कलितारणहारा भगवन्नाम

कलितारणहारा भगवन्नाम


इस कलिकाल में भवसागर से पार होने के लिए भगवन्नाम एक मजबूत नौका है, जिसकी सहायता से मनुष्य भवसागर से सरलता से पार हो सकता है। भगवन्नाम-महिमा का वर्णन करते हुए महर्षि वेदव्यासजी अपने शिष्यों को कहते हैं- कलिर्धन्यः ʹअर्थात् कलियुग धन्य है !ʹ व्यासजी के वचन सुनकर शिष्यों ने जिज्ञासापूर्वक प्रश्न किया कि “गुरुजी ! कलियुग में तो पाप, दुराचार, निंदा, राग-द्वेष अधिक होता है, फिर भी आप उसे धन्य कह रहे हैं !”

व्यासजी ने कहाः “मैं कलियुग को धन्य इसलिए कहता हूँ क्योंकि इसमें भगवान को प्राप्त करना अधिक आसान है। कलियुग में निरंतर भगवन्नाम लेने मात्र से मनुष्य उनको प्राप्त कर सकता है। यह दूसरे युग में सम्भव ही नहीं है।”

ʹश्रीमद् भागवतʹ (12.3.52) में भी आता हैः

कृते यद् ध्यायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखैः।

द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद्धरिकीर्तनात्।।

ʹसत्ययुग में भगवान विष्णु के ध्यान से, त्रेता में यज्ञ से और द्वापर में भगवान की पूजा से जो फल मिलता था, वह सब कलियुग में भगवान के नाम-कीर्तनमात्र से प्राप्त हो जाता है।ʹ

ऐसा कलितारण भगवन्नाम सर्व पापों को हरकर परमात्म-प्रीति जगाने का अमोघ सामर्थ्य रखता है। पापविनाशक परम कृपालु परमात्मा सबके सुहृद, परम हितैषी, निकटतम व सबके लिए सहज हैं। वे सहस्ररूपाधिपति, सहस्रनामाधिपति होते हुए भी नाम-रूप से रहित हैं। जात-पाँत, गुण-धर्म को न देखकर जो जिस नाम से उन्हें भजता है, प्रभु वैसे ही उसे मिलते हैं। उसकी समझ को अधिकाधिक परिपक्व बनाते हुए अपने दिव्य स्वरूप का ज्ञान पाने की ओर उसे प्रेरित करते हैं।

उस चैतन्यस्वरूप परमात्मा के नाम-जप के प्रताप से ही निर्बल सबल बनकर प्रबल भक्ति को पा सकते हैं। दुष्ट और कनिष्ठ श्रेष्ठ बनकर सर्वोत्कृष्ट पद को पा सकते हैं। यहाँ तक कि एक बार गलती से, कपट से या अन्य किसी भी भाव से कोई भगवन्नामरुपी डोरी से परमात्मा का दामन पकड़ लेता है तो फिर पकड़ने वाला कितना भी छुड़ाना चाहे पर प्रभु उसे छोड़ते नहीं।

भगवन्नाम-जप के प्रभाव से वह भगवान के प्रेमपाश में बँध जाता है। पूतना ने कपट से प्रभु को पकड़ा पर भगवान ने जब उसे पकड़ा तो ऐसा पकड़ा कि उसने छुड़ाना चाहा तो भी नहीं छोड़ा, पूतना को पार कर दिया। इस प्रकार अंतःस्थल की परा वाणी के प्रकाशक उस प्रभु का कोई दम्भ, पाखंड या कामनावश भी नाम-सुमिरन करे तो भी उसका कल्याण निश्चित ही होता है। दुनिया में मनुष्य को अपने नाम का मोह ही दुःख देता है और जन्म-मरण के चक्कर में डालता है। अतः कीर्ति का मोह छोड़ने के लिए नामकीर्तन-जप के सिवा कोई उपाय नहीं है। भगवान का नाम ʹममʹ के भार की जगह ʹसमʹ का सार सिखाता है। ममता को हटाकर समता के ऊँचे सिंहासन पर प्रतिष्ठित करता है। समता आयी तो सार, नहीं तो सब भार – यह सिद्धांत भगवन्नाम-सुमिरन करते-करते शांत होने से ही प्रत्यक्ष अनुभव होता है। जप से लोभ मिटकर लाभ-ही-लाभ होता है, मनुष्य की इच्छानुसार फिर चाहे वह भौतिक लाभ हो या आध्यात्मिक लाभ।

गिरधर नाम का गान करते हुए भक्तिमती मीरा ने नाचकर प्रभु को रिझा लिया तो अकाल पुरुष आदि नामों का सुमिरन करते हुए उसमें शांत होकर गुरु नानकदेवजी ने प्रभु को पा लिया। ʹविट्ठल, रामकृष्ण, हरिʹ – इन भगवन्नामों से संत तुकारामजी ने भगवान की निष्काम उपासना कर पूर्णता प्राप्त की तो उन्हीं पांडुरंग का नाम जपते-जपते ब्रह्मज्ञानी सदगुरु विसोबा खेचर के श्रीचरणों में पहुँचने की यात्रा कर संत नामदेव जी के नामरूपरहित परमात्मा का साक्षात्कार कर लिया। भगवन्नाम-जप से स्वार्थपरता सर्वार्थता में बदल जाती है और सर्वार्थता परमार्थता में परिणत होकर जीवन को पूर्णता की ओर अग्रसर करती है। बिजलीघर से तो तार जुड़ा है ही, बस भगवन्नाम की पुकार से अहंकार का बटन दबाया कि प्रकाश-ही-प्रकाश है !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2012, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 238

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