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परमात्मारूपी रंगरेज की प्रीति जगाने का उत्सव : होलिकोत्सव


-पूज्य बापूजी

(होली : 12 मार्च, धुलेंडी : 13 मार्च)

संत-सम्मत होली खेलिये

होली एक सामाजिक, व्यापक त्यौहार है । शत्रुता पर विजय पाने का उत्सव, ‘एक में सब, सबमें एक’ उस रंगरेज साहेब की प्रीति जगानेवाला उत्सव है ।

संत कबीरजी कहते हैं :

साहब है रँगरेज चुनरि मोरि रँग डारी ।।

स्याही रंग छुड़ाय के दियो भक्ति को रंग ।

धोवे से छूटे नहीं दिन दिन होत सुरंग ।।

गुरु-परमात्मा को साहब कहते हैं ।

यह दिन मौका देता है कि न कोई नीचा, न कोई ऊँचा । गुरुवाणी में आता है :

एक नूर ते सभु जगु उपजिआ

कउन भले को मंदे ।।

365 दिनों में से 364 दिन तो तेरे-मेरे के शिष्टाचार में हमने अपने को बाँधा लेकिन होली का दिन उस तेरे-मेरे के रीति-रिवाज को हटाकर एकता की खबरें देता है कि सब भूमि गोपाल की और सब जीव शिवस्वरूप हैं, सबमें एक और एक में सब । सेठ भी आनंद चाहता है, नौकर भी आनंद चाहता है । अमीर भी आनंद चाहता है, गरीब भी आनंद चाहता है । तो इस दिन निखालिस जीवन जीकर आनंद लीजिये लेकिन उस आनंद के पीछे खतरा है । यदि वह आनंद संत-सम्मत नहीं होगा, संयम-सम्मत नहीं होगा तो वह आनंद विकारों का रूप ले लेगा और फिर पशुता आ जायेगी । श्री भोला बाबा कहते हैं :

होली अगर हो खेलनी, तो संत सम्मत खेलिये ।

तुम्हें आनंद लेने की इच्छा है और जन्मों से तुम इन्द्रियों के द्वारा आनंद ढूँढ़ रहे हो । इस दिन भी यदि तुम्हें छूट दी जाय तो स्त्री-पुरुष आपस में भी होली खेलते हैं और होली खेलते-खेलते आनंद की जगह पर न जाने कितनी उच्छृंखलता होगी, विकार होगा । तमाशबीन तमाशा देखने जाता है तो कई बार खुद का ही तमाशा हो जाता है । इसलिए होली सावधान भी करती है । होली के बाद आती है धुलेंडी ।

तन की तंदुरुस्ती मन पर निर्भर है । मन तुम्हारा यदि प्रसन्न और प्रफुल्लित है तो तन भी तुम्हें सहयोग देता है । और यदि तन से अधिक भोग भोगे जाते हैं, विकारी होली खेली जाती है, विकारी धुलेंडी की धूल डाल दी जाती है अपने पर तो तन का रोग मन को भी रोगी बना देता है, मन बूढ़ा हो जाता है, कमजोर हो जाता है । संत-सम्मत जो होली होती है उसका लक्ष्य होता है तुम्हारे तन को तंदुरुस्त और मन को प्रफुल्लित रखना ।

होली और धुलेंडी हमें कहती हैं कि जैसे इस पर्व पर हम रंग लगाते हैं तो अपना और पराया याद नहीं रखते हैं, ऐसे ही ‘मेरे-तेरे’ का भाव और आपस में जो कुछ वैमनस्य है उन सबको ज्ञान की होली में जला दें ।

होली की रात्रि का जागरण और जप-ध्यान बहुत ही फलदायी होता है । इसलिए इस रात्रि में जागरण और जप-ध्यान कर सभी पुण्यलाभ लें ।

कैसे पायें स्वास्थ्य-लाभ ?

