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खरे निशाने चोट… – पूज्य बापू जी


एक बार मेरे पास कबीरपंथी एक जवान साधु आये । उन्होंने पूछाः ″महाराज ! आत्मा परमात्मा हृदय में तो है लेकिन कौन सी जगह है ? कहाँ चोट करनी है ?″

कोई ऐसी जगह है क्या जहाँ आप किसी गोली या वस्तु से चोट करोगे ? यह चोट करने की चीज नहीं है । केवल अपने को शरीर मानने की गलती निकाल कर आप जो वास्तव में हैं, जैसा वेदान्त बताता है, आत्मानुभवी संत बताते हैं वैसा चिंतन करना है, चोट नहीं करना है पिस्तौल या तीर आदि से ।

सुमिरन ऐसा कीजिये, खरे निशाने चोट ।

मन ईश्वर में लीन हो, हले न जिह्वा होठ ।।

जैसे ईश्वर की ओर पुस्तक है… उसमें शरीर की पोल खोलते-खोलते शेष बचे वास्तव में हम क्या हैं वह बात बतायी गयी है । इसमें से ज्ञान ले लो । अथवा तो ‘श्री नारायण स्तुति’ है… उसमें से भगवान के स्वरूप का ज्ञान ले लिया… थोड़ा पढ़ा फिर उसी में शांत होते गये । इसी का नाम है ‘खऱे निशाने चोट’ । यह कोई बाहर की चोट नहीं है – बाहर कोई निशाना नहीं साधना है, बस परमात्मा के स्वरूप का ज्ञान जो शास्त्रों में वर्णित है उसको और जिनको अनुभव हुआ है परमात्मा का उनके उस अनुभव-ज्ञान को पढ़कर, सुन के उसी में शांत होते जाओ और ‘मैं शांत हो रहा हूँ’ यह भी भूल जाओ तो ब्रह्माकार वृत्ति पैदा होती है । ब्रह्म व्यापक है, चैतन्य है, आनंदस्वरूप है, ज्ञानस्वरूप है । तो अपने जीवत्व का जो अणु है वह बहुत सूक्ष्म है । वह जीवत्व अणु वास्तव में ब्रह्म ही है । जैसे बूँद से भी छोटी बूँद – बहुत थोड़े पानी की कल्पना… वह पानी में ही रह रही है किंतु अपने को पानी से अलग मानती है, अगर वह बूँद टूटी तो पानी ही है । ऐसे ही जीव-अणु टूटा तो ब्रह्म ही है ।

जीव तो चेतन है यह तो मान लिया, शरीर बदलता है फिर भी यह चेतन नहीं बदलता और ज्ञानस्वरूप भी है यह भी मान लिया और भगवान भी चेतन हैं, शाश्वत हैं, अबदल हैं ज्ञानस्वरूप हैं । तो जो भगवदात्मा है वही जीव का आत्मा है लेकिन यह जीव जीने की वासना और अज्ञान के कारण तुच्छ हो रहा था और ईश्वर माया को वश करके स्थित है और वासना-विनिर्मुक्त है तो परमात्मा है । बाकी तत्त्व से दोनों एक ही हैं । हनुमान जी श्रीराम जी से कहते हैं- ″व्यवहार दृष्टि से तो मैं आपका दास हूँ, संसार की दृष्टि से मैं जीव हूँ परंतु तत्त्व दृष्टि से जो आप हैं वही मैं हूँ ।″ यह तत्त्वज्ञान है, ब्रह्मचिंतन है । राम जी उनको गले लगाते हैं ।

ब्राह्मी स्थिति प्राप्त कर, कार्य रहे न शेष ।

मोह कभी ना ठग सके, इच्छा नहीं लवलेश ।।

जो मान और यश ईश्वर के चरणों में अर्पित कर देते हैं उनका मान और यश बढ़ाने में ईश्वर जरा भी कमी नहीं रखते । – पूज्य बापू जी

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 34 अंक 347

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यदि पुण्यात्मा व उत्तम संतान चाहते हैं तो…


महान आत्माएँ धरती पर आना चाहती है लेकिन उसके लिए संयमी पति-पत्नी की आवश्यकता होती है । अतः उत्तम संतान की इच्छा वाले दम्पति गर्भाधान से पहले अधिक-से-अधिक ब्रह्मचर्य का पालन करें व गुरुमंत्र का जप करें । गर्भाधान के पहले और गर्भाधान के समय पति-पत्नी की मानसिक प्रसन्नता बहुत अच्छी होनी चाहिए । इसलिए अनुष्ठान करके उत्तम संतान हेतु सद्गुरु या इष्टदेव से प्रार्थना करें, फिर गर्भाधान करें । 22 जून 2022 तक का समय तो गर्भाधान के लिए अतिशय उत्तम है ।

गर्भाधान के लिए अनुचित काल

पूर्णिमा, अमावस्या, प्रतिपदा, अष्टमी, एकादशी, चतुर्दशी, सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण, पर्व या त्यौहार की रात्रि ( जन्माष्टमी, श्री राम नवमी, होली, दीवाली, शिवरात्रि, नवरात्रि आदि ), श्राद्ध के दिन, प्रदोषकाल ( सूर्यास्त का समय, सूर्यास्त से लेकर ढाई घंटे बाद तक का समय ), क्षयतिथि [ देखें आश्रम में सत्साहित्य केन्द्रों पर व समितियों में उपलब्ध कर्मयोग दैनंदिनी (डायरी)] एवं मासिक धर्म के प्रथम 5 दिन, माता-पिता की मृत्युतिथि, स्वयं की जन्मतिथि, संध्या के समय एवं दिन में समागम या गर्भाधान करना भयंकर हानिकारक है । दिन के गर्भाधान से उत्पन्न संतान दुराचारी और अधम होती है ।

शास्त्रवर्णित मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं करना चाहिए, नहीं तो आसुरी, कुसंस्कारी या विकलांग संतान पैदा होती है । संतान नहीं भी हुई तो दम्पति को कोई खतरनाक बीमारी हो जाती है ।

गर्भाधान के पूर्व विशेष सावधानी

अपने शरीर व घर में धनात्मक ऊर्जा आये इसका तथा पवित्रता का विशेष ध्यान रखना चाहिए । महिलाओं को मासिक धर्म में भोजन नहीं बनाना चाहिए तथा उन दिनों अपने हाथ का भोजन अपने परिवारवालों को देकर उनका ओज, बल और बुद्धि क्षीण करने की गलती कदापि नहीं करनी चाहिए ।

गर्भाधान घर के शयनकक्ष में ही हो, होटलों आदि ऐसी-वैसी जगहों पर न हो ।

ध्यान दें- उत्तम समय के अलावा के समय में भी यदि गर्भाधान हो गया हो तो गर्भपात न करायें बल्कि गर्भस्थ शिशु में आदरपूर्वक उत्तम संस्कारों का सिंचन करें । गर्भपात महापाप है, जिसका प्रायश्चित मुश्किल है ।

विशेषः उत्तम संतानप्राप्ति हेतु महिला उत्थान मंडल के ‘दिव्यु शिशु संस्कार केन्द्रों’ का भी लाभ ले सकते हैं ।

सम्पर्कः 9157389706, 9157306313

उत्तम संतानप्राप्ति में सहायक विस्तृत जानकारी हेतु पढ़ें आश्रम में सत्साहित्य सेवा केन्द्रों पर व समितियों में उपलब्ध पुस्तक ‘दिव्य शिशु संस्कार’ ।

सम्पर्कः 079-61210730

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 21 अंक 347

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किनकी शरण श्रेष्ठ है ? – पूज्य बापू जी


योगः कर्मसु कौशलम् । कर्म में कुशलता क्या है ? काजल की कोठरी में जायें और कालिमा न लगे यह कुशलता है । संसार में रहें और संसार का लेप न लगे यह कुशलता है ।

एक महात्मा थे । बीच शहर में उनका मठ था । मठ द्वारा सामाजिक उन्नति की बहुत सारी प्रवृत्तियाँ होती थीं । उन महापुरुष ने बच्चों, युवक-युवतियों, ब्रह्मचारियों, गृहस्थों आदि सभी की उन्नति के लिए, मनुष्यमात्र की उन्नति के लिए बहुत सारे सेवा के विभाग खोल रखे थे ।

