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मंत्र-विद्या के मूल तत्त्व


शास्त्रों में सर्वत्र यही निर्देश दिया गया है कि श्रद्धा, धैर्य और गुरुभक्ति ये तीन तत्त्व साधना – यात्रा के अनिवार्य सम्बल हैं और साधना प्रणाली के सहायक तत्त्व हैं – भक्ति, शुद्धि, आसन, पंचांग सेवन, आचार, धारण, दिव्य देश-सेवन, प्राणक्रिया, मुद्रा, तर्पण, हवन, बलि, योग, जप, ध्यान तथा समाधि। इन तत्त्वों की महत्ता इस प्रकार है।

श्रद्धा– साधना में सर्वप्रथम आवश्यकता श्रद्धा की है। जिस साधक के मन में आराधना की मंगलमयता अथवा कल्याणकारिता में श्रद्धा नहीं है, वह कैसे प्रवृत्त हो सकता है ? श्रद्धा को विचलित करने वाली यदि कोई वस्तु है तो वह है शंका। ‘गीता’ में कहा गया है कि अज्ञश्चाश्रद्धानश्च संशयात्मा विनश्यति – अज्ञानी और श्रद्धारहित शंकाशील मनुष्य विनाश को प्राप्त हो जाता है।’

देव, ब्राह्मण, औषधि, मंत्र आदि भावना के अनुसार फल देते हैं, अतः यदि मंत्र को हम सामान्य मानते हैं तो उसका फल भी सामान्य ही मिलेगा और उसे महान मानेंगे तो वह महान फल देगा। कोई मंत्र छोटा है तो यह क्या फल देगा ? ऐसा कुतर्क नहीं करना चाहिए। अग्नि की छोटी सी चिंगारी क्या घास के ढेर को नहीं जला देती ? अथवा मच्छर छोटा होने पर भी यदि हाथी के कान में घुस जाय तो क्या उसे विकल नहीं बना देता ? अतः मंत्र कैसा भी हो, उसकी अपूर्व शक्ति पर श्रद्धा रखना नितांत आवश्यक है। इसलिए वेदों की आज्ञा है कि श्रद्धाया सत्यमाप्यते – श्रद्धा से सत्य प्राप्त होता है।

धैर्य– सभी कार्य शांति और संतोष से फलदायक होते हैं। आतुरता अथवा शीघ्रता से होने वाले कार्यों में विकार आना स्वाभाविक है। फल के पकने तक धैर्य न रखने वाला क्या कभी पके फल का स्वाद ले सकता है ? चंचल चित्त से होने वाली क्रियाओं से विधिलोप का भय बना रहता है और विधिभ्रंशे कुतः सिद्धि – विधि के भ्रष्ट हो जाने पर सिद्धि कहाँ ?’ अतः मन में पूर्ण संतोष और धैर्य रखकर ही साधना करनी चाहिए।

गुरुभक्ति- मंत्रों की कुंजी गुरु के पास निहित है। प्रायः सभी मंत्र गुरुकृपा से दीक्षित होने पर शीघ्र फल देते हैं। गुरु का पद समस्त देवों से ऊपर है। कहा जाता है कि-

गुरुः पिता गुरुर्माता, गुरुर्देवो गुरुर्गतिः।

शिवे रुष्टे गुरुस्त्राता, गुरौ रुष्टे न कश्चन।।

‘गुरु पिता हैं, गुरु माता हैं, गुरु देव हैं और गुरु गति हैं। यदि शिव नाराज हो जायें तो गुरु रक्षा करने वाले हैं, किंतु गुरु के नाराज हो जाय तो रक्षा करने वाला कोई नहीं।’

गुरु द्वारा गोविंद के दर्शन सुलभ माने गये हैं। अतएव शास्त्रों में देवपूजा से पूर्व गुरुपूजा का विधान है। कहा भी हैः

गुरुभक्ति विहिनस्य तपो विद्या व्रतं कुलम्।

व्यर्थं सर्वं शवस्यैव नानालंकार-भूषणम्।।

‘जिस प्रकार किसी मुर्दे को अनेक अलंकार पहनाना व्यर्थ है, उसी प्रकार गुरुभक्ति से रहित मनुष्य के तप, विद्या, व्रत और कुल व्यर्थ हैं।’

भक्ति- ऊपर गुरुभक्ति के बारे में कहा गया है, वैसी ही दृढ़ भक्ति भगवच्चरणों में होनी चाहिए, तभी मंत्र और देवता में ऐक्य होगा और यही एकरूपता साधना को फलवती बनायेगी।

