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कर्म में कुशलता आ जाये तो जीते-जी मुक्ति ! – पूज्य बापू जी


बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।

तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।।

भगवद्गीता के दूसरे अध्याय के 50वें श्लोक में भगवान कहते हैं- समत्व-बुद्धियुक्त पुरुष यहाँ, इस जीवन में पुण्य और पाप – इन दोनों को त्याग देता है। इसलिए तुम योग से युक्त हो जाओ। कर्म में कुशलता योग है और कर्मों की कुशलता का मतलब यह है कि कर्म के बंधन से हम छूट जायें। कर्म किये बिना तो नहीं रह सकते, अशुभ कर्मों को जीतने के लिए शुभ कम करें लेकिन शुभ कर्म का कर्तृत्व भाव न आये, नहीं तो व्यक्ति शुभ कर्म का फल भोगेगा, उसमें आसक्त हुआ तो भी दुःखी रहेगा और शुभ कर्म का फल भोगकर गिरा तब भी दुःखी रहेगा और शुभ कर्म का फल भोगकर गिरा तब भी दुःखी रहेगा। अशुभ कर्म का फल तो दुःख देता ही है किंतु शुभ कर्म का जो सुख है, वह भी तो देर-सवेर दुःख देता है। तो न सुख की आकांक्षा न दुःख का भय अपितु सुख और दुःख – दोनों जिस आत्मसत्ता से दिखते हैं उस सत्तास्वरूप में टिकने का भाव हो जाय और टिकानेवाले कोई संत दादू दयाल जी जैसे, साँईं लीलाशाह जी जैसे ब्रह्मवेत्ता संत मिल जायें तो बेड़ा पार हो जाता है।

पशु की नाईं कर्म करते-करते मर गये तो कोई विशेषता नहीं है। आलसी होकर पड़े रहे तो भी कोई सार नहीं है। कर्म करते हुए भी कर्मों के बंधन से छूट के मुक्त हो गये, अपने आत्मा में आ गये, अपने आत्मा-परमात्मा के प्रेमस्वरूप का, आनंदस्वरूप का अनुभव हो गया तो जीते जी मुक्ति ! आत्मा के अनुभव में आ गये तो तुमने मनुष्य-जन्म का फायदा उठाया।

प्राप्त अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों का कोई विशेष मूल्य नहीं होता है। अनुकूल परिस्थितियाँ सुख देकर नष्ट हो जाती हैं, प्रतिकूल परिस्थितियाँ दुःख दे के नष्ट हो जाती हैं, दोनों नष्ट हो जाने वाली चीजें हैं। नष्ट होने वाली चीजों में अगर व्यक्ति दुःखी-सुखी होता ही रहा तो उसने कोई कीमती जीवन नहीं बिताया। तो अनुकूलता आयेगी, प्रतिकूलता आयेगी, सुख आयेगा, दुःख आयेगा – ये आ-आ के चले जायेंगे लेकिन इनमें जो सम रहता है उसने फायदा उठाया। यही उसका नफा है।

तो योगः कर्मसु कौशलम्। किसी भी कार्य से अपना और दूसरों का अहित न हो। कर्म ऐसे करो कि कर्म करते-करते कर्तापने का बाध हो जाय, जिससे कर्म करने की सत्ता आती है उस असली ‘मैं’ – आत्मा, द्रष्टा, साक्षी चैतन्य का साक्षात्कार हो जाय। सत्संग की सूझ से समत्व आ जाय। समत्वं योग उच्यते।

सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः। (श्री कृष्ण, गीताः 6.32)

सुखद-दुःखद घटनाओं में अपने सम, साक्षी स्वभाव में जगना समत्व योग है, बाहर की आँखों से नहीं, वेदांतिक समझ से। इस समत्व योग में सजग पुरुष धन्य है ! तस्य तुलना केन जायते। (अष्टावक्र गीताः 18,81) उस धीर पुरुष की तुलना किससे की जाय ?! अविकम्प योग को पाये हुए पुरुष के लिए गुरुवाणी में कहा गया हैः

तैसा अंम्रितु (अमृत) तैसी विखु (विष) खाटी।

तैसा मानु तैसा अपमानु।

हरखु सोगु (हर्ष-शोक) जा कै नहीं बैरी मीत समानि।

कहु नानक सुनि रे मन मुकति ताहि तै जानि।।

उस मुक्तात्मा. जितात्मा, महानात्मा ने शिवजी के अनुभव को अपना अनुभव बना लिया।

उमा कहउँ मैं अनुभव अपना।

सत हरि भजनु जगत सब सपना।।

जो हर समय, हर देश (स्थान), हर वस्तु-परिस्थिति में अपना-आपा है, उस आत्म-हरि की समझ ही हरि भजन है। उसी के रस में विश्रांति…. किं लक्षणं भजनम्। रसनं लक्षणं भजनम्।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2018, पृष्ठ संख्या 11, 22 अंक 304

