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महापुरुषों की लोक-मंगलकारी भावनाएँ


लोभी धन का चिंतन करता है, मोह परिवार का, कामी कामिनी का, भक्त भगवान का का चिंतन करता है लेकिन ज्ञानवान महापुरुष ऐसे परम पद को पाये हुए होते हैं क वे परमात्मा का भी चिंतन नहीं करते क्योंकि परमात्मस्वरूप के ज्ञान से वे परमात्मामय हो जाते हैं। उनके लिए परमात्मा निज्स्वरूप से भिन्न नहीं होता। हाँ, वे यदि चिंतन करते हैं तो इस बात का कि सबका मंगल सबका भला कैसे हो।

एक बार गुरु नानक देव जी ने संत कबीर के पास परीक्षार्थ चार आने भेजे और कहलवाया कि “इससे कोई ऐसी वस्तु लें, जिसे खाकर सौ व्यक्ति तृप्त हो जायें।” कबीर जी ने उन पैसों की हींग मंगा ली और एक सेठ के यहाँ हुए भँडारे में दाल में उसका बघार लगवा दिया। वह दाल जिसने भी खायी उसने प्रशंसा की, सब तृप्त हुए। यह समाचार सुन नानक जी बहुत प्रसन्न हुए।

बाद में संत कबीर जी ने गुरु नानक जी के पास एक रूपया भेजकर कहलवाया कि “इस एक रूपये का ऐसा उपयोग कीजिये कि सभी को स्वास्थ्य-लाभ मिले।”

नानकजी ने विचार किया और कुछ हवनीय औषधियाँ मँगाकर भगवन्नाम के साथ हवन करने लगे। हवन के स्वास्थ्यप्रद धुएँ से पूरा वातावरण पवित्र, सुगंधित हो गया, जिससे केवल मनुष्य ही नहीं बल्कि समस्त प्राणियों को लाभ मिला। यह बात सुनकर कबीर जी को अति प्रसन्नता हुई।

कैसे सुहृद होते हैं संत कि जिनका आपसी विनोद भी लोक-मांगल्यकारी एवं लोगों को सूझबूझ देने वाला होता है।

बापू जी की युक्ति, हुई भयंकर महामारियों से मुक्ति

वर्ष 2006 में सूरत में भीषण बाढ़ आयी थी, जिससे वहाँ कई गम्भीर बीमारयाँ फैल रही थीं। तब करूणासागर पूज्य बापू जी ने गूगल, देशी घी आदि हवनीय औषधियो के पैकेट बनवाये तथा अपने साधक-भक्तों को घर-घर जाकर धूप करने को कहा। साथ ही रोगाणुओं से रक्षा का मंत्र व भगवन्नाम-उच्चारण की विधि बतायी। विशाल साधक-समुदाय ने वैसा ही किया, जिससे सूरत में महामारियाँ व्यापक रूप नहीं ले पायीं।

वहाँ कार्यरत नेचुरोपैथी के चिकित्सकों ने जब यह देखा तो कहा कि “शहर को महामारियों से बचाना असम्भव था लेकिन संत आशाराम जी बापू ने यह छोटा सा परंतु बहुत ही कारगर उपाय दिया, जिससे शहरवासियों की भयंकर महामारियों से सहज में ही सुरक्षा हो गयी।”

पूज्य बापूजी ने अपने सत्संगों में वायुशुद्धि हेतु सुंदर युक्ति बताते हैं- “आप अपने घरों में देशी गाय के गोबर के कंडे पर अगर एक चम्मच मतलब 8-10 मि.ली. घी डालकर धूप करते हैं तो एक टन शक्तिशाली वायु बनती है। इससे मनुष्य तो क्या कीट-पतंग और पशु-पक्षियों को भी फायदा होता है। ऐसा शक्तिशाली भोजन दुनिया की किसी चीज से नहीं बनता। वायु जितनी बलवान होगी, उतना बुद्धि, मन, स्वास्थ्य बलवान होंगे।” (गौ-गोबल व विभिन्न जड़ी-बूटियों से बनी ‘गौ-चंदन’ धूपबत्ती पर घी अथवा तिल के तेल की बूँदें डालकर भी ऊर्जावान प्राणवायु बनायी जा सकती है।)