शुद्धि- शुद्धि से तात्पर्य स्थान शुद्धि, शरीर शुद्धि, मनः शुद्धि, द्रव्य शुद्धि और क्रिया शुद्धि – इन 5 प्रकार की शुद्धियों से है। आराधना के लिए जिस स्थान का उपयोग करना हो, वहाँ किसी प्रकार की अपवित्रता न रहे, इसलिए साधना से पहले ही उसे पानी से धोकर स्वच्छ कर लें। गोबर – गोमूत्र से पवित्र कर लें। गुलाब जल का छिड़काव किया जा सकता है और जपादि के समय उस स्थान को धूप-दीप से उस स्थान को पवित्र बनाये रखें। यह स्थान एकांत और शांत हो, यह भी आवश्यक है। यही ‘स्थान-शुद्धि’ है।

शरीर शुद्धि– शरीर शुद्धि के लिए पंचगव्य का प्राशन, शुद्ध जल से स्नान तथा शुद्ध वस्त्र धारण अपेक्षित है।

मनः शुद्धि– इस शुद्धि के लिए अपवित्र विचारों का परित्याग तथा पवित्र विचारों की स्थिरता का होना आवश्यक है। इसके लिए स्वाध्याय और सत्संग बहुत सहायक होते हैं। यथासम्भव ध्यान का सहारा लेने में भी मन स्थिर किया जाना चाहिए।

द्रव्य शुद्धि– आराधना में जिन वस्तुओं का उपयोग किया जाय, वे भी पूर्णतः शुद्ध हों। इसके लिए ताजे पुष्प, दूध, फल आदि लायें। पूजा के उपकरण शुद्ध हों और साधना के समय काम में ली जाने वाली सभी वस्तुएँ शुद्ध रखी जायें। इसी को द्रव्य शुद्धि कहते हैं।

क्रिया-शुद्धि- इस शुद्धि से तात्पर्य है – मंत्र साधना के अंगों के रूप में की जाने वाली क्रियाओं की शुद्धता। इसमें मंत्र के  पूर्वांग, जैसे – योग मुहूर्त, ऋण-धन विचार, मंत्र से संबंधित न्यास, ध्यानादि तथा जप प्रक्रिया का समावेश होता है।

आसन- जप के समय बैठने की स्थिति और जिस पर बैठकर साधना की जाय, इन दोनों का बात संबंध आसन से है। सामान्यतया कुछ विशेष साधनाओं को छोड़कर अन्य सभी के लिए स्वस्तिकासन अथवा पद्मासन उपयुक्त माने गये हैं और बैठने के लिए ऊन का आसन सर्वोपयोगी है। जिस आसन का प्रयोग और उपयोग निश्चित किया गया हो, उसे बार-बार नहीं बदलना चाहिए। स्वयं जिस आसन पर बैठकर जपादि करते हों उस पर दूसरे को न बैठने दें।

पंचांग-सेवन- उपर्युक्त पद्धति से बाह्य और अंतःशुद्धि कर लेने के बाद पंचांग-सेवन का निर्देश है। इसमें आराध्य देव की गीता, सहस्रनाम, स्तोत्र, कवच और हृदय का समावेश है।

गीता सहस्रनामानि स्तवः कवचमेव च।

हृदयं चेति पंचैतत् पंचांग प्रोच्यते बुधैः।।

कुछ अंशों के पंचांग तो मिलते हैं किंतु बहुतों के नहीं मिलते, इस संबंध में कोई शंका न रखते हुए इतना ही पर्याप्त होगा कि जो भी गुरुनिर्दिष्ट साहित्य उपलब्ध हो, उसी का पाठ करें।

आचार– आचार से तात्पर्य है – आचरण। प्रत्येक कर्म में उसके अनुकूल आचरण भी आवश्यक है। यह प्रसिद्ध है कि ‘देवो भूत्वा देवं यजेत्’ अर्थात् देव बनकर देव की पूजा करें। इसके अनुसार जिस मंत्र का जप किया जाय, उससे संबंधित न्यास, ध्यान आदि पहले जान लें तथा संप्रदाय के अनुरूप प्रयोग करें। यदि इस विधि में मनमाना हेर-फेर किया जायेगा तो सफलता में विलंब, विघ्न अथवा विकार आयेगा। इसे हम आभ्यांतर आचार कह सकते हैं। इसी तरह बाह्य आचारों का पालन भी हर प्रकार से आवश्यक है।

धारण– मंत्र के वर्णों और पदों को शरीर के भिन्न-भिन्न अवयवों में धारण करना तथा विभिन्न न्यासों का विधान ‘धारण’ है।

