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आज्ञा नहीं सम साहेब सेवा


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

कुछ वर्ष पहले पंजाब का एक युवान साधक अपना सर्वस्व त्यागकर, आत्मदेव के दर्शन करा सकें – ऐसे सदगुरु की खोज में निकला।

जिन्हें हो प्यास दर्शन की, वे खुशनसीब होते हैं।

चल पड़ें दो कदम तो, रब उनके करीब होते हैं।।

अध्यात्म का मार्ग ही ऐसा है कि उस पर ईश्वर या सदगुरु की खोज में सच्चे दिल से चल पड़ो तो वह अत्यंत सुलभ बन जाता है। एक दिन उस युवान को भी ब्रह्मानंद की मस्ती में रमण करने वाले कोई तत्त्ववेत्ता महापुरुष सदगुरुरूप में मिल गये। उस युवान ने पूर्ण शरणागति और श्रद्धा-भक्तिभाव से उनके पावन श्रीचरणों में प्रणाम किया।

उन महापुरुष ने उस युवान से पूछाः “तुम्हें परमात्मा को जानना है या परमात्मा के विषय में जानना है?”

वह साधक खूब समझदार रहा होगा। उसने कहाः “मुझे परमात्मा को जानना है, परमात्मा के विषय में नहीं जानना है।”

सदगुरु ने प्रसन्न होते हुए कहाः “यदि तुम्हें परमात्मा के विषय में जानना होता तो कई शास्त्र और ग्रंथ तुम्हें थमा देता, जिनमें परमात्मविषयक बहुत सारा वर्णन किया गया है, परंतु तुम्हें परमात्मा को जानना है तो मेरे आश्रम में रहना पड़ेगा।”

साधक ने इसे अपना अहोभाग्य माना और आश्रम में रहने लगा। उसने पूछाः “गुरुदेव ! मेरे लिए सेवा या साधना की आज्ञा करें।”

गुरुदेवः “देख, इस आश्रम में 500 शिष्य हैं। उनके भोजन प्रसाद में चावल का ही उपयोग होता है। सामने जो कमरा है, उसमें धान के बोरे पड़े हैं। वहाँ जाकर धान कूटने लग। यही तेरी साधना है।”

शिष्य ने न कोई प्रश्न किया न कोई दलील की क्योंकि वह जानता था किः

आज्ञा सम नहीं साहेब सेवा

उसने न कोई मंत्र लिया, न कोई उपदेश लिया। बस, गुरु-आज्ञा ही उसका मंत्र था – मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यं…. और वही उपदेश था। सुबह से शाम तक धान कूटता रहता और रात को उसी कमरे में सो जाता। न किसी के साथ पहचान, न किसी के साथ वार्तालाप। वह तो सतत मौन रहकर सेवा साधना में ही लगा रहा। इस प्रकार 12 वर्ष बीत गये। आजकल का शिष्य होता तो 12 दिन में ही भाग जाता, परंतु ऐसे निष्ठावान शिष्य की स्मृति तो गुरुदेव को भी आ जाती है।

बड़े वे भाग्यशाली हैं, जिन्हें गुरु याद करते हैं।

नहीं कम भाग्यशाली वे, जो गुरु से प्यार करते हैं।।

गुरुदेव को ऐसे शिष्य की निष्ठा से प्रसन्नता होती है कि ‘आज मुझे पक्का शिष्य मिल गया।’

कहते हैं कि परमात्मप्राप्ति इतनी कठिन नहीं है, जितनी सच्चे सदगुरुओं की प्राप्ति और सदगुरुओं की प्राप्ति भी इतनी कठिन नहीं है, जितनी सच्चे शिष्यों की प्राप्ति। आजकल के शिष्यों में शिष्यत्व है ही कहाँ ?