पूज्य बापू जी की ऐसी अनेकानेक युक्तियों का लाभ उठाकर जनसमाज गम्भीर बीमारियों से बचकर स्वास्थ्य लाभ पा रहा है।

अरबों रूपये लगा के भी जो समाजसहित के कार्य नहीं किये जा सकते, वे कार्य ज्ञानवान संतों की प्रेरणा से सहज में ही हो जाते हैं। संतों महापुरुषों की प्रत्येक चेष्टा लोक-मांगल्य के लिये होती है। धन्य हैं समाज के वे सुज्ञ जन, जो ऐसे महापुरुष की लोकहितकारी सरल युक्तियों का, जीवनोद्धारक सत्संग का लाभ लेते व औरों को दिलाते हैं!

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2018, पृष्ठ संख्या 6,9 अंक 311

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विश्वात्मा के साथ एकत्व कराने वाला अत्यंत उपयोगी साधन – पूज्य बापू जी


सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में हमारे शास्त्र कहते हैं कि जब भगवान नारायण के नाभिकमल से ब्रह्माजी का प्राकट्य हुआ तब ब्रह्मा जी दिङ्मूढ़ (कर्तव्य का निर्णय करने में असमर्थ, जब कोई मार्ग नहीं दिखाई दे) की स्थिति में पड़ गये। वे समझ नहीं पा रहे थे कि ‘मेरा प्रादुर्भाव (प्राकट्य) क्यों हुआ ? मुझे क्या करना है ?’ तभी आकाशवाणी हुईः ‘तप कर… तप कर….’

तत्पश्चात् ब्रह्माजी समाधि में स्थित हुए। उससे सामर्थ्य प्राप्त करके उन्होंने अपने संकल्प से इस सृष्टि की रचना की। अर्थात् हमारी सृष्टि की उत्पत्ति ही तप से हुई है। इसका मूल स्थान तप है।

वास्तविक कल्याण में सबसे बड़ी बाधा और उसका निर्मूलन

हमारे सत्शास्त्रों में अनेक प्रकार के तप बताये गये हैं। उनमें से एक महत्त्वपूर्ण तप है निष्काम कर्म, सेवा, परोपकार। इसी तप को भगवान ने गीता में ‘कर्मयोग’ कहा तथा ज्ञान, भक्ति और योग की भाँति इस साधना को भी भगवत्प्राप्ति, मोक्षप्राप्ति में समर्थ बताया।

व्यक्ति अपने तथा अपने परिवार के प्रति तो उदार रहता है परंतु दूसरों की उपेक्षा करता है। वह स्वयं को दूसरों से भिन्न मानता है। इसी का नाम अज्ञान, माया है। जन्म-मरण का, शोक-कष्ट का, उत्पीड़न व भ्रष्टाचार आदि पापों का यही मूल कारण है। भेदभाव और द्वेष ही मृत्यु है तथा अभेद भाव, अनेकता में एकता, सबमें एक को देखना, सबकी उन्नति चाहना ही जीवन है।

समस्त बुराइयों का मूल है स्वार्थ और स्वार्थ अज्ञान से  पैदा होता है। स्वार्थी मनुष्य जीवन की वास्तविक उन्नति एवं ईश्वरीय शांति से बहुत दूर होता है। न तो उसमें श्रेष्ठ समझ होती है और न ही उत्तम चरित्र। वह धन और प्रतिष्ठा पाने की ही योजनाएँ बनाया करता है।

मनुष्य के वास्तविक कल्याण में स्वार्थ बहुत बड़ी बाधा है। इस बाधा को निःस्वार्थ सेवा एवं सत्संग के द्वारा निर्मूल किया जाता है। स्वार्थ में वह दुर्गुण है कि वह मन को संकीर्ण तथा हृदय को संकुचित बना देता है। जब तक हृदय में ‘मैं’ और ‘मेरे’ की लघु ग्रंथि होती है तब तक सर्वव्यापक सत्ता की असीम सुख-शांति नहीं मिलती और हम अदभुत, पवित्र प्रेरणा प्राप्त नहीं कर पाते। इन्हें पाने के लिए हृदय का व्यापक होना आवश्यक है। इसमें निःस्वार्थ सेवा एक अत्यंत उपयोगी साधन है।