दिव्य देश सेवन– उत्तम वातावरण का निर्माण करने के लिए उत्तम स्थान का होना अत्यावश्यक है। जिन स्थानों पर पूर्व काल में महापुरुषों ने वर्षों तक साधना करके सिद्धियाँ प्राप्त की हों, जहाँ सदा पवित्र वातावरण बना रहता हो तथा जहाँ देवताओं के प्रधान पीठ हों, ऐसे पुण्य क्षेत्रों में रहकर स्मरण करना, गंगा-स्नानादि से पवित्रता प्राप्त करना दिव्य देश सेवन में आता है

प्राण-क्रिया- शरीर के भिन्न-भिन्न भागों में प्राण को ले जाकर मंत्राभ्यास करना तथा प्राणायाम द्वारा मंत्रजप को बढ़ाना ‘प्राणक्रिया’ है।

मुद्रा- देवताओं का सन्निधान प्राप्त करने के लिए हाथ की अंगुलियों के योग से विभिन्न आकृतियों के निर्माण को मुद्रा कहा जाता है। यह विषय गुरुगम्य है और प्रत्येक देव के आयुध, आवाहनादि क्रिया और अन्यान्य जप के पूर्वांग और उत्तरांग के रूप में प्रयुक्त होती है। देवताओं को प्रसन्न तथा असुरों का विनाश करने से इसका नाम मुद्रा पड़ा है।

तर्पण– जलांजलिपूर्वक मंत्रोच्चारण से तर्पण संपन्न होता है। संध्या के पश्चात देव, ऋषि और मनुष्य तर्पण किया जाता है तथा जब प्रत्येक मंत्र का पुरश्चरण किया जाता है तो उसमें जप का दशांश हवन और हवन का दशांश तर्पण शास्त्र विहित है। यह मंत्रदेव के प्रति श्रद्धा निवेदन की प्रक्रिया है।

हवन- जौ, तिल, चावल, घृत और शर्करा के मिश्रण से शाकल बनाकर उसके साथ घृत की अग्नि में आहुति देने की क्रिया को हवन अथवा होम कहते हैं। किसी विशिष्ट मंत्र अथवा देव विशेष की जप साधना में कुछ विशिष्ट हवनीय द्रव्य द्वारा भी यह कर्म किया जाता है।

बलि–  इसमें देवताओं के लिए नेवैद्य अर्पण किया जाता है। मंत्र विशेष अथवा देवता विशेष के अनुरोध से कुछ विशिष्ट वस्तुओं का समर्पण भी इसमें होता है, किंतु किसी प्रकार की हिंसा का इसमें कोई स्थान नहीं है।

याग– इससे अंतर्याग तथा बहिर्याग की प्रक्रिया का संकेत किया है। अंतर्याग में शरीर के विभिन्न अंगों में स्थित देवताओं को नमन करते हुए भावना की जाती है तथा बहिर्याग में न्यास और पूजादि का समावेश होता है।

जप– मंत्र का जप माला आदि के माध्यम से प्रसिद्ध है।

ध्यान- सामान्यतया इष्टदेव के स्वरूप का चिंतन ध्यान कहलाता है। मन की एकाग्रता के लिए यह आवश्यक है।

समाधि– यह ध्यान की सर्वोच्च कोटि है, जिसमें ध्याता के बेसुध होकर बाह्य ज्ञान से शून्य बन जाता है।

उपर्युक्त प्रक्रियाएँ विस्तृत तथा कुछ कठिन हैं। अतः आचार्यों ने इनमें से केवल 5 अंगों पर विशेष ध्यान देने का संकेत किया है. जिनमें आसन, मंत्र-पदों की धारणा, मंत्र पदों के अर्थ की भावना, सालम्ब ध्यान तथा निरालम्ब ध्यान आते हैं।

इस प्रकार मंत्र योग का आश्रय लेने से मुख्य ध्येय की सिद्धि और परमार्थ की प्राप्ति सुगम बन जाती है। साधक को चाहिए कि इनमें से जो क्रियाएँ सुलभ हैं, उनका यथाशक्ति प्रयोग करे तथा अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर हो।

(संकलित- ‘मंत्र-शक्ति’, लेखक- डॉ. रूद्रदेव त्रिपाठी)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2002, पृष्ठ संख्या 11-13 अंक 119

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पीपक मुनि और ब्रह्मा जी


कश्यप कुल में एक कुमार था, जिसका नाम था पीपक। वह तपस्या का बड़ा धनी। मात्र 15 वर्ष की अवस्था में ही वह ‘पीपक मुनि’ होकर पूजा जा रहा था।