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सत्यतम वास्तविकता


एक  छोटा बच्चा था, जिसको कभी दर्पण नहीं दिखाया गया था। उसने आईने में अपने ही डील-डौल का एक बच्चा देखा। वह उसके पास गया और उसने शीशे से अपनी नाक लगायी तो दर्पण वाले बच्चे ने भी वैसा ही किया। बच्चे ने जैसे ही अपने हाथ शीशे पर रखे, शीशा गिरा और उसके दो टुकड़े हो गये। अब बच्चे ने देखा कि शीशे में एक के बदले दो बच्चे हैं !

माँ आयी, गुस्से से पूछाः “तूने यह क्या किया !”

बच्चा खुशी से उछलाः “अऐ ! मैंने दो बना दिये….।”

मूल में एक बच्चा था, जो दर्पण वाले एक बच्चे से बातचीत कर रहा था। अब इस बच्चे ने दो बच्चे बना दिये। इन खंडों को तोड़कर अब 4 खंड बनाइये तो आपको 4 बच्चे मिलेंगे। 8 खंड बनाने से छोटा बच्चा 8 बच्चों की सृष्टि कर सकता था। इस प्रकार से मनमानी संख्या में बच्चों की सृष्टि की जा सकती है। किंतु क्या वह असली चैतन्य आत्मदेव, क्या वह असली बच्चा शीशों के टूटने से बढ़ता या घटता है ? वह न बढ़ता है न घटता है। कमी और ज्यादती केवल शीशों में होती है। अनंत कैसे घट-बढ़ सकता है ? अनंतता यदि बढ़ती-घटती है तो वह अनंतता नहीं है। निर्विकार अनंत शक्ति का प्रतिबिम्ब अनंत रूपों में विवर्तित (वस्तु में अपने मूल् स्वभाव को छोड़े बिना ही अन्य वस्तु की प्रतीति होना यह ‘विवर्त’ है। सीपी में चाँदी दिखना, रस्सी में साँप दिखना विवर्त है।) होता रहता है, करोड़ों शरीरों में वह अनंतता प्रकट होती रहती है। वह वही रहती है। वह केवल एक है, दो नहीं, बहु नहीं।

‘ओ ! महाआश्चर्य ! कैसा आनंद है ! इस शरीर के दो भाग कर दो, काट डालो पर वास्तविक सच्चा ‘मैं’ नहीं मरता है। अनुभव करो कि तुम भीतरी अनंतता हो। जिस क्षण कोई मनुष्य अपनी वास्तविक अनंतता, व्यापकता जान लेता है, जिस क्षण मनुष्य को अपनी वास्तविकता का ज्ञान हो जाता है, उसी क्षण वह स्वाधीन हो जाता है, सम्पूर्ण भय, कठिनता, यातना, कष्ट और व्यथा से परे हो जाता है। यह जानो।

ओ ! यह कैसा आश्चर्यों का आश्चर्य है कि वह एक ही अनंत शक्ति है, जो अपने को सब्र शरीरों में, सब प्रकट रूपों में प्रदर्शित करती है। वह मैं हूँ। मैं अनंत, एक, जो अपने को बड़े-से-बड़े वक्ताओं, महापुरुषों और घोर अभागे प्राणियों के शरीरों में प्रकट कर रहा हूँ। ओ ! कैसा आनंद है ! मैं अनंत, एक हूँ…. न कि यह शरीर !’ इसका अनुभव करो और तुम स्वाधीन हो। ये केवल शब्द नहीं है। यह सच्ची से सच्ची वास्तविकता है, सत्यतम वास्तविकता है। प्रकृत शक्ति को, जो तुम हो, प्राप्त करो। तुम अनंत हुए कि सब आशंकाओं और कठिनताओं से तुरंत दूर हटे।

शरीर, मन विभिन्न शीशों के समान हैं। कोई सफेद, कोई अनुकूल और कोई प्रतिकूल शीशे के समान है। शरीर विभिन्न हैं, अज्ञानवश तुम अपने को शरीर कहते हो। तुम अनंतशक्ति, परमात्मा, निरंतर, निर्विकार, निर्विकल्प, एक हो। तुम ऐसे हो यह जानते ही तुम अपने को समस्त संसार, अखिल ब्रह्मांड में बसते पाते हो।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2018, पृष्ठ संख्या 7 अंक 304

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