….परंतु आज उन महापुरुष को उनके ज्ञान को पूर्णरूप से पचाने वाला सत्शिष्य मिल गया था। गुरुदेव का निर्वाण नजदीक आ रहा था। सब शिष्यों को गुरुदेव ने अपने पास बुलाया और कहाः

“अब मैं निर्वाण को प्राप्त होने वाला हूँ। वर्षों से तुम लोगों ने दीक्षा और मेरे उपदेश पाये हैं। अब मैं अपने आश्रम की गद्दी का अधिकारी चुनने के लिए एक शर्त रखता हूँ। उस शर्त में जो सफल होगा, वही इस आश्रम का उत्तराधिकारी बनेगा।”

सब शिष्य बोल उठेः “गुरुदेव ! क्या शर्त है? कहिये।”

सब शिष्य सोचने लगे कि ‘इतने बड़े आश्रम की गद्दी मिलने वाली है !’ सबका मन गद्दीपति होने के लिए लालायित था, परंतु अंदर से डर भी था कि कहीं उपदेश का सारांश लिखने में त्रुटि रह गयी तो ? उन लोगों ने सारी रात सोचने में बितायी और अंत में एक तख्ती पर लिख दियाः “मन एक दर्पण है। इस मन रूपी दर्पण पर काम, क्रोध, लोभ आदि की धूल जम गयी है। उस धूल को साफ करना यही निर्वाण है।”

इतना लिखकर तख्ती रख दी। वे बहुत चालाक थे, अतः लेख के नीचे किसी ने अपने हस्ताक्षर नहीं किये क्योंकि सोचा कि ‘गुरुदेव को ठीक लगेगा तो आगे कूद पड़ेंगे और गलत लगेगा तो कहेंगे कि हम तो अभी विचार कर रहे हैं। पता नहीं यह किसने लिखा होगा ?’ सब पढ़े-लिखे जो थे !

सुबह जब गुरुदेव ने पढ़ा तो बोल उठेः

“मेरी शिक्षा-सत्संग का अनर्थ करके किस अज्ञानी ने यह सार निकाला है ? इस तख्ती को यहाँ से दूर करो।”

सब शिष्य चिंतित होकर इकट्ठे हुए। वे सोचने लगे कि ‘अब क्या करें? क्या लिखें जो गुरुदेव को ठीक लगे?’ परंतु उन्हें कोई रास्ता नहीं मिला। अंत में वे शिष्य धान कूटने वाले उस पंजाबी युवक शिष्य के कमरे में गये। तब उस सत्शिष्य ने 12 वर्ष का मौन तोड़कर पूछाः

“आज सुबह के प्रहर में इतना कोलाहल क्यों था, भाई?”

सारांश लिखने वाले शिष्यों ने सारी हकीकत कह सुनायी। तब धान कूटने वाले उस सत्शिष्य ने कहाः “आप लोगों ने शिक्षा व सत्संग का जो सारांश लिखा वह गुरुदेव को नहीं भाया तो अब मैं जो कहूँ, वह लिख दो।”

“क्या लिखें ? बताओ।”

उसने कहाः “मन ही नहीं है तो धूल किस पर? किसकी सफाई और किसका निर्वाण?”

दूसरे दिन गुरुदेव यह पढ़कर गदगद हो गये और पहली बार उस सत्शिष्य को बुलाकर आलिंगन किया।

गुरुदेव बोलेः “बेटा ! मेरी आज्ञा मानकर तू सेवा में इतना तल्लीन हो गया कि तेरा मन ही नहीं बचा है। तेरा मन अमनीभाव में स्थित हो गया है। बेटा ! तू गुरुतत्त्व झेलने के लिए पूर्ण अधिकारी है।”

सदगुरु ने आज तक जो भी अनुभव प्राप्त किये थे, वे सब उन्होंने अपनी शक्तिपात-वर्षा के माध्यम से सत्शिष्य पर बरसा दिये। साधक में से वह सिद्ध हो गया। शिष्य में से वह पूर्ण गुरुत्व में प्रतिष्ठित हो गया।

