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Sant Charitra

भगवान के पिताः मेरे गुरुदेव – पूज्य बापू जी


दृढ़ संकल्प के आगे झुकता प्रारब्ध मेरे गुरुदेव बड़े दृढ़ संकल्पवान थे । गुरुदेव जब घर में थे तब उनको एक ज्योतिषी ने बोलाः “आपको 3 बेटियाँ होंगी, 2 जमाई होंगे, एक जमाई हरामी होगा, ऐसा होगा…” परंतु गुरुदेव ने आजीवन ब्रह्मचारी रहने का पक्का इरादा किया तो न एक बेटी हुई, न 3 बेटियाँ हुईं, न 2 जमाई हुए… सब देखते ही रह गये ! ‘भगवान हमारा बेटा लगता है’ मेरे गुरुदेव बड़े विनोदी थे । मुंबई में समुद्र तट पर घूमने गये । वहाँ एक ज्योतिषी किसी का हाथ देखकर कुछ-का-कुछ बता रहा था तो मेरे गुरुदेव भी ज्योतिषी के भगत बन गये । हाथ जोड़कर बैठ गये । बोलेः “महाराज ! मेरा हाथ देखो । भगवान कब मिलेगा ?” ज्योतिषी बोलाः “बाबा ! तुमने मेहनत तो बहुत की है, भगवान के लिए तड़पते हो ।” तो साँईँ जी ने सिर हिलाया । ज्योतिषीः “थोड़ी मेहनत और करोगे तो इस जन्म में नहीं तो दूसरे जन्म में तो भगवान तुम्हें मिल ही जायेगा ।” गुरुदेव ने कहाः “अच्छा, अच्छा ।” सेवक को बोलाः “इनको दक्षिणा दे दो ।” ज्योतिंषी ने देखा कि ‘बाबा के ऊपर मेरा प्रभाव पड़ गया है ।’ कहीं ज्योतिषी का बुरा न हो जाय इसलिए बाबा ने कहाः “हाथ की रेखा से भगवान के मिलने का कोई संबंध नहीं होता । भगवान मेरे को इस जन्म में नहीं तो दूसरे जन्म में मिलेगा !… यह बंडल मारने की बात है फिर भी दक्षिणा ले लो । जिसको तुम भगवान बोलते हो वह हमारा बेटा लगता है ।” जो भी तुम्हारे भगवान हैं वे ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों के मानसपुत्र होते हैं । ‘ओ मेरे बेटे बरसात बंद कर दे’ महापुरुषों का भगवान के प्रति कितना प्यार है कि भगवान को बेटे के रूप में मानते हैं तो भगवान बेटे की तरह उनके आदेश का पालन करते हैं । यह केवल कहने की बात नहीं है । आप अजमेर से पुष्कर जाओगे तो पुष्कर की चढ़ाई चढ़ते-चढ़ते ‘ऋषि उद्यान’ का बोर्ड मिलता है । अंदर ऋषि दयानंद जी की कुटिया है । उसमें मेरे गुरुदेव जून-जुलाई के महीनों में रहते थे, बाद में मैं भी वहाँ उन्हीं दिनों में रहा हूँ । गुरुदेव वहाँ शाम को सत्संग करते थे । एक दिन शाम को बारिश आने की तैयारी थी, जरा-सी बरसात हुई लोग भागे परंतु कुछ लोग रुक गये । सत्संग पूरा हो गया, गुरुदेव अपनी कुटिया में गये । थोड़ी देर बाद गुरुदेव कुटिया से बाहर निकले, बोलेः “और लोग निकल गये, तुम लोग गये नहीं ?” बोलेः “साँईं ! बरसात बढ़ गयी है ।” कोई बड़बोला था, वह बोलाः “साँईं ! आप बोलते हैं न, भगवान तो हमारा बेटा है । अपने बेटे को बोलो बरसात बंद करे तो हम घर जायें ।” गुरुदेव आसमान की तरफ देखते हुए बोलेः “औ मेरे बेटे ! बरसात बंद कर दे ।” धड़ाक्-से बरसात बंद हो गयी और लोग घर भागे । उनके घर पहुँचते ही फिर से बारिश चालू हो गयी । यह घटित घटना है । यह अनुभव की बात उस समय जो लोग वहाँ उपस्थित थे उन्होंने स्मृति ग्रंथ ‘स्वामी लीलाशाह दर्शन’ में बतायी है । स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2022, पृष्ठ संख्या 14,15 अंक 358 ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