इन दिनों में कोल्ड डिं—क्स, मैदा, दही, पचने में भारी व चिकनाईवाले पदार्थ, पिस्ता, बादाम, काजू, खोआ आदि दूर से ही त्याग देने चाहिए । होली के बाद खजूर नहीं खाना चाहिए ।

मुलतानी मिट्टी से स्नान, प्राणायाम, 15 दिन तक बिना नमक का भोजन, सुबह खाली पेट 20-25 नीम की कोंपलें व 1-2 काली मिर्च का सेवन स्वास्थ्य की शक्ति बढ़ायेगा । भूने हुए चने, पुराने जौ, लाई, खील (लावा) – ये चीजें कफ को शोषित करती हैं ।

कफ अधिक है तो गजकरणी करें, एक-डेढ़ लीटर गुनगुने पानी में 10-15 ग्राम नमक डाल दो । पंजों के बल बैठ के पियो, इतना पियो कि वह पानी बाहर आना चाहे । तब दाहिने हाथ की दो बड़ी उँगलियाँ मुँह में डालकर उलटी करो, पिया हुआ सब पानी बाहर निकाल दो । पेट बिल्कुल हलका हो जाय तब पाँच मिनट तक आराम करो । दवाइयाँ कफ का इतना शमन नहीं करेंगी जितना यह प्रयोग करेगा । हफ्ते में एक बार ऐसा कर लें तो आराम से नींद आयेगी । इस ऋतु में हलका-फुलका भोजन करना चाहिए । (गजकरणी की विस्तृत जानकारी हेतु पढ़ें आश्रम की पुस्तक ‘योगासन’)

होली के दिन सिर पर मिट्टी लगाकर स्नान करना चाहिए और प्रार्थना करनी चाहिए : ‘पृथ्वी देवी ! तुझे नमस्कार है । जैसे विघ्न-बाधाओं को तू धारण करते हुए भी यशस्वी है, ऐसे ही मैं विघ्न-बाधाओं के बीच भी संतुलित रहूँ । मेरे शरीर का स्वास्थ्य और मन की प्रसन्नता बनी रहे इस हेतु मैं आज इस होली के पर्व को, भगवान नारायण को और तुम्हें प्रणाम करता हूँ ।’

पलाश के रंगों से खेलें होली

होली की प्रदक्षिणा करके शरीर में गर्मी सहने की क्षमता का आवाहन किया जाता है । गर्मियों में सातों रंग, सातों धातु असंतुलित होंगे तो आप जरा-जरा बात में बीमारी की अवस्था और तनाव में आ सकते हैं । जो होली के दिन पलाश के फूलों के रंग से होली का फायदा उठाता है, उसके सप्तरंगों, सप्तधातुओं का संतुलन बना रहता है और वह तनाव व बीमारियों का जल्दी शिकार नहीं होता । रात को नींद नहीं आती हो तो पलाश के फूलों के रंग से होली खेलो ।

न अपना मुँह बंदर जैसा बनने दें, न दूसरे का बनायें । न अपने गले में जूतों की माला पहनें, न दूसरे को पहनायें । बहू-बेटियों को शर्म में डालनेवाली उच्छृंखलता की होली न आप खेलें, न दूसरों को खेलने का मौका दें ।

यह होलिकोत्सव बाहर से तुम्हारा शारीरिक स्वास्थ्य आदि तो ठीक करता ही है, साथ ही तुम्हें आध्यात्मिक रंग से रँगने की व्यवस्था भी देता है ।

होली का संदेश

फाल्गुनी पूर्णिमा चन्द्रमा का प्राकट्य-दिवस है, प्रह्लाद का विजय-दिवस है और होलिका का विनाश-दिवस है । व्यावहारिक जगत में यह सत्य, न्याय, सरलता, ईश्वर-अर्पण भाव का विजय-दिवस है और अहंकार, शोषण व दुनियावी वस्तुओं के द्वारा बड़े होने की बेवकूफी का पराजय-दिवस है । तो आप भी अपने जीवन में चिंतारूपी डाकिनी के विनाश-दिवस को मनाइये और प्रह्लाद के आनंद-दिवस को अपने चित्त में लाइये । होलिकोत्सव राग-द्वेष और ईर्ष्या को भुलानेवाला उत्सव है । हरि के रंग से हृदय को और पलाश के रंग से अपनी त्वचा को तथा दिलबर (अंतरात्मा) के ज्ञान-ध्यान से बुद्धि को रँगो ।

परमात्मा की उपासना करनेवाले अपनी संकीर्ण मान्यताएँ, संकीर्ण चिंतन, संकीर्ण ख्वाहिशों को छोड़कर ‘ॐ… ॐ…’ का रटन करें । पवित्र ॐकार का

गुंजन करते हुए ‘ॐ आनंद… ॐ आनंद… हरि ॐ… ॐ प्रभुजी ॐ मेरेजी ॐ… सर्वजी ॐ…’ का उच्चारण करें । जो पाप-ताप हर ले और अपना आत्मबल भर दे वह है ‘हरि ॐ’ ।