एक साधक उनके पास गया, बोलाः ″बाबा जी ! मैं आपके चरणों में आया हूँ । मुझे भगवत्प्राप्ति का उपदेश दीजिये । मुझे शांति का प्रसाद मिल जाय, दुःख-सुख के थपेड़ों से छूट जाऊँ ऐसा कुछ उपाय बता दीजिये । मुझे अपना शिष्य बनाइये नाथ ! मैं आपकी शरण में आया हूँ ।″

महाराज ने कहाः ″देख बेटा ! तेरी श्रद्धा है, यौवन है, तू कुछ कर सकता है तो मेरे जैसे के पास तू मत टिक । देख, मैं तो संसार में डूबा हूँ । चाँदी की थाली में शिष्य भोजन लाते हैं वह खाता हूँ, गाड़ी-मोटरों में घूमता हूँ और बड़ी-बड़ी प्रवृत्तियाँ करता हूँ, दिन-रात उसी में लगा हूँ । दिन को तो लोक-सम्पर्क रहता है लेकिन प्रभात को ध्यान करने के बाद सोचता हूँ कि ‘आज यह-यह करना है, ऐसा-ऐसा करना है ।’ रात को भी सोच लेता हूँ कि ‘ क्या-क्या ठीक हुआ, क्या बेठीक हुआ ?’ मैं तो प्रवृत्ति में, कर्मों में डूबा हुआ हूँ बेटा ! मैं तो रागियों के बीच जी रहा हूँ और राग से भरा हुआ हूँ । जा किसी वैरागी महात्मा के पास । यहाँ से 8 कोस दूर फलाने इलाके में जायेगा तो एक शांत वातावरण में नदी-किनारे एक झोंपड़ी है, वहाँ तुझे एक अलमस्त संत मिलेंगे । उनका शिष्य हो जा, तेरा काम बन जायेगा ।″

जहाँ का पता बताया था वहाँ वह साधक पहुँचा तो देखा कि कोई झोंपड़ी है और एक अलमस्त संत चिथड़ों में पड़े हैं । कपड़े फटे-पुराने हैं, झोंपड़ा तो ऐसा-वैसा है किंतु दृष्टि में सौम्यता है, शांति है, हृदय किसी रस से रसीला हो रहा है । साधक ने महात्मा को दूर से दंडवत् प्रणाम किया और नजदीक जाकर अपने हृदय की माँग सुना दी कि ″महाराज ! मैं फलानी-फलानी इच्छा से फलाने महापुरुष के पास गया था तो उन्होंने आपका नाम बताया ।″ उन्होंने कहा कि ″मैं तो प्रवृत्ति में, कर्मों में डूबा हूँ । ये जंगल में रहने वाले महात्मा विरक्त हैं, एकांत में रहते हैं, भगवद्भजन करते हैं, तू उनके पास जा ।″

महात्मा बोलेः ″अच्छा-अच्छा, फलाने स्वामी जी ने तुमको भेजा है । भैया ! मैं विरक्त तो दिखता हूँ, कर्मों को छोड़कर एकांत में भजन करता हूँ, थोड़ा बहुत लाभ तो हुआ है मुझे परंतु उनको तो परम लाभ हुआ है । वे तो संसाररूपी कीचड़ में रहते हुए भी उससे न्यारे हैं, काजल की कोठरी में रहते हुए उनको दाग नहीं लग रहा है । मैं तो दाग से भयभीत होकर यहाँ आया हूँ, मैं तो थोड़ा सा पलायनवादी और थोड़ा-सा साधक हूँ पर वे तो पूरे सिद्ध हैं, तू उनके चरणों में जा । यह तो उनका बड़प्पन है कि मेरे को यश दिलाने के लिए उन्होंने तुमको मेरे पास भेजा है, यह उनका विनोद है । कर्म करने की कुशलता उनके पास है ।

ऊठत बैठत ओई उटाने,

कहत कबीर हम उसी ठिकाने ।

वे उठते-बैठते उसी आत्मा में रमण कर रहे हैं ।″

साधक को संसार में रहते हुए भी उससे निर्लेप रहने वाले, पूर्णता को पाये हुए उन ब्रह्मज्ञानी संतपुरुष की महिमा पता चली तो वह जंगल से शीघ्र लौटा उन संतपुरुष के पास, उनकी शरण ली और उनका अनुग्रह पाकर भगवत्प्राप्ति के पथ पर तीव्रता से लग गया ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 20, 26 अंक 347

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