हम इंतज़ार करते हैं कि आप वहाँ कब पहुँचते हो – पूज्य बापू जी



यह वह दिन है जिसकी बाट जीव करोड़ों जन्मों से देखता है ।
जीव कई बार जन्म लेता है और मर जाता है – जिस पद को पाये बिना
सब करा-कराया छोड़ के रीता हो जाता है, उस पद को प्राप्त कराने
वाला यह आत्मसाक्षात्कार का दिवस है । श्रीकृष्ण, श्रीराम, शिवजी के
दर्शन हो जायें, यह बडी बात है परंतु आत्मसाक्षात्कार के आगे यह भी
नन्हीं बात हो जाती है । श्रीकृष्ण के दर्शन तो अर्जुन को होते थे किंतु
सत्संग के अभाव में अर्जुन विक्षिप्त थे । वैकुंठ में जय-विजय को
भगवान नारायण का दर्शन होता था परंतु सत्संग के अभाव में वही
जय-विजय हिरण्याक्ष-हिरण्यकशिपु, शिशुपाल-दंतवक्र और रावण-
कुम्भकर्ण बने । जब तक आत्मसाक्षात्कार नहीं होता तब तक जीव की
जन्म-मरण की यात्रा चालू रहती है ।
आसोज सुद दो दिवस (आश्विन शुक्ल द्वितीया)… यह मेरा
आत्मसाक्षात्कार दिवस है । देवता, पशु-पक्षी बनकर भी न जाने कितने
जन्मों में क्या-क्या किया होगा, मनुष्य बन के कितने पापड़ बेले होंगे
परंतु जब गुरु की कृपा मिली और आखिरी कुंजी लगी तो..
आसोज सुद दो दिवस, संवत् बीस इक्कीस ।
मध्याह्न ढाई बज, मिला ईस से ईस ।।
देह सभी मिथ्या हुई, जगत हुआ निस्सार ।
हुआ आत्मा से तभी, अपना साक्षात्कार ।।
जब तक जीवात्मा को परमात्मा का साक्षात्कार नहीं होता तब तक
चाहे सारे ब्रह्मांडों में भटक ले परंतु…
निज सुख बिनु मन होइ कि थीरा ।

‘निज-सुख (आत्मानंद) के बिना क्या मन स्थिर हो सकता है ?’
(श्रीरामचरित. उ.कां. 89.4)
जिस आत्मसुख के लिए जीव कई जन्म लेता है उसकी प्राप्ति
अर्जुन को भगवान श्रीकृष्ण के सत्संग व कृपा से हुई, राजा जनक को
अष्टावक्रजी एवं आसुमल को साँईं श्री लीलाशाह जी बापू के सत्संग और
कृपा से हुई । और मेरे गुरुदेव का वही प्रसाद आप तक भी पहुँच रहा है,
आप सबको बधाई ! शास्त्र कहता हैः
यत्पदं प्रेप्सवो दीनाः शक्राद्याः सर्वदेवताः ।
अहो तत्र स्थितो योगी न हर्षमुपगच्छति ।।
‘इन्द्र आदि सारे देवता जिस पद की प्राप्ति के लिए अत्यंत दीन हो
रहे हैं, बड़े आश्चर्य की बात है कि उसी पद पर स्थित होकर तत्त्वज्ञानी
हर्षरुप विकार को नहीं प्राप्त होते ।’ (अष्टावक्र गीताः 4.2)
वह आश्चर्य वाली घटना जिस दिन घटी वह ‘आसोज सुद दो
दिवस’ था । हम पहुँचे हैं, अब हम इंतजार करेंगे कि आप कब पहुँचते
हो । ऐसी जगह पहुँचो कि जहाँ से फिर पतन न हो, संसार का कोई
सुख तुम्हें आकर्षित न करे और दुःख तुम्हें दबा न सके, अप्सराएँ भी
तुम्हारे आगे कोई मायना न रखें । ऐसे परम सुख को पाने के लिए
सत्संग जैसा दूसरा कोई साधन नहीं है ।
शरीर को ‘मैं’ माना, आँख-नाक-कान से मजा लेने के लिए बाहर
भागा, जीभ से मजा लेने के लिए स्वादिष्ट व्यञ्जन ठूँसे, त्वचा से स्पर्श
का मजा लिया… इन 5 विषय-विकारों में जीव बेचारा खपता जाता है ।
अगर सत्संग मिले, थोड़ा साधन भजन और नियम जीवन में आ जाय
तो आहाहा !… खाये पर औषध की नाईं, देखे पर व्यवहारपूर्ति के लिए –
विकार में डूबने के लिए नहीं, सुने पर जिससे सुना जाता है उसकी ओर

