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भारत का प्राणतत्वः हिन्दी भाषा


(राष्ट्रभाषा दिवसः 14 सितम्बर)
राष्ट्रभाषा का महत्व
भाषा अनुभूति को अभिव्यक्त करने का माध्यम भर नहीं है बल्कि यह सभ्यता को संस्कारित करने वाली वीणा एवं संस्कृति को शब्द देने वाली वाणी है। किसी भी देश का प्राणतत्व उसकी संस्कृति होती है। संस्कृति की अभिव्यक्ति भाषा के द्वारा होती है। जो श्रद्धाभाव ‘भारत माता’ में है, वह ‘मदर इंडिया’ में तो हो ही नहीं सकता। ‘माताश्री’ कहने में जो स्नेहभाव है, वह ‘मम्मी’ में कहाँ ? भाषा राष्ट्र की एकता, अखंडता तथा विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यदि राष्ट्र को सशक्त बनाना है तो एक राष्ट्रभाषा होनी चाहिए।
संविधान सभा में 12 से 14 सितम्बर 1949 तक हुई बहस में हिन्दी को राजभाषा और अंग्रेजी को 15 वर्ष तक अतिरिक्त भाषा बनाये रखने का प्रस्ताव मान्य हुआ। किंतु इस देश की भाषा-राजनीति जिस प्रकार की करवटें लेती रही है, उससे अतिरिक्त रूप से मान्य की गयी अंग्रेजी आज भी मुख्य राजभाषा बनी हुई है और हिन्दी भाषा अंग्रेजी के इस ‘अतिरिक्तत्व’ का बोझा ढो रही है।
अंग्रेजी शिक्षा देना माने गुलामी में डालना
महात्मा गाँधी विदेशी भाषा के दुष्परिणामों को भली-भाँति जानते थे। वे कहते हैं- “विदेशी भाषा द्वारा शिक्षा पाने में जो बोझ दिमाग पर पड़ता है वह असह्य है। इससे हमारे स्नातक (ग्रेजुएट) अधिकतर निकम्मे, कमजोर, निरुत्साही, रोगी और कोरे नकलची बन जाते है। उनमें खोज की शक्ति, विचार करने की ताकत, साहस, धीरज, बहादुरी, निडरता आदि गुण बहुत ही क्षीण हो जाते हैं। करोड़ों लोगों को अंग्रेजी की शिक्षा देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है। यह क्या कम जुल्म की बात है कि अपने देश में अगर मुझे न्याय पाना हो तो मुझे अंग्रेजी का उपयोग करना पड़े ! बैरिस्टर होने पर मैं स्वभाषा बोल ही नहीं सकूँ ! यह गुलामी की हद नहीं तो और क्या है ?
राष्ट्रभाषा हिन्दी ही क्यों ?
जरा गहरे जाकर देखेंगे तो पता चलेगा कि अंग्रेजी राष्ट्रीय भाषा न तो हो सकती है और न होनी चाहिए। तब राष्ट्रीय भाषा के क्या लक्षण होने चाहिए ?
1. वह भाषा सरकारी नौकरी करने वालों तथा समस्त राष्ट्र के लिए आसान हो।
2. उसके द्वारा भारत का धार्मिक, आर्थिक व राजनीतिक कामकाज हो सकना चाहिए।
3. उसे देश के ज्यादातर लोग बोलते हों।
4. उस भाषा का विचार करते समय क्षणिक स्थिति पर जोर न दिया जाय।
अंग्रेजी में इनमें से कोई लक्षण नहीं है। अतः राष्ट्र की अंग्रेजी नहीं हो सकती। हिन्दी में ये सारे लक्षण मौजूद हैं। हिन्दी के धर्मोपदेशक और उर्दू के मौलवी सारे भारत में अपने वक्तव्य हिन्दी में ही देते हैं और अनपढ़ जनता उन्हें समझ लेती है। इस तरह हिन्दी भाषा पहले से ही राष्ट्रभाषा बन चुकी है। अतः हिन्दी ही राष्ट्रभाषा हो सकती है।
बंगाली, सिंधी और गुजराती लोगों के लिए तो वह बड़ा आसान है। कुछ महीनों में वे हिन्दी पर अच्छा काबू करके राष्ट्रीय कामकाज उसमें चला सकते हैं। तमिल आदि द्राविड़ी हिस्सों की अपनी भाषाएँ हैं और उनकी बनावट व व्याकरण संस्कृत से अलग है। परंतु यह कठिनाई सिर्फ आज के पढ़े लिखे लोगों के लिए ही है। उनके स्वदेशाभिमान पर भरोसा करने और विशेष प्रयत्न करके हिन्दी सीख लेने की आशा रखने का हमें अधिकार है। यदि हिन्दी को राष्ट्रभाषा का पद मिले तो मद्रास तथा दूसरे प्रान्तों के बीच विशेष परिचय होने की सम्भावना बढ़ेगी।
