बाबा श्री भास्करानन्दजी अपनी गंगातट की कुटिया में बैठे भगवन्नाम जप कर रहे थे। माधवदास नामक एक जिज्ञासु ने बाबा जी को विनम्र भाव से प्रणाम करके पूछाः “महाराज जी ! क्या जीव कभी ब्रह्मपद को प्राप्त कर सकता है ? यदि कर सकता है तो कैसे ?”
बाबा जी ने कहाः “कमरे की दीवाल टूटने से जैसे कमरे का आकाश बाहर के आकाश से मिलकर एक हो जाता है, वैसे ही मायारूपी दीवाल के हट जाने पर जीव ब्रह्म हो जाता है। माया – ‘मा’ माने नहीं, ‘या’ माने जो। माया अर्थात् जो नहीं है। माया रूपी दीवाल वह दीवाल है जो दिखने भर को है, वास्तविक नहीं। वह अज्ञान से सच्ची लगती है। गुरुज्ञान की विशुद्ध दृष्टि मिलते ही पता चलता है कि आकाश पहले भी एक ही था, अब भी एक है और आगे भी एक ही रहेगा किंतु कल्पित दीवाल के कारण अलग-अलग लग रहा था। अथवा यों समझो कि एक छोटा घड़ा, जिसमें थोड़ा जल है, नदी में बहता जा रहा है। जैसे घड़ा फूट जाता है तो घड़े का जल नदी के जल में मिलकर एक हो जाता है, तो जल अपनी जाति (तत्त्व) से एक ही परंतु घड़े के कारण अलग दिखता है, वैसे ही मायारूपी घड़े के फूट जाने पर जीव ब्रह्म में मिल जाता है।
आद्य शंकराचार्य जी ने लिखा हैः जीवो ब्रह्मैव नापरः। अर्थात् जीव (अज्ञान-दशा में अथवा ज्ञान-दशा में सदैव) ब्रह्म ही है, भिन्न नहीं है।
संत कबीर जी ने कहा हैः
माया तो ठगनी भई, ठगत फिरै सब देश।
जो ठग ने ठगनी ठगी, ता ठग को आदेश।।
यदि समझ में नहीं आया हो तो जाओ, भीतर से लोहे कि डिबिया उठा लाओ।”
माधवदास डिबिया लाकर पूछने लगेः “इसमें क्या है ?”
बाबा जीः “इसमें पारस की बटिया है।”
“महाराज ! मैंने तो सुना है कि पारस के स्पर्श से लोहा सोना हो जाता है, फिर यह डिबिया लोहे की ही कैसे रह गयी?” माधवदास ने आश्चर्यचकित होकर पूछा।
“समझ जाओगे भैया ! जरा इसे खोलो तो सही।”
माधवदास जी ने तुरंत डिबिया खोली, देखा कि कोई वस्तु कागज की पतली परत में लिपटी रखी है।
बाबा जी बोलेः “भैया ! इस कागज की परत को निकाल कर बटिया को डिबिया में रख दो।”
माधवदास ने वैसा ही किया और डिबिया सोने की हो गयी। बाबा जी बोलेः “देखो, लोहे की डिबिया में पारस था पर कागज का आवरण बीच में होने से पारस का स्पर्श नहीं हो पाता था। इसी से लोहा लोहा बना रहा। इसी प्रकार यह मायारूपी पतला आवरण है जिसने स्वरूपतः एक होने पर भी जीव को ब्रह्म से अलग कर रखा है। इसके हटते ही जीव ब्रह्म हो जाता है। यह आवरण कोई ठोस नहीं है। ये पर्तें हैं उल्टी मान्यताओं की।”
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः।
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः।।
माया के द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है ऐसे आसुर स्वभाव को धारण किये हुए, मनुष्यों में नीच, दूषित कर्म करने वाले मूढ़ लोग मुझको नहीं भजते। (गीताः 7.15)
माया से कैसे तरें ? इसका उपाय बताते हुए संत कबीर जी कहते हैं-
माया दीपक नर पतंग, भ्रमि-भ्रमि माहिं परंत।
कोई एक गुरु ज्ञान ते, उबरे साधू संत।।
यह माया दीपक की लौ के समान है और मनुष्य पतंगों के तुल्य है जो भ्रमवश उसमें गिरते हैं। इससे कोई विरला ही साधुस्वभाव-संतस्वभाव मनुष्य सदगुरु के ज्ञान की सहायता पाकर अपना उद्धार कर पाता है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2017, पृष्ठ संख्या 25,26 अंक 293
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