दूर-दूर से बड़े-बड़े सेठ-साहूकार उसके दर्शनों के लिए आते थे। यहाँ तक कि बड़े-बड़े राजा-महाराजा भी पीपक मुनि के दर्शन करके अपने को भाग्यशाली मानते थे।

कुमार पीपक मुनि ने ध्यान के द्वारा एकाग्रता पा ली थी। वह एकाग्रता के द्वारा अपने मन का अनुसंधान करके दूसरे के मन के विचारों को जान लेता था। दूसरों के दुःख-दर्द मिटाने का सामर्थ्य भी उसमें आ गया था। इसीलिए लोग उसका बड़ा आदर करते थे।

लेकिन पीपक को पता नहीं था कि अभी तो आगे की बहुत सी यात्रा बाकी है। उसे अभिमान आ गया कि ‘मैं बहुत बड़ा तपस्वी हूँ। किसी को कुछ छूकर प्रसाद के रूप में दे देता हूँ तो उसका काम बन जाता है। किसी के सिर पर हाथ रख देता हूँ तो उसका भला हो जाता है।

पीपक की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान ब्रह्मा जी उसे वरदान देने वाले थे, लेकिन उसमें अभिमान आता देखकर ब्रह्मा जी ने सोचा कि ‘इसे सही राह पर लाना पड़ेगा। तपस्या करके परमेश्वर को पाने की जगह यह वाहवाही में रुक गया है।’ अतः करुणा करके ब्रह्मा जी ने सारस पक्षी का रूप लिया और जहाँ पीपक रहता था, वहाँ गये।

ब्रह्मा जी ने सारस के रूप में जाकर मानवीय भाषा में पीपक से कहाः

“कश्यप कुल में उत्पन्न पीपक !”

पीपक ने देखा कि सारस के मुँह से मनुष्य की भाषा ! वह ध्यान से सुनने लगा। ब्रह्मा जी ने कहाः

“पीपक ! वाहवाही के लोभ में प्रभुमार्ग त्यागा ? मुनि कहलाया पर मनन न किया ? मुझ प्रभु को न पाया ?”

पीपक ने सोचा कि ‘जरूर सारस के रूप में कोई दिव्यात्मा है, जो मुझे सचेत करने के लिए आयी है।’ उसने हाथ जोड़कर प्रार्थना करते हुए कहाः “हे सारस पक्षी का रूप धारण करने वाले आप जो भी हों, मुझे सत्य का उपदेश देने की कृपा करें कि अब मैं क्या करूँ ?”

तब सारस रूप धारी ब्रह्मा जी ने कहाः “तेरा कुल महान है, तूने तप भी किया है लेकिन वाहवाही की लालच में तू अपने माता-पिता का आदर करना भूल गया। पीपक ! जिस माँ ने तुझे जन्म दिया, जिस पिता ने तेरा लालन-पालन किया उनकी करुणा-कृपा को भूलकर तू अपने को बड़ा मानता है ? अभी तेरा बड़प्पन बहुत दूर है।”

पीपकः “अब आप ही बताइये कि मैं क्या करूँ ?”

ब्रह्मा जीः “कुंडलपुत्र सुकर्मा महान ज्ञानी है और उनका आश्रम कुरुक्षेत्र  है। यदि तुम अपना उद्धार करना चाहते हो तो उनकी सेवा में पहुँच जाओ।”

सारस पक्षीरूपी ब्रह्मा जी का उपदेश पाकर पीपक कुरुक्षेत्र में स्थित महाज्ञानी कुंडलपुत्र सुकर्मा के आश्रम में गये और अपने कल्याण का उपाय पूछा।

सुकर्मा ने कहाः “जो बालक प्रतिदिन अपनी माता को प्रणाम करता है, उसे सब तीर्थों का फल प्राप्त होता है और जो प्रतिदिन अपने पिता को प्रणाम करता है, उसे देवलोक की यात्रा करने का फल मिलता है। माता-पिता तो बच्चे पर वैसे ही प्रसन्न होते हैं, लेकिन बच्चा जब प्रणाम करता है, तब माता-पिता के अंदर छुपा हुआ परमात्मदेव प्रसन्न होकर आशीर्वाद बरसाता है।

मुझे मेरे सदगुरुदेव ने बताया था कि तप से जो ऋद्धि-सिद्धि और शक्तियाँ आती हैं, वे अंतःकरण में रहती हैं। वाहवाही शरीर की होती है और शरीर तो नश्वर है। इसलिए शरीर में छिपे परमात्मदेव का ज्ञान पाकर मुक्त हो जाना चाहिए।