पूर्ण गुरु कृपा मिली, पूर्ण गुरु का ज्ञान।

साधक में से बन गया, अब वह सिद्ध महान।।

देह सभी मिथ्या हुई, जगत हुआ निःसार।

हुआ आत्मा से तभी, उसका साक्षात्कार।।

वे घड़ियाँ धन्य हैं, जब आत्ममस्ती में जागे हुए कोई सदगुरु अपने प्रिय शिष्य पर शक्तिपात की वर्षा करते हैं और उसे अपने अनुभव में मिला देते हैं। गुरुदेव ने उसे आत्मसाक्षात्कार का प्रसाद देते हुए कहाः

“अब तुझे इस आश्रम में नहीं रहना है। तू आज से मुक्त हो गया है। यह ले मेरा डण्डा और यहाँ से अभी निकल पड़, क्योंकि मेरे निर्वाण के पश्चात् तेरी उन्नति को अन्य 500 शिष्य सहन नहीं कर पायेंगे। इसलिए तू अभी चला जा।”

वह सत्शिष्य सजल नेत्रों से सदगुरु के पावन श्री चरणों में प्रणाम करके चला गया और कुछ समय बाद गुरुदेव भी निर्वाण को प्राप्त हो गये।

धन्य है ऐसे गुरुभक्तों का जीवन जो श्रद्धा, भक्ति और तत्परता से गुरु-आज्ञा का पालन करते हुए उनकी पूर्ण कृपा पाने के अधिकारी बन जाते हैं !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2002, पृष्ठ संख्या 15-17 अंक 120

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हेमन्त ऋतु में स्वास्थ्य-रक्षा


शीत ऋतु के दो माह, मार्गशीर्ष और पौष को हेमन्त ऋतु कहते हैं। यह ऋतु विसर्गकाल अर्थात् दक्षिणायन का अंत कहलाती है। इस काल में चंद्रमा की शक्ति सूर्य की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली होती है। इसलिए इस ऋतु में औषधियों, वृक्ष, पृथ्वी की पौष्टिकता में भरपूर वृद्धि होती है व जीव-जंतु भी पुष्ट होते हैं। इस ऋतु में शरीर में कफ का संचय होता है तथा पित्तदोष का नाश होता है।

शीत ऋतु में जठराग्नि अत्यधिक प्रबल रहती है। अतः इस समय लिया गया पौष्टिक और बलवर्धक आहार वर्षभर शरीर को तेज, बल और पुष्टि प्रदान करता है। इस ऋतु में एक स्वस्थ व्यक्ति को अपनी सेहत की तंदुरुस्ती के लिए किस प्रकार का आहार लेना चाहिए ? शरीर की रक्षा कैसे करनी चाहिए ? आइये, उसे जानें-

शीत ऋतु में खट्टा, खारा तथा मधु रस प्रधान आहार लेना चाहिए।

पचने में भारी, पौष्टिकता से भरपूर, गरिष्ठ और घी से बने पदार्थों का सेवन अधिक करना चाहिए।

इस ऋतु में सेवन किये हुए खाद्य पदार्थों से ही वर्षभर शरीर की स्वास्थ्य-रक्षा हेतु शक्ति का भण्डार एकत्रित होता है। अतः उड़दपाक, सालमपाक, सोंठपाक जैसे वाजीकारक पदार्थों अथवा च्यवनप्राश आदि का उपयोग करना चाहिए।

जो पदार्थ पचने में भारी होने के साथ गरम व स्निग्ध प्रकृति के होते हैं, ऐसे पदार्थ लेने चाहिए।

दूध, घी, मक्खन, गुड़, खजूर, तिल, खोपरा, सूखा मेवा तथा चरबी बढ़ाने वाले अन्य पौष्टिक पदार्थ इस ऋतु में सेवन योग्य माने जाते हैं।

इन दिनों में ठंडा भोजन न करते हुए थोड़ा गर्म और घी-तेल की प्रधानतावाला भोजन करना चाहिए।