हिन्दी को हम राष्ट्रभाषा मानते हैं। वही भाषा राष्ट्रीय बन सकती है, जिसे अधिक संख्या में लोग जानते-बोलते हों और जो सीखने में सुगम हो। (वर्तमान में हिन्दी भाषियों की संख्या 60 करोड़ से भी अधिक है।) अगर हिन्दुस्तान को हमें एक राष्ट्र बनाना है तो चाहे कोई माने या न माने, राष्ट्रभाषा तो हिन्दी ही बन सकती है क्योंकि जो स्थान हिन्दी को प्राप्त है, वह किसी दूसरी भाषा को कभी नहीं मिल सकता।”
(मेरे सपनों का भारत’, पृष्ठ 180-223 से संक्षिप्त)
संतों-महापुरुषों का योगदान
हिन्दी भाषा के विकास में संतों-महात्माओं का योगदान भी बहुत ही महत्वपूर्ण रहा है। उत्तर भारत के संत सूरदास जी, संत तुलसीदास जी तथा मीराबाई, दक्षिण भारत के प्रमुख संत वल्लभाचार्यजी, रामानंदचार्य जी, महाराष्ट्र के संत नामदेव जी, गुजरात के ऋषि दयानंद सरस्वती, राजस्थान के संत दादू दयालजी तथा पंजाब के गुरु नानक देव जी आदि संतों ने अपने धर्म तथा संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए हिन्दी को ही सशक्त माध्यम बनाया।
पिछले 50 सालों से पूज्य बापू जी हिन्दी में सत्संग करते आये हैं और हिन्दी की महत्ता व उपयोगिता पर प्रकाश डालकर लोगों को प्रेरित करते हुए हिन्दी भाषा के प्रयोग पर जोर देते आये हैं। पूज्य बापू जी कहते हैं- “जापानी अमेरिका में भी अपने देश की भाषा बोलते हैं और हम अपने देश भी पाश्चात्य भाषा घुसेड़-घुसेड़ के अपनी संस्कृति का गला घोंट रहे हैं। गुलामी की जंजीरों को तोड़ो ! स्वयं भी मातृभाषा का ही प्रयोग करो और दूसरों को भी प्रेरित करो।”
समाधान
सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि हम स्वयं अपने कार्यों में हिन्दी का कितना प्रयोग करते हैं ? क्या हम हस्ताक्षर, घर के बाहर नामपट्ट, हिसाब-किताब, डाकघर, बैंकों आदि के पत्रक – इन सबमें हिन्दी का प्रयोग करते हैं ?
लोग अपने वाहनों पर देवी-देवताओं के आदरसूचक वाक्य भी (जैसे – जय माता दी, ॐ नमः शिवाय, हरि ॐ आदि) अंग्रेजी में लिखवा कर गर्व का अनुभव करते हैं।
अब इस गुलामी की जंजीर को उखाड़ना होगा। हिन्दी की महत्ता को समझना तथा दूसरों को समझाना होगा। प्रत्येक राष्ट्रभक्त व्यक्ति और संस्था का कर्तव्य है कि वह संविधान-प्रदत्त राजभाषा हिन्दी के अधिकार को ध्यान में रखे और अपने दैनिक जीवन में आग्रहपूर्वक हिन्दी का प्रयोग करे। इसकी शुरुआत आप अपने हस्ताक्षर हिन्दी में करते हुए कर सकते हैं।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2015, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 272
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चार प्रकार के मानव


पूज्य बापू जी
अनादिकाल से यह संसार चलता आ रहा है और चलता रहेगा। इस संसार में करोड़ों व्यक्ति पैदा होते हैं और चले जाते हैं। इन सबमें मुख्य रूप से 4 प्रकार के लोग होते हैं-
एक होते हैं प्रवाही- जैसे नदी का प्रवाह बह रहा हो और उसमें तिनका गिरे तो वह प्रवाह के साथ बह जाता है, ऐसे ही जो चित्त के विकारों के बहाव में बह जाता है। काम आये तो काम में बह जाय और लोभ आये तो लोभ में बहकर लोभी बन जाय, ऐसे लोगों को प्रवाही बोलते हैं।