उसी परमात्मदेव के लिए जप, ध्यान आदि करना चाहिए। उसी परमात्मदेव का ज्ञान पाने के लिए माता-पिता की सेवा करना चाहिए। उसी आत्मज्ञान के लिए गुरुद्वार पर रहकर सेवा करनी चाहिए।

हे कश्यपकुल के पीपक मुनि ! आपको तपस्या से प्राप्त शक्तियों पर बहुत अभिमान आ गया था, तब सारस के रूप में आकर दयालु भगवान ब्रह्मा जी ने आपको मेरे पास भेजने की कृपा की-यह भी मैं आपको देखकर जान गया।”

पीपक तो दंग रह गया कि इन्हें सब बातों का पता कैसे चला ! उसका हृदय अहोभाव से भर गया और उसने सुकर्मा जी प्रार्थना कीः “कृपा कीजिये, आप मुझे आपके आश्रम में थोड़े समय तक रहने की अनुमति दीजिये ताकि यहाँ रहकर मैं आपकी सेवा कर सकूँ और आत्मज्ञान का उपदेश पाकर मुक्त हो सकूँ।”

दयालु कुंडलपुत्र सुकर्मा ने पीपक को अपने आश्रम में रहने की अनुमति दे दी। वहाँ रहकर पीपक सुकर्मा जी के बताये मार्ग के अनुसार साधना-सेवा में लग गये और समय पाकर मनुष्य के सारे द्वन्द्व, सारी चिंताएँ, सारे शोक, सारे भय, सारे दुःख सदा के लिए मिट जाते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2002, पृष्ठ संख्या 24 अंक 119

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दो प्रकार का जगत


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग प्रवचन से

सारा जगत मन की कल्पना से उत्पन्न हुआ है और उसी में फँसा हुआ है। मन की कल्पना सुख बनाती है तब सुखी हो जाते हैं और मन की कल्पना दुःख बनाती है तब दुःखी हो जाते हैं। परंतु जब मन की कल्पना दिखती है, जीव मन की कल्पनाओं के पार पहुँचता है तब न सुख होता है, न दुःख होता है, जीव परमानंद को पा लेता है।

मन की कल्पना में पुण्य और पाप ही हैं। किसी मुसलमान को मंदिर में ले जाओ तो उसके धर्म के लोग कहेंगे- “तूने पाप किया है।” किंतु हिंदू अगर मंदिर में जाता है तो समझता है- ‘मुझे पुण्य हुआ।’

वास्तव में पाप-पुण्य किसको कहते हैं?

जो अंतर्यामी परमेश्वर की ओर ले जाय, कल्पनाओं से पार पहुँचाये उसको पुण्यकर्म कहते हैं और जो ईश्वर से दूर करके कल्पनाओं में भटका दे उसको पाप कर्म कहते हैं।

यह कल्पनामात्र है कि फलानी चीज मिलेगी तो मैं सुखी होऊँगा, फलाना शत्रु मर जाय तो मैं सुखी होऊँगा, फलाना मित्र मिलेगा तो सुखी होऊँगा….. इस सुख की कल्पना-कल्पना में ही जीवन बीत जाता है और मरते समय भी कोई न कोई परेशानी बनी ही रहती है।

मेरा भाई मुझे कहता था- ‘तुम होशियार हो। मेरा साथ दो तो हम फलाने सेठ से भी आगे बढ़ सकते हैं। तुम्हारी जरा सी युक्ति होती है तो हमारा छक्का लगता है। तुम सुधर जाओ तो हम इससे भी बड़े हो सकते हैं।’

मेरे बड़े भाई की कल्पना थी कि फलाने सेठ की बराबरी कर ली तो मानो, जीवन का लक्ष्य ही पूरा हो गया, लेकिन मेरी कल्पना कुछ और ही थी कि गुरु के पास जायेंगे, आत्मा-परमात्मा को पायेंगे। मेरी कल्पना सात्त्विक थी तो हम गुरु के पास गये और जब गुरु ने कल्पनाओं से परे पहुँचाया तो सारे-के-सारे सेठ कतार में लगकर मत्था टेकने लग गये !

