गुरुभक्तों के अनूठे वरदान (बोध कथा)

गुरुभक्तों के अनूठे वरदान (बोध कथा)


मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूं मांगो, तुम मुझसे कोई एक वर मांग लो ! यदि आपको अपने गुरू से ऐसे वचन सुनने को मिलें तो आप वर स्वरूप उनसे क्या मांगेंगे । यह प्रश्न, यह प्रसाद कितना लुभावना सा है, हमें सोचने को मजबूर कर ही देता है । भोगी से योगी तक सभी इस पर विचार करते हैं, फर्क बस इतना ही है कि इसका जवाब गढ़ने के लिए एक सांसारिक अपनी बुद्धि की चतुराई लगाता है, और एक साधक, गुरुभक्त मन की भक्ताई लगाता है अर्थात भक्ति-भावना लगाता है ।

भागवत के एक ही प्रसंग में जब हिरण्यकश्यपू को मांगने का अवसर मिला तो उसने भरपूर बुद्धि भिड़ाई और बहुत ही टेढ़े अंदाज़ में अमरता मांग ली । मैं ना पृथ्वी पर मरूं, ना आकाश में, ना भीतर मरूं, ना बाहर मरूं आदि आदि, परंतु हिरण्यकश्यपू के वध के बाद जब भगवान नरसिंह ने भक्त प्रहलाद को वर मांगने को कहा तो वह सजल आंखें लिये बोला ! मेरी कोई कामना ना रहे, मेरी यही कामना है।

मतलब कि सांसारिक व्यक्ति की मांग मैं, मेरे के स्वार्थी दायरों से बाहर नहीं आ पाती, बड़ी छिछली-सी होती है । मगर एक शिष्य की, गुरुभक्त की सोच व्यापकता को उपलब्ध होती है, क्यूंकि उसका प्रेम व्यापक से है, व्यापक स्वरूप गुरुदेव से है । कई भक्तों ने ऐसे अवसर पर अपने भक्तिभाव से सराबोर सुन्दर और भक्तिवर्धिनी उदगार व्यक्त किये हैं । इस अवसर पर कि तुम मुझसे कुछ वर मांगो ।

पहला गुरुभक्त कहता है कि ऐसे में मैं गुरुजी से गुरुजी को ही मांग लूंगा, गुरुजी को मांगने का मतलब क्या है ? यही कि गुरुदेव हमारे भीतर ऐसे समा जायें कि हमारे हर विचार, हर व्यवहार, हर कर्म में भी झलकें । ताकि जब समाज हमें देखे तो समाज को गुरू महाराज की ही याद आये, उनकी ऊंचाई का भान हो और वह गदगद होकर कह उठें जब शिष्य ऐसे हैं तो साक्षात इनके गुरू कैसे होंगे ।

इस अवसर पर दूसरा गुरुभक्त कहता है कि जब भी श्री गुरूमहाराज इस धरा पर आयें मैं भी उनके साथ ही आऊं । और मैं उनकी आयु का ही होऊं और मेरी चेतना को यह ज्ञान हो कि मेरे गुरुवर साक्षात भगवान हैं और फिर मैं जी भरके उनकी सेवा करूं और उनसे प्यार करूं । तो भाई उनकी आयु के होने के पीछे क्या रहस्य है गुरुदेव की आयु के होने से यह लाभ होगा कि मैं उनके अवतरण काल में ज्यादा से ज्यादा समय बिता पाऊंगा और उनके सानिध्य का आनन्द, लाभ उठा पाऊंगा । उनसे पहले आया तो हो सकता है उन्हें छोड़ कर मुझे इस धरती से जाना पड़े, उनके अवतरण के काफी बाद में मेरा जन्म हुआ तो हो सकता है वे मुझे इस संसार में अकेले छोड़ कर चले जाएं ।

तीसरा गुरुभक्त कहता है इस अवसर पर, कि अगर गुरुमहाराज जी मुझसे वरदान मांगने को कहेंगे तो मैं यही मांगूंगा कि वे मुझे एक ईंट के समान बनायें और वह ईंट उनके आश्रम की नींव में लगाई जाये । इसके पीछे मेरी भावना बस यही है कि जब तक मैं जीयुं छिपके प्रदर्शन, नाम, बड़ाई से अछूता रह कर गुरुदेव की सेवा करता रहूं और जैसे एक ईंट मिटकर मिट्टी हो जाता है अंततः मैं भी गुरू दरबार की मिट्टी बनूं, गुरू चरणों की रज (धूल) बन जाऊं अर्थात सदा-2 निमाणी भाव से उनका होकर रहूं ।

इस अवसर पर चौथा गुरुभक्त कहता है कि हे गुरुदेव ! वर देना तो एक ऐसा दास बनाना जिसका कोई अपना मनमौजी सोच-विचार ना हो इस दास की बुद्धि में केवल उन्हीं विचारों को प्रवेश मिले जो गुरुदेव को पसंद हों । जब विचार गुरुदेव के होंगे तो कार्य भी गुरुदेव के ही होंगे । कार्य गुरुदेव के होंगे तो जीवन भी गुरुदेव का होकर ही रह जायेगा, इस दास को यह पता होगा कि मेरे मालिक अब क्या चाहते हैं ।

जैसे महाराज जी हमारे कहने से पहले ही हमारे मन की बात जान जाते हैं, वैसे ही इस दास को गुरुवर के कहने से पहले ही गुरुवर के मन की बात पता होगी । बात पता चलते ही वह सक्रिय हो उन्हें पूरा करने लगेगा, यदि मैं संक्षेप में कहूं तो मुझे ऐसा दास बनने की चाह है जैसा गुरुदेव का हाथ, जिसकी अपनी कोई मति नहीं । सोचते महाराज जी हैं वही सोच हाथ तक पहुंच जाती है और बस हाथ उसे पूरा कर देता है । जो महाराज जी सोचें मैं भी यंत्रवत उसे पूरा करता जाऊं ।

पांचवा भक्त इस अवसर पर कहता है कि अगर गुरू महाराज जी से मुझे कुछ मांगने का अवसर मिलेगा तो शायद मैं उस समय कुछ बोल ही नहीं पाऊंगा । मेरी आंखों से बहते अश्रु गुरुदेव से अपनी इच्छा जरूर व्यक्त कर देंगे परन्तु मेरी वाणी मौन रहेगी ।

इस अवसर पर छठा भक्त कहता है कि जब आखिरी श्वास निकले तो गुरुदेव के श्रीचरणों में मेरा मस्तक हो । उनका मुस्कुराता हुआ प्रसन्न चेहरा मेरी आंखों के सामने और वे गर्वित स्वर में कहें कि बेटे तुझे जो कार्य मैंने सौंपा था वह पूर्ण हुआ, चल-2 अब यहां से लौट चलें ।

इस अवसर पर सातवां गुरुभक्त कहता है कि हे गुरुदेव सुन्दर भावों से मुक्त मन मुझे दे दो, क्यूंकि मेरे पास भाव का ही अभाव रहता है और गुरुदेव कि दृष्टि अगर हमसे कुछ खोजती है तो भावों को ही खोजती है वैभव, सौंदर्य, वाक्पटुता अन्य कुछ नहीं । यदि हम भावों द्वारा उनसे जुड़े हैं वे हमेशा हमसे हमारे लिए उपलब्ध हैं इसलिए हे गुरुदेव मैं तो वरदान स्वरूप में भावों की ही सौगात मांगूंगा ।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *