अहंकार का खेल

अहंकार का खेल


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

प्रकृतेः क्रियामाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।

अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।

ʹवास्तव में सम्पूर्ण कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं। परन्तु अहंकार से मोहित हुआ पुरुष ʹमैं कर्ता हूँʹ ऐसा मान लेता है।ʹ (भगवदगीताः 3-27)

किसी छोटे किसान के घर लड़की वाले लड़का देखने आने वाले थे। किसान ने अपने घर में किसी के दौ बैल लाकर बाँध दिये, किसी का घोड़ा लाकर रख दिया और किसी पंचायती धर्मशाला में अपनी गद्दी बिछाकर बैठ गया। आस-पास में हरे भरे खेत भी थे।

लड़की वाले आये तो उसने कह दिया किः “ये बैल, घोड़ा और मकान मेरे हैं। ये हरे भरे खेत भी अपने ही हैं।” लड़की वालों ने सोचा किः ʹयह तो कोई बड़ा साहूकार है ! चलो, यहाँ मँगनी पक्की कर लो।ʹ

मकान तो पंचायती है, घोड़ा बैल पड़ोसियों के हैं लेकिन कह दिया कि ʹये मेरे हैं।ʹ ऐसे ही ये इन्द्रियाँ और पाँच भूतों का मकान पंचायती है। इस पंचभौतिक (पंचायती) शरीर को ʹमैंʹ मानकर तथा इन इन्द्रियरूपी घोड़ों को ʹमेराʹ मानकर मनुष्य इनमें आसक्त होकर कर्म करता है। इसीलिए वह कर्मबंधन में बँध जाता है। कर्म तो होते हैं पंचायती मकान में, कर्म होते हैं इन्द्रियों के द्वारा लेकिन यह जीव अपने को उनका कर्त्ता मान लेता है।

जैसे, आँख देखती है परन्तु जीव कहता है कि ʹमैं देखता हूँ।ʹ कान सुनते हैं तो बोलता है कि ʹमैं सुन रहा हूँ।ʹ मन सोचता है तो कहता है कि ʹमैं सोचता हूँ।ʹ बुद्धि निर्णय करती है तो बोलता है कि ʹयह मेरा निर्णय है।ʹ इन्द्रियों के साथ मन को जोड़ता है और मन के साथ बुद्धि को जोड़कर उनके साथ स्वयं भी घुल-मिल जाता है। इस बात का उसे पता ही नहीं होता कि उसकी आत्मा शुद्ध-बुद्ध, चैतन्यस्वरूप, अकर्त्ता एवं अभोक्ता है। अहंकार के कारण मूढ़ हुआ यह जीव कर्म के फंदे में फँस जाता है। जिसकी सत्ता से कर्म हो रहे हैं उस परमेश्वर को वह नहीं जानता है और न ही उस प्रकृति को जानता है जिसमें कर्म हो रहे हैं, जो कर्म करती है। अविद्या के कारण यह जीव बीच में अपनी टाँग अड़ा देता है।

जैसे, विद्युत की सत्ता से बिजली के सारे उपकरण चलते हैं। लग तो रहा है कि बल्ब प्रकाश दे रहा है, टयूबलाईट रोशनी दे रही है लेकिन टयूबलाइट की अपनी स्वतंत्र सत्ता नहीं है। आवाज को ʹस्पीकरʹ तक पहुँचाने की ʹमाइकʹ की अपनी स्वतंत्र सत्ता नहीं है प्रत्युत जिसकी सत्ता लेकर यह जड़ माया सत्य जैसी दिख रही है, उस परमेश्वर की सत्ता है। वह परमेश्वर जीव का सनातन सखा है। जीव उस सनातन स्वरूप का ही अंश है। परन्तु यह जीव प्रकृति के कर्मों को अपने ऊपर थोप लेता है। प्रकृति को जहाँ से सत्ता मिलती है उस परमेश्वर की ओर यह जीव नहीं देखता है।

करन करावनहार स्वामी, सकल घटां के अन्तर्यामी।

ऐसा कौन बैठा है जो शरीर में रक्त बना रहा है ? इतनी तेजी से रक्त का संचार होता है कि यदि शरीर के किसी भाग में इन्जेक्शन लगायें तो उसमें भरी औषधि पूरे शरीर में फैल जाती है। न चाहने पर भी बालों को सफेद कौन कर रहा है ? आप नहीं चाहते कि बाल सफेद हो जायें, चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ जायँ लेकिन पड़ जाती हैं। ….तो आपके कहने में जो नहीं चलता वह आप नहीं हैं। वह कुछ और ही वस्तु है, फिर भी उसे अपने पर थोप लेते हैं।

यह अहंकार न जाने कैसे-कैसे वेश बदलता है ? यह जरूरी नहीं कि साधु हो जाओ तो अहंकार आपको छोड़ देगा। ना ना। अरे ! जो जेल जाते हैं उनको भी अहंकार छोड़ता नहीं है। पुराना कैदी नये कैदी से पूछता हैः “क्यों रे ! कितनी सजा है ?” जवाब मिलता हैः “छः महीने की।” पुराना कैदी कहता हैः “अपना बिस्तर बाहर बरामदे में लगा। तुझे पता नहीं यहाँ तीस सालवाले मर्द रहते हैं ? तू तो कल का बच्चा है। कोई छोटी-मोटी हरकत की होगी। सिर्फ छः महीने की सजा ! तू अभी नवसिखुआ लगता है। पहली बार आया है क्या ?”

नये कैदी ने ʹहाँʹ के जवाब में सिर हिलाया।

पुराना कैदी बोलाः ” मैं तो चौथी बार आया हूँ।”

जेल जाने का भी अहंकार होता है।

आप अकेले में बैठकर पूजा कर रहे हो तो घंटी अपने ढंग की बजेगी लेकिन यदि घर में दो चार भक्त आ गये तो घंटी बजाने में अहंकार भी कुछ खेल खेलेगा। आरती बोलने में भी लम्बा विस्तार करने लगेगा। और तो क्या कहें ? बैलगाड़ी हाँकने वाले लड़के जब खेतों के बीच में से आयेंगे तो अपनी चाल में भी होंगे किन्तु जब गाँव में प्रवेश करेंगे तब बैलों की पूँछ मरोड़ेंगे, उनको दौड़ायेंगे। साइकिल और रिक्शावाले भी जब अपने मुहल्ले में जायेंगे तो आगे कोई नहीं होगा फिर भी ʹहार्नʹ बजायेंगे। यह अहंकार कैसे-कैसे खेल खेलता है ! भगवान की कृपा हो और सावधानी बरती जाय तभी इससे बचा जा सकता है, नहीं तो यह सबको निगल जाता है।

दोपहर का समय था। बुद्धु हलवाई दुकान पर बैठा था। ऊपर कुछ कागजात पड़े हुए थे। चूहों और बिल्ली की भाग-दौड़ में कागजों का बंडल गिरा। उनमें से छमाही परीक्षा का परिणाम हाथ में आया। बुद्धु हलवाई देखता हैः इतिहास में पाँच अंक और गणित में सिर्फ तीन अंक ! प्रत्येक विषय में इतने कम अंक देखकर उसे बड़ा गुस्सा आया। वह आगबबूला हो गया। इतने में ही उसका लड़का पाठशाला से आया। बुद्धु हलवाई ने उसका कान पकड़कर कहाः “रोज दो-पाँच रूपये लेता है और परीक्षा का परिणाम ! देख, तीन अंक, पाँच अंक !

लड़के ने कहाः “पापा ! यह मार्कशीट तो बहुत पुरानी है। आगे देखिये, उस पर आपका नाम लिखा है। मेरी मार्कशीट तो मेरे पास है।

बुद्धु हलवाई का गुस्सा न जाने कहाँ चला गया। हमें अपनी गलती दिखती नहीं है और यदि दिखती है तो बहुत छोटी हो जाती है परन्तु यदि दूसरे की है तो बड़ी दिखती है। यह अहंकार की पहचान है। परिवार में देवरानी जेठानी आपस में क्यों लड़ती हैं ? अपने अधिकार की रक्षा और दूसरे का कर्त्तव्य, इसी से झगड़ा होता है। ʹतेरा यह कर्त्तव्य है…. मेरा यह अधिकार है।ʹ यदि हम अपना कर्त्तव्य देखें और सामने वाले के अधिकार की रक्षा करें तो कुटुम्ब, समाज और देश स्वर्ग में बदल जायेगा। हम लोग क्या करते हैं ? अपने अधिकार की रक्षा करते हैं और सामने वाले को उसका कर्त्तव्य बताते हैं- “साधु संत की सेवा करना तुम्हारा कर्त्तव्य है। वक्ता आ जाय तो अपना तन, मन, धन अर्पण कर देना तुम्हारा कर्त्तव्य है।

मैं आपको आपके कर्त्तव्य और मेरा अधिकार बताऊँ तो मेरे अंदर का रस प्रगट नहीं होगा और आपके अंतःकरण में रसस्वरूप की कोई अनुभूति नहीं होगी। यदि मैं अपने कर्त्तव्य की रक्षा करूँ… आप चार कदम चलकर भगवान के नाते, संत के नाते यहाँ आये रो तो यह देखना मेरा कर्त्तव्य है कि आपके पाप मिट जायें, आपकी अशांति मिट जाय और जीवन की शाम होने से पहले जीवनदाता का दर्शन करने की तड़प आपमें पैदा हो जाय, आपकी अविद्या मिट जाय। अगर मैं अपना ऐसा कर्त्तव्य समझता हूँ और अपने अधिकार के प्रति लापरवाह रहता हूँ तो मेरा अधिकार अपने आप मेरे पीछे-पीछे खिंचकर आयेगा और मेरी सेवा करेगा। मेरा कर्त्तव्य पालने का मुझे आनंद भी आयेगा। जीवन जीने का यही सही तरीका है।

किसान ने अनजान कन्यापक्षवालों को धोखा देने के लिए भले ही झूठ बोल दिया किः ʹये बैल, घोड़ा, मकान आदि मेरे हैं…..ʹ लेकिन जिसने पंचायती मकान बनाया है वह तो जानता है कि यह किसका है। ऐसे ही हम कह रहे हैं किः ʹयह मैं हूँ और यह मेरा है…ʹ लेकिन जिस प्रकृति और परमात्मा ने यह सब बनाया है वे तो जानते हैं कि किसका है। फिर उसको ʹमैंʹ और ʹमेराʹ मानना यह नादानी है।

शास्त्रों में आता हैः ʹजिसकी वाणी और मन दोनों पवित्र हैं तथा सत्य एवं धर्म के द्वारा सुरक्षित हैं और जो शरीर, मन तथा इन्द्रियों को अपना नहीं मानता है, उसको वेदान्त का फल अपने आप मिल जाता है।ʹ

जो ईमानदारी एवं तत्परता से कार्य करता है लेकिन अपने में कर्त्तापने को आरोपित नहीं करता वह कर्मयोगी है।

एक बाबाजी ने सत्संगियों के बीच किसी सेठ की प्रशंसा करते हुए कहा किः “ये तो बड़े दानवीर हैं, बहुत अच्छे हैं….ʹ किन्तु सेठजी को बड़ा लज्जित हुआ देखकर उन्होंने पूछाः “भाई ! तुम लज्जित क्यों हो गये ?” सेठ बोलाः “महाराज ! आपने लोगों को बताया कि ʹये बड़े दानी हैं, सत्संगियों की सेवा करते हैं…..ʹ आदि। …..लेकिन बाबाजी ! मैं तो कुछ भी नहीं करता हूँ। सूर्य और चन्द्रमा दिन-रात रोशनी दे रहे हैं, हवायें चल रही हैं। दिया हुआ सब दाता का है, मेरा तो यह शरीर भी नहीं है।”

देने वाला दे रहा, दिन और रैन।

लोग मुझे दानी कहें, इसलिए नीचे नैन।।

दान तो करो लेकिन दान का गर्व मत करो। सेवा तो करो किन्तु सेवा का गर्व मत करो। भजन करो किन्तु भजन का गर्व मत करो। मित्र बनाओ लेकिन ʹमेरे इतने मित्र हैं…. मेरे पास इतना धन है….ʹ ऐसा गर्व न हो। धनबल, जनबल, सत्ताबल ये सारे बल प्रकृति के हैं। आप उनको अपना मानकर उनमें उलझो मत, अपितु ये वस्तुएँ प्रकृति की हैं और आप अमर आत्मा हो, परमात्मा का सनातन सत्य हो, अपने परमात्म-स्वभाव का सुमिरन-मनन-निदिध्यासन करके अपने अलौकिक सुख और ज्ञान को प्रगट कर लो भैया !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2000, पृष्ठ संख्या 4,5,6 अंक 94

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