दूसरे होते हैं कर्मी- वे प्रवाह में बहते तो हैं पर थोड़ा विचार भी करते हैं कि ‘आखिर क्या ? काम, क्रोध, लोभ, मोह में कब तक बहते रहना ?’ वे थोड़ा व्रत-नियम ले लेते हैं, कुछ सत्कर्म कर लेते हैं और अपने को बहने से रोक लेते हैं। रुकने का मौका मिला तो रुक गये और प्रवाह का धक्का लगा तो किनारा छूट जाता है। जैसे, कोई पेड़ के तने सहारे रहकर अपने को बचाते हुए किनारे लग जाता है, वैसे ही धर्म-कर्मरूपी तने के सहारे किनारे लगते हैं किंतु जोरों का धक्का लगने पर पुनः बहने लगते हैं। इनमें जिन साधकों और भक्तों का समावेश होता है उन्हें कर्मी कहते हैं।
तीसरे होते हैं जिज्ञासु- कुछ विशेष दृढ़तावाले होते हैं जो दृढ़ विवेक-वैराग्य का सहारा लेकर उस प्रवाह से बच निकलते हैं और किनारे लगे रहने की कोशिश करते हैं, वे जिज्ञासु हैं। फिर प्रवाही लोग उनको खींचते हैं कि ‘हम बहे जा रहे हैं और आप क्यों किनारे लटके हो ? देखो, हम कैसे मजे से बह रहे हैं ! मजा आयेगा…. आप भी आ जाओ…. चलो, वैसे तो हम भी किनारे आना चाहते हैं। जब आयेंगे तब आयेंगे लेकिन अभी तो आप आ जाओ।’
अगर जिज्ञासु उनके चक्कर में आ जाता है तो वह कर्मियों की पंक्ति में आ जाता है और सावधान नहीं रहा तो प्रवाही भी हो सकता है। अगर वह अडिग रहता है तो वही जिज्ञासु मुमुक्षु बनकर फिर मुक्त हो जाता है, ब्रह्मज्ञानी हो जाता है।
ब्रह्मज्ञानी है चौथा प्रकार- ऐसे ज्ञानी महापुरुष पहले तीन प्रकार के लोगों – प्रवाही, कर्मी, जिज्ञासु को जानते हैं और सबको अपने-अपने ढंग से किनारे लगाने में लगे रहते हैं। यदि सब मिलकर उनसे कहें कि ‘आप भी हमारे साथ चलो’ तो वे सब की बात टालेंगे नहीं वरन् कहेंगे कि ‘हाँ, हाँ, आयेंगे लेकिन पहले तुम किनारे लग जाओ, फिर हम देखेंगे कि आना है कि नहीं आना है।’ उन्हें बोलते हैं आत्मज्ञानी महापुरुष। ऐसे ज्ञानी तो कभी-कभी, कहीं-कहीं मिलते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में आता है-
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः।।
‘बहुत जन्मों के अंत के जन्म में तत्वज्ञान को प्राप्त पुरुष, सब कुछ वासुदेव ही है – इस प्रकार मुझको भजता है, वह महात्मा अत्यंत दुर्लभ है।’ (गीता- 7-11)
वे महापुरुष एकांत में अपने ब्रह्मानंद की मस्ती छोड़कर आपके बीच आते हैं, आपके हजार-हजार प्रश्न सुनते हैं, जवाब देते हैं। प्रसाद लेते-देते हैं। क्यों ? इसीलिए कि शायद आप उस बहते प्रवाह की धारा में से थोड़ा किनारे लग जाओ। नहीं तो उन्हें ऐसी मजदूरी करने की क्या जरूरत ? ऐसे संत-महापुरुष दिन रात दूसरों के कल्याण हेतु परिश्रम करते रहते हैं फिर भी उनके लिए तो यह सब सहज स्वाभाविक एवं विनोदमात्र होता है।
विनोद मात्र व्यवहार जेनो ब्रह्मनिष्ठ प्रमाण।
‘मेरे गुरुदेव ने अगर ऐसा नहीं किया होता तो शायद मेरी जिज्ञासा पूरी नहीं होती’ ऐसा समझकर ही अब ब्रह्मवेता लोग आपके लिए यह सब कर रहे हैं। अतः आप कृपा करके मेरे गुरुदेव का दिखाया हुआ ज्ञानरूपी तना पकड़कर संसार प्रवाह से बचकर किनारे लग जाना। नियम-निष्ठारूपी आधार लेकर अपने उद्देश्य को याद करके किनारे की ओर आगे बढ़ते रहना। आपका उद्देश्य आत्मा-परमात्मा में विश्रांति पाना है, न कि संसार के प्रवाह में बहना, बार-बार जन्मना और मरना। इस बात की स्मृति बनाये रखना। आप जिस देश में रहो, जिस देश में रहो, हमें उससे कोई हर्ज नहीं है लेकिन जहाँ भी रहो, अपने आत्मा-परमात्मा में रहना, अपने सत्यस्वरूप की स्मृति बनाये रखना।