जगत भी कल्पित है और जगत के सुख-दुःख भी कल्पित हैं लेकिन जिस परमात्मा की सत्ता से इसका अनुभव होता है वह आत्मा अकल्पित, अजर-अमर है, वही शाश्वत है। वह एक हृदय में है इसलिए उसको आत्मा कहते हैं और सब हृदयों में वही बस रहा है इसलिए उसको परमात्मा कहते हैं। अपने दिल की ओर इशारा करके बोलते हैं तो कहते हैं कि ‘आत्मा है लेकिन सर्वव्यापक की ओर इशारा करना है तो कहते हैं  कि परमात्मा है।

न भगवान जलते हैं और न भगवान निकलते हैं। यदि भगवान जल जायें तो भगवान अमर कैसे और यदि निकल जायें तो भगवान सर्वव्यापी कैसे ? भगवान तो सर्वव्यापक और अमर हैं। जैसे घड़ा नष्ट हो जाता है लेकिन घड़े में आया हुआ आकाश नष्ट नहीं होता है, ऐसे ही परमात्मा कभी नष्ट  नहीं होते हैं।

पशु-पक्षी मरते हैं, पेड़-पौधे नष्ट होते हैं। मरता तो वह है जिसका जन्म हुआ है। भगवान तो अजन्मे हैं, वे कैसे मर सकते हैं ? भगवान अजर हैं, अमर हैं, अविनाशी हैं, अनादि हैं, अनंत हैं और सच्चिदानंदस्वरूप हैं और वे ही भगवान सबकी आत्मा बनकर बैठे हैं लेकिन हम कल्पनाओं के जगत में ही बन-बनकर मरते जा रहे हैं कि मैं फलाना हूँ, मैं फलाने का पति हूँ, मैं फलाने का बेटा हूँ, मैं साहब हूँ, मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ आदि-आदि।

हकीकत तो यह है कि मैं इन सबको सत्ता देने वाले परमात्मा का सनातन अंश हूँ। भगवान भी कहते हैं- ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः। जैसे घड़े का आकाश महाकाश का सनातन अंश है, वैसे ही जीवात्मा परमात्मा का सनातन अविभाज्य अंश है।

अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछाः “ब्रह्म क्या है?”

श्री कृष्ण ने कहाः “जो अविनाशी है वह ब्रह्म है।”

अर्जुनः “अविनाशी ब्रह्म है लेकिन यहाँ तो सब विनाशी है।”

श्रीकृष्णः “यहाँ जो दिखता है वह विनाशी है लेकिन जो उसे देखता है वह अविनाशी है। जब तुम ऊपर-ऊपर से देखोगे तो विनाशी लगेगा और गहराई से देखोगे तो पता चलेगा कि अविनाशी है।”

जब आप माला अथवा फूल को बाहर की आँख से देखते हो तो विनाशी है और भीतर के अस्तित्त्व की आँख से देखते हो तो अविनाशी है। समय पाकर माला का, फूल का नाम-रूप मिट जायेगा फिर भी कुछ शेष रहेगा। जो रहता है वह अविनाशी है और जो दिखता है वह विनाशी है।

अविनाशी के आधार पर ही विनाशी टिकता है। अस्तित्व के आधार पर ही नाम रूप टिकता है। ‘अस्ति – है, भाति – जानने में आता है और प्रिय – प्रियता।’ – यह अविनाशी का स्वभाव है। नाम और रूप – यह विनाशी माया का स्वभाव है। हम विनाशी माया को अविनाशी करना चाहते हैं और अविनाशी की खबर नहीं रखते हैं।

कोई यह कहकर रोता है कि ‘मेरा बेटा मर गया…..।’ अरे, बेटा कभी मरता नहीं है फिर भी हम रोते हैं क्योंकि हमारे खिचड़ी जगत (कल्पना जगत) का बेटा मर गया है।

दो प्रकार का जगत होता है

ईश्वर का जगत, कल्पना का जगत।

अपना कल्पना का जगत होता है तो अपने जगत में जीवन और मृत्यु सत्य लगते हैं, परंतु ईश्वर के जगत में न मौत है न जीवन। उस जगत में न कोई मरता है और न कोई जीता है।

आपने स्वप्न में देखा कि बहुत से लोग पैदा हुए, फले-फूले, फिर मर गये। जब आँख खुलती है तो पता चलता है कि यह तो स्वप्न था। फिर भी जिसकी सत्ता से स्वप्न चला था वह द्रष्टा ज्यों-का-त्यों रहा। स्वप्न शुरु नहीं हुआ तब भी वह (द्रष्टा) था, स्वप्न चल रहा था तब भी वह था और स्वप्न टूट गया तब भी वह है। उसी को नानक जी कहते हैं-