***

रासायनिक रंगों से कभी न खेलें होली

रासायनिक रंगों से होली खेलने से आँखें भी खराब हो जाती हैं और स्वास्थ्य भी खराब हो जाता है, यहाँ तक कि मृत्यु भी हो सकती है । यदि कोई आप पर रासायनिक रंग लगा दे तो तुरंत ही बेसन, आटा, दूध, हल्दी व तेल के मिश्रण से बना उबटन रँगे हुए अंगों पर लगाकर रंग को धो डालना चाहिए ।

धुलेंडी के दिन पहले से ही शरीर पर नारियल या सरसों का तेल अच्छी तरह लगा लेना चाहिए, जिससे यदि कोई त्वचा पर रासायनिक रंग डाले तो उसका दुष्प्रभाव न पड़े और वह आसानी से छूट जाय ।

होली पलाश के रंग एवं प्राकृतिक रंगों से ही खेलनी चाहिए । (पलाश के फूलों का रंग सभी संत श्री आशारामजी आश्रमों व समितियों के सेवाकेन्द्रों में उपलब्ध है ।)

(ऋषि प्रसाद अंक 279

आपके जीवन में शिव-ही-शिव हो


आपके जीवन में शिव-ही-शिव हो
(आत्मनिष्ठ पूज्य बापूजी की कल्याणमयी मधुमय वाणी)
महाशिवरात्रि पर विशेष

चार महारात्रियाँ हैं – जन्माष्टमी, होली, दिवाली और शिवरात्रि। शिवरात्रि को ‘अहोरात्रि’ भी बोलते हैं। इस दिन ग्रह-नक्षत्रों आदि का ऐसा मेल होता है कि हमारा मन नीचे के केन्द्रों से ऊपर आये। देखना, सुनना, चखना, सूँघना व स्पर्श करना- इस विकारी जीवन में तो जीव-जंतु
भी होशियार हैं। यह विकार भोगने के लिए तो बकरा, सुअर, खरगोश और कई नीच योनियाँ हैं। विकार भोगने के लिए तुम्हारा जन्म नहीं हुआ है।

विकारी शरीरों की परम्परा में आते हुए भी निर्विकार नारायण का आनंद-माधुर्य पाकर अपने शिवस्वरूप को जगाने के लिए शिवरात्रि आ जाती है कि ‘लो भाई ! तुम उठाओ इस मौके का फायदा…।’

शिवजी कहते हैं कि ‘मैं बड़े-बड़े तपों से, बड़े-बड़े यज्ञों से, बड़े-बड़े दानों से, बड़े-बड़े व्रतों से इतना संतुष्ट नहीं होता हूँ जितना शिवरात्रि के दिन उपवास करने से होता हूँ।’ अब शिवजी का संतोष क्या है ? तुम भूखे मरो और शिवजी खुश हों, क्या शिव ऐसे हैं ? नहीं, भूखे नहीं मरोगे, भूखे रहोगे तो शरीर में जो रोगों के कण पड़े हैं, वे स्वाहा हो जायेंगे और जो आलस्य, तन्द्रा बढ़ानेवाले विपरीत आहार के कण हैं वे भी स्वाहा हो जायेंगे और तुम्हारा जो छुपा हुआ सत् स्वभाव, चित् स्वभाव, आनंद स्वभाव है, वह प्रकट होगा। शिवरात्रि का उपवास करके, जागरण करके देख लो। शरीर में जो जन्म से लेकर विजातीय द्रव्य हैं, पाप-संस्कार हैं, वासनाएँ हैं उन्हें मिटाने में शिवरात्रि की रात बहुत काम करती है।

शिवरात्रि का जागरण करो और ‘बं’ बीजमंत्र का सवा लाख जप करो। संधिवात (गठिया) की तकलीफ दूर हो जायेगी। बिल्कुल पक्की बात है ! एक दिन में ही फायदा ! ऐसा बीजमंत्र है शिवजी का। वायु मुद्रा करके बैठो और ‘बं बं बं बं बं’ जप करो, उपवास करो फिर देखो अगला दिन कैसा स्फूर्तिवाला होता है।

शिवरात्रि की रात का आप खूब फायदा उठाना। विद्युत के कुचालक आसन का उपयोग करना। भीड़भाड़ में, मंदिर में नहीं गये तो ऐसे ही ‘ॐ नमः शिवाय’ जप करना। मानसिक मंदिर में जा सको तो जाना। मन से ही की हुई पूजा षोडशोपचार की पूजा से दस गुना ज्यादा हितकारी होती है और अंतर्मुखता ले आती है।