इस ऋतु में बर्फ अथवा बर्फ का या फ्रिज का पानी, कसैले, तीखे तथा कड़वे रसप्रधान द्रव्यों का सेवन लाभदायक नहीं है। हलका भोजन भी निषिद्ध है।

इन दिनों में उपवास अधिक नहीं करने चाहिए। वातकारक, रूखे-सूखे, बासी पदार्थ और जो पदार्थ व्यक्ति की प्रकृति के अनुकूल न हों, उनका सेवन न करें।

शरीर को ठंडी हवा के संपर्क में अधिक देर तक न आने दें।

प्रतिदिन प्रातःकाल में व्यायाम, कसरत व शरीर की मालिश करें।

इस ऋतु में गर्म जल से स्नान करना चाहिए।

शरीर की चंपी करवाना और यदि कुश्ती या अन्य कसरतें आती हों तो उन्हें करना हितावह है।

तेल मालिश के बाद शरीर पर  उबटन लगाकर स्नान करना हितकारी होता है।

कमरे और शरीर को थोड़ा गर्म रखें। सूती मोटे तथा ऊनी वस्त्र इस मौसम में लाभकारी होते हैं।

प्रातःकाल सूर्य की किरणों का सेवन करें। पैर ठंडे न हों इस हेतु जूते पहनें।

स्कूटर जैसे दुपहिये खुले वाहनों द्वारा इन दिनों लंबा सफर न करते हुए बस, रेल, कार जैसे दरवाजे-खिड़की वाले वाहनों से ही सफर करने का प्रयास करें।

हाथ पैरे धोने में भी यदि गुनगुने पानी का प्रयोग किया जाये तो हितकर होगा।

बिस्तर, कुर्सी अथवा बैठने के स्थान पर कम्बल, चटाई, प्लास्टिक अथवा टाट की बोरी बिछाकर ही बैठें। सूती कपड़े पर न बैठें।

दशमूलारिष्ट, लोहासव, अश्वगंधारिष्ट, च्यवनप्राश अथवा अश्वगंधावलेह जैसी देशी व आयुर्वेदिक औषधियों का इस काल में सेवन करने से वर्षभर के लिए पर्याप्त शक्ति का संचय किया जा सकता है।

गरिष्ठ खाद्य पदार्थों के सेवन से पहले अदरक के टुकड़ों पर नमक व नींबू का रस डालकर खाने से जठराग्नि अधिक प्रबल होती है।

भोजन पचाने के लिए भोजन के बाद निम्न मंत्र के उच्चारण के साथ पेट पर बायाँ हाथ दक्षिणावर्त घुमा लेना चाहिए, जिससे भोजन शीघ्रता से पच सके।

अगस्त्यं कुभकर्णच शनिं च बडवानलम्।

आहारपरिपाकार्थ स्मरेद् भीमं च पंचमम्।।

इस ऋतु में सर्दी, खाँसी, जुकाम या कभी बुखार की संभावना भी बनी रहती है, जिनसे बचने के उपाय निम्नलिखित हैं-

सर्दी-जुकाम और खाँसी में सुबह तथा रात्रि को सोते समय हल्दी नमकवाले ताजे, भुने हुए एक मुट्ठी चने खायें, किन्तु उनके बाद कोई भी पेय पदार्थ, यहाँ तक की पानी भी न पियें। भोजन में घी, दूध, शक्कर, गुड़ व खटाई का सेवन बंद कर दें। सर्दी खाँसी वाले स्थायी मरीज के लिए यह एक सस्ता प्रयोग है।

भोजन के पश्चात् हल्दी-नमकवाली भुनी हुई अजवाइन को मुखवास के रूप में नित्य सेवन करने से सर्दी-खाँसी मिट जाती है। अजवाइन का धुआँ लेना चाहिए। अजवाइन की पोटली से छाती की सेंक करनी चाहिए। मिठाई, खटाई और चिकनाईयुक्त चीजों का सेवन नहीं करना चाहिए।

