Monthly Archives: May 2017

भगवान का अनुभव कैसे होता है ?


पूज्य बापू जी

मेरे गुरुदेव कहते कि “भगवान की कसम खा के बोलता हूँ कि तुम रोज भगवान का दर्शन करते हो लेकिन “यही है भगवान” यह नहीं जानते। महापुरुष झूठ क्यों बोलेंगे ? अब तुम मान लो तो संशय टला, विश्रांति मिली और विश्रांति मिली तो पता चला कि “यह है”। यह जरूरी नहीं कि बहुत लोग मानें तभी हुआ। सबका अपना-अपना प्रारब्ध है, अपना-अपना कार्यक्षेत्र है। आत्मा तो सबका वही का वही, जो विश्रांति पा ले, निःसंशय हो जाये उसका काम बन जाय।

संशय सबको खात है संशय सबका पीर।

संशय की फाँकी करे वह है संत फकीर।।

एक व्यक्ति ने पूछा, “बाबा जी ! भगवान का दर्शन हो जाय तो क्या होता है ? आत्मसाक्षात्कार कैसा होता है ?”

बाबा जी बोलेः “मैं पूछता हूँ कि आप रोटी खाते हो तो कैसा अनुभव होता है ?”

“बाबा जी ! स्वाद आता है, भूख मिटती है और पुष्टि मिलती है।”

“बस, ऐसे ही अंतरात्मा का संतोष होता है, तृप्ति रहती है अंदर।”

“कैसे पता चले कि हमको हो गया है ?”

“मैं पूछता हूँ कि कैसे पता चले कि मैंने खाना खा लिया है ?”

“अरे, वह तो अनुभव का विषय है।”

“तो यह भी अनुभव का विषय है।?

किन्हीं संत के पास पहुँच गया ऐसा एक फक्कड़ ब्रह्मचारी लेकिन था अर्धनास्तिक। बोलेः “महाराज ! आप सिद्धपुरुष हैं, पहले भगवान का दर्शन करा दो, फिर मैं मानूँगा कि भगवान हैं।”

संतः “भाई ! पहले तू मान, फिर धीरे-धीरे तेरी वृत्ति भगवताकार बनेगी, तभी तो अनुभव होगा !”

“नहीं, महाराज !”

“बेटा ! यह अनजाना देश है, अनमिला पिया है। अभी पिया से मिले नहीं तभी तो जन्म-मरण में भटक रहे हो। इसलिए गुरु की बात मान लो।”

बोलेः “जब लग न देखूँ अपने नैन, तब लग न मानूँ गुरु के बैन।

महाराज ! जब तक हम आँखों से नहीं देखेंगे, तब तक नहीं मानेंगे।”

महाराज ने देखा कि अब इसका ऑपरेशन ही इलाज है। महाराज जरा मस्त रहे होंगे। बोलेः “बड़ा आया “भगवान का अनुभव करा दो”, तेरे बाप के नौकर हैं ? साधु-संत के पास जाना है तो

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। (गीताः 4.34)

विधिसहित, श्रद्धा-भक्तिसहित सेवा करो।

“महाराज ! सेवा करने से भगवान मिल जाता है तो मैं क्या सेवा करूँ ?”

“सेवा क्या करेगा, कम-से-कम प्रणाम तो कर श्रद्धा से।”

“मैं दंडवत् प्रणाम करता हूँ।”

लम्बा पड़ गया। महाराज भी थे मौजी, कस के मार दिया घूँसा पीठ पर।

“आह ! यह क्या कर दिया महाराज ! क्या भगवान का दर्शन ऐसे होता है ?”

“क्या हुआ ?”

“बहुत दुःख रहा है । !

“अच्छा, देखें कहाँ दुःखता है ?”

“क्या महाराज ! यह आँखों से दिखेगा ?”

“अच्छा, ठीक है तो हम सूँघ के देखें ?”

“सूँघने से नहीं पता चलेगा।”

“चख के देखें ?”

“चख के भी नहीं पता चलेगा।”

“जब तक दिखे नहीं, सूँघने में आये नहीं, अनुभव में आये नहीं तो मैं कैसे मानूँ कि तेरे को पीड़ा है ?”

“महाराज ! लगी हो तो आपको पता चले। यह तो अनुभव का विषय है।”

“जब एक घूँसे की पीड़ा भी अनुभव का विषय है या भोजन का स्वाद भी अनुभव का विषय है तो परमात्मस्वाद भी अनुभव का विषय है बेटा !”

“तो उसका अनुभव कैसे हो बाबा ?”

“भगवान की सत्ता, चेतनता बुद्धिपूर्वक समझ में आ जाती है, भगवान की आनंदता का अनुभव करना पड़ता है। विषय विकारों की इच्छा होती है और इच्छापूर्ति होने पर इच्छा हट जाती है एवं दूसरी उभर जाती है। पहली इच्छा हटते ही जो सुख की झलक आती है, जो आनंद मिलता है वह सुखाभास है। जब सुखाभास है तो सुख भी है, प्रतिबिम्ब भी है तो बिम्ब भी है।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2017, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 293

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

भगवान से बड़ा कौन व कैसे ? – स्वामी रामसुखदास जी


संत तुलसीदास जी कहते हैं

राम सिंधु घन सज्जन धीरा।

चंदन तरु हरि संत समीरा।।

‘श्रीरामचन्द्रजी समुद्र हैं तो धीर संत-पुरुष मेघ हैं। श्रीहरि चंदन के वृक्ष हैं तो संत पवन हैं।’ (श्री रामचरित. उ.कां. 119.9)

भगवान श्रीकृष्ण भी दुर्वासा जी से कहते हैं-

अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतन्त्र इव द्विज।

साधुभिर्ग्रस्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रियः।।

“मैं सर्वथा भक्तों के अधीन हूँ। मुझमें तनिक भी स्वतन्त्रता नहीं है। मेरे सीधे-सादे, सरल भक्तों ने मेरे हृदय को अपने हाथ में कर रखा है। भक्त जन मुझसे प्यार करते हैं और मैं उनसे।” (श्रीमद्भागवतः 9.4.63)

भगवान संतों को बड़ा बताते हैं। भगवान ने कहीं भी अपने को संत से बड़ा बतलाया हो ऐसा देखने में नहीं आया। इस दृष्टि से संत ही बड़े हुए और यदि हम अपने लाभ के लिए विचार करते हैं तो भी संत ही बड़े हैं क्योंकि परमात्मा के सच्चिदानंदरूप में जीवमात्र के हृदय में रखते हुए भी संतकृपा और सत्संग के बिना जीव भगवान के उस परम आनंदमय स्वरूप के अनुभव से वंचित रहकर दुःखी ही रहते हैं। भगवत्स्वरूप का अनुभव भगवद्भक्ति से होता है और वह मिलती है संतकृपा तथा सत्संग से।

भगति तात अनुपम सुखमूला।

मिलइ जो संत होइँ अऩुकूला।। (श्रीरामचरित. अरं.कां. 15.2)

भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी।

बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी।। (श्रीरामचरित. उ.कां. 44.3)

अतः हमारे लिए तो संत ही बड़े हुए।

भगवत्कृपा से प्राप्त हुई मानव देह का  फल मनुष्य के कर्म एवं साधन के अनुसार स्वर्ग, नरक अथवा मोक्ष – सभी हो सकता है किंतु संतों की कृपा से प्राप्त हुए सत्संग का फल केवल परम पद ही होता है।

भगवान तो दुष्टों का उद्धार करते हैं उनका विनाश करके, पर संत दुष्टों का उद्धार करते हैं उनकी वृत्तियों का सुधार करके। भगवान अपने बनाये हुए कानून में बंधे हुए हैं परंतु संतों में दया आ जाती है। इस प्रकार भी संत भगवान से बड़े हैं। भगवान सब जगह मिल सकते हैं पर आत्मज्ञानी संत कहीं-कहीं ही हैं। अतः वे भगवान से भी दुर्लभ हैं।

हरि दुरलभ नहीं जगत में, हरिजन दुरलभ होय।

हरि हेर्याँ सब जग मिलै, हरिजन कहिं एक होय।।

हमारा उद्धार करने में संत ही बड़े हुए। अतः हमें उन्हीं को बड़ा मानना चाहिए। तात्त्विक दृष्टि से देखें तो संत और भगवान दोनों एक ही हैं।

संतों का सेवन किस प्रकार किया जाय ? इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि संतों के सेवन का सर्वोत्तम ढंग है उनके मन, उनकी आज्ञा के अनुसार चलना, उनके सिद्धान्तों का आदरपूर्वक पालन करना। यह संत सेवन की ऊँची-से-ऊँची विधि है। इसका कारण यह है कि संतों को अपना सिद्धान्त जितना प्यारा होता है उतने उनको अपने प्राण भी प्यारे नहीं होते, जो हम लोगों को सबसे अधिक प्यारे हैं।

उनके सिद्धांत का सांगोपांग (अंगों-उप अंगों सहित) पालन करना, उनके मन के अनुसार चलना और यदि मन का पता न लगे तो इशारे, आज्ञा आदि के अऩुसार चलना चाहिए। यह उनकी सबसे बड़ी सेवा है – अग्या सम न सुसाहिब सेवा। अतः शरीर से सेवा करने के साथ ही श्रद्धा प्रेमपूर्वक मन से भी सेवा की जाय तो कहना ही क्या !