अगर आप शिव की पूजा-स्तुति करते हैं और आपके अंदर में परम शिव को पाने का संकल्प हो जाता है तो इससे बढ़कर कोई उपहार नहीं और इससे बढ़कर कोई पद नहीं है। भगवान शिव से प्रार्थना करें : ‘इस संसार के क्लेशों से बचने के लिए, जन्म-मृत्यु के शूलों से बचने के लिए हे भगवान शिव ! हे साम्बसदाशिव ! हे शंकर! मैं आपकी शरण हूँ, मैं नित्य आनेवाली संसार की यातनाओं से हारा हुआ हूँ, इसलिए आपके मंत्र का आश्रय ले रहा हूँ। आज के शिवरात्रि के इस व्रत से और मंत्रजप से तुम मुझ पर प्रसन्न रहो क्योंकि तुम अंतर्यामी साक्षी-चैतन्य हो। हे प्रभु ! तुम संतुष्ट होकर मुझे ज्ञानदृष्टि प्राप्त कराओ। सुख और दुःख में मैं सम रहूँ। लाभ और हानि को सपना समझूँ। इस संसार के प्रभाव से पार होकर इस शिवरात्रि के वेदोत्सव में मैं पूर्णतया अपने पाप-ताप को मिटाकर आपके पुण्यस्वभाव को प्राप्त करूँ।’

शिवधर्म पाँच प्रकार का कहा गया हैः एक तो तप (सात्त्वि आहार, उपवास, ब्रह्मचर्य) शरीर से, मन से, पति-पत्नी, स्त्री-पुरुष की तरफ के आकर्षण का अभाव। आकर्षण मिटाने में सफल होना हो तो ‘ॐ अर्यमायै नमः… ॐ अर्यमायै नमः…’ यह जप शिवरात्रि के दिन कर लेना, क्योंकि शिवरात्रि का जप कई गुना अधिक फलदायी कहा गया है । दूसरा है भगवान की प्रसन्नता के लिए सत्कर्म, पूजन-अर्चन आदि (मानसिक अथवा शारीरिक), तीसरा शिवमंत्र का जप, चौथा शिवस्वरूप का ध्यान और पाँचवाँ शिवस्वरूप का ज्ञान। शिवस्वरूप का ज्ञान – यह आत्मशिव की उपासना है। चिता में भी शिवतत्त्व की सत्ता है, मुर्दे में भी शिवतत्त्व की सत्ता है तभी तो मुर्दा फूलता है। हर जीवाणु में शिवतत्त्व है। तो इस प्रकार अशिव में भी शिव देखने के नजरियेवाला ज्ञान, दुःख में भी सुख को ढूँढ़ निकालनेवाला ज्ञान, मरुभूमि में भी वसंत और गंगा लहरानेवाला श्रद्धामय नजरिया, दृष्टि यह आपके जीवन में शिव-ही-शिव लायेगी ।

आत्मशिव से मुलाकात


पूज्य संत श्री आशारामजी बापू

शिवरात्रि का जो उत्सव है वह तपस्या प्रधान उत्सव है, व्रत प्रधान उत्सव है | यह उत्सव मिठाइयाँ खाने का नहीं, सैर-सपाटा करने का नहीं बल्कि व्यक्त में से हटकर अव्यक्त में जाने का है, भोग से हटकर योग में जाने का है, विकारों से हटकर निर्विकार शिवजी के सुख में अपने को डुबाने का उत्सव है |

‘महाभारत’ में भीष्म पितामह युधिष्ठिर को शिव-महिमा बताते हुए कहते हैं- “तत्त्वदृष्टि से जिनकी मति सूक्ष्म है और जिनका अधिकार शिवस्वरूप को समझने में है वे लोग शिव का पूजन करें, ध्यान करें, समत्वयोग को प्राप्त हो नहीं तो शिव की मूर्ति का पूजन करके हृदय में शुभ संकल्प विकसित करें अथवा शिवलिंग की पूजा करके अपने शिव-स्वभाव को, अपने कल्याण स्वभाव को, आत्मस्वभाव को जाग्रत करें |”
मनुष्य जिस भाव से, जिस गति से परमात्मा का पूजन, चिंतन, धारणा, ध्यान करता है उतना ही उसकी सूक्ष्म शक्तियों का विकास होता है और वह स्थूल जगत की आसक्ति छोड़कर सूक्ष्मतर, सूक्ष्मतम स्वरूप परमात्मा शिव को पाकर इहलोक एवं परलोक को जीत लेता है |