आदि सचु जुगादि सचु। है भी सच नानक होसी भी सचु।।

स्वप्न के आदि में भी वह सत् है। स्वप्न के मध्य में भी वह सत् है और स्वप्न टूट जाने के बाद भी वह सत् है। जन्म से पहले भी यह बेटा किसी और रूप में था और मृत्यु के बाद भी किसी और रूप में रहेगा। उसके अस्तित्व का नाश नहीं होता। किंतु अभी जिस रूप में है, अभी जिस माँ का बेटा है उसका (नाम-रूप) का नाश हो सकता है, लेकिन अस्तित्व का नाश नहीं होता।

अभी जो हमारा कल्पना का जगत है उसमें आना जाना, जन्मना मरना सच्चा भासता है। ईश्वर के जगत में देखो तो ईश्वर को छोड़कर कोई बाहर जा ही नहीं सकता। ईश्वर  सत्य है तो ईश्वर से जो कुछ बना है वह भी तो सत्य है। सत्य इस अर्थ में है कि नाम और रूप को हटाकर सत्य है।

एक गाँव में दो भाई थे अमर और गणेश। उनको एक-एक पुत्र था। दोनों के बेटे दूर के शहर में पढ़ाई करने गये। अमर के बेटे ने सदाचारी दोस्तों की संगत की, पढ़ा लिखा और इंजीनियर बन गया। उसने एक छोटा सा कारखाना खोल लिया। लाखों रूपये कमाये।

दूसरे ने, गणेश के बेटे ने दुराचार किया, क्लबों में गया, विदेशी खान-पान किया, रॉक एण्ड रोल किया….. आजकल के आधुनिक समझदार कहलाने वाले लोग जो करते हैं, वह किया और अशांत होता गया। ज्यों-ज्यों सुख खोजते-खोजते सुविधा में गिरता गया, त्यों-त्यों दुःख हाथ लगा और खुद को पिस्तौल से गोली मारकर मर गया।

गणेश का  लड़का मर गया और अमर का लड़का उन्नत हो गया। वहाँ से कोई व्यक्ति गाँव आ रहा था, उसके द्वारा अमर के बेटे ने समाचार भेजाः ‘मेरे चाचा जी को बता देना कि आपका बेटा आत्महत्या करके मर गया है और मेरे पिता को बता देना कि मैंने कारखाना लगाया है और लाखों रूपये कमाये हैं।’

आने वाले व्यक्ति ने सोचा कि अमर जी बहुत कंजूस हैं। अगर उनको यह खुशखबरी सुनाऊँगा तो इनाम नहीं मिलेगा और गणेश जी दिलदार हैं। अतः उसने गणेश जी को जो खबर देनी थी वह अमर जी को दे दी और जो अमर जी को खबर देनी थी वह गणेश जी को दे दी। ईश्वर की सृष्टि में गणेश का बेटा मर गया है और अमर का जीवित है लेकिन कल्पना के जगत में गणेश का बेटा मौजूद है और अमर का मर गया है।

जब गणेश जी ने सुना कि मेरा बेटा इंजीनियर हो गया है और उसने कारखाना खोल लिया है तो उन्होंने समाचार  लाने वाले को अपनी अँगूठी उतार कर दे दी, घर में हलवा-पूरी बनवायी और खूब खुश हुए। ईश्वर की सृष्टि में तो उनका बेटा मर गया लेकिन उनकी सृष्टि में जिंदा है।

ईश्वर की सृष्टि में कोई आता है या जाता है तो कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि उसको कुछ छोड़कर कहीं आना-जाना नहीं होता है। केवल नाम-रूप बदल जाते हैं।

अमर जी का बेटा ईश्वर की सृष्टि में तो जीवित था लेकिन जब उनको सुनाया कि उनका बेटा मर गया तो वे रोने बैठ गये क्योंकि उनकी सृष्टि में उनका बेटा मर गया।

जहाँ-जहाँ और जितनी-जितनी हमारी ममता अथवा लगाव होता है, वहाँ-वहाँ और उतना-उतना हमें सुख-दुःख महसूस होता है। अभी भी कितने ही मरीज अस्पताल में कराहते होंगे, उनसे हमारा कोई लगाव या ममता नहीं है तो हमको कुछ नहीं होता है। लेकिन जहाँ हमारा लगाव होता है वहाँ कह उठते हैं- ‘हाय रे, मैं मर गया…।’

‘अरे, तू तो जिंदा है, क्या हुआ ?’

‘मेरी पत्नी बीमार है।’

अगर सगाई से पहले उस लड़की (पत्नी) को कुछ हो जाता तो ? अथवा तलाक के बाद उसे कुछ हो जाता तो ?

