Monthly Archives: May 2017

कौन सी चर्चाएँ ग्राह्य और कौनसी त्याज्य ?


(गुरु हरगोविंदजी जयंतीः 10 जून 2017)

एक दिन गुरु हरगोविंद जी के एक शिष्य ने प्रार्थना कीः “गुरुदेव ! हम गुरुभाईयों में शास्त्र चर्चा करते समय आपस में कोई विवाद उन्पन्न न हो इसका उपाय बताइये।”

गुरु हरगोविंद जी ने समझाते हुए कहाः “चर्चाएँ भले चार प्रकार की होती हैं परंतु सज्जनों, बुद्धिमानों या गुरुभाइयों के ग्रहण करने योग्य दो प्रकार की चर्चाएँ होती हैं-

वेद चर्चाः प्रेमभाव से प्रश्न उत्तर करके एक-दूसरे की तसल्ली करना।

हेत चर्चाः ईर्ष्यारहित होकर प्रेमभाव से खंडन-मंडन (दोनों पक्षों का प्रतिपादन) करके एक दूसरे की तसल्ली करना।

त्यागने योग्य दो प्रकार की चर्चाएँ हैं-

जलप चर्चाः अपनी बात की पुष्टि के लिए दूसरे की बात को रद्द करके झगड़ा करना।

वितंड चर्चाः दूसरे के पक्ष का खंडन करने के लिए छल कपट और झूठ का सहारा लेकर अपने पक्ष को सिद्ध करने का यत्न करना।

गुरु भक्त को किसी का मन हीं दुखाना चाहिए। सबके मन में सात्त्विक प्रसन्नता पैदा करनी चाहिए।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2017, पृष्ठ संख्या 15, अंक 293

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ब्रह्मज्ञानी के निंदक को भगवान भी देते हैं त्याग !


(संत कबीर जयंतीः 9 जून)

एक बार संत कबीर जी अपने शिष्यों व अन्य साधु-संतों की मंडली के साथ सत्संग, भगवन्नाम कीर्तन करते-कराते अनेक तीर्थक्षेत्रों में भ्रमण करते हुए वृंदावन पहुँचे। दूर-दूर से भक्त उनके दर्शन करने आने लगे और सत्संग अमृत का पान कर परितृप्त होते गये। वहाँ से थोड़ी दूरी पर संस्कृत के प्रकांड विद्वान पंडित हरिव्यास जी भागवत की कथा करते थे। उनको भगवान श्रीहरि के दर्शन भी होते थे।

एक दिन कुछ श्रोता संत कबीर जी का सत्संग सुनने के बाद हरिव्यास जी के पास गये और उनसे पूछाः “महाराज जी ! कबीरजी जो कथा करते हैं, वह आपकी समझ से कैसी है ? आपके यहाँ से अधिक भीड़ वहाँ होती है तथा उनकी कथा को श्रोतागण बड़े प्रेम से सुनते हैं।”

हरिव्यासजी ने झुंझलाकर कहाः “कबीर का ज्ञान नवीन है। वे भक्तिरस की बात नहीं जानते, केवल नीरस निर्गुणवाद का समर्थन करते हैं, जो सभी के लिए सुलभ नहीं है। उनकी बातें कुछ ऊटपटांग भी होती हैं।” श्रोतागण मौन हो गये।

हरिव्यास जी ने जिस दिन कबीर जी की निंदा की, उसी दिन से उन्हें भगवान के दर्शन होने बंद हो गये। हरिव्यासजी व्याकुल हो गये। उन्होंने अन्न जल त्यागकर कई दिनों तक अनशन भी किया पर उन्हें पुनः श्रीहरि के दर्शन नहीं हुए। उनकी घबराहट बढ़ती गयी और अशांत, खिन्न होकर अंत में वे अपने एक परिचित संत के पास गये, जो बड़े सिद्ध महापुरुष थे। हरिव्यासजी ने उन्हें अपना दुःख सुनाया।

संत बोलेः “तुमने अपने पांडित्य के बल पर किसी महापुरुष की निंदा की है। इसी कारण तुमको श्रीहरि ने त्याग दिया है। किसी भी सत्पुरुष को कोई अज्ञानी अपनी मति-गति से तौले और उसे अशांति, पीड़ा, संताप हो जाये तो इसमें आश्चर्य नहीं करना चाहिए। यह करूणासिंधु भगवान का मंगलमय विधान है। अपने अपने अधम अहंकार को त्यागो और जिन महापुरुष की निंदा की, उनसे क्षमा याचना करो। श्रीहरि तुम्हें पुनः दर्शन देंगे और तुम्हारी अशांति भी दूर होगी।”

हरिव्यासजी बहुत लज्जित हुए तथा पश्चाताप करने लगे। उन्होंने संत कबीर जी से माफी माँगी तथा व्यथित हृदय से उनकी स्तुति की। कबीर जी ने उनका अपराध क्षमा करते हुए कहाः “अब तुम पवित्र हो गये। आज से पुनः तुम्हें नारायण के दर्शन देंगे। परंतु तुम्हें किसी की निंदा नहीं करनी चाहिए। भगवान का भजन अनेक प्रकार से होता है, जिसको जो मार्ग सुलभ हो, उसी मार्ग से करे। किसी के मार्ग की निंदा नहीं करनी चाहिए अन्यथा स्वयं का ही अहित होता है।”

