उड़ जाए कच्चे रंग, आत्मरंग में रँग जायें

उड़ जाए कच्चे रंग, आत्मरंग में रँग जायें


  • Pujya Bapuji

होली हुई तब जानिये, संसार जलती आग हो ।
सारे विषय फीके लगें, नहिं लेश उनमें राग हो ॥ 

होली मणि तब समझो कि संसार जलती आग दिखे । संसार जलती आग है तो सही किंतु दिखता नहीं, यह हमारा दुर्भाग्य है । ‘मेरा-तेरा, यह-वह …’ जरा-जरा बात में दिन भर में न जाने कितने हर्ष के, कितने शोक के आघात लगते है । होली के  बाद धुलेंडी  आती है । धुलेंडी का यह पैगाम है कि तुम अपनी इच्छाओं को, वासनाओं को, कमियों को धुल में मिला दो, अहंकार को धुल में मिला दो । निर्दोष बालक जैसे नाचता है, खेलता है, निर्विकारी आँख से देखता है , निरिवाक्र होकर व्यवहार करता है वैसे तुम निर्विकार होकर जीयो । तुम्हारे अंदर  जो विकार उठें उन विकारो के शैतान को भागने के लिए तुम ईश्वरीय सामर्थ्य पा लो । ईश्वरीय सामर्थ्य ध्यान से मिलता है , सत्संग से मिलता है ,महापुरुषों के दर्शन से उभरता है । इसलिए होली-धुलेंडी मनाये तो किसी ऐसी पावन जगह पर मनाये कि जन्मों-जन्म की यात्रा समाप्त हो जाय, सदियों की थकान मिट जाय ।

लकडियाँ जलायी, आग पैदा हुई यह कोई आखिरी होली नहीं है । यह संसार में भटकनेवालों की होली है । साधक की होली कुछ और होती है । साधक तो वह होली खेलेंगे जिसमें वे संयम की, समझ की लकडियाँ इकट्ठी करके उनका घर्षण करेंगे और उसमें ब्रम्हज्ञान की आग जलाकर सारे विकारों को भस्म कर देंगे । फिर दुसरे दिन धुलेंडी आएगी, उसे निर्दोष बालक होकर खेलेंगे, ‘शिवोsहम …. शिवोsहम ‘  करके गायेंगे । एक परमात्मा की ही याद…. जहाँ-जहाँ नजर पड़े हम अपने-आपसे खेल रहे है, अपने -आपसे बोल रहे है, अपने- आपको देख रहे है , हम अपने-आपमें मस्त है ।

जो अपने-आपमें मस्त यह रह सकता है वह जहाँ जाय, जो कुछ करे उसके लिए आनंद है । जो अपने-आपमें मस्त नहीं है, जिसे अपने भीतर सिख मिला वह जहाँ जायेगा सुखरूप हो जायेगा, वह जो कुछ कहेगा अमृतरूप हो जायेगा, वह जो कुछ देखेगा पुण्यरूप हो जायेगा, वह जो कुछ क्रिया करेगा भक्ति बन जायेगी । जिसने भीतर की होली खेल ली, जिसके भीतर प्रकाश हो गया, भीतर का प्रेम आ गया, जिसने आध्यात्मिक होली खेल ली उसको जो रंग चढ़ता है वह अबाधित रंग होता है । संसारी होली का रंग हमे नहीं चढ़ता, हमारे कपड़ों को चदता है । वह टिकता भी नहीं, कपड़ों पर टिका तो वे तो फट जाते है लेकिन आपके ऊपर अगर फकीरी होली का रंग चढ़ जाय ….काश ! ऐसा कोई सौभाग्यशाली दिन आ जाय कि तुम्हारे ऊपर आत्मानुभवी महापुरुषों  की होली का रंग लग जाय, फिर ३३ करोड़ देवता धोबी का काम शुरू करें और तुम्हारा रंग उतारने की कोशिश करें तो भी तुम्हारा रंग न उतारने बल्कि तुम्हारा रंग उन पर चढ़ जायेगा ।

फकीरी होली का अर्थ यह है कि तुम पर एक बार ऐसा रंग चढ़ जाय जो फिर छुटे नहीं, तुम एक ऐसी स्थिति में पहुँच जाओ जहाँ पहुँचने के बाद तुम्हारा गिरना न हो, जिसे पाने के बाद फिर खोना न हो । संसारी होली के रंग पाने के बाद खो जाते है ।

