दौसा जिले के वैश्य की पुत्री सती ने दादू दयाल महाराज के शिष्य जग्गा जी महाराज को प्रणाम किया तो जग्गा जी ने दोनों हाथ उठाकर कहाः “पुत्रवती भव।”
दादू जी को पता चला तो उन्होंने कहाः “कैसा चेला है रे ! उसके भाग्य में तो पुत्र था ही नहीं और तूने पुत्रवती भव बोल दिया। अब क्या करेगा ? संत आदमी ने वचन दिया है तो झूठा तो नहीं पड़ना चाहिए।”
जग्गा जी बोलेः “गुरु महाराज ! उपाय क्या है ?”
दादू जी बोलेः “यह शरीर छोड़ के उसके गर्भ से जन्म लेगा तभी तेरा वचन सच्चा होगा।”
उसने अनुसंधान किया और शरीर त्यागा, फिर वैश्य की पुत्री के गर्भ से बालक का जन्म हुआ। अब पिछले जन्म का तो वह दादू दयाल जी का चेला था। जन्म हुआ तो बच्चा सुंदर और अंदर से सूझबूझवाला था। थोड़ा बोलने लायक हुआ तो कविता बोलने लगा। संयमी भी इतना, सत्संगी भी इतना, सुंदर भी इतना की नाम पड़ा सुंदरदास। और उन सुंदरदास का रहना, कहना तो सुंदर लेकिन सत्संग भी बड़ा सुंदर !
सुंदरदास जी लिखते हैं-
गुरु बिन ज्ञान नहिं, गुरु बिन ध्यान नहिं,
ईंट, चूने, हाड़-मांस का ज्ञान तो इंजीनियर, डॉक्टर कोई भी दे देगा लेकिन आत्मा-परमात्मा का ज्ञान तो गुरु के द्वारा ही मिलेगा। ‘तेरा-मेरा’ ध्यान तो ठीक है लेकिन जिससे सारे ध्यान हो के मिट जाते हैं फिर भी ज्यों-का-त्यों रहता है उस आत्मदेव का ध्यान तो गुरु के ज्ञान के बिना नहीं होता।
गुरु बिन आतम विचार न लहतु है।
गुरु के बिना आत्मा-परमात्मा का प्रकाश भी नहीं होता है। मरने वाले शरीर को मैं मानकर मरे जा रहे हैं। अरे, यह तो पाँच भूतों का है, तुम तो अमर आत्मा हो – यह ज्ञान गुरु के बिना नहीं मिलेगा। मूर्ख लोग कैसे हैं कि शरीर बीमार होता है तो बोलते हैं, ‘मैं बीमार हूँ।’ मन में दुःख आता है तो बोले, ‘मैं दुःखी हूँ।’ चित्त में चिंता आती है तो बोले तो ‘मुझे चिंता है।’ चमड़ा काला हो गया तो बोले, ‘मैं काला हो गया।’ चमड़ा अगर गोरा हो गया तो बोले, ‘मैं गोरा हो गया।’ अरे, तू तो वही का वही है। यह तो शरीर बदलता है, तू नहीं बदलता ! लेकिन गुरु के बिना ज्ञान नहीं न ! सुंदरदास जी महाराज आगे लिखते हैं-
गुरु बिन प्रेम नहिं, गुरु बिन नेम नहिं,
गुरु के बिना भगवत्प्रेम भी नहीं जगता और भगवन्नाम, मंत्र जप कि माला करने का नेम (नियम) भी नहीं मिलता। गुरु जी नेम देते हैं तभी चले काम।
गुरु बिन सीलहु संतोष न गहतु है।
गुरु के सम्पर्क में आने से आत्मशांति होती है, संतोष होता है, मन पवित्र होता है। गुरु की दृष्टि पड़तीहै तो पाप नाश होते हैं। गुरु की वाणी सुनते हैं तो अभिमान मिटता है। गुरु का सत्संग और सान्निध्य व्यक्ति से सत्कर्म कराता है।
गुरु बिन प्यास नहिं, बुद्धि को प्रकास नहिं,
जब तक गुरु नहीं मिलते हैं तब तक भगवान को पाने की प्यास भी तो पैदा नहीं होती और गुरु के बिना बुद्धि को ज्ञान-प्रकाश भी नहीं मिलता।
भ्रमहू को नास नहिं, संसेई रहतु है।
मरने वाले शरीर को मैं मानते हो और वास्तविक जो तुम हो अमर आत्मा, उसका पता ही नहीं, यह स्थिति भ्रम कहलाती है। गुरु के ज्ञान के बिना भ्रम का नाश नहीं होगा। गुरु बताते हैं, ‘बेटा ! यह हाड़-मांस का शरीर तुम नहीं हो। दुःखी-सुखी होने वाला मन तुम नहीं हो। बीमार पड़ने वाला और ठीक होने वाला तन तुम नहीं हो। तुम इन सबको जानने वाले हो, चैतन्य हो, अमर हो, विभु हो, व्यापक हो। यह शरीर मरने वाला है। दुःख भी मरता है, सुख भी मरता है, मान-अपमान भी मरता है। बचपन मर गया, जवानी भी मर गयी।’
गुरु बिन बाट1 नहीं, कौड़ी2 बिन हाट3 नहिं,
‘सुंदर’ प्रकट लो, वेद यों कहतु है।।
1 मार्ग 2 धन 3 बाजार
वेद भगवान प्रकट होकर यह बात कहते हैं। दादू जी महाराज बोल गये तो बाद में अपना वचन निभाकर सुंदर जीवन जिये और 93 साल की उम्र में सांगानेर (राज.) में शरीर छोड़ा। सांगानेर में अभी भी उनकी समाधि है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2016, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 285
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