परम लक्ष्यप्राप्ति हेतु पहली सीढ़ी

निष्काम कर्म जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त करने की पहली सीढ़ी है। इसके अभ्यास से चित्त की शुद्धि होती है तथा भेदभाव मिटता है। सबमें ईश्वर की भावना दृढ़ होते ही ‘अहं’ की लघु ग्रंथि टूट जाती है और सर्वत्र व्याप्त ईश्वरीय सत्ता से जीव का एकत्व हो जाता है। भगवद्भाव से सबकी सेवा करना यह एक बहुत बड़ा तप है।

ईशावास्योपनिषद् में आता हैः

ईशावास्मिदँ सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।

तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद् धनम्।।

अखिल ब्रह्मांड में जो कुछ  भी जड़-चेतनरूप जगत है वह समस्त ईश्वर से व्याप्त है। उस ईश्वर को साथ रखते हुए (सदा-सर्वदा ईश्वर का स्मरण करते हुए। इसे त्यागपूर्वक भोगो (अर्थात् त्यागभाव से केवल कर्तव्यपालन के लिए ही विषयों का यथाविधि उपयोग करो)। किसी भी धन अथवा भोग्य पदार्थ में आसक्त मत होओ क्योंकि यह किसका है ? अर्थात् किसी का भी नहीं।

यहाँ पर ‘त्याग’ पहले है और ‘भोग’ बाद में। यदि व्यक्ति अपने परिवार में ही आसक्त रहे तो विश्वप्रेम विकसित नहीं कर सकेगा, विश्वभ्रातृत्व नहीं पनपा सकेगा। सभी के बच्चे अपने बच्चों के समान नहीं लगेंगे। व्यक्ति का प्रेम, जो व्यापक ईश्वर-सत्ता को अपने हृदय में प्रकट कर सकता है, वह प्रेम नश्वर परिवार के मोह में ही फँसकर रह जायेगा।

वे तो धरती पर साक्षात् भगवान हैं !

परमार्थ को साधने के लिए, कलह, अशांति तथा सामाजिक दोषों को निर्मूल करने के लिए विश्वप्रेम को विकसित करना होगा। संकुचितता को छोड़कर हृदय को फैलाना होगा। सुषुप्त शक्तियों को प्रकट करने का यही सबसे सरल उपाय है।

जिनका प्रेम विश्वव्यापी हो गया है उनके लिए सभी समान हैं। समस्त ब्रह्मांड उनका घर होता है। उनके पास जो कुछ है, सबके साथ बाँटकर वे उसका उपयोग करते हैं। दूसरों के हित के लिए अपना हित त्याग देते हैं। कितना भव्य व्यक्तित्व है उन महामानव का ! वे तो धरती पर साक्षात् भगवान हैं !

सरिताएँ सबको ताजा जल दे रही हैं। वृक्ष छाया, फल तथा प्राणवायु दे रहे हैं। सूर्य प्रकाश, ऊर्जा एवं जीवनीशक्ति प्रदान करता है। पृथ्वी सभी को शरण तथा धन-धान्य देती है। पुष्प सुगन्ध देते हैं। गायें पौष्टिक दूध देती हैं। प्रकृति के मूल में त्याग की भावना निहित है।

निःस्वार्थ सेवा के द्वारा ही अद्वैत की भावना पैदा होती है। दुःखियों के प्रति शाब्दिक सहानुभूति दिखाने वालों से तो दुनिया भरी पड़ी है परंतु जो दुःखी को अपने हिस्से में से दे दें ऐसे कोमल हृदय लोग विरले ही होते हैं।

….इसी से मनुष्य जन्म सार्थक कर सकते हैं

निःस्वार्थ सेवा चित्त के दोषों को दूर करती है, विश्वचैतन्य के साथ एकरूपता की ओर ले जाती है। जिसका चित्त शुद्ध नहीं है, वह भले ही शास्त्रों में पारंगत हो, वेदांत का विद्वान हो, उसे वेदांतिक शांति नहीं मिल सकती।