उनका सिद्धान्त, भगवद्-अनुभव जानने के लिए उनका संग करके उनसे भगवत्संबंधी बात पूछनी चाहिए। इससे हम अधिक लाभ उठा सकते हैं। संतों से पुत्र, स्त्री, धन, मान, बड़ाई आदि से संबंध रखने वाले सांसारिक पदार्थ चाहना अमूल्य हीरे को पत्थर से फोड़ना है, यह संतों के संग का सदुपयोग नहीं है।

वे जो कुछ निर्देश करें उसे उनकी आज्ञा समझकर पालन करें। आज्ञापालन का स्थान सेवा में सबसे ऊँचा माना गया है।

एक संत थे। उनके पास रहने वाले श्रद्धालु व्यक्तियों में से एक व्यक्ति की एक दिन संत ने परीक्षा लेनी चाही। वे बोलेः “मेरी कमर में दर्द हो रहा है, जरा अपने पैरों से दबा दो।” श्रद्धालु ने कहाः “महाराज ! आपके शरीर पर पैर कैसे रखूँ ?” संत ने उत्तर दियाः “ठीक है, मेरे शरीर पर तो तुम पैर नहीं रखते पर  मेरी जबान पर तो पैर रख ही दिया न ?”

हाँ, यह सम्भव है कि हम संत के वचनों का पूरा पालन न कर सकें। किंतु यदि मन में वचन-पालन की नीयत है तथा उसके लिए यथा-सामर्थ्य प्रयत्न भी किया गया है तो फिर चाहे उसका अक्षरशः पालन न भी हो पाया हो तो भी उससे बहुत बड़ा लाभ होता है।

सत्संग के लिए तो संत स्वयं अपनी ओर से चले जाते हैं क्योंकि प्रेमी-जिज्ञासुओं के पास जाने से भगवद्वाक्यों का मनन, विचार और अनुशीलन (सतत व गहरा अभ्यास) होता है, जो उन्हें अत्यंत प्यारे हैं। इतना ही नहीं, वे अपना संग करने वाले व्यक्ति का उपकार भी मानते हैं कि इसके कारण हमारा कुछ समय भगवच्चर्चा में व्यतीत हुआ। काकभुशुंडिजी ने गरुड़ जी से कहाः “महाराज ! मुझ पर आपकी बड़ी कृपा हुई जो मुझे सत्संग-भगवच्चर्चा का मौका दिया।”

संत को प्रायः हम समझते नहीं। हम लोग तो उनकी बाहरी क्रियाओं की चमत्कारिक बातों की विशेषता देखना चाहते हैं। अपनी बुद्धि से संतों की पहचान करना बड़ा कठिन है। उनकी पहचान तो उन्हीं की एवं भगवान की कृपा से ही सम्भव है। कसौटी से पहचान करने पर तो हम ही चक्कर खा जाते हैं क्योंकि संतों की कसौटी करना ही गलत है। तो फिर संतों की पहचान कैसे हो ?

जिनके संग से हमारा साधन बढ़े, हममें दैवी सम्पत्ति आये, हम आध्यात्मिक पथ पर अग्रसर हों, हमारे आचरण में न्याय व उदारता आने लगे, भगवद्-तत्त्व का ज्ञान होने लगे, सत्शास्त्र, भगवान, महापुरुष और धर्म में श्रद्धा बढ़े और भगवान में प्रीति हो व भगवद्-स्मृति अधिक रहने लगे, हमारे लिए वे ही संत हैं। उनसे इस प्रकार का आध्यात्मिक लाभ लेना ही सच्चा लाभ है।

संतों का संग किया जाय तो वह कभी निष्फल नहीं जाता। पर उनका महत्त्व समझकर उनके सिद्धान्तानुसार आचरण करते हुए उनका संग करना उनका वास्तविक संग करना है। इस प्रकार करने से ही उनके संग का वास्तविक लाभ शीघ्र प्रकट होता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2017, पृष्ठ संख्या 16,17 अंक 293

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

 

जीव-ब्रह्म का चल पड़ा खेल सद्गुरु ज्ञान के करते मेल


बाबा श्री भास्करानन्दजी अपनी गंगातट की कुटिया में बैठे भगवन्नाम जप कर रहे थे। माधवदास नामक एक जिज्ञासु ने बाबा जी को विनम्र भाव से प्रणाम करके पूछाः “महाराज जी ! क्या जीव कभी ब्रह्मपद को प्राप्त कर सकता है ? यदि कर सकता है तो कैसे ?”