संत कबीर जी के वचन सुन हरिव्यास जी का हृदय आनंद, शांति व भगवद्भाव से भर गया। उन्हें उसी समय भगवान के दर्शन हुए। उनका पांडित्य का अभिमान नष्ट हो गया और वे एक सच्चे भगवद्भक्त बन गये तथा अपने साथ दूसरों को भी संतों के दैवी कार्यों में सहभागी बनाते हुए अनेकों का जीवन सार्थक बनाने में जुट गये।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2017, पृष्ठ संख्या 14, अंक 293

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हे गुरुदेव ! आप ही इस विश्व के सर्वस्व हैं…. संत ज्ञानेश्वरजी


हे गुरुदेव ! आपकी जय हो ! समस्त देवों में आप ही श्रेष्ठ हैं। हे बुद्धिरूपी प्रातःकाल के सूर्य ! सुख का उदय आपसे ही होता है। आप ही सबके विश्रामस्थल हैं। आप ही के द्वारा ‘सोऽहम्’ भाव का साक्षात्कार होता है। इस नाना स्वरूपवाली पंचभूतात्मक सृष्टि की तरंगें जिस समुद्र पर उठती हैं वह समुद्र आप ही हैं। आपके ऐसे स्वरूप की जय हो, जय हो ! हे आर्तबंधु ! निरन्तर करूणासिंधु (दया के सागर), शुद्ध आत्मविद्यारूपी वधू के वल्लभ (प्रियतम, स्वामी) ! आप सुनें। आप जिनकी दृष्टि में नहीं आते उन्हीं को यह मायिक विश्व दिखलाते हैं और उन्हीं पर यह नाम-रूपात्मक जगत प्रकट करते हैं। दूसरों की दृष्टि को चुराने को ही दृष्टि-बंध कहते हैं परंतु आपका यह अदभुत कौशल ऐसा है कि आप स्वयं अपना ही स्वरूप छिपाते हैं।

हे गुरुदेव ! आप ही इस विश्व के सर्वस्व हैं। यह सब नाट्य आपका ही रचा हुआ है। आप ही किसी को माया का भास कराते हैं और किसी को आत्मबोध कराते हैं। आपके ऐसे स्वरूप को नमन है ! मेरी समझ में तो सिर्फ यही आता है कि इस जगत में जिसे अप (जल) कहते हैं, उसे आपके ही शब्दों से मधुरता प्राप्त हुई है। आपसे ही पृथ्वी को क्षमावाला गुण भी मिला हुआ है। सूर्य और चन्द्रमा इत्यादि जो तेजस्वी सिपाही संसार में उदित होते हैं, उनके तेज को आपकी प्रभा से ही तेज प्राप्त होता है। वायु की चंचलता भी आपका ही दिव्य सामर्थ्य है और आकाश भी आपका ही आश्रय पाकर यह आँख-मिचौली का खेल खेल खेलता है।

तात्पर्य यह कि सारी माया आपकी ही देन है और आपके ही सामर्थ्य से ज्ञान की दृष्टि प्राप्त होती है। पर अब इस विवेचन की यहीं समाप्ति करनी चाहिए कारण कि वेद भी ऐसा विवेचन करते-करते थक जाते हैं। जिस समय तक आपके आत्मस्वरूप के दर्शन नहीं होते, उस समय तो वेदों की विवेचनात्मक शक्ति ठीक तरह काम करती है पर जब आपके स्वरूप के सन्निकट की कोई मंजिल अथवा पड़ाव आ जाता है, तब फिर वेद भी तथा मैं भी दोनों मौन हो जाते हैं अर्थात् दोनों की दशा एक समान हो जाती है। जिस समय चारों दिशाओं में समुद्र-ही-समुद्र हो और एक बुलबुला भी अलग न दिखाई देता हो, उस समय (उसमें मिल चुकी) महानदियों को ढूँढ निकालने की बात ही नहीं करनी चाहिए। जिस समय सूर्योदय होता है उस समय चन्द्रमा खद्योत (जुगनूँ) की भाँति हो जाता है। इसी प्रकार आपके आत्मस्वरूप में वेद और मैं – दोनों ही एक से हो जाते हैं। फिर जहाँ द्वैत का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है तथा परा वाणी (चार प्रकार की वाणियों में पहली जो नादस्वरूपा और मूलाधार से निकली हुई मानी गयी है।) के साथ वैखरी वाणी (मुँह से उच्चारित होने वाली वाणी) का भी लोप हो जाता हो, वहाँ भला मैं किस मुख से आपका वर्णन कर सकता हूँ ! यही कारण है कि अब मैं आपकी स्तुति करने की चेष्टा छोड़कर चुपचाप आपके चरणों पर माथा टेकना ही अच्छा समझता हूँ।

ऋषि प्रसाद, मई 2017, पृष्ठ संख्या 24 अंक 293

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