सेवा का हेतु क्या है ? चित्त की शुद्धि… अहंकार, द्वेष, ईर्ष्या, घृणा आदि कुभावों की निवृत्ति… भेदभाव की समाप्ति। इससे जीवन का दृष्टिकोण एवं कर्मक्षेत्र विशाल होगा, हृदय उदार होगा, सुषुप्त शक्तियाँ जागृत होंगी, विश्वात्मा के प्रति एकता के आनंद की झलकें मिलने लगेंगीं। ‘सबमें एक और एक में सब…’ की अनुभूति होगी। इसी भावना के विकास से राष्ट्रों में एकता आ सकती है, समाजों को जोड़ा जा सकता है, भ्रष्टाचार की विशाल दीवार को गिराया जा सकता है। हृदय की विशालता द्वारा वैश्विक एकता को स्थापित किया जा सकता है तथा अखूट आनंद के असीम राज्य में प्रवेश पाकर मनुष्य-जन्म सार्थक किया जा सकता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2018, पृष्ठ संख्या 4-5 अंक 311

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शाकों में श्रेष्ठ बथुआ


शाकों में बथुआ श्रेष्ठ है। इसमें पौष्टिक तत्त्वों के साथ विविध औषधिय गुणधर्म भी पाये जाते हैं। यह उत्तम पथ्यकर है।

आयुर्वेद के अनुसार बथुआ त्रिदोषशामक, रूचिकारक, स्वादिष्ट एवं भूखवर्धक तथा पचने पचाने में सहायक, बल वीर्य वर्धक, पेट साफ लाने वाला एवं पित्तजन्य विकारों को नष्ट करने वाला है।

आधुनिक अनुसंधानों के अनुसार बथुए में विटामिन ‘ए’, ‘बी’, ‘सी’, ‘के’, व कैल्शियम, मैग्नेशियम, पोटैशियम, फॉस्फोरस, सोडियम, लौह, मैंगनीज आदि खनिज तत्त्व प्रचुरता से पाये जाते हैं।

बथुए के नियमित सेवन से रक्त मांसादि शरीर की समस्त धातुओं का पोषण होता है तथा नेत्रज्योति बढ़ती है। खून की कमी, कृमि, रक्तपित्त, बवासीर, उच्च रक्तचाप, यकृत के विकारों में इसका सेवन लाभदायी है। पित्त प्रकृतिवालों के लिए यह विशेष रूप से लाभदायी है। पित्त के कारण सिरदर्द, अम्लपित्त, चर्मरोग, सर्वशरीरगत जलन आदि में यह लाभदायी है। पेटदर्द तथा कब्ज के कारण उत्पन्न वायु-विकार (गैस) में इसका सेवन हितकारी है। पीलिया में बाथु का साग उत्तम पथ्यकर है।

तिल्ली के विकार दूर करने में बथुआ अद्वितिय है। यह आमाशय को ताकत देता है। कब्ज की तकलीफ होने पर नित्य कुछ दिनों तक इसका साग खाना चाहिए।

मंदाग्नि, कब्ज, आँतों की कमजोरी, अफरा आदि पेट की समस्याओं में लहसुन का छौंक लगाकर बथुए का रसदार साग खाने से अथवा काली मिर्च, जीरा व सेंधा नमक मिलाकर इसका सूप पीने से पेट साफ होता है, भूख खुल के लगती है, आँतों को शक्ति मिलती है।

बथुए का साग कम से कम मसाला व बिना नमक मिलाये ही खाया जाय तो ज्यादा फायदा करता है। आवश्यक हो तो थोड़ा सेंधा नमक मिला सकते हैं।

बथुए के औषधिय प्रयोग

1.याद्दाश्त की कमीः बथुए के चौथाई कटोरी रस में 1 चम्मच शहद मिलाकर रात को सोने से पूर्व पियें। 15 दिन तक नियमित प्रयोग करने से लाभ होता है।

2.बवासीरः इसमें बथुए का साग व छाछ का सेवन लाभदायी है।

सावधानीः बथुए में क्षारों की मात्रा अधिक होने के कारण पथरी के रोग में इसका सेवन नहीं करना चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2018, पृष्ठ संख्या 31 अंक 311

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