बाबा जी ने कहाः “कमरे की दीवाल टूटने से जैसे कमरे का आकाश बाहर के आकाश से मिलकर एक हो जाता है, वैसे ही मायारूपी दीवाल के हट जाने पर जीव ब्रह्म हो जाता है। माया – ‘मा’ माने नहीं, ‘या’ माने जो। माया अर्थात् जो नहीं है। माया रूपी दीवाल वह दीवाल है जो दिखने भर को है, वास्तविक नहीं। वह अज्ञान से सच्ची लगती है। गुरुज्ञान की विशुद्ध दृष्टि मिलते ही पता चलता है कि आकाश पहले भी एक ही था, अब भी एक है और आगे भी एक ही रहेगा किंतु कल्पित दीवाल के कारण अलग-अलग लग रहा था। अथवा यों समझो कि एक छोटा घड़ा, जिसमें थोड़ा जल है, नदी में बहता जा रहा है। जैसे घड़ा फूट जाता है तो घड़े का जल नदी के जल में मिलकर एक हो जाता है, तो जल अपनी जाति (तत्त्व) से एक ही परंतु घड़े के कारण अलग दिखता है, वैसे ही मायारूपी घड़े के फूट जाने पर जीव ब्रह्म में मिल जाता है।

आद्य शंकराचार्य जी ने लिखा हैः जीवो ब्रह्मैव नापरः। अर्थात् जीव (अज्ञान-दशा में अथवा ज्ञान-दशा में सदैव) ब्रह्म ही है, भिन्न नहीं है।

संत कबीर जी ने कहा हैः

माया तो ठगनी भई, ठगत फिरै सब देश।

जो ठग ने ठगनी ठगी, ता ठग को आदेश।।

यदि समझ में नहीं आया हो तो जाओ, भीतर से लोहे कि डिबिया उठा लाओ।”

माधवदास डिबिया लाकर पूछने लगेः “इसमें क्या है ?”

बाबा जीः “इसमें पारस की बटिया है।”

“महाराज ! मैंने तो सुना है कि पारस के स्पर्श से लोहा सोना हो जाता है, फिर यह डिबिया लोहे की ही कैसे रह गयी?” माधवदास ने आश्चर्यचकित होकर पूछा।

“समझ जाओगे भैया ! जरा इसे खोलो तो सही।”

माधवदास जी ने तुरंत डिबिया खोली, देखा कि कोई वस्तु कागज की पतली परत में लिपटी रखी है।

बाबा जी बोलेः “भैया ! इस कागज की परत को निकाल कर बटिया को डिबिया में रख दो।”

माधवदास ने वैसा ही किया और डिबिया सोने की हो गयी। बाबा जी बोलेः “देखो, लोहे की डिबिया में पारस था पर कागज का  आवरण बीच में होने से पारस का स्पर्श नहीं हो पाता था। इसी से लोहा लोहा बना रहा। इसी प्रकार यह मायारूपी पतला आवरण है जिसने स्वरूपतः एक होने पर भी जीव को ब्रह्म से अलग कर रखा है। इसके हटते ही जीव ब्रह्म हो जाता है। यह आवरण कोई ठोस नहीं है। ये पर्तें हैं उल्टी मान्यताओं की।”

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-

न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः।

माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः।।

माया के द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है ऐसे आसुर स्वभाव को धारण किये हुए, मनुष्यों में नीच, दूषित कर्म करने वाले मूढ़ लोग मुझको नहीं भजते। (गीताः 7.15)

माया से कैसे तरें ? इसका उपाय बताते हुए संत कबीर जी कहते हैं-

माया दीपक नर पतंग, भ्रमि-भ्रमि माहिं परंत।

कोई एक गुरु ज्ञान ते, उबरे साधू संत।।

यह माया दीपक की लौ के समान है और मनुष्य पतंगों के तुल्य है जो भ्रमवश उसमें गिरते हैं। इससे कोई विरला ही साधुस्वभाव-संतस्वभाव मनुष्य सदगुरु के ज्ञान की सहायता पाकर अपना उद्धार कर पाता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2017, पृष्ठ संख्या 25,26 अंक 293

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