इहलोक और परलोक में ऐंद्रिक सुविधाएँ हैं, शरीर के सुख हैं लेकिन अपने को ‘स्व’ के सुख में पहुँचाये बिना शरीर के सुख बे-बुनियाद हैं और अस्थायी हैं | अनुकूलता का सुख तुच्छ है, आत्मा का सुख परम शिवस्वरूप है, कल्याणस्वरूप है |

जो प्रेम परमात्मा से करना चाहिए वह किसी के सौंदर्य से किया तो प्रेम द्वेष में बदल जायेगा, सौंदर्य ढल जायेगा या तो सौंदर्य ढलने के पहले ही आपकी प्रीति ढल जायेगी | जो मोहब्बत परमात्मा से करनी चाहिए वह अगर हाड़-मांस के शरीर से करोगे तो अपना और जिससे मोहब्बत करते हो उसका, दोनों का अहित होगा |

जो विश्वास भगवान पर करना चाहिए, वह विश्वास अगर धन पर करते हो तो धन भी सताता है | इसलिए अपने ऊपर कृपा कीजिये, अब बहुत समय बीत गया |

जैसे पुजारी ब्राह्मण लोग अथवा भक्तगण भगवान शिव को पंचामृत चढ़ाते हैं, ऐसे ही आप पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश – इन पंचभूतों से बने हुए पंचभौतिक पदार्थों का आत्मशिव की प्रसन्नता के लिए सदुपयोग करें और सदाचार से जीयें तो आपकी मति सत्-चित्-आनन्दस्वरूप शिव का साक्षात्कार करने में सफल हो जायेगी |

जो पंचभूतों से मिश्रित जगत में कर्ता और भोक्ता का भाव न रखकर परमात्मशिव के संतोष के लिए तटस्थ भाव से पक्षपात रहित, राग-द्वेष रहित भाव से व्यवहार करता है वह शिव की पूजा ही करता है |

पंचभूतों को सत्ता देने वाला यह आत्मशिव है | उसके संतोष के लिए, उसकी प्रसन्नता के लिए जो संयम से खाता पीता, लेता-देता है, भोग-बुद्धि से नहीं निर्वाह बुद्धि से जो करता है उसका तो भोजन करना भी पूजा हो जाता है |

कालरात्रि, महारात्रि, दारूणरात्रि, अहोरात्रि ये जो रात्रियाँ हैं, ये जो पर्व हैं इन दिनों में किया हुआ ध्यान, भजन, तप, जप अनंतगुना फल देता है | जैसे किसी चपरासी को एक गिलास पानी पिला देते हो, ठीक है, वो बहुत-बहुत तो आपकी फाइल एक मेज से दूसरे मेज तक पहुँचा देगा, किन्तु तुम्हारे घर पर प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति पानी का प्याला पी लेता है तो उसका मूल्य बहुत हो जाता है | इसलिए पद जितना-जितना ऊँचा है उनसे संबंध रखने से उतना ऊँचा लाभ होता है | ऊँचे-में-ऊँचा सर्वराष्ट्रपतियों का भी आधार, चपरासियों का भी आधार, संत-साधु सबका आधार परमात्मा है, तुम परमात्मा के नाते अगर थोड़ा बहुत भी कर लेते हो तो उसका अनंत गुना फल होना स्वाभाविक है |

मन सुखी होता है, दुःखी होता है | उस सुख-दुःख को भी कोई सत्यस्वरूप देख रहा है, वह कल्याणस्वरूप तेरा शिव है, तू उससे मुलाकात कर ले |

जो शिवरात्रि को उपवास करना चाहे, जप करना चाहे वह मन ही मन शिवजी को कह दे :
देवदेव महादेव नीलकण्ठ नमोऽस्तु ते |
कर्तुमिच्छाम्यहं देव शिवरात्रिव्रतं तव ||
तव प्रभावाद्देवेश निर्विघ्नेन भवेदिति |
कामाद्याः शत्रवो मां वै पीडां कुर्वन्तु नैव हि ||

‘देवदेव ! महादेव ! नीलकण्ठ ! आपको नमस्कार है | देव ! मैं आपके शिवरात्रि-व्रत का अनुष्ठान करना चाहता हूँ | देवेश्वर ! आपके प्रभाव से यह व्रत बिना किसी विघ्न बाधा के पूर्ण हो और काम आदि शत्रु मुझे पीड़ा न दें |’
(शिवपुराण, कोटिरूद्र संहिता अ. 37)
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