प्रतिदिन मुखवास के रूप में दालचीनी का प्रयोग करें। 2 ग्राम सोंठ, आधा ग्राम दालचीनी तथा 5 ग्राम पुराना गुड़, इन तीनों को कटोरी में गरम करके रोज ताजा खाने से सर्दी मिटती है।

सर्दी जुकाम अधिक होने पर नाक बंद हो जाती है, सिर भी भारी हो जाता है और बहुत बेचैनी होती है। ऐसे समय में एक तपेली में पानी को खूब गरम करके उसमें थोड़ा दर्दशामक मलहम (पेनबाम), नीलगिरि का तेल अथवा कपूर डालकर सिर व तपेली ढँक जाय ऐसा कोई मोटा कपड़ा या तौलिया ओढ़कर गरम पानी की भाप लें। ऐसा करने से कुछ ही मिनटों में लाभ होगा। सर्दी से राहत मिलेगी।

मिश्री के बारीक चूर्ण को नसवार की तरह सूँघें।

स्थायी सर्दी-जुकाम और खाँसी के मरीज को 2 ग्राम सोंठ, 10 से 12 ग्राम गुड़ और थोड़ा घी एक कटोरी में लेकर उतनी देर तक गरम करना चाहिए जब तक गुड़ पिघल न जाये। फिर सबको मिलाकर रोज सुबह खाली पेट गरम-गरम खा लें। भोजन में मीठी, खट्टी, चिकनी और गरिष्ठ वस्तुएँ न लें। रोज सादे पानी की जगह पर सोंठ की डली डालकर उबाला हुआ पानी ही पियें या गरम किया हुआ पानी ही पियें। इस प्रयोग से रोग मिट जायेगा।

सर्दी के कारण होने वाले सिरदर्द, छाती के दर्द और बेचैनी में सोंठ का चूर्ण पानी में डालकर गरम करके पीड़ावाले स्थान पर थोड़ा लेप करें। सोंठ की डली डालकर उबाला गया पानी पियें। सोंठ का चूर्ण शहद में मिलाकर थोड़ा-थोड़ा रोज़ चाटें। भोजन में मूँग, बाजरा, मेथी और लहसुन का प्रयोग करें। इससे भी सर्दी मिटती है।

हल्दी को अंगारों पर डालकर उसकी धूनी लें। हल्दी के चूर्ण को दूध में उबालकर पीने से लाभ होता है।

बुखार मिटाने के उपायः

मोठ या मोठ की दाल का सूप बना कर पीने से बुखार मिटता है। उस सूप में हरी धनिया तथा मिश्री डालने से मुँह अथवा मल द्वारा निकलता खून बंद हो जाता है।

कॉफी बनाते समय उसमें तुलसी और पुदीना के पत्ते डालकर उबालें। फिर नीचे उतारकर 10 मिनट ढँककर रखें। उसमें शहद डालकर पीने से बुखार में राहत मिलती है और शरीर की शिथिलता दूर होती है।

1 से 2 ग्राम पीपरामूल-चूर्ण शहद के साथ सेवन कर फिर गर्म दूध पीने से मलेरिया कम होता है।

5 से 10 ग्राम लहसुन की कलियों को काटकर तिल के तेल अथवा घी में तलें और सेंधा नमक डालकर रोज़ खायें। इससे मलेरिया का बुखार दूर होता है।

सौंफ तथा धनिया के काढ़े में मिश्री मिलाकर पीने से पित्तज्वर का शमन होता है।

हींग तथा कपूर को समान मात्रा में लेकर बनायी गयी एक-दो गोली लें, उसे अदरक के रस में घोंटकर रोगी की जीभ पर लगायें, रगड़ें। दर्दी अगर दवा पी सके तो यही दवा पीये। इससे नाड़ी सुव्यवस्थित होगी और बुखार मिटेगा।