पहँचने के लिए सुने । फिर आप तो निहाल हो जाओगे, जो आपका
दीदार करेगा और दो वचन सुनेगा वह भी खुशहाल हो जायेगा ।
गुरुकृपा ही केवलं…
मैंने एकांत में ध्यान योग, लय योग, कुंडलिनी योग, जप योग…
बहुत पापड़ बेले हैं, बहुत कुछ किया है । 3 साल की उम्र से लेकर 22
साल की उम्र तक अलग-अलग साधनाएँ कीं । किसी ने साधना बतायीः
‘यह मंत्र लो, ऐसे-ऐसे करो, हनुमान जी आयेंगे ।’ वह किया । हनुमान
जी आयें उसके पहले हनुमानजी का भाव जागृत हुआ, हुप्प-हुप्प करके
दौड़े और बड़े के पेड़ पर जा चढ़े, पत्ते खाने लगे । मैंने सोचा, ‘धत् तेरे
की ! हनुमान जी आये उसके पहले तो…!’
और भी अलग-अलग साधन किये । ये सारे पापड़ बेल-बेल के अंत
में जब सद्गुरु मिले तब पता चलाः
वे थे न मुझसे दूर, न मैं उनसे दूर था
आता न था नज़र तो नज़र का कसूर था, समझ का कसूर था ।।
कहना पड़ता है कि
गुरुकृपा हि केवलं शिष्यस्य परं मंगलम् ।
आत्मसाक्षात्कार कैसे होता है ?
“बाबा जी ! परमात्मा का साक्षात्कार कैसे होता ह ?”
देखो, एक कल्पित कहानी है । अँधेरी रात में कोई बाबा जी आ
रहे थे ।
एक गरीब व्यक्ति बोलाः “बाबा ! मैं बहुत दुःखी और गरीब हूँ ।
मुझ पर कृपा कीजिये ।”
बाबाः “देख भैया ! मैं जिस रास्ते से आ रहा था वहाँ एक मणि
चमक रही थी, लाखों रुपये की होगी । इतने पग आगे चलोगे तो

पगडंडी दायीं ओर मुड़ेगी फिर बायीं ओर मुड़ेगी, वहाँ एक वृक्ष दिखेगा ।
उससे थोड़ा सा आगे पगडंडी से सटा हुआ कुंडा पड़ा है । उस कुंडे से
मैंने वह चमकती हुई मणि ढक दी है । मुझे क्या करना है, मैं तो दंडी
संन्यासी हूँ, विरक्त हूँ । जा बेटे ! तू ले ले, तेरा काम बन जायेगा ।”
उस व्यक्ति ने लालटेन उठायी और बाबा जी के बताये अनुसार
निकल पड़ा । उसे लालटेन की तब तक जरूरत पड़ेगी जब तक वह कुंडे
तक नहीं पहुँचा है । वहाँ पहुँचते ही उसने कुंडे को डंडा दे मारा । कुंडा
टूट गया । अब उसे मणि को देखने के लिए लालटेन की जरूरत नहीं है

ऐसे ही साधन-भजन करते-करते तुम्हारी मतिरूपी लालटेन,
गतिरूपी पुरुषार्थ और नियम चलते-चलते परमात्म-विश्रांति तक आये
फिर ‘मैं’ रूपी कुंडे को मार दिया डंडा ! तो ऐ हे ! विश्रांति मिल गयी…
फिर वहाँ वाणी नहीं जाती । उसे कहते हैं परमात्मप्राप्ति, ब्रह्मकार वृत्ति
। ईश्वर में डूब गये । श्रीरामकृष्ण परमहंस को जब परमात्मसुख का
अनुभव हुआ तब 3 दिन तक वे उसी में डूबे रहे । हमारे को हुआ तो
हम ढाई दिन उस ब्रह्मानंद की मस्ती में रहे । कोई 3 मिनट भी उस
परमात्मसुख में डूब जाय तो उसका दोबारा जन्म नहीं होता !
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2022, पृष्ठ संख्या 14,15 अंक 357
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संकल्प की शक्ति – पूज्य बापू जी