रोटी को धागा बाँधते है और उसे आग में सेंकते है तप रोटी जल जाती है लेकिन धागा ज्यों-का-त्यों रहता है । तुम्हारा शरीर भी रोटी है । माता -पिता ने रोटी खायी, उसीसे रज-वीर्य बना और तुम्हारा जन्म हुआ । तुमने रोटी खायी और बड़े हुए इसलिए तुम जिस शरीर को आज तक ‘ मैं ‘ मान रहें हो उसको रोटी जैसा ही समझो । होली पैगाम देती है कि शरीररूपी यह रोटी तो जल जायेगी, सद जायेगी लेकिन उसके इर्द-गिर्द, अंदर-बाहर जो सूत्ररूप आत्मा है वह न जलेगा, न टूटेगा । ऐसा जो आत्मरस का धागा है, ब्रम्हानंद का धागा है उसे ज्यों-का-त्यों तुम समझ लेना ।

जो भी त्यौहार है, महापुरुषों ने तुम्हारे लिए वरदानरूप में गधे है । उन त्यौहारों का तुम्हे अधिक – से – अधिक लाभ मिले और तुम विराट आत्मा के साथ एक हो जाओं, तुम असली पिता के द्वार तक पहुँच जाओ यही त्यौहारों का लक्ष्यार्थ होता है । तुम्हारा असली पिता इतना सरल है, इतना सरल है कि सरलता भी उसके आगे लज्जित हो जाती है । तुम्हारा असली पिता इतना प्रेमोन्मत है, इतना आनंदस्वरूप है, इतना प्रेममूर्ति है कि प्रेम भी वहाँ कुछ भीख माँगने पहुँच जाता है । तुम्हारा असली पिता इतना प्रेमस्वरूप है और वह तुम्हारे साथ है ।

होली आदि त्यौहार तुम्हे सरल बनने का एक मौका देते है । सेठ सेठ बनकर होली खेले तो न खेल पायेगा । अमलदार अमलदार बना रहे, बेटा बेटा बना रहे, बाप बाप बना रहे तो वह रंग नहीं आयेगा । सभी अपना अहं भूल जाते है तो नैसर्गिक जीवन जाने का कुछ ढंग आ जाता है । उस वक्त भीतर का आनंद आता है । ऐसा नैसर्गिक जीवन हमारे व्यवहार में हो तो हमारा व्यवहार आनंदमय हो जायेगा ।

इस उत्सव ने विकृत रूप ले लिया, रासायनिक रंगो से समाज तन और मन को दूषित करने लगा । समाजरूपी देवता स्वस्थ रहे, प्रसन्न रहे, प्रभु के रंग में रँगे इसीलिए मैंने आश्रम में प्राचीन ढंग से होली का उत्सव मनाना शुरू किया । रासायनिक रंगो से होली खेलना भुत नुकसानदायक है और पलाश के फूलों के रंग से होली खेलना हितकारी है । पलाश के फूलों से बना रंग हमारे शरीर की सप्तधातुओं को विकृत नहीं होने देता, उनमे संतुलन बनाये रखता है । यहाँ उसमें गंगाजल तथा तीर्थो का जल भी मिलाया जाता है ।

होली हुई तब जानिये, पिचकारी गुरुज्ञान की लगे ।
सब रंग कच्चे जायें उड़, एक रंग पक्के में रँगे ॥ 

अन्य कच्चे रंग उड़ जाए, वास्तव में एक पक्के आत्मरंग में हम रँगे, यही होलिकात्सव का उद्देश्य है । इसलिए स्थूल होली तो ठीक है लेकिन मानसिक होली भी मनानी चाहिए । भावना करनी चाहिए की मैंने साईं को अपना रंग लगा दिया और साईं ने हमको साईं का रंग लगाया – जिसके पास जो हो वह दे ।

होली की रात्रि चार पुण्यप्रद महारात्रियों में आती है । होली की रात्रि का जागरण और जप भुत ही फलदायी होता है । एक जप हजार गुना फलदायी है । इसीलिए इस रात्रि में जागरण और जप कर सभी पुण्यलाभ लें ।

(ऋषिप्रसाद – मार्च – २००८ अंक से )

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