कई बार बुखार 103-104 फेरनहाइट से ऊपर हो जाता है, तब मरीज के लिए खतरा पैदा हो जाता है। ऐसे समय में ठण्डे पानी में खाने का नमक, नौसादर या कोलनवॉटर डालें। उस पानी में पतले कपड़े के टुकड़े डुबोकर, मरीज की हथेली, पाँव के तलवों और सिर (ललाट) पर रखें। जब रखा हुआ कपड़ा सूख जाय तो तुरंत ही दूसरा कपड़ा दूसरे साफ पानी में डुबायें और निचोड़कर दर्दी के सिर, हथेली और पैर के तलवों पर रखें। इस प्रकार थोड़ी-थोड़ी देर में ठंडे पानी की पट्टियाँ बदलते रहने से अथवा बर्फ घिसने से बुखार कम होगा।

खाँसी के लिए इलाज

वायु की सूखी खाँसी में अथवा गर्मी की खाँसी में, खून गिरने में, छाती के दर्द में, मानसिक दुर्बलता में तथा नपुंसकता के रोग में गेहूँ के आटे में गुड़ अथवा शक्कर और घी डालकर बनाया गया हलुआ विशेष हितकर है। वायु की खाँसी में गुड़ के हलुए में सोंठ डालें। खून गिरने के रोग में मिश्री-घी में हलुआ बनाकर किशमिश डालें। मानसिक दौर्बल्य में हलुए में बादाम डालकर खायें। कफजन्य खाँसी तथा श्वास के दर्द में गुनगुने पानी के साथ अजवाइन खाने तथा उसकी बीड़ी अथवा चिलम बनाकर धूम्रपान (तम्बाकू बिना) करने से लाभ होता है। कफोत्पत्ति बन्द होती है। पीपरामूल, सोंठ और बहेड़ादल का चूर्ण बनाकर शहद में मिलाकर प्रतिदिन खाने से सर्दी-कफ की खाँसी मिटती है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2002, पृष्ठ संख्या 27-29

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सिर दीजै सदगुरु मिले तो भी सस्ता जान


परमात्मस्वरूप सदगुरु की महिमा अवर्णनीय है। उनकी महिमा का गुणगान, उनकी स्मृति तथा चिंतन साधकों को अपूर्व सुख, शांति, आनंद और शक्ति प्रदान करता है। वे कर्म में निष्कामता सिखाते हैं, योग की शिक्षा देते हैं, भक्ति का दान देते हैं, ज्ञान की मस्ती देते हैं और जीते जी मुक्ति का अनुभव कराते हैं।

आध्यात्मिक विकास के लिए, दिव्यत्व की प्राप्ति के लिए, आत्मपद पाने के लिए हमें मार्गदर्शक अर्थात् पूर्ण सत्य के ज्ञाता समर्थ सदगुरु की अत्यंत आवश्यकता है। जैसे, प्राण बिना जीना सम्भव नहीं, वैसे ही ब्रह्मनिष्ठ सदगुरु के बिना ज्ञान का प्रकाश नहीं, सुषुप्त शक्तियों का विकास नहीं और अज्ञानांधकार का नाश संभव नहीं।

सदगुरु चिंता और पाप को हरने वाले, संशय व अविद्या को मिटाने वाले तथा शिष्य के हृदय में परमात्म-प्रेम की स्थापना करने  वाले होते हैं। वे समस्त मानव-जाति के हितचिंतक, प्राणिमात्र के परम सुहृद तथा भगवदीय गुणों के भण्डार होते हैं। वे शिष्य के दुर्गुण-दोषों को हटाते हैं, क्लेशों को मिटाते हैं और उसे सुख-दुःख के प्रभाव से रहित समतामय नवजीवन प्रदान करते हैं।