परमात्मा के नाते आपका और हमारा संबंध है। वह परमात्मा ही सबका आधार है। परमात्मा को जान लेना ही सर्व का सार है। जितना चलना चाहिए उतना चलना होगा, जितना चल सकते हो उतना नहीं। प्रभु के आशिक नींद में ग्रस्त नहीं होते, व्याकुल हृदय से तड़पते हुए प्रतीक्षा करते हैं। वे सदा जाग्रत रहते हैं, सदा सजग रहते हैं, विकारों में फिसलने से बचने हेतु जगते रहते हैं।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2015, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 272
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आरोग्यरक्षक व उत्तम पथ्यः करेला


स्वस्थ व निरोग शरीर के लिए खट्टे, खारे, तीखे, कसैले और मीठे रस के साथ कड़वे रस की भी आवश्यकता होती है। करेले में कड़वा रस तो होता ही है, साथ ही अनेक गुणों को अपने भीतर संजोए हुए है।
करेला पचने में हलका, रुचिकर, भूख बढ़ाने वाला, पाचक, पित्तशामक, मल-मूत्र साफ लाने वाला, कृमिनाशक तथा ज्वरनाशक है। यह रक्त को शुद्ध करता है, रोगप्रतिकारक शक्ति एवं हीमोग्लोबिन बढ़ाता है। यकृत की बीमारियों एवं मधुमेह (डायबिटीज़) में अत्यंत उपयोगी है। चर्मरोग, सूजन, व्रण तथा वेदना में भी लाभदायी है। करेला कफ प्रकृति वालों के लिए अधिक गुणकारी है। स्वास्थ्य चाहने वालों को सप्ताह में एक बार करेले अवश्य खाने चाहिए।
गुणकारी करेले की सब्जी
सब्जी बनाते समय कड़वाहट दूर करने के लिए करेले के ऊपरी हरे छिलके तथा रस नहीं निकालना चाहिए। इससे करेले के गुण बहुत कम हो जाते हैं। कड़वाहट निकाले बिना बनायी गयी करेले की सब्जी परम पथ्य है। (करेले की सब्जी बनाने की सही विधि हेतु पढ़े ऋषि प्रसाद, अगस्त 2014, पृष्ठ 31)
बुखार, आमवात, मोटापा, पथरी, आधासीसी, कंठ में सूजन, दमा, त्वचा-विकार, अजीर्ण, बच्चों के हरे-पीले दस्त, पेट के कीड़े, मूत्ररोग एवं कफजन्य विकारों में करेले की सब्जी लाभप्रद है।
करेले के औषधीय प्रयोग
मधुमेह (डायबिटीज)- आधा किलो करेले काटकर 1 तसले में ले के सुबह आधे घंटे तक पैरों से कुचलें। 15 दिन तक नियमित रूप से यह प्रयोग करने से रक्त-शर्करा (ब्लड शुगर) नियंत्रित हो जाती है। प्रयोग के दिनों में करेले की सब्जी खाना विशेष लाभप्रद है।
तिल्ली व यकृत वृद्धि-
करेले का रस 20 मि.ली., राई का चूर्ण 5 ग्राम, सेंधा नमक 3 ग्राम – इन सबको मिलाकर सुबह खाली पेट पीने से तिल्ली व यकृत (लिवर) वृद्धि में लाभ होता है।
आधा कप करेले के रस में आधा कप पानी व 2 चम्मच शहद मिलाकर प्रतिदिन सुबह-शाम पियें।
रक्ताल्पता- करेलों अथवा करेले के पत्तों का 2-2 चम्मच रस सुबह-शाम लेने से खून की कमी में लाभ होता है।
मासिक की समस्या- मासिक कम आने या नहीं आने की स्थिति में करेले का रस 40 मि.ली. दिन में 2 बार लें। अधिक मासिक में करेले का सेवन नहीं करना चाहिए।
गठिया- करेले या करेले के पत्तों का रस गर्म करके दर्द और सूजन वाले स्थान पर लगाने व करेले की सब्जी खाने से आराम मिलता है।
तलवों में जलन- पैर के तलवों में होने वाली जलन में करेले का रस लगाने या करेला घिसने से लाभ होता है।
विशेष- करेले का रस खाली पेट पीना अधिक लाभप्रद है। बड़े करेले की अपेक्षा छोटा करेला अधिक गुणकारी होता है।
सावधानियाँ- जिन्हें आँव की तकलीफ हो, पाचनशक्ति कमजोर हो, मल के साथ रक्त आता हो, बार-बार मुँह में छाले पड़ते हों तथा जो दुर्बल प्रकृति के हों उन्हें करेले का सेवन नहीं करना चाहिए। करेले कार्तिक मास में वर्जित हैं।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2015, पृष्ठ संख्या 31, अंक 272
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