प्रगति सम्भव ही नहीं है।

न्यायः न्याय के पक्ष में रहने से भी आत्मबल बढ़ता है। स्वार्थरहित, कामना रहित होकर, दूसरों का हित हो यह ध्यान रख के न्याय करो तो आपको आत्मसंतोष मिलेगा। अपने लिए न्याय, औरों के लिए उदारता की नीति जो बर्तता है, उसका बड़प्पन खूब मिलता है।

परमात्म-प्रेम का विकासः प्रेम में अपनत्व होता है, विश्वास होता है, परमात्मा प्रेम से प्रकट होते हैं। बुद्धि में परमात्म-प्रेम की जागृति ही मनुष्य जीवन का लक्ष्य होना चाहिए। परमात्मा में, गुरु में प्रीति करने से आत्मबल, आत्मसुख बहुत बढ़ता है। जितना हम निष्काम, निःस्वार्थ, गुरुप्रेमी, प्रभुप्रेमी होते हैं, उतना ही हमारी बुद्धि में गुरु का, प्रभु का प्रसाद विकसित होता है।

तुम अगर चाहो तो अपने जीवन को उत्साह एवं तत्परता से भरकर भारत माता के महान सुपूत बन सकते हो। तुम ठान लो, प्रतिभा विकसित करो। ईश्वर का असीम बल तुममें छुपा है। ૐ…ૐ..ૐ…ૐ

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2013, पृष्ठ संख्या 11, अंक 245

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