सदा परब्रह्म परमात्मा के साथ एकत्व को प्राप्त ऐसे महापुरुषों में एक ऐसी अनोखी दृष्टि होती है, जिससे वे मानव को पूर्णरूप से बदल देते हैं। वे परमात्म-तत्त्व में पूर्ण प्रतिष्ठित रहते हैं, परमार्थ में पूर्ण कुशल और व्यवहार में अत्यंत निपुण होते हैं। उनसे सच्चाई से जुड़े रहने वाले शिष्य महान संकट को भी सहज में पार कर लेते हैं। उनके सान्निध्य में साधक घोर विपरीत परिस्थिति में भी निर्भय व निर्लेप होकर रहते हैं। उन सदगुरु की महिमा अनोखी है। वे परम गुरु शिव से अभिन्नरूप हैं।

वे पूर्ण सर्वज्ञ होने पर भी अनजान जैसी स्थिति में हो सकते हैं। साधारणतया उन्हें समझना, उन्हें पहचान पाना कठिन होता है। वे पंडितों को पढ़ा सकते हैं और मूढ़ों से सीखते हैं। वे शेरों से लड़ सकते हैं और गीदड़ को देखकर भाग सकते हैं। कुछ नहीं मिले तो माँगते हैं और मिले तो त्याग सकते हैं। ऐसे शहंशाह महापुरुषों से हर कोई कुछ-न-कुछ माँगता है। उनके पास बाह्य कुछ न दिखते हुए भी माँगने वाले को सब कुछ दे देते हैं। जगत की महा मूल्यवान चीजें भी उनके लिए मूल्यहीन हैं। ऐसे आत्मसिद्ध महापुरुषों के पास सिद्धियाँ सहज ही निवास करती हैं। उनके पास सिद्धियाँ स्वयं चलकर आती हैं, ऋद्धियाँ वहीं अपना निवास स्थान बना लेती हैं फिर भी उन आत्मानंद में तृप्त महापुरुषों को उनकी  परवाह नहीं होती। उनके द्वारा सिद्धियों का उपयोग न करने पर भी सिद्धियाँ अपने-आप क्रियाशील हो जाती हैं। ऐसे नित्य नवीन रस से सम्पन्न आत्मसिद्ध पुरुषों को पाकर पृथ्वी अपने को सनाथ समझती है।

ऐसे सदगुरु अपने शिष्य को सत्यस्वरूप बताकर, भेद में अभेद को दर्शाकर और शिष्य के जीवत्व को मिटा कर उसे शिवत्व में स्थित कर देते हैं। उन सदगुरु की महिमा रहस्यमय और अति दिव्य है, उनको साधारण जड़बुद्धिवाले नहीं समझ पाते।

सदगुरु साक्षात परब्रह्मस्वरूप हैं। वे शिष्य की अंतरात्मा और प्रिय प्राण हैं। वे प्रिय प्राण ही नहीं साधकजनों की साधन संपत्ति हैं। इतना ही नहीं साधना का लक्ष्य भी वे ही हैं।

गुरुपादोदकं पानं गुरोरूच्छिष्टभोजनम्।

गुरुमूर्तेः सदा ध्यानं गुरोर्नाम्नः सदा जपः।।

‘गुरुदेव के चरणामृत का पान करना, गुरुदेव के भोजन में से बचा हुआ खाना, गुरुदेव की मूर्ति का ध्यान करना और गुरुनाम का जप करना चाहिए।’

जो गुरुपादोदक का सेवन करता है, उसके लिए अमृत तो एक साधारण वस्तु है। गुरुपूजा ही सार्वभौम महापूजा है ऐसा ‘गुरुगीता’ कहती है। सर्वतीर्थ, सर्वदेवता और अधिक क्या कहा जाये, विश्वव्यापी, विश्वाकार ब्रह्म श्रीसदगुरुदेव ही हैं।

साधक को अपने मंत्र का सम्मान से, सत्कार से, श्रद्धा से पूर्ण प्रेम से अनुष्ठान करते रहना चाहिए। सदगुरु कृपा कभी व्यर्थ नहीं जाती। चाहे प्रकृति में परिवर्तन हो जाये-सूर्य तपना छोड़ दे, चंद्रमा शीतलतारहित हो जाये, जल बहना त्याग दें, दिन की रात और रात का दिन ही क्यों न हो जाये किंतु एक बार हुई सदगुरु की कृपा व्यर्थ नहीं जाती।