शुभ संकल्प में क्या ताकत है उसका बयान मैं नहीं कर सकता हूँ
। गंगाराम हो गये सिंधी साँईं, उन्होंने मेरे गुरु जी पूज्यपाद लीलाशाह
जी प्रभु का गांधी जी से जुड़ा एक प्रसंग बताया ।
महात्मा गांधी ने हरिजन-हित के लिए उपवास रखा था और वे
सच्चे आदमी थे । उनकी तबीयत लड़खड़ा गयी । यह बात शहदादपुर में
मेरे गुरु जी को पता चली तो उन्होंने लोगों को बुलाकर कहाः “महात्मा
गांधी की तबीयत बहुत गिर गयी है । चलो, संकल्प करें कि वे जीवित
रहें । देश का भला होगा, भारत आजाद होगा ।
मेरे गुरु जी का संकल्प दृढ़ था । लोगों को निमित्त बनाकर उनसे
भी संकल्प करवायाः ‘गांधी स्वस्थ हों, स्वस्थ हों, स्वस्थ हों ! मोहनदास
करमचंद गांधी स्वस्थ हों, गांधी जी स्वस्थ हों !’ प्रार्थना व संकल्प
करवा के फिर बोलेः “सुबह शाम कहो, गांधी जी बच जायें, जब भी
आपस में मिलो तो यही कहो कि ‘गांधी जी स्वस्थ हों’ । तुम्हारे संकल्पों
से भी देश की सेवा करने वाले गांधी जी स्वस्थ हो जायेंगे ।
और गांधी जी वास्तव में स्वस्थ हो गये । ऐसे स्वस्थ हुए कि
हरिजन-उद्धार में तो सफल हुए ही, भारत के शोषकों को भगाने में भी
गांधी जी सफल हुए और अपने हयातीकाल में यह सब देख के गये ।
मेरे गुरुदेव भगवत्पाद लीलाशाह जी बापू के संकल्प में और लोक-संकल्प
में कैसी शक्ति छुपी है !
हमारे गुरु जी का ऐसा दृढ़ संकल्प कि चलती रेलगाड़ी को रोक
दिया ! नीम के पेड़ को स्थान बदलने का आदेश दिया तो वह सही
जगह पर पहुँच गया । कैसा दृढ़ संकल्प है !
तुम्हारे संकल्प को कौन टाल सकता है !

मेरा स्वास्थ्य जो टनाटन हो रहा है इसमें क्या मेरे साधकों का
संकल्प नहीं काम कर रहा है ? उन्हीं का है संकल्पः ‘बापू हमारे स्वस्थ
रहें, आयु लम्बी हो…’ तो कैसा टनाटन हो रहा हूँ ! लम्बा भी जी रहा
हूँ । जो जिसके लिए जैसा संकल्प करता है घूम-फिर के वह संकल्प
संकल्पकर्ता को भी वैसा ही फल देता है । मैं किसी के लिए कहूँ कि
‘यह अशांत हो, दुःखी हो, मरे-मरे…’ तो अशांति और दुःख मेरे को भी
घेर लेंगे और कहूँ, ‘इसका मंगल हो, भला हो, इसका ऐसे-ऐसे हित हो…’
तो मेरा मन भी मंगल होगा । तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु । तो मंगल
संकल्प, शुभ संकल्प करो । आप यह संकल्प कर सकते हो । परस्परं
भावयन्तु ।
तुम्हारे संकल्प है कि ‘बापू जी हमारे बीच आयें ।’ तो उनको कौन
टाल सकता है ? निष्काम भावना के संकल्प को कौन टाल सकता है ?
दुष्ट लगे रहते हैं तो दुष्ट संकल्प भी पूरे कर लेते हैं तो साधकों के शुभ
संकल्प भी पूरे होंगे ही ।
(बापू जी हमारे बीच आयें… बापू जी हमारे बीच आयें…’ यह शुभ
संकल्प सभी साधकों को नियमित रूप से दृढ़ता से करना चाहिए । जैसे
हमारे पूज्य दादागुरुजी ने गांधी जी के स्वास्थ्य के लिय़ संकल्प कराया
था वैसे ही हम सभी सुबह-शाम, जब भी आपस में मिलें तब यही कहें
कि ‘बापू जी हमारे बीच आयें… बापू जी हमारे बीच आयें…’ गुरुदेव की
कृपा से हमारा शुभ संकल्प अवश्य पूरा होगा । – संकलक)
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2022, पृष्ठ संख्या 20 अंक 357
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