तब दुःख नहीं होता क्योंकि उससे लगाव नहीं है। …तो यह हमारा खिचड़ी जगत है। यह हमारे मन की मान्यता है। खिचड़ी जगत में ही राग-द्वेष होता है, हर्ष शोक आता है क्योंकि हमने अपने शरीर को ही मैं मान लिया है और शरीर के संबंधियों को मेरा मान लिया है।

संत तुलसी दास जी ने कहा है-

मैं अरु मोर तोर की माया। बश कर दीन्हीं जीवन काया।।

श्रुति कहती है कि मैं और मेरा करके ही तुम सुखी-दुःखी हो रहे हो। अब वेदांत की ओर आ जाओ। वेद भगवान की ओर आ जाओ। तुम अपने असली अस्तित्व की ओर देखो, जो कभी नहीं मिटता है।

शरीर मर जायेगा और जला दिया जायेगा तब इसमें जो अग्नितत्त्व है वह तेज में मिल जायेगा। इसमें जो जल तत्त्व है वह व्यापक जलतत्त्व में मिल जायेगा। शरीर का पृथ्वी तत्त्व राख व हड्डियाँ नदीं में बहा दी जायेंगी। शरीर का आकाश तत्त्व आकाश में मिल जायेगा और वायुतत्त्व भी वायु में मिल जायेगा।

वास्तव में देखा जाय तो शरीर का भी नाश नहीं होता बल्कि रूपांतरण होता है। न शरीर का नाश होता है, न जीव का नाश होता है। लौकिक दृष्टि से जब शरीर और जीव का नाश नहीं है तो आत्मशिव का नाश कैसे हो सकता है ? कड़ाही में तेल गर्म करो तो कड़ाही में आया हुआ चाँद गर्म नहीं होता और तेल के ठंडा होने पर ठंडा नहीं होता तो असली चाँद को ठंडक या गर्मी कैसी ?

फिर भी शरीर रूपी कड़ाही में बैठकर कमबख़्त जीव मान रहा है कि कड़ाही ठंडी हुई तो मैं ठंडा हो गया और कड़ाही गर्म हुई तो मैं मर गया….. यह कल्पनामात्र है, खिचड़ी जगत है। मूर्छा में भी कोई सुख-दुःख नहीं होता, लय में भी सुख-दुःख नहीं होता और समाधि में भी सुख-दुःख नहीं होता है। खिचड़ी जगत में ही सुख-दुःख होता है।

सुख-दुःख केवल वृत्तियों का खेल है। ऐसे ही धर्म-अधर्म भी आपकी वृत्तियों का खेल है। हिंदूपना और मुसलमानपना – यह भी आपकी वृत्तियों का खेल है। तुम लड़की हो या लड़का हो – यह भी तुमको सुनाया गया है और यह सत्य नहीं है।

न तुम लड़की हो, न लड़का हो। न तुम सेठ हो, न नौकर हो। न तुम भक्त हो, न अभक्त हो। न तुम भारतवासी हो, न विदेशी हो। वास्तव में तुम ऐसे हो कि जिसका बयान करना बेवकूफी है। नानक जी कहते हैं-

मत करो वर्णन हरि बेअंत है। क्या जाने वो कैसो रे ?

कोई बोलता है कि ‘मरूँगा तब सुखी होऊँगा…’ तो समझो उसके लिए यहाँ सुख का द्वार बंद है। उपासक कहता है कि ‘मरते समय भगवान याद आयेंगे तो भगवान के लोक में जायेंगे’ तो उसके लिए मरते समय की उपासना जरूरी है।

कर्मी के लिए कर्म जरूरी है, भोगी के लिए भोग जरूरी है, त्यागी के लिए त्याग जरूरी है, उपासक के लिए उपासना जरूरी है लेकिन ज्ञानी के लिए कुछ जरूरी नहीं है। इसलिए ज्ञानी सदा निर्लेप होता है।

ब्रह्म गिआनी सदा निरलेप।।

जैसे जल महि कमल अलेप।।

ब्रह्म गिआनी मुकति जुगति जीअ का दाता।।

ब्रह्म गिआनी पूरन पुरखु बिधाता।।

ब्रह्म गिआनी का कथिआ न जाई अध्याखरू।।

ब्रह्म गिआनी सरब का ठाकुरू।।

ब्रह्म गिआनी की मिति कउनु बखानै।।

ब्रह्म गिआनी की गति ब्रह्म गिआनी जानै।।

हरखु सोगु जा कै नहीं बैरी मीत समानि।।

कहु नानक सुनि रे मन मुकति ताहि तै जानि।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2002, पृष्ठ संख्या 2-5, अंक 119

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