यदि इस जन्म-मृत्यु रूप संसार से मुक्ति नहीं हुई, साधना अधूरी रह गयी तो यह कृपा शिष्य के साथ-साथ जन्म-जन्मांतरों में भी रहती है। किसी देश या किसी लोक में जाने पर भी जैसे, मानव का पातकपुंज फल देने के लिए अवसर ढूँढता रहता है, वैसे ही शिष्य पर हुई कृपा शिष्य के पीछे-पीछे ही फिरती है। इसलिए आप धैर्य से, उत्साह से, प्रेम से साधन के अभ्यास में लगे रहें।

साधक दिन-प्रतिदिन जितनी गुरुभक्ति बढ़ाता है, जितना-जितना सदगुरु के चित्त के साथ एकाकार होता है, जितना-जितना उनमें तन्मय होकर मिलता है, उतनी ही उच्च उज्जवल प्रेरणाएँ, उत्कृष्ट भाव और निर्विकारी जीवन को प्राप्त करता है।

सदगुरु मंत्र द्वारा, स्पर्श द्वारा या दृष्टि द्वारा शिष्य के जीवन में प्रवेश करके उसके समस्त पातकों को भस्म कर देते हैं, आंतरिक मल को धो देते हैं। इसीलिए गुरु-सहवास, गुरु-संबंध, गुरु आश्रमवास, गुरुतीर्थ का पान, गुरुप्रसाद, गुरुसेवा, गुरु-गुणगान, उनके दिव्य स्पंदनों का सेवन, गुरु के प्राण-अपान द्वारा सोऽहम् स्वर के साथ निकलने वाली चैतन्यप्रभा की किरणें और गुरु आज्ञापालन शिष्य को पूर्ण परमात्म-पद की प्राप्ति करा देने में समर्थ हैं, इसमें क्या आश्चर्य ?

उन सदगुरु से हम कैसा व्यवहार करें, कैसे प्रेम करें, उनके उपकार को कैसे चुकायें, उनका सम्मान कैसे करें, उनकी पूजा कैसे करें ?

हे प्यारे सदगुरुदेव ! आप हमारे मलिन, अशुचि, विकारी, भौतिक शरीर में भी भेदभाव नहीं देखते, शुद्धाशुद्ध नहीं देखते, रोगारोग नहीं देखते। आप करुणासिंधु हमारे पापों को, तापों को, हमारी अशुचि को धो डालते हैं। नाड़ी-नाड़ी में, रक्त के कण-कण में शक्ति के रूप में प्रविष्ट होकर उन्हें क्रियाशील बनाते हैं। आपका शक्तिपात शरीर के अंग-अंग में, अच्छे बुरे स्थानों में, नाड़ियों के मैल-भरे, रोग-भरे कफ-पित्त-वातरूप दोषों का अंतर यौगिक क्रियाओं द्वारा साफ करता है। अंतःकरण को पवित्र व निर्मल बनाता है।

ऐसे सदगुरु के समान कौन मित्र, कौन प्रेमी, कौन माँ और कौन देवता है ? ऐसे सदगुरु का हम क्या दासत्व कर सकते हैं ? जिन सदगुरु ने हमारे कुल, जाति, कर्माकर्म, गुण-दोष आदि देखे बिना हमको अपना लिया, उन सदगुरु को हम दे ही क्या सकते हैं ? शक्तिपात करके उन्होंने अपनी करूणा-कृपा सिंच दी, उसके बदले में हम क्या दे सकते हैं ? उनका कितना उपकार है, कितना अनुग्रह है, कितनी दया है !

संदर्भः ‘चित्शक्ति विलास’

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2002, पृष्ठ संख्या 16,17 अंक 119

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